Tuesday, June 30, 2009

आज तीस जून है



आज तीस जून है ...

तीन साल पूरे हो गए हैं एक घटना को ...पर जो अब भी ताजा है

वक्त को गुजरना है लम्हों को सहना है और दिल को तड़पना है ...

वो खुश होंगे .आज उन्हें दुनिया की सबसे बड़ी उपाधि मिलने की पूर्व पीठिका बननी है ..फिर उपाधि मिलना औपचारिकता मात्र होगी ..खुश हूँ मैं..लाजिम है ...

दिन , अगर ऊपर वाला है तो वो ही तय करता है ..कब क्या होना है ..

मैं तो चाहता था.आज इस शहर में ना होऊं..पर फिर भी रह गया...शायद दिमाग मुझे कहीं ले जाना चाहता था और दिल रोकना....रुक गया हूँ.. ..

Thursday, June 25, 2009

आलोक श्रीवास्तव की आमीन का सफर मुसलसल जारी

कुछ लोगों की सृजनात्मकता से ईर्ष्या होती है , उनमे पहली पंक्ति में हैं - भाई आलोक श्रीवास्तव ..उनकी शायरी के पहले मजमुए 'आमीन' का दिग्विजय अभियान जारी है ...पूरी खबर के लिए एक क्लिक तो कर ही लें...

http://qalam1.blogspot.com/

Monday, June 15, 2009

सौ साल की गवाही में एक किताब

हिंद स्वराज

आज एक किताब के बहाने उसके समय पर बात कर रहा हूं। पंद्रह साल पहले, पहली बार जब मेरा हिंद स्वराज नाम की किताब से राब्ता कायम हुआ था, गांधी को तार्किक रूप से समझना और उनके प्रति अपनी अगाध भक्ति के तार्किक आधार खोजना शुरू कर रहा था, उस वक्त किताब की उम्र जाहिर है 85 साल की थी। इस साल समय की रेत घड़ी में जब इस किताब को सौ साल हो रहे हैं, इस किताब की अहमियत मुझे लगता है कि बहुत बढ़ गयी है, जैसा गांधी इस किताब की भूमिका में कहते हैं कि यह द्वेष धर्म की जगह प्रेम सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है, पशु बल से टक्कर लेने के लिए आत्म बल को खड़ा करती है। दरअसल ये किताब भारत की दशा और बेहतरी के लिए मॉडल प्रस्तावित करती है हालांकि वे खुद कहते हैं कि हिदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रि य अंश के रूप में स्वीकारे तो स्वराज स्वर्ग से हिन्दुस्तान की धरती पर उतरेगा लेकिन मुझे दु:ख के साथ इस बात का भान है कि ऐसा होना दूर की बात है। ये अक्षरश: सच है आज भी, उस निर्मम समय में जब जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और वंशवाद राजनीति में स्वीकार प्राय: हो गए हैं।हिंद स्वराज के सौ साल एक तरह से भारत के बदलाव के सौ साल हैं, इन सौ सालों ने गांधी का अप्रतिम, अकल्पनीय और अद्भुत नेतृत्व तो देखा ही, साथ ही क्रमश: बढ़ती साम्प्रदायिकता, देश का विभाजन और विभाजित देश का विभाजन भी, गांंधी की हत्या, समाजवादी लोकतंत्र के सपने का बुना जाना और आंशिक सफलता के बाद उसका बिखर जाना, कांग्रेस के एकनिष्ठ राज, पतन और फिर क्षेत्रीय ताकतों का उद्भव और पुन: कांग्रेस का उदय, पंजाब और कश्मीर का जलना, गांंधी के ही गुजरात में सांप्रदायिकता के तांडव, उत्तर पूर्व के संकट, घोटालों के चरम, आतंकवाद और इंदिरा तथा राजीव की हत्याओं के दौर जैसी स्थितियों के बीच बनते, बिगड़ते, उभरते, उलझते, सुबकते, सुलगते मुल्क को भी देखा है। तो इन तमाम स्थितियों की गवाह किताब को इस लिहाज से देखा जाना जरूरी है कि ये किताब भारत के बनने और उसके बाद लगातार होती भूलों और चूकों, सायास चालाकियों, छद्म-अदृश्य राष्ट्रद्रोहों के आलोक में हमारे देश के गुनाहगारों की करतूतों का अतीत में रहस्योद्घाटन करती है और जैसे आज सौ साल बाद आके हर हिंदुस्तानी से कहती है कि इस गुनाह में तुम भी बराबर के शरीक हो और ये वो प्रेमपूर्ण हिदुस्तान नहीं है जिसकी कल्पना गांधी बाबा जैसे आजादी के लिए लडऩे वाले लोगों ने की थी और वो सपने अभी अधूरे हैं। गांधी बाबा जब इसमें लिखते हैं कि अगर हिदू मानें कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसनमान ही रहें तो उसे भी सपना समझिए तब बाबरी मस्जिद का ढांचा नहीं ढहा था, गुजरात नहीं जला था। और जब इस किताब में गांधी बाबा कहते हैं कि उसने सच्ची शिक्षा पाई है जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इंद्रियां उसके बस में हैं, जिसके मन की भावनाएं बिल्कुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है, ऐसा आदमी ही सच्चा शिक्षित माना जाएगा। तो क्या इसे संसार के समस्त नीतिशास्त्रों का निचोड़ नहीं माना जाना चाहिए। क्या आधुनिक झंडाबरदार तथाकथित राष्ट्रवादी इस किताब में दिए स्वदेशाभिमान के अर्थ को ग्रहण करेंगे कि स्वदेशाभिमान का अर्थ मैं देश का हित समझता हूं, अगर देश का हित अंग्रेजों के हाथ होता हो, तो मैं आज अंग्रेजों को झुककर नमस्कार करूंगा।


