Friday, December 7, 2007

मैंने तसलीमा को देखा है- तीन




तसलीमा जी कह रही थीं कि कुछ पुरुष स्त्रियों का शोषण करते हैं और उसे सिर्फ उपभोग कि वस्तु यानी सेक्सुअल ऑब्जेक्ट मानते हैं ,कुछ लोग उन्हें समान मानते हैं ,मानव के रुप में व्यवहार करते हैं, दोस्ती का व्यवहार करते हैं.इस तरह एक ही समाज में हमें कई मानसिकताएं दिखाई देती हैं.इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि पुरूष ऐसे हैं या वैसे हैं .मुझे कुछ अच्छे पुरुष मित्र मिले हैं , वो भी मेरी तरह स्त्री अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, पर एक कड़वा सच है कि सदियों से चली आ रही पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था को इतनी सरलता से और शीघ्र समाप्त नहीं किया जा सकता,यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति वैचारिक तौर पर कितना स्पष्ट है और उसने कैसी शिक्षा प्राप्त की है, शिक्षा से मेरा तात्पर्य यहाँ किताबी शिक्षा से नहीं है ,स्वशिक्षा से है .मेरी नज़र में स्त्री और पुरुष दोनो को समानता के लिए प्रयास करने चाहिऐ ।
मैंने उनसे पूछा कि अगर तसलीमा से कहा जाये तो वह अपने जीवन का पुनर्लेखन कैसे करना चाहेंगी? तो उनका जवाब था कि बस मैंने जिया,समस्याएं झेलीं,मुझे अच्छे बुरे अनुभव हुए ,दोस्त मिले,फतवे मिले ,धमकियां मिलीं, .लिखने के कारण मुझसे कुछ लोग प्यार करते हैं तो कुछ नफ़रत भी करते हैं। जो मैंने अपने जीवन में किया मुझे उसका कोई अफ़सोस नहीं है .मैं महिला अधिकारों के लिए लिख रही थी ,लड़ रही थी,उसी वक्त मेरी माँ पीड़ित रही,मैं उनके दर्द को नहीं समझ पाई,उनकी देखभाल नही कर पाई,अगर री राईट कर पाती तो उनकी मदद करती,उनका ज्यादा सम्मान करती ।इस वक्त वो लगभग रूआसी हों गयी थीं,उन्होने पानी पीया ।
भाई दिनेश ने पूछा लज्जा से आज तक तसलीमा में क्या बदलाव आये? उनका जवाब ये था कि मैं बहुत परिपक्व हुयी हूँ ,शुरू से हीई कट्टरपन के खिलाफ थी, अब ये सोचती हूँ कि ये सब अब भी क्यों है,ये क्यों बढ़ रहा है?अब समस्याओं को ज्यादा गहराई से देख रही हूँ.अब गुस्सा नहीं आता, शांत हूँ,पहले चिल्लाती थी .अब मेरे लेखन में ज्यादा गहराई आयी है।
अब दिनेश भाई फॉर्म में आ गए थे ,शुरू में थोडा हिचकिचा रहे थे ,अगला सवाल भी उन्होने ही दागा -लेखन के अलावा क्या करती हैं? बोलीं -पढ़ती हूँ ,पेंटिंग्स बनाती हूँ ,दोस्तों से चैट करती हूँ,घूमती हूँ,लेखन एक मात्र काम नही है मेरा ।
दिनेश जी अगला सवाल उनके पसंदीदा लेखकों को लेकर था, जिसके जवाब में उनका कहना था कि बंगाली में शोमती चटोपाध्याय और कुछ युवा लेखक भी ,जबकि गोर्की ,लियो तोल्स्तोय ,ग्राहम ग्रीन और कुछ भारतीय लेखक।
अब तस्लीमाजी से हमने पूछा कि आप कैसी दुनिया का सपना देखती हैं? वो जैसे शून्यमें झाँकने लगीं ,फिर बोलीं-ऐसी सुन्दर दुनिया जहाँ महिलाएं अत्याचार और उत्पीडन से मुक्त हों,समाज धर्मनिरपेक्ष हों,सब में मानवता और प्रेम हों,सबको बिना लिंगभेद समान रुप से आगे बढ़ने के अवसर मिले.हर लेखक की अपनी दुनिया होती है,एक वो जिसमे वो जीता है,दूसरी वो जिसका वो सपना देखता है, ये मेरी वो दुनिया है जिसका सपना देखती हूँ। फ़िर उनकी पिछली और आगामी किताबों के बारे में उनसे बातें हुईं ,तकरीबन घंटा भर का साथ न भूलने लायक।
आज वो जिस पीडा में हैं , वो साथ ज्यादा याद आ रहा है ,मेरे मित्रों को ये तकलीफ है कि उन्होने किताब से वो हिस्सा हटाने की घोषणा की ,उनके मन में तसलीमा जी के प्रति सम्मान मे कमी आ गयी है, जबकि मुझे ख़ुद पे शर्म आयी कि मैं उस व्यवस्था का हिस्सा हूँ जिसने तसलीमा जी को विवश किया इस के लिए ,खैर अपना अपना नजरिया है.

5 comments:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

बहुत सही लिखा है आपने. सम्मान में कमी तो उस व्यवस्था के प्रति होनी चाहिए जो एक रचनाकार को अपने मन की बात कहने के लिए एक सुरक्षित माहौल भी उपलब्ध नहीं करा सकती. तसलीमा के प्रति तो सहनुभूति ही होनी चाहिए, और है कि उन्हें इस नृशंस समय में अपनी कलम को बचाये रखने के लिए इतना संघर्ष करना पड रहा है.
बहुत उम्दा आलेख के लिए बधाई और

सुभाष नीरव said...

भाई दुष्यन्त जी, तसलीमा की पीड़ा एक स्त्री लेखक की पीड़ा है जो पुरुष सत्तात्मक समाज में कलम के सहारे स्त्री अधिकारों के लिए लड़ रही है। उनके अन्दर अपनी बात निर्भीकता से कहने की जो शक्ति और साहस रहा है, वह भविष्य में भी बना रहे, हम यही कामना करते हैं।

Jyo said...

I appreciate your sensitivity.

abhishek said...

bhai shirshak jara badal den,,, taslima abhi hamare beech hain, aur unhe dekhne ke bahut avasar muhaiya hain..........

neelima garg said...

years back i read LAJJA and found it thought provoking.Its nice that she is writing continously giving words to her thoughts......