Wednesday, January 27, 2010

अदब से बात अदब की




लगभग हर नियमित दर्शक-श्रोता की स्मृति में कोई ना कोई सत्र सकारात्मक रूप से अंकित ना हुआ हो, किसी न किसी लेखक से संवाद, दर्शन या पास में बैठने का अनुभव गौरवमिश्रित खुशी का वाइज नहीं बना हो, ऐसा मुझे नहीं लगता, तो क्या इसे कम बड़ी जमीनी उपलब्धि माना जाना चाहिए?


सबसे पहली बात तो यह कि मैं ना तो जयपुर साहित्य उत्सव के आयोजकों में से हूं और ना ही प्रतिभागी लेखकों में। पर पिछले पांच सालों से लगातार एक पाठक-लेखक के तौर पर दर्शक रहा हूं और पत्रकार के तौर पर अखबार, टीवी और मैगजीन के लिए कवर भी किया है। इत्तेफाक यह है कि मुझे हर बार इसके विरोध में उठती आवाजें समर्थन के तर्कों के सामने गौण लगती हैं। वजह यह है कि व्यक्तिगत रूप से मुझे यह उत्सव परंपरागत रूप से प्राप्त दयनीयता के बोध से मुक्ति देते हुए साहित्य को एक गरिमा और लोकप्रिय मुहावरे में ग्लैमर प्रदाता दिखता है।
आलोचकों की जुबान के जरिए साहित्य और साहित्यकारों को मिलती यह गरिमा और ग्लैमर की चुभन ही तो प्रकट नहीं हो रही? पिछले साल इस आयोजन के बाद डेली न्यूज - हमलोग के लिए लिखते हुए हिंदी की प्रसिद्ध कथाकार गीतांजलि श्री ने प्रतिभागी लेखक के तौर पर अपने अनुभवों को बांटते हुए जो कहा था, आज मुझे याद आ रहा है कि यह बड़े अदब से अदब की बात करना है और हिंदी वालों को इससे सीखने की जरूरत है। गीतांजलि श्री की इस बात से कोई असहमत भी हो सकता है क्या? खैर, पहली बात, इस बार के आयोजन में पिछले दो सालों की तरह मीडिया में नकारात्मक खबर बनाने का काम नहीं हुआ, उसके कारण को शब्द देने की जरूरत नहीं जान पड़ती। दूसरी खास बात यह कि लगभग हर नियमित दर्शक-श्रोता की स्मृति में कोई ना कोई सत्र सकारात्मक रूप से अंकित ना हुआ हो, किसी न किसी लेखक से संवाद, दर्शन या पास में बैठने का अनुभव गौरवमिश्रित खुशी का वाइज नहीं बना हो, ऐसा मुझे नहीं लगता, तो क्या इसे कम बड़ी जमीनी उपलब्धि माना जाना चाहिए? मैं व्यक्तिगत रूप से चार सत्रों नंदिता पुरी-ओमपुरी की नमिता भेंदे्र से बातचीत, फैज अहमद फैज की यादगार वाला सत्र और अशोक वाजपेयी के साथ यतींद्र मिश्र के सत्रों को बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं। आयोजन की गंभीरता पर सवालिया निशान लगाने वाले दोस्त, ज्ञानपीठ से सम्मानित नाटककार एवं अभिनेता गिरीश कर्नाड वाले अद्भुत व्याख्यानात्मक सत्र को भूल कर ही यह कह सकते हैं, जिसमें उनका विस्तृत अध्ययन, शोधपरक नजरिया क्या आयोजन की चकाचौंध वाली, फिल्मी ग्लैमर वाली छवि के बरक्स जोरदार जवाब नहीं था?
फैज वाला सत्र क्या ऐतिहासिक क्षण नहीं था जब उनकी बेटी सलीमा हाश्मी के सामने जावेद अख्तर फैज से अपनी अविश्वसनीय किंतु सत्य किस्म की पहली मुलाकात नोस्टेल्जिक और पटकथा लेखक के हुनर से मिलाते हुए लोगों से बांट रहे हैं कि कैसे वे मुंबई में एक मुशायरे में भाग लेने आए फैज से मिलने ठर्रा पीकर आत्मविश्वास से, बिना टिकट लोकल ट्रेन में अंधेरी से मरीन ड्राइव की यात्रा करके गए, बिना परिचय के ही रात होटल में उनके ही कमरे में गुजारी थी और सुबह-सुबह कुलसुम सायानी की प्रेस कॉन्फे्रेस के बीच इजाजत लेकर चुपके से अजनबीके रूप में ही निकल आए थे। जावेद साहब के इस संस्मरण साझा करने के बाद शबाना आजमी और पाकिस्तान से आए अली सेठी फैज साहब की नज्मों का सुंदर पाठ किया और नोबल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार पाब्लो नेेरूदा और फैज की मित्रता के अंतरंग क्षण स्क्रीन पर फिल्म के रूप मेंं दिखाए गए।
