Tuesday, April 19, 2011

हर्फे जुनूँ सबकी जुबां ठहरी है



बिनायक सेन को देशद्रोही मानने से इनकार करते हुए भारत की अदालते आला का यह कहना बहुत मायने रखता है कि किसी के घर में नक्सली साहित्य मिल जाने से वह नक्सली ठीक वैसे ही नहीं हो जाता जैसे गांधी की आत्मकथा रख लेने मात्र से कोई गांधीवादी।


बिनायक सेन के बहाने कितना कुछ कहा जा सकता है ठीक वैसे ही जैसे अन्ना हजारे के बहाने। जब कभी इक्कीसवी सदी के दूसरे दशक का इतिहास लिखा जाएगा तो कहा जाएगा कि यह अन्ना और बिनायक का समय था जिसमें इरोम शर्मिला भी थी, और तीनों के साथ देश का सुलूक अलग अलग था। बिनायक सेन को लेकर भारत की अदालते आला का फैसला और उसकी भाषा दोनों ही महत्वपूर्ण हैं, आला अदालत का यह कहना बहुत मायने रखता है कि किसी के घर में नक्सली साहित्य मिल जाने से वह नक्सली ठीक वैसे ही नहीं हो जाता जैसे गांधी की आत्मकथा रख लेने मात्र से कोई गांधीवादी। इस अहम फैसले के बाद आज क्या यह नहीं सोचना चाहिए कि आजाद भारत का सबसे बडा इतिहासकार रामचंद्र गुहा और अर्थशास्त्री आद्रे बेते क्यों उनके साथ खडे थे। क्यों दुनिया भर के बुद्धिजीवियों ने उनका समर्थन किया उनमें अमत्र्य सेन जैसे दर्जनों नोबेल पुरस्कार विजेता थे।

मेरी पहली अनौपचारिक मुलाकात बिनायक सेन से कोई दस बरस पहले शायद जेएनयू के ब्रह्मपुत्रा छात्रावास में हुई थी, यह एक सार्वजनिक मुलाकात थी, जब वे मैस में बुलाए गए थे, जब मैं करोलबाग के एक सस्ते से होटल में अपने एक ब्रिटिश रिसर्च स्कॉलर दोस्त के साथ रुका था और राष्ट्रीय अभिलेखागार की अपनी तय दिनचर्या को तोडक़र दिल्ली की सर्दी में दो बसें बदलकर उन्हें सुनने पहंचा था, हालांकि ठीक-ठाक सी व्यक्तिगत मुलाकात इसके सालों बाद हाल ही कुछ महीनों पहले जयपुर में पीयूसीएल के एक आयोजन में हुई। तब तक पिछली मुलाकात धुंधली हो गई थी, देखना भर जेहन में अटका हो तो बहुत, पर अब जो चेहरा सामने था, वक्त के निशान उस चेहरे पर कुछ इस तरह से थे कि शक्ल के नक्श बदल गए थे, कि चेहरा नया सा था। मेरा बहुत मन था कि उनके नक्सली संपर्को पर उनसे तीखे सवाल करूं कि क्यों वे मासूम मनुष्यों को मारने वाले लोगों के साथ खड़े नजर आते हैं? पर मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी मासूमियत और सहज मानवीयता ने मुझे वे क्रूर सवाल करने से रोक दिया। हालांकि बहुत से मित्र लोग सेन की इस मासूमियत के दूसरे अर्थ निकाल सकते हैं, निकालेंगे ही, और निकालना उनका लोकतांत्रिक अधिकार भी है। पर क्या यही अधिकार सेन को दिया जाता है, यकीनन नहीं! उनसे मैंने पूछा- 'क्या योजना है? कल को किस उम्मीद से देखते है?' तो उनका जवाब था- 'जी पाना और बेहतर दुनिया के लिए खड़े लोगों का साथ देने की कोशिश करना।' ..
फिर कुछ समय बाद उनकी यह गिरफ्तारी हो गई और उसके बाद जो कुछ हुआ वह सब अखबारों में दर्ज है ही।

मुझे कहने में शर्म नहीं है कि कुछ महीनों पहले जब बिनायक सेन की पत्नी और बेटी जयपुर आए तो सामाजिक कार्यकर्ता और बिनायक समर्थक उनसे मिले, उनकी भीड़ के पीछे मैं भी कहीं खड़ा था, तब भी मेरा नैतिक समर्थन उन्हें था, जब मुख्य धारा का मीडिया उनके पक्ष में खड़ा होने से कतरा रहा था या उसकी जुबान बिनायक को लेकर कमोबेश वही थी जो उसे गिरफ्तार करने वाली पुलिस की थी या तदंतर सरकार की थी।

