Thursday, July 21, 2011

सियाह से सफ़ेद हो गयी ज़िन्दगी


हमारे समय के मशहूरोमारूफ फिल्मी गीतकार और इल्मी शाइर इरशाद कामिल से हम रूबरू हुए तो उन्होंने दिल से जो कहा, आपके सामने हाजिर है....



अपने बचपन के बारे में बताइए .

बचपन, पंजाब के एक कसबे मलेरकोटला में, दिहाड़ीदार मजदूरों के बच्चों के साथ बीता. उन्ही के साथ मिटटी भी खाई और मार भी, गुल्ली डंडे से लेकर गली क्रिकेट तक खेला. उनमें और मुझमें सिर्फ इतना सा अंतर था कि वो हर सुबह काम पे जाते थे और मैं स्कूल. उस समय यकीनन मुझे अपना काम स्कूल जाना उनसे कहीं ज़्यादा मुश्किल लगता था.


शाइराना तरबियत कैसे हुई ?


मेरा भाई जावेद जो मुझसे ५ साल बड़ा है और उससे भी ३ साल बड़ा भाई जब नए नए जवानी में कदम रख रहे थे तो अचानक उनका रुझान रूमानी शायरी की तरफ होने लगा. हालाँकि मेरे सबसे बड़े भाई सलीम को बाकायदा गीत और फ़िल्मी किस्म की कहाह्नियाँ लिखने का शौक़ था क्योंकि वो फिल्म जगत में आना चाहता था लेकिन घरेलु जिम्मेदारियों के कारण और पिता जी का सहयोग न मिलने के कारण वो आ नहीं पाया. जवान होते भाइयों के रूमानी शायरी के शौक़ ने मुझे शायरी जैसी चीज़ के प्रति थोडा उत्सुक कर दिया. उनका शौक़ तो आल इंडिया रेडियो पर 'आबशार' प्रोग्राम सुनकर ख़त्म हो गया लेकिन मुझे ये लत लग गयी.



शाइर पहले खबरनवीस हुआ और फिर फिल्मी गीतकार ये सफर कैसे मुमकिन हुआ? कब लगने लगा कि आप फिल्मी गीत लिखने के लिए पैदा हुए हैं ?


मुझे बहुत पहले एहसास हो गया था कि घडी के काँटों से बंधी ज़िन्दगी मेरे लिए नहीं है. मतलब किसी दफ्तर में ९ से ५ तक बध पाना मेरी फितरत में नहीं. इसलिए खबरनवीसी पकड़ ली क्योंकि इस काम में सारा दिन दफ्तर में नहीं बैठना पड़ता, पत्रकारिता का डिप्लोमा मेरे पास था ही. उसके अलावा समाज भी पत्रकारों को थोडा भय से देखता था/है. सारा दिन अपनी खटारा मोटर सायकल पर सड़कों से दोस्ती और शाम को एक डबल कालम रिपोर्ट, बस यही थी ज़िन्दगी. लेकिन इसके साथ साथ जो चीज़ मेरे हमकदम थी वो थी मेरी कलम जो उन दिनों बहुत कवितायेँ लिखती थी. और कभी कभार एल्बम के लिए १००-२०० में कोई गीत भी लिख दिया करती थी. हालांकि मैं अपने आप को न कभी गीतकार लगा हूँ, न कहानीकार, न नाटककार सिर्फ कलमकार लगा हूँ जो ये सभी कुछ बहुत आसानी से लिख सकता है. जो उन विधाओं में भी लिख सकता है जिनको अभी कोई नाम नहीं दिया गया.



पहली फिल्म कैसे मिली जिसके गाने आपने लिखे ? इस सफर की शुरूआत में बहुत मुश्किलें पेश आई होगी!


किसी दोस्त ने जोर डालकर संगीतकार सन्देश शांडिल्य के पास भेज दिया था, हालांकि किसी के पास काम मांगने जाना या काम करने के बाद पैसे के तकाज़े के लिए जाना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा. उस दोस्त ने काम मांगने नहीं सिर्फ मिलने भेजा था. मैं सन्देश से मिला, सन्देश ने पूछा क्या करते हो? मैंने कहा लिखता हूँ. उसने पूछा क्या लिखते हो? मैंने कहा सब कुछ लिखता हूँ. उसने पूछा गीत लिखते हो? मैंने कहा गीत अगर कोई कहे तो वैसे ज़्यादातर ग़ज़ल लिखता हूँ. उसने कहा कुछ सुनाओ. सन्देश का इतना कहना था कि मैंने एक के बाद एक उसे अपनी २०-२५ ग़ज़लें सुना दीं. सन्देश शायद काफी प्रभावित हो गया था इसीलिए शायद उसने मुझे इम्तिआज़ अली से मिलवा दिया जो उस समय 'सोचा न था' बना रहा था. मैं और इम्तिआज़ जब मिले तो लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिल रहे हैं. 'सोचा न था' कि मेरी पहली फिल्म मुझे इतनी आसानी से मिल जाएगी.


जिंदगी कितनी बदली फिल्मी गीतकार होने के बाद ?


सियाह से सफ़ेद हो गयी ज़िन्दगी, आम रिसाले से पुराण-वेद हो गयी ज़िन्दगी, खुली किताब से छुपा हुआ भेद हो गयी ज़िन्दगी, बहुत सी ख़ुशी और थोडा खेद हो गयी ज़िन्दगी...क्योंकि ज़िन्दगी के साथ थोडा खेद थोडा अफ़सोस थोडा गिला हमेशा रहता है इंसान को.



