Thursday, January 20, 2011

सरहद पार सब ठीक नहीं है


पाकिस्तान में सलमान तासीर के कत्ल के बाद सेकुलरिज्म बहुत बड़े खतरे की स्थिति में पहुच गया है...


पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर सलतान तासीर दरअसल पूरे भारतीय उपमहाद्वीप का चेहरा था और उनका कत्ल इसीलिए मानीखेज है। वो इसीलिए भी मायने रखता है कि वह एक मुहीम के झंडाबरदार थे, वह मुहीम गैरइरादतन तरीके से सीधे सीधे इस्लाम के खिलाफ हो गई थी। थोड़ा खुलासा करके बताया जाए तो खेत में काम करने वाली एक गरीब अनपढ़ ईसाई महिला असिया बीबी द्वारा तथाकथित रूप से पैगंबर साहब के लिए कुछ कह दिया गया, जिया उल हक के जमाने में बने एक कानून के तहत उसे सजा-ए-मौत मिलनी थी कि तासीर ने उसका पक्ष ले लिया। फिर क्या था, जो होना था, हम आप उसकी कल्पना कर सकते हैं कि पाकिस्तान में क्या होना चाहिए यानी क्या हो सकता है?

जरा पीछे जाएं तो सलमान तासीर का परिचय यूं दे सकते हैं कि वे मशहूर शाइर फैज अहमद फैज की साली बिल्किस तासीर के बेटे हैं, उनके पिता एमडी तासीर विभाजन से पहले भारत के अमृतसर में एक कॉलेज के प्रिसिपल थे। उनकी गिनती उर्दू में प्रगतिशील आंदोलन यानी तरक्कीपसंद तहरीर के शुरूआती लोगों में सैय्यद सज्जाद जहीर साहब के साथ होती है। यही वजह रही कि सलमान तासीर की परवरिश ऐसे ही माहौल में हुई जहां उनमें कट्टरता के संस्कार तो हरगिज नहीं आ सकते थे।

उनके कत्ल के पीछे सिर्फ और सिर्फ यही वजह हो कि उन्होंने एक ईसाई औरत की तरफदारी की, ऐसा लगता नहीं हैं, इसके पीछे कहीं ना कहीं उनका भारतीय पत्रकार तवलीन सिंह से जुड़ाव, जिससे उनके एक बेटा आतिश तासीर पैदा हुआ जो आज अंग्रेजी का एक चर्चित युवा लेखक है, भी है, तो इस कत्ल के साथ चाहे अनचाहे भारत बहुत गहरे से जुड़ता है और इसे कतई नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। क्योंकि परंपरा और जड़ें साझी हैं, और इस लिहाज से वे हिंदुस्तान की साझी और सेकुलर परंपरा के प्रतीक ही तो थे। उन्हें मारनेवाले वाला मुमताज कादरी छब्बीस साल का युवा कट्टर मुस्लिम है, ऐसा ही होना चाहिए था ना हमारी कल्पना के मुताबिक। इत्तेफाक देखिए कि दोनों मुल्कों और कई तहजीबों को जोडऩे वाले लगभग इतनी ही उम्र आतिश तासीर की है। कुल मिलाकर वजह जो बनती है, वह सेकुलरिज्म ही बनती दीखती है।

खास बात यह भी है कि पाकिस्तानी मीडिया के ऑनलाइन संस्करणों पर जब मैंने नजर दौड़ाई तो पाया कि उर्दू के अखबार तासीर के पक्ष में खड़े होने से हिचकिचा रहे है और अंग्रेजी मीडिया उदारता से उदार तासीर पर लिख रहा है, कत्ल के खिलाफ उठती आवाजों की खबरें दे रहा है। इसके संकेत भी हमारे लिए साफ ही हैं। कुलमिलाकर यह कत्ल भी पाकिस्तान में सेकुलरिज्म के लिए काम करने वाले मुट्ठी भर लोगों के लिए भी संकेत के रूप में बहुत साफ है, बहुत महत्वपूर्ण बात यह भी कि बहस या चर्चा की भी कोई गुंजाइश नहीं है, और यह संकेत सबसे बुरा है। मुझे इतना सा कह लेने दीजिए कि जब किसी मुल्क में ईशनिंदा कानून में बिना किसी सुनवाई के सजाएमौत देने के खिलाफ भी सुनवाई या आवाज के लिए कत्ल की सजा अवाम तय करने लगे तो हुक्मरां और देश की तकदीर पर बहस कौन और कैसे करेगा?

