Saturday, August 10, 2013

दिल की जुबां से सुनिए, देखिए..

फिल्म इल्म- चेन्नई एक्सप्रेस :

भारतीय भाषाओं के बीच पुल बनाती फिल्म आखिरकार इस स्तर तक आ जाती है कि भाषाएं गौण हो जाती हैं, यह फिल्म का एक संदेश भी है, एक और संदेश भी है कि लड़कियों को मन से अपना जीवन साथी चुनने की आजादी देश के आजाद होने के ६६ साल बाद भी नहीं है।

मीना लोचनी अलकसुंदर नाम की लड़की की कहानी है- चेन्नई एक्सप्रेस। जिसके पिता दक्षिण भरत के किसी इलाके के डॉन हैं। यूं कहानी लेखक के. सुभाष हैं जो तमिल फिल्म निर्देशक हैं। क्रिकेट से प्यार करने वाले और सचिन की तरह ९९ पर आउट दादाजी की अस्थियां प्रवाहित करने मुम्बई से रामेश्वरम जा रहे उत्तर भारतीय अधेड़ के तमिल लड़की से मिलने, और प्रेम करने की की यात्रा को भी हम चेन्नई एक्सप्रेस कह सकते हैं। राहुल यानी शाहरुख और मीना यानी दीपिका पादुकोण का रासायनिक ताना- बाना इस फिल्म को सुंदर और स्वादिष्ट सांभर-इडली डोसा बना देता है। भारतीय परंपरा की कई परतें फिल्म में दिखती हैं, उत्तर भारतीय गोरे होते हैं, एक मान्यता के अनुसार दक्षिण भारतीय द्रविड़ लोग हैं जो पहले उत्तर में रहते थे, हिंसक थे, बदसूरत थे, और आर्यो ने उन्हें दक्षिण की ओर धकेल दिया था। कबीलाई संस्कृति है कि पिता दो बलवानों या इच्छुक युवाओं में से उसी को बेटी का हाथ सौंपेगा जो लड़ाई में जीतेगा।

भारतीय भाषाओं के बीच पुल बनाती फिल्म आखिरकार इस स्तर तक आ जाती है कि भाषाएं गौण हो जाती हैं, यह फिल्म का एक संदेश भी है, एक और संदेश भी है कि लड़कियों को मन से अपना जीवन साथी चुनने की आजादी देश के आजाद होने के ६६ साल बाद भी नहीं है। दक्षिण की खूबसूरती को कैमरे में समेट के लाने में कमाल हुआ है। स्विटजरलेंड घूमते कुछ फिल्मकारों को यह सुंदर जवाब है। इस लिहाज से फिल्म देखना हमें खुशकिस्मत भारतीय होने का अहसास भी देगा। और शायद यह भी कि हम छुट्टियां मनाने विदेश जाने के सपने पालते हैं, जाते हैं, पर हमने अभी भारत को भी कायदे और करीने से नहीं देखा है। यानी फिल्म दृश्यावलियों का वह तिलिस्म रचती है जो आपको बांधे रखता है, आपको बांधने में दूसरा योगदान युनुस सजावल की लिखी चुस्त और गतिमान पटकथा का भी है और साजिद फरहाद के लिखे संवादों का भी जो माकूल असर पैदा करते हैं। अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे गीत सुनने लायक हैं, गुनगुनाने लायक भी हैं।

वायुयान से हरियाली के दृश्य बाकमाल लिए हैं, नदी के पुल से गुजरती ट्रेन और बिना स्टेशन के गांव में जब चेन खींचकर रेल रोकी जाती है तो आसपास का वह खूबसूरत कुदरती नजारा आंखों को ठहर के देखने और थम जाने को मजबूर कर देने वाला है। उस वक्त एक झरना दृश्य में जान डाल देता है, वह झरना रोमांच का झरना है, उल्लास का झरना है, हिंदी सिनेमा के भारतीय सिनेमा में क्रमश: तब्दील होते जाने की कोशिश का झरना है। आधी फिल्म तमिल में होते हुए भी आप कहीं फिल्म से कटते नहीं है। भाषा के बंधन का यह तटबंध टूटना और सायास तोडऩा रोहित शेट्टी की सबसे बड़ी ताकत है जिसके लिए इस फिल्म को अलग धरातल पर देखना पड़ेगा और मानना पड़ेगा। दीपिका ने जताया है कि वह मुख्य धारा के स्टार सिनेमा का हिस्सा होते हुए भी अभिनय के मामले में अपनी कई समकालीनों से इक्कीस हैं। एक तमिल लड़की के किरदार में उसकी जीवंतता अनुपमेय है। भारतीय सिनेमा के सौ सालवें वर्ष में हिंदी सिनेमा का यह भाषांतरित रूप खास तरह से रेखांकन मांगता है। यह सितारों का सिनेमा है तो कुछ अतिरंजनाएं भी हैं, पर उन्हें नजर अंदाज किया जा सकता है।

