Saturday, July 27, 2013

सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला

फिल्म इल्म - बजाते रहो :


इस फिल्म की खासियत यह है कि दस विदानिया बनाने वाले सशांत शाह की बनाई फिल्म हैं, विनय पाठक भी साथ में है। कहानी यह है कि ईमानदार बैंक अधिकारी बवेजा अपने बैंक के मालिक सबरवाल यानी रविकिशन के कहने पर कम समय में ज्यादा ब्याज का प्रलोभन देकर लोगों का पंद्रह करोड इक_ा करते हैं, और मालिक मुकर जाता है, बवेजा अपनी सहकर्मी सायरा सहित जेल भेज दिए जाते हैं। बवेजा की सदमे से मौत हो जाती है, उनकी पत्नी यानी डॉली आहलूवालिया और बेटा यानी तुषार कपूर, बवेजा की सहकर्मी के पति विनय पाठक और रणवीर शौरी उन पंद्रह करोड़ के हासिल कर वह सम्मान वापिस प्राप्त करना चाहते हैं, विनय पाठक अपनी बीवी को जेल से बाहर लाना चाहते हैं।

कहानी में कई ट्विस्ट हैं, कहानी में झोल भी उतने ही हैं। दिल्ली की कहानी है। पंजाबी बैकड्रॉप है, पंजाब एक दो लोग ही ठीक बोल पा रहे हैं। बेहद प्रतिभाशाली अभिनेता ब्रजेंद्र काला और रवि किशन की पंजाबी बेहद बनावटी है। निर्देशक पर दस विदानिया और चलो दिल्ली के समय जो प्रेम और भरोसा उमड़ा था, वह यहां तक आते-आते बिखरने लगता है। विकी डोनर और लवशव ते चिकन खुराना जैसी कई फिल्मों को मिलकर उसमें इस बैंक धोखाधड़ी वाली कहानी का स्प्रे डाल दिया जाए तो जो कामचलाऊ सी फिल्म निकलेगी वह बजाते रहो होगी। लगता है सशंात किसी जल्दी में थे, वरना ऐसा हादसा वे रच दें, यकीन नहीं आता। यहां जो काम किया है उसके आधार पर नायिका के रूप में विशाखा सिंह से उम्मीद कर सकते हैं। तुषार कपूर पंजाबी नहीं बोलते तो ज्यादा ठीक लगते। मुम्बई के अलावा बनारस के साथ दिल्ली इन दिनों बॉलीवुड वालों की पसंद है, माता की चौकी वहीं ठीक से शूट हो सकती थी, उसमें विनय पाठक हिंदी फिल्मी गीत का माता के भजन के रूप पैरोडी गाना फिल्म का सबसे प्रभावी और यादगार दृश्य है। कुलमिलाकर निर्देशक के नाम से फिल्म देखने जाने का जोखिम ना ही लें। ठीकठाक सी कॉमेडी देखनी हो तो जा सकते हैं।

दो स्टार



Sunday, July 21, 2013

जहाज जो डूबता नहीं

फिल्म इल्म - Ship of Thesius :

प्रतिस्पर्धा का सबसे बेहतर तरीका है बड़ी रेखा खींचना। तो अपनी पहली ही फिल्म से निर्देशक ने भारतीय सिनेमा के लिहाज से एक बड़ी रेखा खींच दी है। आनंद गांधी इसके जरिए बताते हैं कि फिल्म ऐसे बनती है।

'शिप ऑफ थिसियस 'में निर्देशक आनंद गांधी ने तीन कहानियां महीन बुनावट में गूंथी है। पहली कहानी में एक नेत्रहीन फोटोग्राफर है। इस कथा की खूबसूरती आंख और बिना आंख के दुनिया को देखने तथा महसूस करने के भाव पर केंद्रित है। जब दो ऑपरेशन के जरिए उसकी दोनों आंखें मिल जाती हैं तो उसका संसार कैसे बदलता है। इसे देखते हुए निदा फाजली के शब्द कानों में गूंजते रहे- 'छोटा करके देखिए जीवन का विस्तार, बाहों पर आकाश है, आंखों भर संसार।' दूसरी कहानी में एक साधु कुदरत के साथ अपने रिश्ते को परिभाषित करता है, वह मानता है कि वह नास्तिक है पर आत्मा में विश्वास करता है। उसकी मजबूत आस्था है कि हमारे छोटे से कार्य का असर पूरी कायनात पर पड़ता है। इसलिए जब डॉक्टर यह बताते हैं कि उसे लिवर सिरोसिस हो गया है और इसका उपचार संभव है, डॉक्टर कहता है उपचार संभव है पर साधु का मानना है कि उसके उपचार में कितने ही जीवों की हत्या होनी है, इसलिए वैज्ञानिक तरीके से इस उपचार के लिए वह मना कर देता है। पर बाद में मौत को नजदीक पाकर जीवन की अहमियत और अपने अधूरे कामों को पूरा करने की मंशा से उपचार के लिए हां कर देता है। तीसरी कहानी में एक गुर्दे के प्रत्यारोपण की घटना है जो दरअसल एक गरीब के गुर्दे बेचने का मामला है और मुम्बई के आदमी का गुर्दा स्टॉकहोम में एक व्यक्ति को लगाया जाता है और एक धन कमाने में व्यस्त युवा उसकी खोज करता है, अंतत: पता चलता है कि एक आदमी के आठ अंग आठ व्यक्तियों को प्रत्यारोपित किए गए हैं।