विश्वकप जीतने के उन्माद में डूबे देश को टीआरपी ढूंढते मीडिया ने अन्ना से मिलवा दिया, क्या अजीब बात नहीं है कि जो लोग पत्रकार सरकार विरोधी होने को देशद्रोह कहते थे, अन्ना के पक्ष में खडे हो गए जबकि अन्ना भी सरकार का ही विरोध कर रहे थे। संयोग ही है कि कोई सरकार विरोधी होकर नायक हो जाता है कोई खलनायक की हद तक खड़ा कर दिया जाता है बिनायक को खलनायक की हद तक ले जरने का तार्किक आधार यह दिया गया कि वे नक्सली समर्थक हैं और नक्सली सरकार विरोधी हैं, अब सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना कि नक्सल समर्थन भी देशद्रेह नहीं है, बहुत बहुत मायने रखता है, यह अपने आप में एक नजीर है और भारतीय लोकतंत्र की ताकत भी। हालांकि संभावना थी भी और ऐसा हुआ भी कि बिनायक को फांसी चढ़1ने की मंशा रखने वाले लोग देशद्रोह के कानून को ही बदलवाने की मांग करेगे और ऐसी आवाजें उठने लगी हैं। यह फैसला इस लिहाज से भी देखे जाने की जरूरत है कि सरकार और देश में अंतर होता है और पुलिस ट्रायल खतरनाक होता है, पुलिस की बात को अक्षरश: स्वीकारना सरकार और मीडिया देानों के लिए ठीक नहीं है, उसके आधार पर बात करें तो एक मासूम सा सामान्यीकरण करने की गुस्ताखी करने की इजाजत दें कि पुलिस की नजर में क्या हर व्यक्ति अपराधी, हर स्त्री चरित्रहीन, हर संबध अवैध संबध नहीं होता है, ऐसा पुलिस महकमे में आला अफसर दोस्तों के मुख से भी सुना है कि क्या करें यार, ना चाहते हुए भी सोच लगभग ऐसी ही हो जाती है। पुलिस से आगे बढकर, मुझे एक भारतीय के रूप में कह और स्वीकार कर लेना चाहिए कि सामान्यीकरण करने की हड़बड़ी में कितने ही गलत निष्कर्ष निकाल लिए जाते हैं हालांकि दार्शनिक भाषा में यह भी एक सामान्यीकरण ही है।

तारीख गवाह है कि दुनिया में कितने ही उदाहरण है जब दार्शनिकों, लेखकों, कलाकारों को सरकार विरोधी कहकर जेलों में डाला गया। और ऐसे मामलों में प्राय: और बार- बार यह स्थापित हुआ है कि सरकार विरोधी होने और देश विरोधी होने में अंतर होता है, तानाशाह तो अपने खिलाफ को ही देश विरोधी मान लेते हैं क्योंकि अपने आप में वहीं स्वयंभू देश होते है। निसंदेह भारत में ऐसे उदाहरण कम है सिवाय एमरजेंसी के, तो यह उदाहरणों की अनुपलब्धता बनी रहे हमें ऐसी ईश्वर से प्रार्थना और हमें आपस में ऐसी कोशिश करनी चाहिए।

उम्मीद करें कि बिनायक के बाद पुलिस हर सरकार विरोधी को नक्सल समर्थक को देशद्रोही नहीं मानेगी और पुलिस के बयान और निष्कर्ष को मीडिया के लोग अंतिम सत्य नहीं मानेगे, (जबकि हम देखते हैं किसी भी अपराध समाचार में एक ही नजरिया होता है जो कि पुलिस की नजरिया होता है ) हम भारत को एक दुनिया का सबसे बडा ही नहीं परिपक्व और बेहतर लोकतंत्र भी कह सकेगे। आखिर में बिनायक की तरह देशद्रोह के आरोप में पड़ौसी मुल्क पाकिस्तान की जेल में बंद रहे फैज अहमद फैज जिनकी इस साल पूरी दुनिया में जन्म शताब्दी मनाई जा रही है, के शब्द याद कर लें- ''अब वही हर्फे जुनूँ सबकी जुबां ठहरी है, जो भी बात निकली है, वो बात कहां ठहरी है।''