साढ़े तीन स्टार


Saturday, August 3, 2013

बीए पास विद फर्स्ट डिविजन

फिल्म इल्म- बीए पास :

केवल सायास अनायास रूप से बहुतप्रचारित अंतरंग दृश्यों की चाहत में फिल्म देखने जाने वाले निराश नहीं होंगे पर संवेदनात्मक सिनेमा के दर्शक उन दृश्यों के कारण फिल्म देखने नहीं जाएंगे तो नुकसान में रहेंगे।


फिल्म के प्रचारित अंतरंग दृश्यों को अलग कर दिया जाए तो बीए पास एक अच्छी फिल्म है। उन अंतरंग दृश्यों को रखना तो जरूरी था क्योंकि कहानी का ताना बाना उन्हीं के आसपास है, पर उन्हें प्रतीकात्मक और छोटे भी रखते तो अर्थ वही निकलते जो निर्देशक जाहिर करना चाहता था। खैर, कहानी की बात की जाए तो २००९ में दिल्ली के कई कहानीकारों की एक एक कहानी लेकर एक अंग्रेजी संग्रह हिर्श साहनी के संपादन में प्रकाशित हुआ- 'दिल्ली नोएर'। इसमें सब कहानियां अंग्रेजी नहीं थीं, हिंदी से उदयप्रकाश की कहानी भी थी। उस संग्रह में मोहन सिक्का की एक कहानी थी- 'द रेल्वे आंटी'। यह फिल्म उसी कहानी पर आधारित है, और बाकायदा निर्देशक ने शुरू में यह बताया है।

फिल्म की कहानी यह है कि एक किशोर मुकेश के माता पिता की मौत हो जाती है, दादा के खर्चे पर चाचा- चाची मुकेश को दिल्ली में रखना अनमने से स्वीकारते हैं और बीए में दाखिला दिलवा देते हैं, दो बहनों को उसी कस्बे में एक हॉस्टल में रख दिया जाता है। चाचा रेल्वे में नौकरी करते हैं, उनके बॉस की बीवी सारिका यानी शिल्पा शुक्ला किसी बहाने से मुकेश को घर बुलाती है और यौनिकता के पाठ पढ़ाते हुए दूसरी ऐसी महिलाओं जिनकी यौन आकांक्षाएं पूरी नहीं होती हैं, के पास भिजवाती है, चाचा चाची और उनके लड़के के ताने सुनते मुकेश के लिए आर्थिक आजादी का यह रास्ता धीरे-धीरे उसका काम हो जाता है। बहनों को असुक्षित हॉस्टल से बाहर निकालने और अपने जीवन की बुनियादी लड़ाई लड़ते इस किशोर का एक दोस्त जॉनी है जो ईसाई कब्रिस्तान में मुर्दो को दफनाने का काम करता है और पैसे जुटाकर मॉरीशस जाने के ख्वाब देखता है। इसी ताने बाने में मुकेश के उलझने और आखिरकार कहानी के दुखद अंत तक पहुंचने की दास्तां है-बीए पास। अधेड़ नायिका के तौर पर शिल्पा शुक्ला ने जितना अच्छा काम किया है उससे अच्छा काम किशोर नायक के तौर पर शादाब कमल ने किया है चाहे वह जॉनी की भूमिका निभा रहे दिव्येंदु भट्टाचार्य की फिल्म के लिए आयोजित एक्टिंग वर्कशाप का ही कमाल हो। सारिका के पति अशोक के तौर पर राजेश शर्मा ने भी स्वाभाविक अभिनय से खुद को दर्ज कराया है। फिल्म पंजाब के कस्बाई और दिल्ली के निम्रमध्यमवर्गीय जीवन का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण है, एक वर्जित विषय में साहसिक और सांद्र-सघन संवेदना से परिपूर्ण प्रवेश है।

एफटीआईआई से सिनेमेटोग्राफी की पढ़ाई करने वाले निर्देशक अजय बहल ने कैमरा खुद संभाला है तो कैमरा भी जादू करता चलता है। हालांकि मुकेश बीए पास नहीं कर पाता पर निर्देशक अजय बहल पहली फिल्म में जोरदार पास हुए हैं। किशोरवय और कुलमिलाकर हम आयुवर्ग की ऐन्द्रिक मनोस्थितियों को खंगालती फिल्म को देखते हुए दशकों तक दुनिया भर के मेडिकल कॉलेजेज में पाठयपुस्तक के रूप में पढ़ाए जाने वाले हैवलॉक एलिस के ग्रंथ यौन मनोविज्ञान की याद आती रही। केवल सायास अनायास रूप से बहुतप्रचारित अंतरंग दृश्यों की चाहत में फिल्म देखने जाने वाले निराश नहीं होंगे पर संवेदनात्मक सिनेमा के दर्शक उन दृश्यों के कारण फिल्म देखने नहीं जाएंगे तो नुकसान में रहेंगे।

तीन स्टार