Tuesday, June 7, 2011

रामदेव अन्ना नहीं हैं, ना ही अब बाबा हैं !


आप में से ज्यादातर लोग मुझसे सहमत होंगे कि बाबा रामदेव संत नहीं हैं, योगाचार्य हैं, जिन्होंने भारत और दुनिया में योग को एक ब्रांड बनाया है, जाहिर है कि उन्हें बेचना आता है, किसी भी आयआयएम या हावर्ड बिजनेस स्कूल के पास आउट से ज्यादा बेहतर तरीके से



बाबा की बाबागिरी जिन बादलों से घिर गई है, शायद बाबा ने भी नहीं सोचा होगा। ऐसे कोई भी नहीं सोच सकता, बेचारे बाबा क्या सोचेंगे! एक खुद को संत कहलवाने वाला व्यक्ति देश सेवा के नाम पर राजनीति करने लगता है, और राजनीतिक साधनों का इस्तेमाल करते हुए अपनी ही राजनीतिक चाल में फंस जाता है, इसे क्या कहेंगे, संत से धोखा या कि संत की कुटिल राजनीतिक चाल का पर्दाफाश होना। खैर आप दोनों ही मान सकते हैं या जो आपका दिल करे, मान लीजिए!

पहली बात तो हमें यह देखने की जरूरत है कि बाबा अन्ना नहीं है, अन्ना का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष साम्राज्य नहीं है, दूसरे उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है, प्रकटतया उन्हें मीडिया मोह भी नहीं है, एक करोड का पुरस्कार अस्वीकार वही कर सकते थे, बाबा नहीं, मुझे लगता है कि बाबा तो अपनी योगपीठ के लिए आने वाले दान की बछिया के दांत नहीं गिनते होगे!

आप में से ज्यादातर लोग मुझसे सहमत होंगे कि बाबा रामदेव संत नहीं हैं, योगाचार्य हैं, जिन्होंने भारत और दुनिया में योग को एक ब्रांड बनाया है, जाहिर है कि उन्हें बेचना आता है, किसी भी आयआयएम या हावर्ड बिजनेस स्कूल के पास आउट से ज्यादा बेहतर तरीके से। पर मेरी मासूम जिज्ञासा के लिए क्षमा करें कि भारतीय परंपरा के मुताबिक तप वे कैसे करते होंगे, मुझे माफ कीजिएगा, संदेह है, आत्मावलोकन और तप के बीच में ही उनके योग कैंप आ जाते होगे! स्वीकारता हूं कि योग और भारतीयता के पुनरूत्थान के लिए उनकी नायकीय छवि मेरे अंदर भी रही है, पर मुझे कहने की इजाजत दीजिए कि बाबा के चेहरे पिछले दिनों में उजागर हुए हैं, उन्होंने मुझ जैसे अनेक भारतप्रेमियों के मन में उनकी छवि को भंग नहीं तो कम से कम धूमिल जरूर किया है। भारतीयता से बढ़कर हिंदूवादी सिद्ध होते चले जाना और लोगों से मिले चंदे को चंदे के रूप में भाजपा को देने की खबरों का आना उनके कद को बौना करने के लिए काफी नहीं था क्या! अब कांग्रेस के साथ गुप्त समझौता और उसकी पोल खुलने पर चिल्लाना क्या उन बलात्कारों की दर्ज रिपोर्टों जैसा नहीं है, जिसमें आपत्तिजनक अवस्था में पकडे जाने पर जबरदस्ती का इल्जाम लगा के अपने आपको पाक साफ साबित करने की कोषिष होती है।

खैर, चाहे उनकी नीयत साफ हो, वे एक बेहतर भारत चाहते हों पर इस प्रकरण से उनकी छवि को नकारात्मक नुकसान ही हुआ है, पहले तो राजनीतिक हल्कों में यह माना गया कि गैर राजनीतिक कद्दावरों में अन्ना की छवि से खुद की छवि को कमतर होता देखते हुए इस सत्याग्रह की योजना बनी। दूसरे एक उभरते जननेता चाहे राजनेता वे ना कहलाना चाहें तो उसका यूं भागने की कोशिश करना, और मूर्खतापूर्ण बयान कि उनका एनकाउंटर करने वाली थी सरकार! जबकि लोकतंत्र का थोड़ा सा भी जानकार यह दावे के साथ कह सकता है कि बाबा रामदेव को मारकर सरकार अपनी राजनीतिक आत्महत्या का इंतजाम कभी नहीं करेगी, और अगर ऐसा होता तो उन्हें सरकारी विमान से देहरादून नहीं छोडती, बीच में बाबा गायब भी हो सकते थे। ऐसा हास्यास्पद बयान बाबा की बौद्धिक छवि का घोर अवसान प्रतीत होता है।