पंजाबी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी जुबानों का इस्तेमाल रामकथानुमा गीत.. इतनी विविधता को कैसे साध लिया आपने ?

पंजाबी मेरी माँ बोली है, हिंदी स्कूल, कालेज, यूनीवर्सिटी में पी एच डी तक पढ़ी है, उर्दू मेरी दीनी जुबान है और अंग्रेजी आज के समाज में रहने की मजबूरी ने सिखा दी. हिंदी साहित्य पढने के कारण या यूँ कहिये तुलसी, सूरदास, मीरा, कबीर और छायाबाद ने सब कुछ आसन कर दिया मेरे लिए.



दूसरों के लिखे ऐसे गीत जिनको सुनकर लगता हो कि काश मैंने लिखा होता ?

वो सभी गीत जो अच्छे है और दूसरों ने लिखे हैं काश उन्हें मैंने लिखा होता.



अब इस गीतकार की दिनचर्या क्या रहती है?

सुबह मर्ज़ी से उठना, फिर बहुत देर चुपचाप बैठे रहना, फिर तैयार होकर मीटिंग्स और सिटिंग्स के लिए निकल जाना, रात को देर तक कभी काम होने के कारण और कभी नाकाम होने के कारण जागना, शब्दों और विचारों के जंगल में भटकना, कुछ लिखने की कोशिश करना फिर इस अफ़सोस के साथ सो जाना कि आज कुछ अच्छा नहीं लिख पाया और अगली सुबह फिर इस उम्मीद से जागना कि आज ज़रूर कुछ अच्छा लिखूंगा.



पुराने दोस्तों से राब्ता कायम है अभी ?

पुराने "सच के" सभी दोस्तों से वैसा ही राबता बरकरार है. न वो बदले हैं न मैं ही बदल पाया हूँ. न वो अपने पुरानेपन से बाज़ आते हैं न मैं.



अदबी शाइरी से रिश्ता बना हुआ है क्या अभी भी? उम्मीद करें कि शाइर इरशाद कामिल का कोई शेरी मजमुआ मंजरेआम पर आने वाला है ?

फ़िल्मी शायरी के साथ इल्मी शायरी बाकायदगी से जिंदा है. उर्दू मुशायरों में अक्सर शिरकत करता हूँ दो हफ्ता पहले ही हैदराबाद गया था. हिंदी कवि सम्मलेन वाले नहीं बुलाते शायद इसलिए क्योंकि मेरी हिंदी कवितायेँ समझ आ जाती हैं लोगों को इसीलिए शायद वो उन्हें मयारी नहीं समझते.



लिखने के अलावा क्या करने की ख्वाहिशें हैं?
हज़ारों खवाहिशें ऐसी कि हर खवाहिश पे दम निकले.



दस साल बाद इरशाद कामिल को किस रूप में तसव्वुर करते हैं?
दस साल बाद अगर इरशाद कामिल रहा तो इंशा अल्लाह दस कदम आगे होगा और दस गुना बेहतर इंसान होगा.



जिंदगी को कैसे देखते हैं?

ज़िन्दगी हरहाल में खूबसूरत है अगर आपको देखना आता है.



आस्तिक हैं ? क्या कभी लगा नहीं कि ''कैसा खुदा है तू ,बस नाम का है तू'' लिखने से फतवा झेलना पड सकता है ?

बेहद आस्तिक हूँ. एक मुस्लिम जमात ने इस बात पर बवाल किया भी था. लेकिन ये वो मुस्लिम जमात थी जिसने न मुस्लिम धरम को अच्छी तरह समझा था न मेरे गीत के इस बंद को, ख़ैर जिन्हें बन्दगी समझ नहीं आई उन्हें बंद क्या समझ में आएगा. मैंने लिखा था…



माँगा जो मेरा है जाता क्या तेरा है

मैंने कौन सी तुझ से जन्नत मांग ली

कैसा खुदा है तू बस नाम का है तू

रब्बा जो तेरी इतनी सी भी न चली


यानि मैंने वो चीज़ मांगी है जो मेरी है...मतलब मोहब्बत. मैंने वो चीज़ नहीं मांगी जो तेरी है...यानि जन्नत. हर इंसान अपनी मोहब्बत का मालिक है वो किसी को दे न दे, खुदा जन्नत का मालिक है वो किसी को दे न दे. अपनी चीज़ मांगने पर भी अगर न मिले तो बन्दगी का क्या मतलब?


''मिल जा कहीं समय से परे...'' जैसा दर्शन इरशाद कामिल इक्कीसवी सदी के फिल्मी गीतों में कैसे ले आते हैं?

मुश्किल बात अगर आसान भाषा में कही जाये तो आसान हो जाती है. मेरे लिए फ़िल्मी गीत आटा हैं, आटा जो पेट भरता है. साहित्य नमक है, नमक जो स्वाद बनाता है. मैं आटे में नमक बराबर साहित्य डालता हूँ फ़िल्मी गीतों में. साहित्य में दर्शन भी है और आकर्षण भी.



कोई क्यों ना प्यार करे इस मानीखेज, फलसफे से भरपूर शाइरी करने वाले शाइर को और जो उसे फिल्मों में मुमकिन बना लेता है, कोई हल्का और चलताऊ गीत आज तक उसने नहीं दिया है ??

फिल्मों में आने के बावजूद मैं समाज के प्रति लेखक की ज़िम्मेदारी को भूल नहीं पाया. मैं सिर्फ वही काम करता हूँ जिसकी वजह से मेरी नज़र नीची न हो. चलताऊ या खोखले गीत आपको शोहरत और पैसा दिलवा सकते हैं इज्ज़त और सकून नहीं.