Friday, May 15, 2009

इस दौर के लिए अफ़सोस भी..शुकराना भी


चुनाव निपट गए.. कुछ नेता निपट गए और मुद्दे की बात जनता फिर निपट गयी । दुनिया भर की मंदी के बीच भारत में फैलते चुनावी कारोबार को देखकर एकबार लगा मंदी हमारे यहाँ तो है ही नहीं। यही मुगालता पाल लें, चलिए कुछ देर के लिए, पर कबूतर के बिल्ली को देखकर आँख बंद कर लेने से बिल्ली गायब थोड़े ही हो जाती है। मंदी का बुनियादी सच ये है कि कॉर्पोरेट जगत की चमक जहाँ थी वहीं मंदी है जहाँ चमक नहीं थी, वहाँ हालत यथावत हैं.. साठ सालों में जहां कुछ खास नहीं बदला ऐसी चार दिन की चमक चांदनी क्या कर लेती? छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में इन दिनों चमक है वहां कॉर्पोरेट चमक बहुत कम या ना के बराबर थी। अब वहाँ छोटे व्यवसायियों की चमक देखिये,वजह मामूली नहीं है, सरकारी नौकरी और छठे वेतन आयोग की चमक है, महानगरों में बैठकर उस चमक का अंदाजा लगाना मुश्किल है हालाँकि इन सालों में महानगर कसबे और गाँव का फर्क कुछ कम हुआ जब दूर दराज के प्रतिभाशाली युवा ऊँचे पैकेजों की चमक में महानगरों में आये हैं, पर मुठ्ठी भर ऐसे लोगों से पूरे गाँव देहात तो नहीं बदल सकते हैं।और वैसे भी इन सालों में जो जीवन बदला है, उसके यूं टर्न लेने की सभावनाएं मुझे इस मंदी से दिखती है. लोन दर लोन से..सुविधाओं के चक्रव्यूह और धन से सब कुछ खरीदने के मुगालते वाले तथाकथित पैकेज मूलक सफलता में पगलाए लोगों के लिए मंथन और जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने खोजने जानने का अद्भुत अवसर दिया है मंदी ने। न्यूनतम साधनों में जीने और मानसिक अध्यात्मिक आनंद को सर्वोतम मानने वाली भारतीय जीवन शैली को इतिहास की किताबों में सजाने का पक्का इंतजाम करने वालों मित्रों को आत्मावलोकन का भी अवसर दिया है इन मंदी के हालातों ने।देश में नई सियासी सूरतेहाल है। पर देश के निजाम से ये तय न पहले हुआ न अब होना है, ये हमें खुद चुनना है, हम खुद ही चुनते हैं अपने लिए और अपनी आनेवाली नस्लों के लिए...