Monday, June 21, 2010

लेखक भी तो बाजार का हिस्सा हैं




क्या आप यकीन कर सकते हैं कि आजादी के बाद के साठ सालों के बारे में कोई इतिहास निर्विवादित रूप से लिखा जा सकता है जिस पर कोई ना कोई ‘आहत’ ना हो।


कोई लेखक क्यों लिखता है, सवाल बहुत बड़ा है और इसके जवाब कई हो सकते हैं। इस एक सवाल पर सैंकड़ों शोध हो सकते हैं, हुए भी होंगे, कई किताबें लिखी जा सकती हैं, लिखी भी गई होंगी। इस विषय पर लिखने के बारे में सोचने से पहले लेखक रसेल बेकर का एक कथन कहीं से मेरे सामने आया और जेहन पर तारी रहा है। वह कथन यह है- ‘मैं केवल लेखक होने के लिए ही उपयुक्त था, मुझे संदेह था कि क्या मैं वास्तव में कोई भी कर सकता हूं, लेखन के लिए किसी काम को करने की जरूरत ही कहां होती है।’ आंशिक रूप से सहमत होते हुए भी मैं रसेल के इस कथन से पूरी तरह सहमत तो नहीं हो सकता।

इतिहास का विद्यार्थी हूं और हाल के कुछ सालों में इत्तेफाकन इतिहास पर लिखी किताबों ने ही ज्यादा कहर बरपाया है, कई चूलें हिलाई हैं, सत्ताएं उखड़ती-उखड़ती बची हैं। कभी नेहरू को लेकर, कभी गांधी को लेकर, कभी जिन्ना को लेकर कभी इंदिरा को लेकर। मैं अक्सर ये सोचता हूं कि आजादी के बाद के भारत को लेकर सबसे महत्वपूर्ण किताब रामचंद्र गुहा ने लिखी- इंडिया आफ्टर गांधी। शुक्र है कि उस पर कोई विवाद नहीं हुआ, मुझे यकीन है कि विवाद पैदा करने वाले इसका वृहदाकार देखकर खोलने की हिम्मत नहीं करते होंगे, खोजकर विवादास्पद पंक्ति या विचार खोजना तो बाद की बात है। क्या आप यकीन कर सकते हैं कि आजादी के बाद के साठ सालों के बारे में कोई इतिहास निर्विवादित रूप से लिखा जा सकता है जिस पर कोई ना कोई ‘आहत’ ना हो। इसलिए मेरे प्रिय इतिहासकार गुहा पर निस्संदेह ईश्वर मेहरबान है, शुक्र है।

जिन्ना पर जसवंत सिंह ने लिखा, बवाल मचा, गांधी पर जेड एडम्स की किताब आई -नेक्ड एम्बिशन, बवाल ना हो, ऐसा हो नहीं सकता था, तो हुआ। अब तो कई बार यह भी लगता है कि इन ऐतिहासिक पात्रों पर कुछ भी लिख दीजिए, चर्चा और विवाद तय है। और यही बात इस बहस की मूल बात है जिसे दूसरे तरीके से कान पकडऩे के रूप में लेना चाहिए यानी लेखक विवादित होकर चर्चा मे आकर लिखता है या इन विषयों पर कुछ भी लिख दे तो चर्चा में आना, विवाद में आना लाजिम है। मेरी राय है कि नई किताब आए तो ज्यदा महत्वपूर्ण उसका तथ्यसम्मत होना है, संभव है लेखक ने अब तक अज्ञात या लगभग अज्ञात तथ्यों और स्रोतों को खेजा हो या पूर्व उपलब्ध तथ्यों और स्रोतों की पुनव्र्याख्या की हो। जेड एडम्स जो एक काबिल और समझदार इतिहासकार माने जाते रहे हैं, ने भी यही किया, विवाद होना लाजिम था क्योंकि इसमें एक महान इनसान की सहज मानवीय कमजोरियों की ओर इशारा था, यह कौन पूछे कि वो तथ्यसम्मत है या नहीं, हम उनके नाम पर राजनीति की रोटी सेंकते हैं, तो उनकी छवि को बेदाग रहना चाहिए तथ्य जाए भाड़ में, व्याख्या जाए जहन्नुम में। और यही बात बहुत संभव है कि जेवियर मोरो की लाल साड़ी को लेकर हो।