फिल्म का शीर्षक एक यूनानी कथा से लिया गया है जिसके अनुसार अगर एक पानी के जहाज के सारे भाग बारी बारी से बदल दिए जाएं तो क्या वह वही जहाज बचेगा या बदल जाएगा। कहते हैं ना कि प्रतिस्पर्धा का सबसे बेहतर तरीका है बड़ी रेखा खींचना। तो अपनी पहली ही फिल्म से निर्देशक ने भारतीय सिनेमा के लिहाज से एक बड़ी रेखा खींच दी है। आनंद गांधी इसके जरिए बताते हैं कि फिल्म ऐसे बनती है। यह भी खास प्रयोग है कि चार भाषाओं हिंदी, अंग्रेजी, स्वीडिश और अरबी का कमाल संयोजन किया है।

पंकज कुमार की सिनेमेटोग्राफी यादगार है। जयपुर के लिए बोनस यह है कि जवाहर कला केंद्र अकल्पनीय और बहुत अलग तरीके से इस्तेमाल हुआ है।

फिल्म जीवन की अहमियत को स्थापित करती है इस स्तर पर कि महान दार्शनिक अल्बेर कामू याद आते हैं, जिन्होंने कहा था कि जीवन अपने दामन में हमारे लिए क्या सौगात रखे हुए हैं, यह जानने के लिए जीवन जीना ही अकेला रास्ता है। बहुत बारीकी से फिल्म कुदरत के साथ रिश्तों की व्याख्या करती है। फिल्म का कैनवस और भूगोल दोनों ही हैरान करने वाले स्तर तक व्यापक हैं। आइदा अलकासेफ ने नेत्रहीन फोटोग्राफर की भूमिका संपूर्णता में निभाई है, तो फिल्म 'बाबर' से डेब्यू करने वाले अभिनेता सोहम शाह ने अपने स्वाभाविक अभिनय से चौकाया है और नीरज कबी का काम भी अच्छा है। आखिर में कहना जरूरी है कि ऐसे विषय और इस तेवर के साथ फिल्म को बनाना बडा जोखिम है जो निर्माताओं ने लिया है, उन्हें सलाम। फिल्म को रिलीज करना किरण राव का वह योगदान है जिसे सलाम से ज्यादा कुछ कहना चाहिए।

चार स्टार

Saturday, July 20, 2013

भाई बुरा मान गया तो !

फिल्म इल्म -डी डे :

भाई से मजाक करते हो, ये ठीक नहीं है। और दर्शकों से तो मजाक कतई नहीं करना चाहिए। काश यह समझे होते निखिल आडवाणी। वे बहुत कमाल निर्देशक रहे हैं, पर उनका कमाल यहां जरा फीका है। डी कम्पनी और मुम्बइया अंडरवर्ल्ड पर यह पहली फिल्म नहीं है।

डी कम्पनी और मुम्बइया गेंगवार पर यह पहली फिल्म नहीं है। पर आखिर तक आते आते भाई को मजाकिया बना देना निखिल के ही बस की बात थी। उनका यह दुस्साहस ही है। डी डे की कहानी का सार यह है कि डी यानी भाई को भारत लाना है और उसकी एक सिनेमाई यात्रा रची है निर्देशक ने। ऐसा सोचना यकीनन एक जोखिमभरा काम है। भाई यानी इकबाल की मुख्य भूमिका में ऋषि कपूर हैं, जो सिद्ध और प्रसिद्ध रूप से दाउऊद इब्राहिम पर आधारित है। उनका चेहरा मोहरा तो भाई जैसा ठीक बन गया है पर धीरे धीरे वे ऋषि कपूर में तब्दील होते जाते हैं, इस यात्रा में इरफान, अर्जुन रामपाल, श्रुति हसन, हुमा कुरैशी जैसे सितारे उनके साथ है। इन जाने पहचाने चेहरों के अलावा आकाश दहिया की दपस्थिति शानदार है। अंत तक आते आते तो लगता है कि मंच पर कोई भाई की मिमिक्री कर रहा है। फिल्म धीरे धीरे उन अनजान और बेजुबान नायकों की हो जाती है, जो गुप्त मिशन पर पाकिस्तान भेजे जाते हैं और सरकार उनके साथ फिर कैसा सुलूक करती है। श्रुति हसन ने कराची के देह बाजार की सेक्स वर्कर की भूमिका ठीक तरह से निभाई है। फिल्म अपनी बुनावट में डॉक्यू ड्रामा की तरह चलती है। शुरूआत जिस तरह से होती है, निखिल उसे बरकरार रख पाते तो जरूर यह फिल्म डी कम्पनी पर बनी फिल्मों में कल्ट फिल्म हो जाती। इरफान अपने काम में वैसे ही हैं, जैसे हमेशा होते हैं।