बहरहाल, यकीनन पूरा आयोजन एक मजमा था, बेहतरीन मजमा। जिसके लिए पटना से आए कवि पद्मश्री रवींद्र राजहंस ने व्यक्तिगत क्षणों में मेला ठेला कहा, यह कहते हुए कि मेले में बहुत गंभीर विमर्श की अपेक्षा नहीं की जा सकती, मैं उनसे सहमत होते हुए जोडूंगा कि मेले का कोई सत्र आपको कुछ भी छोटी सी वैचारिक उलझन, खुशी या प्रेरणा दे दे तो क्या उस मेले को खारिज किया जा सकता है?
अब मुझे पत्रकार की भूमिका में आना चाहिए, बुद्धिजीवियों की राय कानों में पड़ी कि ऐसे आयोजनों से लोकतांत्रिक संस्थाओं का पतन होता है, बात तो सही है, बात में तर्क है और दमदार भी है, तो क्या किया जाए? या तो से आयोजन सरकारी स्तर पर हों जैसा लगभग सफल किस्म का मॉडल राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी ने पुस्तक पर्व के रूप में (कतिपय स्वाभाविक आंरभिक कमियों के बावजूद) हाल ही हमारे सामने रखा। दूसरी बात यह कि जब साठ साल के गणतंत्र के जश्न में डूबे देश के लोगों के सामने कुछ लोग अपनी मेधा, मेहनत और विजन से एक सफल किस्म का लोकप्रिय (चाहे उसे गंभीरता में साधारण ही क्यो ना कह दिया जाए) आयोजन खड़ा करते हैं, तो उसे विरोध के लिए विरोध की मुद्रा में खारिज करने का काम भी होगा ही, पर होना नहीं चाहिए।
ऐसा नहीं है कि इस आयोजन में किसी तरह की निराशा नहीं हुई, कमियां नहीं दिखीं, मसलन राजस्थानी का सत्र फीका सा रहा तो पीड़ा हुई और लगा कि क्या इससे अधिक क्षेत्रीय और भाषाई भागीदारी का तर्क कमजोर नहीं होता और अपने ही लोग समयबद्ध रूप से रोचक सत्र नहीं बना पाए तो आयोजकों को क्या दोष दें? वहीं, अभिजात्यता और चकाचौंध को हम मान भी लें तो क्या पूरे आयोजन में लोकतांत्रिकता के अनूठे अवसर यादगार नहीं बनाते? याद कीजिए, गुलजार नज्में पढ़ रहे हैं, जावेद अख्तर सामने बैठ कर सुन रहे हैं, ओमपुरी को बैठने की जगह नहीं मिलती पर बिना शिकवा किए, बिना झल्लाए लगभग मध्य में खड़े सुन रहे हैं और जब माइक गड़बड़ाता है तो आवाज के लिए कहते हैं, यहां तक तो आवाज आ रही है। तो साहित्यिक आयोजन को आसमान की उंचाइयों तक ले जाने वाले इसके सूत्रधार संजोय रॉय मंच के पास नीचे जमीन पर बैठकर ही नज्म सुनें तो इसे क्या कहेंगे? एक आयोजन सिर्फ इसलिए कि वह सरकारी नहीं है, अंग्रेजी के वर्चस्व वाला है, आलोचना करें, यह भूलकर कि पूरी दुनिया और कम से कम एशिया में जयपुर की पहचान के साथ एक सार्थक सी, प्रकटतया गंभीर विषय साहित्य को जोड़ रहा है और वह भी बड़े मर्तबे के साथ, तो यह गौरवपूर्ण नहीं तो संतोषजनक जरूर है। और साहित्य से सिनेमा और संगीत जुड़ कर कोई गुनाह कर रहे हैं क्या?
इसे आप क्या कहेंगे कि वसुंधरा राजे सिंधिया प्रतिलिपि पत्रिका के दलितों पर केंद्रित ताजा अंक को खरीद रही हैं, यानी साहित्य के बहाने विविध क्षेत्रों के लोग एक साथ जुट रहे हैं और पारस्परिक संवाद के अवसर सुलभ हो रहे हैं। और शाम को भोजन के समय की अनौपचारिकताओं एवं आत्मीयताओं की अहमियत को तो शाम के गवाह लोग ही जान सकते हैं। और लगभग एक हफ्ते बाद जब मैं मैसूर में ऐसे ही एक आयोजन-पांचवें अंतरराष्ट्रीय काव्योत्सव में काव्यपाठ कर रहा होऊंगा, तो यकीन मानिए पांच साल के जयपुर साहित्य उत्सव को अपनी स्मृति और चेतना में एक निकष के रूप में रखते हुए वहां जयपुर की सी अपेक्षाएं करूंगा, तो जयपुर के इस आयोजन को लेकर हम सबकी या कम से कम मेरी शिकायतें तथा नुक्ताचीनी और भी गौण नहीं हो जाएंगी क्या?