अब जरा इस बात पर आएं कि लेखक क्या ऐसे विषयों पर जानबूझ कर लिखता है, इस तरह से जानबूझकर लिखता है कि वह विवाद में आ जाए, पहली बात तो यह कि विवदित विषय पर लिखने में कोई बुराई नहीं है, पर शर्त इतनी सी है कि तथ्यों के साथ लिखा जाए। ओमपुरी की जीवनी लिखी नंदिता पुरी ने, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान एक डिनर पर वे साथ थीं तो पत्रकारीय मित्रता भाव से पूछ बैठा, उनका जवाब विश्वसनीय था, जिसे बाद में उन्होंने मंच से भी स्वीकारा कि उस किताब के विवादित अंश बिना उनकी जानकारी के संभवत: प्रकाशक ने जारी कर दिए। तो दूसरी बात यह कि मुझे यह लगता है कि विवाद और उसके बाद बेस्टसेलर होने के गणित में लेखक से ज्यादा भूमिका प्रकाशक की होती है, किताब लिखना और छपना दोनों अलग बाते हैं और छपकर बिकना इससे भी अलग और आगे की बात। लेखक चाहे- अनचाहे इस बाजार के गणित का हिस्सा ना हो, ऐसा दावे के साथ हम नहीं कह सकते, पर लेखक लिखता क्यों है और विवादित लेखन सायास करता है क्या? इस सवाल के लिए हमें यह और साफ तौर पर देखने की जरूरत है कि यश की इच्छा तो सृजन में छुपी होती ही है, और सृजन के पाठक या दर्शक या श्रोता की दरकार भी सहज है, इसके साथ अर्थ का जुडऩा भी स्वाभाविक है, अखबार तात्कालिक और विवादित विषयों को उठाते ही है, यह पठनीयता के लिहाज से किया जाता है, और यह पठनीयता बाजार से भी कई बार संचालित होती है, पर पुस्तक लेखन हो या अखबार, इसका विस्तार अतिरेक में किसी भी हद तक जाने का हो जाए, यह असंभव नहीं है तो सही तो इसे कोई शायद ही कहेगा, पर अंतत: अगर बाजार का दोष है तो गालियां सिर्फ लेखक को क्यों दी जाए? यानी उसे बेचारा मान कर उसी को बलि का बकरा मत बनाइए।

2 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

"आजादी के बाद के भारत को लेकर सबसे महत्वपूर्ण किताब रामचंद्र गुहा ने लिखी- इंडिया आफ्टर गांधी। शुक्र है कि उस पर कोई विवाद नहीं हुआ, मुझे यकीन है कि विवाद पैदा करने वाले इसका वृहदाकार देखकर खोलने की हिम्मत नहीं करते होंगे, खोजकर विवादास्पद पंक्ति या विचार खोजना तो बाद की बात है।"
मुझे तो यह लगता है कि बेचारे रामचन्द्र गुहा विवाद उठवाने की तकनीक और इसके महत्व से सुपरिचित नहीं रहे होंगे. वरना सच तो ये है कि जिन किताबों पर विवाद उठते हैं और जो लोग विवाद उठाते हैं, उन्होंने वे किताबें भी पढ़ी नहीं होती हैं. किताब पढ़ने वालों के पास इतनी फ़ुर्सत कहां होती है कि वे विवाद उठाएं.
पुनश्च, अब किताब बाद में छपती है, विवाद पहले उठ जाते हैं. ऐसी कई किताबें हैं, जिन पर विवाद उठे सकते हैं, पर नहीं उठे. वे सोए के सोए ही रह गए. क्योंकि उठाए नहीं गए.

अविनाश वाचस्पति said...

कल दिनांक 12 जुलाई 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में लेखक का बाजार शीर्षक से आपकी यह ब्‍लॉग पोस्‍ट प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता पर क्लिक करके पेज 4 पर देख सकते हैं।