Friday, April 8, 2011

साहित्य का आउटहाउस


हिंदी की मशहूर साहित्यिक पत्रिका 'कथादेश'(अप्रेल 2011) के मीडिया वार्षिकी अंक में मेरा लेख आया है, जो मीडिया और साहित्य की परस्पर अंतरक्रिया पर है, इसे आपसे यथा रूप बांट रहा हूं,

पूर्व कथन -
अपनी बात शुरू करने से पहले कहना ठीक रहेगा कि इसे पढने के बाद संभव है कि दोनों और के दोस्त मुझ पर टूट पडे पर फिर भी कहने की जुर्रत और जरूरत है, और दूसरी बात यह कि इसे अनाधिकारिक बयान भी माना जा सकता है पर यह सब कहने की गुस्ताखी इसलिए कर पा रहा हूं कि लगभग एक दशक से अंदर- बाहर रहकर दोनों के रिश्ते और बदलती स्थितियों को देखने का मौका मिला है.. और अंग्रेजी की कहावत रीड बिटविन दी लाइंस को दोहराते कहूं तो आगे की पंक्तियों में दोनों के तरफ के दोस्त अपनी पीडाओं को महसूस करेगे, ऐसा भी मुझे विरोधाभासी रूप से लगता है...


एक मासूम सा इत्तेफाक है कि अखबारवाले साहित्य को, साहित्यकारों को या तो हीन भाव से देखते है या गालियां देते हैं और कमोबेश यही हालत दूसरी तरफ भी है. जरा पतला करके बात करूं तो हिंदी में कम लोग बचे है जो अखबारनवीसी के पेशे में पढने से सरोकार रखते हैं, यहां पढने से तात्पर्य साहित्य से है या साहित्य से इतर नॉन फिक्शन गंभीर लेखन
से भी, मुझे माफ कीजिए, वो जमाना हवा हुआ जब साहित्यकार और पत्रकार भाई- भाई होते थे, कहा जाता था कि साहित्यकार पत्रकार का बडा भाई होता है... हुआ करता होगा साहिब, हिंदी में तो अब उत्तरोत्तर छोटा भाई महाभाई बन गया है और बडा भाई उसका मुखापेक्षी निरीह बुजुर्ग.

बहरहाल मीडिया के दोस्तों में जाहिर तौर पर लोक-लिहाज में थोडा बहुत सम्मान अब भी साहित्यकार और साहित्य का बचा हुआ है, इसे आंख की शर्म भी कह सकते हैं,

हालांकि मेरा मानना है कि पत्रकार का साहित्य या इससे इतर पढना बहुत जरूरी नहीं है पर इसके दो फायदे होते हैं, एक तो संवेदना को बनाए रखने में, दूसरा भाषा के निरंतर विकास में वह पढना मदद करता है...मुझे कहने में कोई परहेज नहीं है कि साहित्य से दूरी ने उन्हें संवेदनारहित बनाया है..और शायद हमारे समय की कॉर्पोरेट पत्रकारिता की जरूरत यह है भी तो इस लिहाज से यह जस्टीफिकेशन भी इसे हासिल है , तो पढना गैरजरूरी होना गैरवाजिब ठहराए वह तो पागल ही कहलाएगा.

अब इसे क्या कहेगे कि पत्रकारों की निगाह में पल्प साहित्य लिखनेवाले लेखक सच्चे और आइकननुमा साहित्कार हैं, तो बेस्टसेलर को उम्दा लेखन का मानक मानने वालों में अखबार के लोग सबसे पहले हैं, यह नजरिया साहित्य से जुडी खबर को अखबार में जगह से जुडा है क्योंकि प्रकारांतर से वहीं लेखक जो पत्रकार साहब की जानकारी में है, अखबार की खबर में जगह पाएगा. मुझे खुशी होती है जब कोई कहता है कि उसने इन दिनों यह किताब पढी है (और ऐसे अवसर दुर्लभ ही होते हैं) वरना प्रायः उनके लिए आज भी साहित्य का मतलब या तो प्रेमचंद है या फैशन के बतौर चेतन भगत. ..और मुझे हमेशा याद रहता है कि किसी भी कारण से पत्रकारों पर पडने वाली गालियां मेरे उस पेशे के भाईयों पर पडने वाली गालियां है जिससे मुझे दाल रोटी मिलती है.