कई दिनों के बाद किसी फिल्म में गजल सुनने को मिली है। प्रेम फिल्म की अनिवार्यता नहीं है, पर आंशिकता में प्रेम को प्रकट करने में इस गजल ने ठीक काम किया है। गानों में संगीत मधुर है, शास्त्रीयता की चमक में वे बेहद अच्छे बन पड़े हैं। भव्यता विषयानुकूल है। फिल्म की गति भी ठीक है। दाऊद इब्राहिम को लेकर कई फिल्में बनी हैं, अनुराग कश्यप ब्लैक फ्राइडे बना चुके हैं, उससे यह फिल्म आगे नहीं है, और कहीं बड़े बजट के बावजूद बहुत पीछे है।

दो स्टार


Saturday, July 13, 2013

भाग फरहान भाग

फिल्म इल्म - भाग मिल्खा भाग :

मिल्खा को चाहे नाम भर ही सही, हम में से प्राय: लोग जानते हैं, और बहुत सारे लोग उनको नाम और काम सहित जानते हैं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की इस बायोपिक फिल्म में दाखिल होते हुए कई छवियां होती हैं। खेल पर दो बायोपिक किस्म की फिल्में चक दे इंडिया और पान सिंह तोमर हम भूले नहीं हैं। हिंदुस्तान और पाकिस्तान की आजादी तथा विभाजन के दिनों में दंगों की गिरफ्त कहानी का वह सूत्र है जिसे पकड़कर निर्देशक चला है, आपने मां पिता का आंखों के सामने दंगाइयों के हाथों कत्ल और जीजा द्वारा घर से बेदखली के बाद भारत आना और जिंदगी की जद्दोजहद यानी अकेले बालक का स्वाभाविक जीवन संघर्ष पर्दे पर उतारने की यह चेष्टा लंबी हो गई है। उम्मीद से कमतर है। उम्मीद से बेहतर है फरहान अख्तर की अदाकारी। निर्देशक ने पूरी फिल्म में तबियत से भगाया है उनको, जैसे बॉलीवुड में खानों की दौड़ में फरहान अपनी जगह के लिए भाग रहे हैं। पिछले शुक्रवार रिलीज लुटेरा भी पीरियड ड्रामा थी, और यह भी है। अंतर यह है कि भाग मिल्खा भाग सच्ची कहानी से प्रेरित है। और किसी भी जीवनी या आत्मकथा में जो डर होता है कि वह आत्मश्लाघा बन कर ना रह जाए, यह किसी जीवित व्यक्ति पर बायोपिक बनाने में भी उतना ही होता है। इस फिल्म में इस डर से निर्देशक बहुत हद तक बच गए हैं, पर आंशिक रूप से इस मायने में कि मिल्खा का असाधारण नायकत्व ही उभरा है, मानवीय कमजोरियां नहीं। बॉलीवुडिय मसाले डाले गए है, नहीं होते या कम होते तो ज्यादा बेहतर होता। निर्देशक ने जितनी ईमानदारी से फिल्म बनाई है, काश उतनी कसावट भी फिल्म में होती यानी बेवजह फिल्म लंबी हो गई है।

फिल्म में क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह जो पंजाबी सिनेमा के जाने पहचाने चेहरे हैं, ने मिल्खा के कोच की भूमिका में कमाल काम किया है, वहीं मिल्खा की बहन की भूमिका में दिव्या दत्ता ने, अगर बॉलीवुड की इस धारण को अलग कर दें कि नायिका यानी जो नायक की प्रेमिका, तो बहन होते हुए अदाकारी और उसस्थिति के लिहाज से फिल्म की नायिका है जिसने ऑस्कर के लिए नामित पंजाबी फिल्म वारिस शाह के बाद पहली बार इतना शानदार अभिनय किया है। सोनम कपूर छोटी सी भूमिका में भली लगती है।

