Wednesday, September 24, 2008

प्रभा खेतान का जाना


प्रभा दीदी का जाना मेरे लिए इसलिए खास है कि उनके द्वारा अनूदित किताब ने मेरी जिन्दगी बदल दी थी.ये सन 1998 की बात है मुझे राजस्थान विश्व विद्यालय के इतिहास विभाग में पढ़ते हुए एक दर्शन विभाग के वरिष्ठ मित्र ने अपनी पहली मुलाकात में एक किताब पढने की सलाह दी और वो थी स्त्री उपेक्षिता ..मूल लेखिका सिमोन द बोउवा ..मूल किताब- द सेकिंड सेक्स ..पाठ्यक्रम की किताबों को तजते हुए तकरीबन तीन दिन में भारी मोटी किताब को पढ़ गया..उन दिनों पढ़ लिया करता था इतना..उसके बाद तो मेरी सोच और जिन्दगी वो यकीनन नहीं थी जो उस किताब को शुरू करने से पहले थी मानता हूँ ये सिमोन का जादू था पर जादूगरी प्रभा जी की भी कम नहीं थी..
फ़िर कुछ वक्त बाद उनका उपन्यास पीली आंधी और छिन्मस्ता पढ़ डाले फ़िर रहा नही गया और लेखिका को पत्र लिख दिया ..जवाब आया जिसकी उम्मीद नहीं की थी मैंने..लंबा पत्र मिला खुशी हुई कि उन्हें मेरा ख़त पाके खुशी हुई थी..हमवतनी का ख़त अपनी किताबों पर..लगभग मुग्ध भाव का ख़त.फ़िर ये सिलसिला ही चला ..पर एक बात जो पहले ही ख़त में लिखी .दिल को छू गयी..दरअसल ये मेरी दुविधा का निराकरण था .मैंने कहा कि संबोधन क्या दूँ .उम्र में मां समान है.. और लेखन के कारण श्रद्धानवत हूँ ही ..मेडम कहना औपचारिक लग रहा है ..नम लेकर बात करना बदतमीजी तो उन्होंने कहा कि प्रभा दीदी कह सकते हो और आखिर में 'सस्नेह प्रभा दीदी' के शब्द आज भी मेरे मन पर अंकित हैं..
फ़िर फ़ोन पर अनेक बार बात हुई उन्हें खुशी हुई कि उनके अनुवाद से प्रेरित होकर महिला अध्ध्ययाँ में पीएच डी कर रहा हूँ..वो इस बात पे भे बहुत खुश थी कि मैं दर्शन का विद्यार्थी रहा हूँ और स्त्री विमर्श में इतिहास में काम कर रहा हूँ.. जब मैंने अपने विषय से जुड़े दो प्रकाशित शोध आलेख भेजे थे तो उन्होंने उन्हें शब्दश पढ़कर जिज्ञासाएं रखी थीं..उनके दार्शनिक प्रश्नों ने मुझे चोंकाया और मार्गदर्शित किया था ..
वो बहुत उत्सुक थीं कि छप के आने दो ज़रूर पढूंगी ..वो मेरा शोध किताब के रूप में आने के लिए अभी प्रकाशक के पास प्रकाशनाधीन है काश उन्हें ये सुख दे पाता..पिछले साल जब तसलीमा नसरीन जयपुर आयीं थी तो प्रभा दीदी के पुत्र संदीप भूतोडिया आए तो उनके साथ ही तसलीमा से मिला तो प्रभा जी के बारे में संदीप और तसलीमा जी से बातें हुई थीं ..अज तक रूबरू मिलने का मोका नहीं मिला पर किसी के विचारों से मिल के लगता ही नहीं कि उनसे मिला नहीं था.. हर बार फोन पर वही अपनापन..स्नेह और एक सवाल इन दिनों क्या पढ़ रहे हो..
उनका जाना बहुत अस्वाभाविक लग रहा है ..सोचा था उनके हाथों मेरी शोध पुस्तक का लोकार्पण होता...हर बार जब भी फोन करता था तो ये ज़रूर पूछती थीं कि कब आ रही है!
अब वो पूछना नहीं होगा.. मेरे शोध की प्रथम प्रेरणा पुस्तक की अनुवादिका का अवसान मेरे लिए बहुत बड़ा झटका है..

Tuesday, September 2, 2008

अलविदा कैसे कहें आउटलुक हिन्दी को...



आउट लुक का सितम्बर अंक आ गया है...गौर करें सितम्बर अंक..नज़र कई देर ठिठकी रही सितम्बर पर..समझ गए होंगे मैं क्या कह रहा हूँ..बस इतना सा कि आउट लुक हिन्दी अब साप्ताहिक नहीं रही मासिक कर दी गयी है....आलोक मेहता जी के नयी दुनिया चले जाने के बाद इस परिवर्तन की उम्मीद नहीं थे..हालाँकि आशीष ने अपने ब्लॉग हल्ला पर ऐसा संकेत दिया था..मुझे अफवाह लगी थी ..अपने भीतर एक जलजला उठते पाया ॥


साहित्यिक पत्रिकाएं न चले ये किसी हद तक समझ में आता है॥मैंने भी एक साहित्यिक त्रैमासिकी के चार अंक निकाले हैं तो कुछ ख़बर है..किन स्थितियों का सामना करना पड़ता है..मसलन लेखक पत्रिका और सम्पादक को अभूतपूर्व और महान बतादेंगे पर एक प्रति खरीद कर पढने में तकलीफ होती है वो तो फ्री में ही मिलनी चाहिए..अंक ना आए जिसमे उनकी रचना शामिल है तो पचास बार फ़ोन करलेंगे पर अंक ना आने की मजबूरी न समझेंगे ना जान ने की चेष्टा करेंगे.. हंस कथादेश की उपस्थिति आश्चर्यजनक है ही॥अब तो परिकथा भी उन्हें टक्कर देने लगी है चाहे दोमाही है फ़िर भी..खुदा करे ये सिलसिला कायम रहे..


फ़िर साप्ताहिक की बात पर लोटें ...हिन्दीकी साप्ताहिकी चलना दूभर हो गया है क्या ..दिनमान धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान सहारा समय के बाद अब आउट लुक भी...अपनी आँखों के सामने जैसे एक पत्रिका ..आउटलुक यानी समग्र दृष्टिकोण को मरते देख रहा हूँ...


पत्रकारिता के पेशे में हूँ..और जब आउटलुक शुरू हुई थी शायद अक्टूबर २००२ की बात है ..उस वक्त से इंडिया टुडे को खरीद कर नहीं पढा ...छ साल में ये दिन आ गया ..जबकि हिन्दी बुद्धिजीवियों में चर्चा रही है मैगजीन की ..खैर बहुत बार दोहराए जाने वाले बशीर के शेर को फ़िर गायें..कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी..वरना यूँ कोई बेवफा नहीं होता...

एक सवाल ज़रूर जेहन में उठता है कि इंडिया टुडे तकरीबन १०पेजों के साथ क्षेत्रीय संस्करण निकाल पा रहे हैं !!!!

आउटलुक के अवसान की इस पूर्व संध्या पर क्या कहूं ..मन भारी है

दुआ करें कि ऐसा ना हो ..आमीन..आउटलुक फ़िर से साप्ताहिक हो जाए..