अपनी आत्मा पर हाथ रखकर पूछिए कि क्या यह पिछले दशक की देन नहीं है कि अखबार में काम करने वाला पत्रकार यानी रिपोर्टर यर डेस्क वाला व्यक्ति अगर साहित्य के पास भी फटकता है तो गुनाहगार है, यहां तक कि इस अहसास को जन्म देने वाली कि मियां अगर इतना ही पढने लिखने का शौक था तो इस पेशे में आने की जरूरत ही क्या थी! और तुरंत यूं भी खारिज किया जा सकता है कि आपको खबर लिखनी क्या आएगी, और एक वक्त था जब माना जाता था कि आप लेखक है तो खबर भी अच्छी लिखेगे, मेरे पास एकाधिक उदाहरण है कि धर्मयुग आदि में प्रकाशित कहानियों के आधार पर बहुत से युवाओं को बडे समूहों में पत्रकारिता की नौकरी मिली और वे कालांतर में बडे नामी पत्रकार साबित हुए

अब जरा दूसरी तरफ का रुख कर लें, साहित्यकारों का वर्ग प्रायः अखबार के लोगों को मूर्ख मानकर अपना अहं तुष्ट करता है और उनमें खबर या इतर छपास की आकांक्षा या जरूरत ना हो तो शायद वे बात ही ना करें, इसके लिए मूर्ख से मूर्ख को भी वे महान पत्रकार और साहित्य संवेदना सम्पन्न कहने से नहीं चूकते.वे अक्सर गाली देते पाए जाते है कि अखबारों में साहित्य की जगह कम हो रही है मैं भी सहमत हूं, तथ्यात्मक तौर पर यह कहना सही है पर कोई संपादक को कहने की जुर्रत नहीं करता कि आप ऐसा नहीं करते, हमेशा यही कहा जाता है कि 'आप तो समझते है आपके हाथ बंधे है पर जो कर सकते हैं, वह ऐसा होना रोक नहीं रहे हैं ' और यह कहना उनके लिए भी ठीक ऐसा ही होता है जिनके लिए वे कहते है कि वे ऐसा कर सकते हैं पर कर नहीं रहे हैं .... जबकि मेरा तो यह मानना है कि साहित्य का छौंक पूरे अखबार में हो पर वह उसे गरिष्ठ ना बनाए कि केवल साहित्कारों का अखबार(साहित्यिक पत्रिका या शोध जर्नल जैसा कुछ होकर ) बनकर रह जाए और लोग उल्टी गिनती शुरू कर दें ..

मुझे गालियां दी जाती होगी, दी भी जाएंगी कि मुझे दुख नहीं होता कि अखबारों में साहित्य की तयशुदा जगहें कम हो रही हैं, पहली बात तो यह कि ये चिंताएं केवल साहित्यकारों की चिंताएं है, दूसरे, हिंदी के उन अध्यापकों की चिंताएं है प्रकारांतर से जिनके पांडित्यपूर्ण लेख छपने की जगहें नहीं बची हैं...दूसरे जब साहित्य को बचाने की जिम्मा हमारे पूरे समाज ने ही भुला दिया है, हम अपने बच्चों का साहित्य पढने के संस्कार नहीं देते, समझ-विचार और सरोकार की बजाय धन, सफलता और पता नहीं किन किन चीजों के ख्वाब दिखाते हैं तो अखबार से क्यों उम्मीद करें ? उन्हें क्यों ठेकेदार बनाते हैं, मेरी मान्यता है कि पब्लिक आइकन के तौर पर लेखकों को देखना समाज ने पहले छोडा, मीडिया ने बाद में, बेशक मीडिया की जिम्मेदारी कम नहीं है और आप मुझे कह सकते हैं कि ''तू भी है इस गुनाह में बराबर का शरीक अपने किस्से औरों को सुनाता क्या है ''

और कहना लाजिम है कि अखबार में साहित्य की उपस्थिति मुझे भी सुख देती है, वज्ह ये कि प्रकारांतर से मैं भी इसी जमात में हूं क्योंकि पत्रकारिता करते हुए भी हमेशा यह माना है कि जीवन का लक्ष्य तो अंततः स्वतंत्र लेखक के बतौर जीना संभव बनाना है