वैसे, मेरी एक जिज्ञासा यह भी है कि जरूरत पडने पर एक बार भगवा वेश छोडने पर क्या उन्हें बाबारूप से विचलित भी नहीं मान लेना चाहिए या फिर यह मान लिया जाए कि बाबा या फिर सामान्य स्त्री जैसा कोई वेष दोनों में उन्हें कोई अंतर नहीं दिखता, ऐसा है तो मैं भारत के सारे धर्माचार्यों, शंकराचार्यों से निवेदन करता हूं कि बाबा के वेश के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर भी सवाल उठने चाहिए। इसकी शुरुआत शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने कर दी है जिन्होंने कहा है कि बाबा का साम्राज्य 11 हजार करोड रूपए का है, बाबा रामदेव को भ्रष्टाचार को खात्मे का प्रारंभ अपने घर से करना चाहिए। स्वरूपानंद का यह कहना भी मायने रखता है कि बाबा अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए यह सब कर रहे हैं। यहां क्या उनके कार्यकर्ताओं को उनसे नहीं पूछना चाहिए कि बाबा आप रहनुमा थे, आप को तो आगे बढ के गिरफतारी देनी चाहिए थी, आप मर्दानगी छोडकर स्त्रीवेश में भाग गए, हम डंडे खाते रहे, क्या ये सच्ची रहनुमाई है! हालांकि डंडे खाकर भागने वालों में कितने उनके वैचारिक समर्थक थे, कितने योग अनुयायी और उनकी आयुर्वेदिक दवाई बेचने वाले रिटेलर, अभी कहना मुश्किल है, मेरी राय यह भी है कि अगर उनमें ज्यादातर राजनीतिक विचार के समर्थ होते तो भागते नहीं! हां, यह तय है कि राजनीतिक कार्यकर्ता तो उस भीड में न्यूनतम ही होगे वरना राजनीतिक करिअर के लिए डंडे खाकर भी अड़े रहते!

क्या बाबा से हमें नहीं पूछना चाहिए कि केवल पांच हजार लोगों के लिए योग शिविर की अनुमति लेकर भी पचास हजार की भीड़ बुलाकर उन्होंने क्या उस सरकारी अनुमति का मजाक नहीं उडाया है, फिर अगर उस भीड़ पर अगर सरकरी कार्रवाई हुई तो बाबा जी दोष केवल सरकार का ही क्यों है! और फिर कुटिल अकेले कपिल सिब्बल ही क्यों है, आप भी तो हैं! वे तो राजनेता है, उनका आचारण तो वैसा ही है जैसा आप या तमाम भारतीय मानते हैं, जिसके लिए हम उन्हें कोसते हैं, पर आपका आचरण भी वैसा ही नहीं है, क्या और आगे जाकर आपका व्यवहार और ज्यादा भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था जैसा नहीं हो जाएगा! हमें बताइए कि आप उनसे अलग कैसे खड़े हैं! आपसे तो हम और पूरा देश आचारण में शुचिता की उम्मीद करते हैं। क्या ये उम्मीदें बेमानी हैं?

आखिर में, मुझे कह देना चाहिए कि लालू की चिंता वाजिब है, मुझे खुशी है कि देश को नया नेता मिल गया है जिसे देश की चिंता है, राजनीति की पहली परीक्षा उन्होंने ऊंचे दर्जे में पास कर ली है, आत्मप्रचार, मीडिया मोह, गुप्त समझौता, सरकार पर मारने का इल्जाम, मौके के मुताबिक जुबान और वेश बदलने जैसे सारे काम बाबा ने बखूबी किए हैं, नेताओं को अब इसे चुनौती मानना ही चाहिए। बेशक बाबा को बतौर हिंदुस्तानी संविधान के अनुसार राजनीति में आने का हक है, यह सोचना जनता का काम है कि योग के बहाने से वे अपनी राजनीति की नींव डाल रहे थे, ऐसे व्यक्ति को स्वीकारना चाहिए या नहीं! वे सिखा योग रहे थे, पर एजेंडा कुछ और था, और राजनेता राजनीति करते हैं, पर दरअसल कुछ और रहे होते हैं, तो रामदेव भी निश्चित ही प्रकारांतर से वहीं आके खडे हो जाते हैं, आगे से क्या भारतीय हर संत को राजनीति के रंगरूट के तौर पर नहीं देखेगे या उन्हे नहीं देखना चाहिए। हम तो इतना ही कह दें -'' वो सबसे जुदा है तो जुदा ही लगे, वो सबसे खफा है तो खफा ही लगे!'' आमीन!