मेरी राय में तमाम अतिशयोक्तियों से बचते हुए कहा जाय तो भी यह किताब भारतीय परिप्रेक्ष्य में बेहतर जीवन, बेहतर समाज, बेहतर राष्ट्र और फिर बेहतर दुनिया का सहज और व्यावहारिक रास्ता बताने वाली बेहतरीन किताबों मे से एक है और उन विरासतों में से भी है जिन्हें बचाना बहुत जरूरी है।

Monday, June 8, 2009

तारीख लिखो तो ऐसे लिखो


ये पुस्तक समीक्षा कतई नहीं है न ही व्यक्ति परिचय है, किताब के बहाने व्यक्ति और व्यक्ति के बहाने किताब पर भी बात नहीं है। सच पूछें तो इन दिनों एक किताब ने नींद हराम कर रखी है, किताब है झुरावौ जिसका शाब्दिक अर्थ है विलाप, और मैं सचमुच विलाप की अवस्था में हूं। एक इतिहास का विद्यार्थी एक अल्पज्ञात से ऐतिहासिक प्रसंग को जब साहित्य में जीवंत देखता है तो शायद ऐसा ही होता हो । ऐसी ही अनुभूति मुझे कुछ बरस पहले झारखंड मे रहने वाले राकेश कुमार सिंह के उपन्यास जो इतिहास में नहीं है से गुजरते हुए भी हुई थी जिसे उसके बाद जामिया मिलिया से जुड़े रहे इतिहासकार सुधीर चन्द्र ने मुझसे अनौपचारिक बातचीत में कुछ यूं बयां किया था कि साहित्य में नामों के अलावा सब सच होता है और एक हद तक इतिहास में केवल नाम॥।


झुरावौ राजस्थानी और हिन्दी के जाने माने लेखक चन्द्रप्रकाश देवल की कविता कृति है। इसमें आउवा में विक्रमी संवत 1643 यानी 1586 ईस्वी में हुए जिस धरने को केंद्र में रखकर कवितायें रची हैं वो दरअसल सामंतवाद के खिलाफ आत्मसम्मान और प्रतिकार का प्रतीक है, और जिसे गांधी के सत्याग्रहों और बिजोलिया के सत्याग्रह की पूर्व पीठिका के रूप में देखा जा सकता है। ऐसा नहीं कि ये धरना इतिहास में अज्ञात है। सूर्यमल्ल मिश्रण, श्यामलदास, विश्वेश्वरनाथ रेउ, मुहता नैणसी इस घटना से परिचित हैं पर इसे मानवीय संवेदना की उंचाइयों तक झुरावौ ही पहुंचाती है अचम्भित करने की हद तक। ये इस घटना का जादू है, उस संवेदना का भी जिसने धरने की पृष्ठभूमि रची और अंतत कवि के कवित्व का भी। पहली कविता मीठी सी पीड़ा की आरंभिक पंक्तियां तिलिस्मी हैं - बेटा ! /कमरे की उत्तर दिशा वाली खिड़की मत खोल /यह आउवा की और खुलती है। या संग्रह की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां- मैं अपने होने और न होने के मध्य /उद्विग्न सा /नया आउवा तलाशता हूं /वह दूर तक मुझे /कहीं दिखाई नहीं देता।


राजस्थान के इतिहास प्रसंगों को साहित्य की विषय वस्तु बनाकर इस से पहले भी फिक्शन में उमेश शास्त्री और आनंद शर्मा के रस कपूर, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र के एकाधिक में से जनानी ड्योढी जैसे महत्वपूर्ण काम हुए तो हरिराम मीणा के धूणी तपे तीर जैसे हादसे भी रचे गए हैं पर कविता में झुरावौ अनोखा है और कविता तथा इतिहास के एक साथ दुर्लभ निर्वहन के साथ। इतिहास के साथ साहित्य के रिश्ते को लेकर मुझे लगता है कि बड़ा ही नाजुक रिश्ता है, कब कहां चूक हो जाए और पता भी ना चले और जब रसायनशास्त्री (राकेश कुमार सिंह और चंद्रप्रकाश देवल) साहित्य और इतिहास की कैमिस्ट्री को भरपूर निभाते हैं तो ईष्र्या-सी होती है। झुरावौ जैसी एक इतिहास आधारित साहित्यिक कृति से गुजरते हुए ये आभास होना लाजमी है कि वर्तमान की पीठ पर सवार होकर अतीत से भविष्य की यात्रा करना इंसानी आदत हो जाये तो हमारी बहुत-सी समस्याएं शुरू होने से पहले खत्म हो जाएं।


खुशामदीद !


इधर, युवा शायर धूप धौलपुरी की शायरी का पहला मजमुआ जज्बात की धूप हाल ही मंजरे आम पर आया है, फिल्मी लबोलहजे के इस शायर के अदबी मेयार की बानगी देखिए-


बादल से कहते हैं तुम ना बरसो मेरे आंगन में,


आंखों में, सावन के जैसी फिर भी झड़ी लग जाती है।


हमने बसा ली अपनी बस्ती दूर तुम्हारे शहरों में,


फिर भी न जाने कब ये बस्ती शहरों से मिल जाती है।