वैसे, मेरी निगाह में जिंदगी के दूसरे हिस्सों- विज्ञान, दर्शन (धर्म से इतर) जैसी बहुत सी चींजें अखबारों से गायब है, ले दे के जाने माने लोगों की दिनचर्या और राजनीतिक उठापटक, कुछ खेल कुलमिलाकर यही तो अखबार है इनदिनों ..बदलते समय में, मुझे हैरानी है कि हिंदी के साहित्यकारों को यह नहीं दिखता कि केवल नई किताबों पर सूचनात्मक और कहीं कहीं समीक्षात्मक टिप्पणियों के अलावा अंग्रेजी मीडिया भी कहां साहित्य छापता है तो साहित्य का बचना और उसका भविष्य अखबार पर निर्भर करता है, ऐसी कोई गलतफहमी मुझे जरा भी नहीं है जिन्हे है, उनके लिए मेरी शुभकामनाएं ही हो सकती है, वे भी मददगार होगी, मुझे संदेह है.

और आखिर में बस इतना ही कि अदब को अखबार और व्यापार दोनों ही ना बनाया जाए, वहीं यह भी कि अखबार को अदब भी नहीं बनाया जाए, पर दोनों में दोस्ती रहे, आवाजाही बनी रहे ...और व्यापार भी चलता रहे.

Saturday, April 2, 2011

इतिहास की मौत के दिनों में





इस देश में अब इतिहास की जरूरत नहीं बची है, उसकी जगह प्रशस्तिमूलक जीवनियां और मिथकशास्त्र पढाए जाने चाहिए, और ऐतिहासिक शोध में लग रहे धन और उर्जा को नष्ट होने से बचाना चाहिए...



गांधी को लेकर फिर एक किताब और लेखक चर्चा में है। महान इनसान पर ऐसे लांछन शुक्र है कि अब भी लोगों को दुखी करते हैं, खासकर जब उन दुखी लोगों में ज्यादातर लोगों का प्राथमिक आदर्श सच नहीं है और बात ऐसे महान इनसान की हो रही है जो सच के पैरोकार के रूप में मशहूर रहा है, वैसे सच का आदर्श निरपेक्ष ही होना चाहिए या होता है, सापेक्ष नहीं। गांधी खुद भी अगर होते तो तो शायद शायद क्या कम से कम मुझे तो यकीन ही है कि वे ऐसा व्यवहार नहीं करते।

सवाल पुलित्जर से सम्मानित पत्रकार लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब ''ग्रेट सोल - महात्मा गांधी एंड हिज स्टृगल विद इंडिया'' में उनकी समलैंगिता की ओर इशारे का है हालांकि लेखक ने एक बयान में इसका खंडन किया है कि मेरी किताब में उन्हें समलैंगिक बताया गया है..

यहां यह बताना जरूरी है कि गांधी जी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी के एक ताजा लेख में ऐसी अंध भावुकता का ना होना बहुत सुखद है, क्या कीजिएगा अगर उन्हे गांधी जी पर ऐसे गैरभावुक लेख के लिए देश निकाला दे दिया जाए... ताजा खबर यह है कि इस किताब के बाद सरकार का रूख है कि कौमी प्रतीकों के साथ राष्ट्रपिता के अपमान पर भी सजा होगी(बजाय इसके कि इतिहासकारों का एक समूह उस किताब में प्रस्तुत तथ्यों की प्रामाणिकता और ऐतिहासिकता जांचता), तो ऐसे में मेरी बुनियादी स्थापना और निजी विचार है कि अब इतिहास को विषय और अनुशासन के तौर पर समाप्त कर देना चाहिए, क्योकि जब ऐतिहासिक सच की तलाश से बडा सवाल अपमान को रोकना हो जाएगा, वहां इतिहास के जिंदा बचने की संभावना क्षीणतम ही होगी।

याद कीजिए कुछ समय पहले एक ऐतिहासिक मसले पर न्यायालय का फैसला देश की आस्था के आधार पर आया था तो इतिहासकारों के बडे वर्ग ने इतिहास के साथ इस बलात्कार (यह शब्द मैं दे रहा हूं, क्षमा करें), पर सामूहिक चिंता जताई थी।

