Monday, February 15, 2010

संस्कृति मीमांसा में मेरी प्रेम कविताएँ


painting by alfred gokel,courtesy -google

राजाराम भादू जी के संपादन में िनकल रही संस्कृति मीमांसा के जनवरी-फरवरी अंक में मेरी उन १०४ में से बारह कविताएँ चुनकर छापी हैं जॊ दरअसल मेरे प्रेम में टूटन के बाद दूसरे प‌क्ष की ऒर से हैं.
छपने की कहानी जरा इस तरह है कि ये १०४ कविताएँ उनकॊ आलॊचकीय नजर से पढने के लिए दी तॊ बॊले - 'छापने के लिए क्यों नहीं है, वजह बताऒगे! बडी कीमत में बेचॊगे क्या !' मैंने कहा - मुझे लगता है कि ये निजी हैं इसीलिए तीन साल से लिखी पडी हैं तॊ बॊले - 'ऐसा नहीं है और मैं इनकॊ छाप रहा हूं'
तॊ ये छपकर सामने हैं ....



1

क्यों तुम मेरे सपनों में आते हो
आधी रात उठकर बैठ जाती हूँ
रोती हूँ, सुबकती हूँ
कोसते हुए ईश्वर को
काल को
नियति को कभी
कहां हो और क्यों तड़पा रहे हो
आखिर मेरे प्रिय!

2

यह इमारत
जिसके नीचे पड़ी बैंच पर
तुमने पकड़ा है
पहली बार मेरा हाथ
नहीं भूलेगी यह बैंच, यह इमारत
जैसे हम तुम नहीं भूलेंगे एक दूसरे का साथ
नहीं छोड़ेगे एक दूसरे का साथ
हैं ना, मेरे प्रिय ?



3

कुछ होने के लिए
ज़रूरी नहीं होता है वाक़ई कुछ घटित होना
स्वाभाविक रूप से
हर घटना को घटना मान लेना भी ज़रूरी नहीं
घटना हो सकती है मात्र प्रतीति भी
हो सकती है पूर्वाभास भी
और कभी-कभार
संयोग-दुर्योगवश भी हो सकती है
कोई घटना
सोचती हूँ हमारा प्रेम भी तो ऐसा ही है, मेरे प्रिय!



4-

प्रेम की आड़ी तिरछी रेखाओं में
कहीं मैं गुम हूँ
और कहीं तुम गायब
पर मिलते हैं फिर
किसी ख़ला में अमूर्त-से हम तुम
देश काल की सीमाओं से ऊंचे उठते हुए
मेरे प्रिय!

5

दिल्ली - तीन


सपनों की
दिल्ली बहुत दूर होती है।
पर
तुमने सिखाया और बताया
कि सपनों की दिल्ली दूर नहीं है मेरे प्रिय
पर
अब दिल्ली दूर नहीं है सपनों की
लेकिन
अब सपने ही नहीं हैं ना दूरी के
ना पास के
ना दिल्ली के, मेरे प्रिय!

6-

तुम प्रेम में मर भी सकते हो
इतना प्यार करते हो तुम मुझे
मैं मर नहीं सकती यही है शर्त मेरी प्रेम में
मैं प्रेम में जीना चाहती हूँ
इतना ही करती हूँ प्रेम मैं
सिर्फ इतना ही, मेरे प्रिय!


7-
क्या तुम्हारा साथ वाजिब है
जब तुम रीत गए
भरते हुए मेरा खालीपन
और मैं रीत गई
भरते हुए तुम्हारा खालीपन
पर किसी का भी नहीं भरा
और रीत गए दोनों ही समूचे, मेरे प्रिय!


8-

आओ कॉफी हाउस की इस टेबल पर
बैठे हुए हम
अशरीरी हो जाएं
दो रूहों को बात करने दें
चुपचाप
एक दूसरे को देखते हुए
अपलक, मेरे प्रिय!

9

उस बहते हुए पानी में जहां हम साथ नहीं थे
साक्षी बनाते हुए उसे हमारे प्रेम का
बहाए प्रेम पत्र एक एक करके
लगा तुम्हें बहा रही हूँ चिंदी-चिंदी
या
खुद को बहा रही हूँ कतरा-कतरा
सोचती हूँ
प्रेम जीने के लिए होता है क्या
प्रेम पाने और खोने के लिए होता है
या
प्रेम होता है
बहाने के लिए प्रेम पत्र की तरह -
निनिZमेष, मौन, मेरे प्रिय!

10

प्रेम का भ्रम - तीन


प्रेम में तुम चाहते थे प्रेम
प्रेम में मै चाहती थी प्रेम
प्रेम के बीच में पला प्रेम का भ्रम
प्रेम के साथ
हमारे बीच और
जब बिखरा भ्रम तो
टूट गया प्रेम भी मेरे प्रिय!