28 जनवरी 2010 को डेली न्यूज के संपादकीय पेज पर अग्र लेख

Friday, January 22, 2010

गुनगुनी धूप में सर्द सचाइयां


जयपुर की सुहानी सुबह में देश का मशहूर और बेहतरीन अदाकार खुद पर लिखी किताब पर बात कर रहा था और साथ थी किताब की लेखक और उनकी पत्नी नंदिता पुरी, दोनों से मुखातिब नमिता भेद्रे। शुरूआत बहुत अनौपचारिक सी, ओम पुरी अपनी सीट से उठकर नंदिता के पास आकर माइक चेक करते हैं, इतने करीब से कि अपनी पत्नी के सांस महसूस कर सकें। दोनों के सांसो की मिलीजुली आवाज होटल डिग्गी हाउस के खुले लान में सांय सांय गूंजती हैं। नंदिता ने कहा कि ठीक है अब आप अपनी जगह बैठ सकते हैं, ओम अपनी जगह बैठे तो नमिता ने कहा कि ओम की इच्छा तो वहां से हटने की नहीं है पर सामने फेमिली आडियंस है।
पहला सवाल यह था कि क्या किताब अनलाइकली हीरो पर विवाद प्रचार के लिए था तो नंदिता ने कहा कि नहीं, मैं तो हैरान थी, मुझे तो धक्का लगा था, यह वो हिस्सा नहीं था जो हमने प्रकाशक के साथ मिलकर अखबारों और पत्रिकाओं के लिए चुने थे। जब यही सवाल ओम से किया गया तो उनका कहना था हां, यह था पर हमारी ओर से नहीं प्रकाशक की ओर से, उसकी भूमिका के बगैर कैसे वह हिस्सा मीडिया के पास चला गया! इस वक्त पत्नी नंदिता के चेहरे भाव देखने लायक थे। पति पत्नी एक ही बात पर अलग अलग थे। बातों बातों में जब ओम ने कहा कि जब मैं ड्रामा स्कूल में था बीस साल का था तो नंदिता चार साल की थी तो नंदिता के चेहरे भाव मुस्कुराहट में कुछ लजाने के थे और लान में आगे से पीछे तक गूजता हुआ एक कहकहा था ।
ओम ने कहा कि लोगों ने पूछा कि क्या मुझे अपने सेक्स जीवन को यूं बताना चाहिए था, मेरी नजर में जीवनी का मतलब क्योकि किसी इनसान को संपूर्णता में देखना चाहिए उसकी उपलब्धियां, कमजोरियां, खूबियां सब कुछ आना चाहिए। उनसे जब नमिता ने कहा कि आप अच्छे अदाकार है फिर सिंह इज किंग जैसी कैसी कैसी फिल्में कर रहे हैं ! तो आराम की मुद्रा में बैठे ओम ने दोनों हाथ पावों के बीच बांधे और लगभग कमर को आगे बैड करते हुए सिर झुका कर कहा कि नमिता आय एम सारी आई वर्कड इन सिंह इज किंग! फिर अपनी मुद्रा में वापिस आए और बोले अपनी आरभिक