प्रकारांतर से यह कत्ल बेनजीर भुट्टो वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के लिए भी मायने रखता है क्यांकि सलमान तासीर उसके सदस्य थे, और मुस्लिम जनभावनाओं और सेकुलरिज्म के बीच पार्टी फंस गई है, दोनों में से एक को चुनना जाहिर है कि पाकिस्तान जैसे मुल्क में बड़ा चुनौतीपूर्ण है, हालांकि बेनजीर के बेटे बिलावल ने सलमान के कत्ल के खिलाफ बयान दिया है, पर उनका स्वर जरा कमजोर सा है, शायद सियासत इसी का नाम है, चाहे यह सरहद के इस तरफ हो या उस तरफ। इस सियासती खेल में एक जरूरी सवाल यह भी उठ गया है कि क्या पाकिस्तान की राजनीति में अब किसी उदारवादी राजनेता की कोई गुंजाइश या जरूरत नहीं बची है?

बहरहाल, ईशनिंदा के खिलाफ बने इस कानून में सुधार का प्रस्ताव पाकिस्तानी संसद में लाया गया है, शेरी रहमान को इसका श्रेय जाता है, या कह लें कि वह अकेली मर्द सांसद साबित हुई हैं। पाकिस्तान में जगह जगह से इस सुधार प्रस्ताव के समर्थन में प्रदर्शन और सभाओं की खबरें आ रही हैं। पर यकीन मानिए, ऐसी उम्मीद बहुत कम है कि ऐसा कोई सुधार उस कानून में लागू हो जाएगा। इसी बीच पोप बेंडिक्ट सोलहवें के ईशनिंदा कानून के खिलाफ आए बयान से यह मसअला नया धार्मिक रंग ले रहा है जो सलमान तासीर की मंशा और नजरिये के भी खिलाफ जाता है। और, हम सरहद के इस तरफ जब प्याज, महंगाई, नेताओं के घोटालों और भगवा आतंकवाद को परिभाषित करने में उलझे हुए हैं, पड़ोस से उठती लपटों से बेखबर हैं जब कि ये भूल जाते हैं कि दिल्ली से जितनी दूरी मुम्बई, कोलकाता या चेन्नई क्रमश: १४०७, १४६१ और २०९५ किमी की है, उससे कहीं कम भौगोलिक दूरी दिल्ली से लाहौर, इस्लामाबाद या कराची की क्रमश: ४२७,६८२ और १०९५ किमी है, यानी दिल्ली से पाकिस्तानी शहर भारत के तीनों अन्य महानगरों की बजाय नजदीक हैं। इसके गहरे और दूरगामी अर्थ हम आप बखूबी निकाल सकते हैं।

सलमान तासीर के मौसे फैज साहब के ही एक शेर को याद करें- ''हर इक कदम अजल था, हर इक गाम जिंदगी, हम घूम फिर के कूचा-ए- कातिल से आए हैं।'' आज और अब जबकि दुनिया फैज की जन्म शताब्दी मना रही है, कितने मौजूं है ये दो मिसरे, यानी कि पाकिस्तान में लोकतंत्र का रास्ता कितनी मुश्किलों भरा है, इस कत्ल से साफ जाहिर है, और यह भी कहीं ना कहीं कि सेकुलरिज्म एक कितना बड़ा ख्वाब है एक दीवाने का? चाहे जिन्ना ने संविधान सभा में ११ अगस्त १९४७ को जिन भी शब्दों में अपनी तकरीर में सेकुलरिज्म की उम्मीद जाहिर की थी- आप आजाद है, पाकिस्तान में आप कहीं भी जाने के लिए, अपने मंदिरों में, मस्जिदों में या अपने किसी भी पूजा स्थल में। उनका बनाया वह मुल्क आज किस हाल और दौर में पहुच गया है, यह सोच कर उन्हें अल्लाह मियां के पास बैठकर भी तकलीफ हो रही होगी, बहुत संभव है वह इसमें जाने अनजाने हुआ अपना कोई गुनाह भी शामिल कर रहे हों।

