Monday, December 21, 2009

समय का पहिया घूमे रे...



बजाज कंपनी ने स्कूटर ना बनाने का फैसला किया है, यह भारतीय मध्यम वर्ग के जीवन में एक बदलाव के हथियार का इतिहास बनना नहीं है क्या?

बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर, हमारा बजाज... यह विज्ञापन देख और सुनकर बचपन गुजारने वाली पीढी अब जवान होकर युवतर हो रही है, मैं भी उसी लाइन के आखिर में खड़ा हूं। बदलाव जिंदगी का जरूरी हिस्सा है और जिसके लिए कहा जाता है कि बदलाव के अलावा कुछ भी स्थाई नहीं है। बजाज स्कूटर से बाइक का सफर सिर्फ उस कंपनी और दुपहिया चालकों का सफर नहीं है, यह देश के साथ दुनिया के बदलने का वक्त है। इसे दो पीढियों के अंतराल के स्पष्ट विभाजन के रूप में देखा जाना चाहिए। बजाज के चेतक मॉडल को याद करें, जो अब भी आपको साल में दो-चार बार दिख ही जाता होगा। उसे देख के नॉस्टेलजिक नहीं होते क्या! हमारा पहला स्कूटर, उस पर जाकर पहला प्रेम प्रस्ताव या कॉलेज का पहला दिन, सारे घर का दुलारा, सारे मोहल्ले की जलन टाइप कितनी ही बातें क्या उमड़ती-घुमड़ती नहीं है!
आज जवान होती पीढी टेपरिकॉर्डर, ऑडियो-वीडियो कैसेट, वॉकमेन के बाद की पीढी है। मौहल्ले में चंदा करके किसी वीकेंड पर वीडियो पर रात भर फिल्में देखने का विचार और उसका तिलिस्मी अहसास क्या आज की युवा जमात को अविश्वसनीय नहीं लगेगा जो लैपटॉप में दुनिया भर की फिल्में लिए घूमती है। और इस तरह बात वहीं आ गई कि उस वक्त की कितनी ही हिंदी फिल्मों में एक मैटाफर के तौर पर बजाज स्कूटर की उपस्थिति देखी जा सकती है। जरा, पहिए के आविष्कार को याद करें, यह ऐतिहासिक रूप से नवपाषाण काल की घटना है, जो तीन हजार ईसा पूर्व प्रारंभ होता है यानी आज से तकरीबन पांच हजार साल पहले, और यह प्राय: मिटटी के बर्तन का समय था। यह पहिया ही था जिसने उस कालखंड को महत्वपूर्ण बनाया था, हालांकि इसका व्यापक प्रयोग तदंतर इसी मिटटी के बर्तनों के युग के ताम्र-कांस्य काल में हुआ, जब गाडिय़ां बननी शुरू हुईं और फिर समय का पहिया घूमा और वक्त की रफ्तार बढ़ी और मानवीय तरक्की के रास्ते खुले। जब पहली बार जयपुर से पांच सौ किलोमीटर दूर कालीबंगा के संग्रहालय में मौजूद उस ताम्रकांस्ययुगीन पहिए का मिट्टी का प्रतिरूप देखा था, मेरी आंखों की हैरानी मुझे आज भी याद है। वक्त के पहिए ने बहुत सी चीजों को इतिहास बनाकर हमारी याद और किताबों-लफ्जों तक सीमित किया है, बजाज स्कूटर भी वैसा ही प्रतीक है। राजस्थान की पाक सीमा के उस तरफ के राजस्थानी गांव की कथा पर महरीन जब्बार की फिल्म रामचंद पाकिस्तानी के शुरुआती सीन को याद कीजिए जिसमें बालक रामचंद साइकल के चक्के को लकड़ी से ठेलते हुए खेल रहा है। तो आइए, गुजरे हुए वक्त को थामे हुए गुजरते हुए और आते हुए वक्त की रफ्तार को पकड़ें।

4 comments:

Anonymous said...

नई पीढ़ी के लिए भावनात्मक लगाव से ज़्यादा ज़रुरी है प्रैक्टिकैलिटी। शायद यही वजह है कि राजीव बजाज के इस फ़ैसले पर राहुल बजाज ने दुखी मन से हामी भरी लेकिन राजीव के लिए ये दुनिया का नं 1 बाइक निर्माता बनने के लिए फ़ालतू प्रॉडक्ट्स में जाया होती ऊर्जा से छुटकारा पाने का बहाना है।
'हमारा बजाज' के पुराने दिन याद दिलाने के लिए शुक्रिया !

पृथ्‍वी said...

हमारा बजाज.. एक उत्‍पाद नहीं सपना था. वक्‍त बदल गया है शायद इसलिए राजीव बजाज भी बदलना चाहते हैं.

ramkumarsingh said...

achha hua band ho gayaa.. mujhe to pasand bhi nahi tha...maine to
hameshaa car ka hi sapna dekhaa har bhartiya ke liye... sabko haq
hai.isliye ratan tata bada aadmi hai.maana ki pollution hoga lekin har
baar gareeb ke hi pollution par kyun anguli uthti hai. saare ameer
kitnaa carbon failaa rahe hai.. we khaate bhi jyada hai aur paadte bhi
jyada hai.... alvida bajaj.... welcome NANO..

pallav said...

badhiya.