फिल्मों के पारिश्रमिक का ब्योरा दिया और बोले कि जब पेंतालीस का हुआ तो लगा कि परिवार है और बुढापा आएगा, मेरे पास कुछ नहीं है और मैं कमर्शियल फिल्मों की ओर मुडा। जैसे फिएट चलाता था तो लोग कहते थे बेहतर कार से रेट अच्छा मिलता है तो मैं कहता था यार मेरे लिए घर जरूरी है कार से पहले।
उनसे जब पूछा गया कि तो क्या आपको लगता है आपकी किस्म की फिल्में बनती नहीं रोल नहीं होते! तो बोले कि रोल भी है, फिल्मे भी हैं पर वो बच्चन साहब ले जाते हैं, दोनों के बाल ग्रे हैं, दोनो की आवाज भी अच्छी है और दोनों की अदाकार भी। मैं चाहता हूं उनके पास इतना काम आए कि वो कहें कि जाओ सात बंगला चले जाओ, तो कुछ काम मुझे मिले, उन्होंने याद किया कि अमिताभ की वजह से उन्हें अर्द्धसत्य मिली जो उनके लिए लाटरी थी। कमर्शियल करने के बाद फिर अपने मन का काम करने का जरिया उनके लिए ब्रिटिश सिनेमा बना जिसके लिए उनका मानना है कि वे आर्ट सिनेमा बनाते है, और हालीवुड वाले कमर्षियल।
जब उनकी पत्नी नंदिता पुरी ने कहा कि सिनेमा के लोग आत्म मुग्ध होते हैं तो नमिता ने पूछा कि क्यो ओम भी है! तो नंदिता ने कहा माइल्डली। नमिता ने कहा कि सिनेमा भी अब क्लोज होता जा रहा है यानी परिवार केंद्रित सा। क्या उन्हे लगता है कि कोई नया आदमी उसमं घुस कता है तो बोले कि परिवार मदद करता है पर अंततः अपनी प्रतिभा से ही स्थापित होते हैं , असफल के उदाहरण हमारे पास हैं ही, बाहर वाले ष्षाहरूख है जो हिट हैं नंबर वन हैं। और जैसे बीए करते ही दुकानदार बेटे को कहता है बैठना शुरू करदे यहां भी है।
ऐसे ही चुटीले सवाल जवाब और हसीं मजाक में अनौपचारिक बातचीत के बाद नंदिता ने किताब का अंश पढना शुरू कर दिया- ओम का जन्म अंबाला में हुआ, जो पंजाब में था अब हरियाणा में है, जन्म का दिन निश्चित नहीं है.....
गुनगुनी धूप अब कुछ तीखी होने लगी थी।

Friday, January 1, 2010

जुबानें ज्ञान की खिडकियां है ज्ञान नहीं


माफ कीजिए अंग्रेजी के वेदप्रकाश शर्मा या सुरेंद्रमोहन पाठक यानी चेतन भगत हिंदी के अखबारों में गर्व से लिख रहे हों तो जुबान के नाम पर नए दशक का व्यवहार और संसार हमारे सामने खुलकर नहीं आ जाता क्या!