पहली बार पटकथा लिखने उतरे प्रसून जोशी ने अपने स्तर का काम तो नहीं दिया है, हां गीत बेशक अच्छे हैं। 'हवन कुंड, मस्तों का झुंड' तथा 'कोयला है काला है, चट्टानों ने पाला है' जुबान पर आने वाले हैं। हालांकि समझ नहीं आया कि अगर कोयला मिल्खा के लिए प्रतीकात्मक है तो कोई अंदर से काला होते हुए कैसे सच्चा हो सकता है, जब वे लिखते हैं- 'अंदर काला, बाहर काला पर सच्चा है साला रे।' खैर, इतने मतलब आजकल की फिल्मों में कौन देखता है, पर क्या करें प्रसून जोशी से तो यह उम्मीद रहती ही है। आखिर में छोटी सी बात, दो नायिकाओं से प्रेम करता हुआ और तीसरी को मना करते हुए जीवन में प्रेम को लगभग खारिज करता नायक नई पीढ़ी को कैसा लगेगा, संशय है।

तीन स्टार



Saturday, July 6, 2013

दिल लूट लेती है लुटेरा

फिल्म इल्म -लुटेरा

आप जब देखना शुरू करते हैं और देखते रहते हैं। लुटेरा के साथ लगभग ऐसा ही है। इतनी सुंदरता से विक्रमादित्य मोटवानी ने यह फिल्म रची है कि उनपे प्यार आता है। 142 मिनट की अवधि हमें इतिहास में रहने का प्रामाणिक अवसर देती है। आजादी के बाद साठ का दशक हैं जमींदारी व्यवस्था का अंत करने की प्रक्रिया चल रही है और बंगाल में मानिकपुर के जमींदार सौमित्र रॉयचौयारी को अब भी यकीन नहीं है कि ऐसा हो जाएगा, उनको यकीन बहुत देर में होता है कि जमाना बदल गया है। उनकी सुंदर बिटिया है पाखी यानी सोनाक्षी सिन्हा और इस किरदार में लगता है कि सोनाक्षी पहली बार अभिनय कर रही हैं। पुरातत्व विभाग का एक कर्मचारी वरूण यानी रनवीर सिंह आता है और कहता है कि इनके मंदिर के नीचे कोई पुरानी सभ्यता है जिसकी खुदाई करनी है। यहां रनवीर और सोनाक्षी का प्रेम तथा सौमित्र बाबू की जमींदारी का ध्वस्त होना साथ साथ रचा है निर्देंशक ने। पुरूलिया में प्राय फिल्म की शुटिंग हुई है, और डलहौजी अपनी स्वाभाविकता में आए हैं। बंगाल का आभिजात्यपन और पूरी ठसक जहां पूरी सौम्यता से आए हैं वहीं डलहौजी अपनी कालनिरपेक्ष सुंदरता के साथ। कुलमिलाकर डलहौजी यूरोपीय आभास देता है।
ओ हेनरी की कहानी द लास्ट लीफ कर छाया और बाबा नागार्लुन की कविता कई दिनें तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास का वाचन करते नायक नायिका फिल्म को को एक खास उचाई तक पहुंचाते हैं। एकता कपूर ने इस फिल्म में पैसा लगाया है जानना सुखद हैरानी वाली बात है। या ये कहें कि खराब काम करके पैसा कमाया जाए और प्रयोग करते हुए अच्छा सिनेमा में निवेश किया जाए, अगर ऐसा है तो वाकई काबिलेतारीपफ है और इस एक फिल्म से एकता कपूर के वैसे कई गुनाह माफ किए जा सकते हैं। और ऐसी फिल्म में निवेश के लिए उनको राजी कर लेना अनुराग कश्यप के लिए आसान नहीं रहा होगा।
अगर यहां यह नहीं कहा सिनेमेटोग्राफर ने कमाल किया है तो बेईमानी होगी। दिव्या दत्ता का होना हाजरी भर है, आदिल हुसैन जितने हैं, अच्छे हैं। आरिफ जकारिया भी उम्दा। अमिताभ भटटाचार्य के गाने यहां भी क्लास वाले हैं। दर्शन से भरपूर, कई बार सिर के उपर से निकल जाते हैं। उडान के बाद विक्रमादित्य मोटवानी ने इस फिल्म के जरिए जोरदार तरीके से खुद को जताया है। क्योंकि एक पीरियड फिल्म के साथ इतना न्याय करना हिंदी सिनेमा में फिलहाल दो चार लोगों के ही बस का है।
चार स्टार