फर्ज कीजिए कि या मान ही लीजिए कि मेरे दादा अपने जीवन की अनगिन उपलब्धियों के साथ, एक दिन मुझे पता चले कि बलात्कारी भी थे, मेरी नजर में वे गिर जाएंगे और मुझे तुरंत लीपापोती करनी चाहिए और उन प्रमाणों को नष्ट करने में अपना सबकुछ दांव पर लगा देना चाहिए कि यह सच यह राज जाहिर ना हो और मेरी और प्रकारांतर से सब मुझे या मेरे दादा को जानने वालों की नजर में उनकी प्रतिष्ठा बची रहे, बहुत सभव है कि आप सहमत होगे कि मुझे ऐसा ही करना चाहिए और तमाम सबूतों को नष्ट करके मुझे मान लेना चाहिए कि दादाजी की छवि मैंने बचा ली है और वे महान बने रहेगे और कभी वैसा सबूत दुबारा नहीं मिलेगा जैसा मैंने नष्ट कर दिया है....पर मेरी राय है कि इतनी सहिष्णुता तो हम में अवश्य ही होनी चाहिए कि अपने पूर्वजों को इनसान मानकर उनकी मानवीय कमजोरियों और उससे जुडी बातों को हम उसी भाव से स्वीकार कर लें जिस भाव से उनपर गर्व करने वाली बातों को स्वीकार करते हैं, और इस स्वीकार के साथ उनका इनसान होना खारिज ना करें।

इतिहास के साथ जुडाव ने यह समझ बनाई है कि तथ्य मिलें और प्रमाण हों तो कुछ भी प्रिय अप्रिय स्वीकार करना ही चाहिए वहा भावुकता का सवाल नहीं है, पुनः कहना चाहिए कि इस किताब से उपजे विवाद के मददेनजर भी ऐतिहासिक नजरिए से तथ्यों कर परीक्षण सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी होनी ही चाहिए !

मेरी समझ में यह नहीं आता कि अब तक जो बाते जाहिर और सिद्ध हुई है जिनसे गांधी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में वह पता चलता है जो उनकी देश के पिता के बतौर सम्मानीय होने में बाधक हो सकती थीं! क्या वाकई उनसे अंतर आया है या आना चाहिए? आजादी के आंदोलन की उनकी भूमिका एक नेता की भूमिका थी और व्यक्ति के तौर पर गांधी की भूमिका अलग मसअला नहीं है क्या? सुभाष, भगतसिंह, चौरी चौरा, पूना पैक्ट और भारत का विभाजन लगातार उनकी चर्चा और आलोचना के विषय रहे हैं, पर मेरा मानना है कि कोई भी मसअला, बहस, कुलमिलाकर देश की आजादी में उनके योगदान को कमतर नहीं कर सकते, ऐसा ही मेरा मानना उनके व्यक्तिगत जीवन को लेकर है !

बहरहाल ताजा बहस पर लौटते हैं, अगर यह विधेयक बन जाता है तो पारित होकर लागू हो जाता है तो, अब फिर वही सवाल खडा है कि क्या महान लोगों को क्रमश: देवता बनाकर आस्था का प्रश्न ही बनाता है, उन्हें हम ऐसे व्यक्ति हाड़ - मांस के इनसान के तौर पर देख और मान नहीं सकते जिन्होने मानव इतिहास में उपस्थित होकर अपनी मानवीय कमजोरियों के साथ महान काम किए...पर महान इनसान को सम्मान देते हुए उसे सामान्य व्यक्ति के रूप में खारिज करना क्यों जरूरी है, दूसरा अगर व्यक्ति के बतौर उसकी कुछ ऐसी छवियां प्रकट हो जाएं जो उसकी महान छवि में तनिक निषेध आरोपित करती हों और सप्रमाण हो तो क्या हमारी परंपरागत छवि की निरंतरता के लिए उन नए ऐतिहासिक तथ्यों को कूडेदान में डाल इेना चाहिए और उन खोजी व्यक्ति को जेल में! अगर ऐसा करना ही महान व्यक्तियों के प्रति हमारे सम्मान को निरंतरता दे सकता है तो मेरा बहुत विनम्र सा निवेदन है कि इस देश में अब इतिहास की जरूरत नहीं बची है, उसकी जगह प्रशस्तिमूलक जीवनियां और मिथकशास्त्र पढाए जाने चाहिए, और ऐतिहासिक शोध में लग रहे धन और उर्जा को नष्ट होने से बचाना चाहिए,. एक गलती देशद्रोही का खिताब दिलवा सकती है, उम्र भर की अकादमिक या वैचारिक दुनिया की प्रतिष्ठा को नेस्तनाबूत कर सकती है।