गुजरते साल की आखिरी शाम ताजा धुले लिहाफ में कालिंगवुड की 'द आइडिया आफ हिस्ट्री' का पाठ करते हुए( दो सालों के संधिकाल में इतिहास पढने से बेहतर मुझे कुछ नहीं लगता) जो चीज बार बार ध्यान भंग कर रही थी, वह थी गली के तात्कालिक उत्सव पंडालों से उठती पंजाबी गीतों की आवाज। सुबह उठा तब भी हरभजन मान का गाया पंजाबी गीत कहीं बज रहा था। यह इस शहर का मिजाज मुझे मालूम नहीं होता। जब राजस्थान के एक मात्र पंजाबी इलाके से आए मुझ किशोर के लिए सुखद होते हुए भी पंद्रह साल पहले इस शहर में पंजाबी गीत लगभग वैसा ही था जैसा कोई तमिल तेलुगू गीत आज भी होता हो।
क्या यह वैश्विक भाषाई बहुलतावाद की एक झलक नहीं है। इसे जरा विस्तार देकर देखें तो जब आंध्र फिर भाषा के नाम पर उबल रहा है और दूसरी तरफ पाउलो कोएलो दुनिया की आधी से ज्यादा जुबानों में पढे जा रहे हों, दूर क्यों जाएं हिंदी के उदय प्रकाष दुनिया की दो दर्जन भाषाओं में पढे जा रहे हों और माफ कीजिए अंग्रेजी के वेदप्रकाश शर्मा या सुरेंद्रमोहन पाठक यानी चेतन भगत हिंदी के अखबारों में गर्व से लिख रहे हों तो जुबान के नाम पर नए दशक का व्यवहार और संसार हमारे सामने खुलकर नहीं आ जाता क्या! चेतन भगत की ताजा किताब टू स्टेटस कहीं टू लेंग्वेजेज होती तो! या होनी चाहिए थी!
इसका सीधा साधा मतलब यह है कि जुबान की दादागिरी का वक्त भी अब खत्म हो गया है जैसे तथाकथित रूप से पांडित्य और विद्वता की भाषाई दादागिरी का पर्याय संस्कृत और पढे लिखे होने की जुबानी पहचान अंग्रेजी रही है, अब नहीं है, प्रबंधन की पाठशालाओं में कई जुबानें सिखाई जा रही हैं यानी तय है कि केवल अंग्रेजी से काम नहीं चलेगा। यह लगभग वैसा ही होगा जब आप दक्षिण भारत में जाते हैं तो विज्ञापनों पर जुबान और चेहरे दोनों बदल जाते हैं। तो बाजार की जुबान हमारी जुबान और हमारी जुबान बाजार की। यही कारण है कि बदलती दुनिया में अंग्रेजी के बावजूद हिंदी के व्यापक फैलाव से लोग हैरत में है। किताबों और अखबारों का बाजार झूठ तो नहीं बोलता। और मैं बाजार के इस स्वरूप का नकारात्मक नहीं मानता, क्योकि इसमें अहित तो किसी का नहीं है, ना जुबानों का ना उन्हें बोलने वाले लोगों का।
जाहिर है कि ज्यादा जुबानें जानना अब बड़ी जरूरत है। मल्टीलिंग्वल कल्चर का युग प्रारंभ हो गया है, वैसे भी जैसा कभी मेरे दादाजी ने बचपन में मुझे कहा था कि बेटा, ज्ञान और कौशल का रास्ता जुबानें बनाती हैं, जुबानों की खिड़की से हम वहां पहुचते हैं, बस जुबान की यही और इतनी सी अहमियत है, यानी जुबान ज्ञान का विकल्प तो नहीं ही होती। आइए, नए साल में हम भी कोशिश करें कुछ जुबानें और जानें, कुछ खिड़कियां और खोलें ज्ञान की।