सेन को फांसी दे दो




क्या हमें नहीं सोचना चाहिए कि लोकतंत्र में भ्रष्टाचार से निपटने से बड़ी चुनौती अब उसको औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी होने से बचाने की है


२४ दिसबर की शाम जब सूरज ढ़ल रहा था, गीतकार नीलेश मिश्रा फेसबुक वॉल पर जो लिख रहे थे, वह उनका अगला गीत नहीं था, वह जो था , उसका कार्यकारी अनुवाद यह हो सकता है कि *''बिनायक सेन नक्सलियों को जानते हैं, जो दातेवाड़ा में काम करने के लिए उन्हें जरूरी था, क्या उन्होंने उनके आंदोलन को भड़काया? मुझे नहीं पता पर अगर नहीं तो नक्सली लोगों को जानना और उनसे संपर्क होना आतंकवादी और देशद्रोही नहीं बना सकता। क्या इंटेलीजेंस एजेंसी के लोगों को जानने भर से कोई जासूस करार दिया जा सकता है? *''

मैं २४ दिसबर की शाम से आज तक भी नीलेश मिश्रा से असहमत होने का तर्क नहीं खड़ा कर पाया हूं। दरअसल मुझे तो लगता है कि बहुत जरूरी हो गया था बिनायक सेन को अंदर करना। कलमाडियों, राडियाओं, वीर सांघवियों और बरखा दत्तों के देश में बिनायक सेन को कैसे खुला घूमने दिया जा सकता है?

आजाद भारत का सबसे बड़ा इतिहासकार बिनायक सेन के लिए लिख रहा है ! क्यों आंद्रे बेते और हर्ष मंदर जैसे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के लोग उसके पक्ष में बोल रहे है? मेरी समझ में नहीं आ रहा है? क्यों एमनेस्टी वाले इस नॉनसेंस सेन के लिए चिल्ला रहे हैं? उनके पास और कोई काम नहीं है क्या?

मेरी पहली अनौपचारिक मुलाकात बिनायक सेन से कोई दस बरस पहले शायद जेएनयू के ब्रह्मपुत्रा छात्रावास में हुई थी, यह एक सार्वजनिक मुलाकात थी, जब वे मैस में बुलाए गए थे, जब मैं करोलबाग के एक सस्ते से होटल में अपने एक ब्रिटिश रिसर्च स्कॉलर दोस्त के साथ रुका था और राष्ट्रीय अभिलेखागार की अपनी तय दिनचर्या को तोड़कर दिल्ली की सर्दी में दो बसें बदलकर उन्हें सुनने पहंचा था, हालांकि ठीक-ठाक सी व्यक्तिगत मुलाकात पिछले दिनों जयपुर में पीयूसीएल के एक आयोजन में हुई। तब तक पिछली मुलाकात धुंधली हो गई थी, देखना भर जेहन में अटका हो तो बहुत, पर अब जो चेहरा सामने था, वक्त के निशान उस चेहरे पर कुछ इस तरह से थे कि शक्ल के नक्श बदल गए थे, कि चेहरा नया सा था। मेरा बहुत मन था कि उनके नक्सली संपर्को पर उनसे तीखे सवाल करूं कि क्यों वे मासूम मनुष्यों को मारने वाले लोगों के साथ खड़े नजर आते हैं? पर मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी मासूमियत और सहज मानवीयता ने मुझे वे क्रूर सवाल करने से रोक दिया। हालांकि बहुत से मित्र लोग सेन की इस मासूमियत के दूसरे अर्थ निकाल सकते हैं, निकालेंगे ही, और निकालना उनका लोकतांत्रिक अधिकार भी है। पर क्या यही अधिकार सेन को दिया जा सकता है, क्या दिया जाना चाहिए, शायद नहीं, यकीनन नहीं! उनसे मैंने पूछा-'' क्या योजना है? कल को किस उम्मीद से देखते है?'' तो उनका जवाब था- ''जी पाना और
बेहतर दुनिया के लिए खड़े लोगों का साथ देने की कोशिश करना।'' ये बिनायक सेन कितना वाहियात आदमी है, कितना अजीब सोचता है, भारतीय लोकतंत्र में सब खुशी से जी ही रहे हैं, तरक्की कर रहे हैं? उसको हम सबकी इन तरक्कियों से जलन हो रही है, शायद, नहीं उनके ये शब्द प्रमाण हैं, भारतीय परंपरा में प्रमाण की बड़ी महिमा है, इसलिए उसको फांसी नितांत वाजिब है।