11

मरुधरा - तीन

मेरा प्रेम कहां समाता आिख़र
मरुस्थल के रेतीले प्यासे धोरों में
मुझे क्षमा करना, मेरे प्रिय!

12-

मरुधरा - छ:

हमारे प्रेम की सरस्वती
सूख गई आखिर काल के प्रताप से
लुप्त हो गई मरुधरा में
अज्ञात काल के लिए, मेरे प्रिय!

Friday, February 12, 2010

मेरी प्रेम कवितायें


दोस्तों की मांग पर पेश है मैसूर में कृत्या अंतरराष्टीय काव्योत्सव-2010 में पढी प्रेम कविताएं --

1

तुम्हारे मिलने से

मिली सूरज की किरण

मेरी आँखों में हो गयी शामिल

और मेरी रोशनी

असीम हो गयी

सच

तुम मिली और

मैं उजालों से भर गया

इस अंधेरी रात में

मरुस्थल में उतरते चाँद की तरह....।


2-

अकेला चाँद और तुम

तारों की भीड़ में

टिमटिमाती तुम

उजाले की अंगीठी में

मेरी फूंक से जलती और

शोला बनती मेरी प्रिय

क्या तुम चाँद भी होती हो कभी !

किसी क्षण ....


3

तुम्हारी आंख के

काजल से चाँद को काला कर के

ढक दूँ

और तुम्हारे चेहरे पर

लिख दूँ

नाम चाँद का

काला चाँद फिर चुपके से आए

और शरमाये पूछे खुद मुझसे अपनी शिनाख्त ।

कोई काजल किसी की आंख का

अश्कों के मोती लेकर हथेली में आए

और प्यार की उजली किरणों से

दुनिया का कोई नक्शा बनाये

और

चाँद को सांवली सी दुल्हन बनाए

आंख में उजाले भर जाए ....

फिर किसी

बादल की डोली में बिठा के

दिल की गली में

आशियाँ मुहब्बत का सजाये

चाँद को मुकम्मल बनाये

याद को पागल बनाए

फिर कोई चुपके से आकर

चाँद को साजन बना दे

मरुस्थल के चाँद को

समंदर की छागल बना दे।


4

रात भर किया

दो कुर्सियों ने प्रेम

दो पेड़ों ने

बांहें फैलाकर किया आलिंगन

घर के दरवाजे की चैखटें

करीब आकर चुंबन लेती रहीं रात भर

प्रेम में डृबी रही

पंखे की पंखुडियां चुपचाप

एक ठिठुरती जाड़े की रात में

पति पत्नी लड़ते रहे रात भर

लगभग बिना ही कारण

जो कहते नहीं थकते-

'आय एम लकी बहुत अच्छी बीवी मिली है मुझे '

और

'मेरे पति बहुत प्यार करते हैं मुझसे '

आज फिर देखूंगा

सुबह सुबह दफ्तर में दो कंम्प्यूटर पाये गए

आपत्तिजनक अवस्था में

जो आलिंगनबद्ध रहे रात भर।

5

उन नितांत अकेले क्षणों में

जब ठीक आधी रात को

एक दिन विदा लेता है

और दूसरा दिन शुरू होता है,

याद करता नहीं हूं

याद आती हो तुम

जैसे कोई दीप किसी मंदिर का जल जाए चुपचाप

वो क्षण स्तब्ध से गिनते हैं

शोर के कदमों की आहटों को।

कोई खयाल तो नहीं हो तुम,

और कोई बेखयाल सी भी नहीं हो हरगिज।

प्रेम के उन नितांत अकेले क्षणों की परिधि में जो अधूरा रह गया हो

बिछड़े हुए प्रेम के दिये ही जलते हैं,

कोई मशाल नहीं।

6

ओ मेरे प्रिय !

रोशनी गुमसुम है और धुन जिंदगी की निस्तेज

प्रेम सूखे हुए पेड़ को सहलाना है क्या?

प्रेम रक्तबीज है

प्रेम बस प्रेम है

भोगने के लिए या भुगतने के लिए।



7

अब भी जब सूरज आके पूछता है

उससे मिलने जाना है क्या आज?

कहां मिलोगे? वहीं महिला छात्रावास?

चांद सुलाता है, मुझे लोरी देता है-

सो जा, वो सो गई है, आज फिर बिना तुम्हारा नाम लिए!


8

प्रेम के पल जीवन के सुंदरतम पल हैं

जो किसी के इंतजार में गुजरते हैं

कुछ भ्रमों को जीवन में पालकर

बहुत प्यारे भ्रम!

जीवन के श्रेष्ठ क्षणों के सूत्रधार

और

प्रेम के अर्थ को व्यर्थ होने से बचाने वाले वे निर्दोष से!