सेन का नॉनसेंस व्यवहार उन्हें इक्कीसवीं सदी का सुकरात बना सकता है, हम क्या इजाजत दे सकते हैं? कतई नहीं दे सकते? यह ईसा से पांच सौ साल पहले का यूनान नहीं है, यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, कोई मजाक थोड़े ही है साहेब।
मेरी पुरजोर मांग है कि सेन को फांसी बहुत जरूरी है, देशहित मानवहित से बड़ा है, देश यानी सत्ता भारत के चुने हुए नेताओं की सत्ता। घोटालों से बचकर जीवन जीना और चुनाव लड़कर फिर फिर घोटलों के लिए जनता का लाइसेंस हासिल कर देना यथेष्ट देशहित है। इससे लोकतांत्रिक अधिकार से किसी ने बिनायक सेन को वंचित किया क्या? कोई प्रमाण नहीं है, तो दोष सरकार का नहीं है, और लोकतंत्र का तो बिल्कुल भी नहीं है। उसे खाने और कमाने से किसी ने रोका था क्या? बदनाम करते हैं ऐसे टुच्चे लोग, देश को, देश की गरीबी को, यह राष्ट्रद्रोह हुआ ना? फांसी के लायक भी हो गया ना? तो दे दीजिए ना रोज-रोज का टंटा खत्म कीजिए, नहीं तो कहीं पुलिस मुठभेड़ में ही मार देना चाहिए।

देश विकास के पथ पर है, इसमें गरीब और गरीबी, आदिवासी और जंगल की बात सिर्फ मानव संसाधन के लिहाज से होनी चाहिए, गरीबों को रोका ही नहीं है कि वे विकास कार्यो में मजदूरी करें, ऐसे मानव संसाधनों को जो देश के विकास की नींव हो सकते हैं, के किसी इतर स्वाभिमान की बात करना उन्हें देश के विकास के अलावा अपने विकास और भूख के नारे लगाने के लिए भड़काने का काम सेन प्रत्यक्ष परोक्षत: करते रहे हैं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है। उन्हें तुरंत फांसी देनी चाहिए।

मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसे सेन-नॉनसेंस जन्म ही कैसे ले लेते हैं? क्या ऐसे गुणसूत्रों को बैंक में रखकर किसी भी नवगर्भस्थ के गुणसूत्रों के मिलान और मिलान पर गर्भपात की राष्ट्रीय हित में मुकम्मल व्यवस्था करवाने का समय आ गया है। देश आजाद हो चुका है ऐसे नॉनसेंस को यह समझ क्यों नहीं आता? अब भगतसिंह की जरूरत नहीं है जिनकी जरूरत है वे सब हैं हमारे पास। ऐसे भगतसिंह को फांसी देनी ही चाहिए, २३ मार्च अभी दूर है, पहले ही दे दो। आखिर में १९९६ के नोबेल साहित्य की विजेता शिंबोर्स्का की एक पंक्ति- ''सबसे बड़ा व्यभिचार है सोचना''। इसलिए मेरे महान राष्ट्र भारत के वीरो, सोचिए मत, सेन बाबू को तुरंत फांसी देना सबसे बड़ा राष्ट्रहित है।