Saturday, November 20, 2010

शाही शादी में अब्दुल्ला और दीवाने कितने?


एक सरकार आई थी जिसके लिए परंपरा और हैरिटेज का अर्थ केवल पर्यटन का बाजार था और अब अनेक बुद्धिजीवियों और मीडिया के दोस्तों के लिए हैरिटेज और राजस्थानी संस्कृति का अर्थ केवल सामंती परपराओं और प्रतीकों की निरंतरता है...
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शादी की तैयारियां जोरों पर थी, और पर्यटन व्यवसाय से वाबस्ता एक दोस्त चैट पर मुखातिब थे, उन्होंने पूछा कि क्या मैं उसमें शामिल हो रहा हूं, तो मैं ने कहा कि मन नहीं है और मन होता भी तो न्यौता नहीं हैं। मैंने प्रतिप्रश्र कर दिया आप तो जा ही रहे होगे पेशेवर कारणों से? तो उन्होंने कहा कि कहां राजाओं के घर मैं सुदामा? मेरा जवाब अनायास था बंधु, माफ कीजिए, ना तो वो राजा हैं और ना आप सुदामा ही। तो मेरे दोस्त मेरी इस बात पर मुग्ध भाव से मुस्कुराए, जैसी भी मुस्कुराहट चैट बॉक्स में संभव थी। पर मेरी यह छोटी बात या छोटे मुह और छोटी बात कि वे अब राजा नहीं रहे, सबको पता है और नहीं भी, या बहुत से लोग पता होकर भी अनजान बने रहते हैं, संभव है इससे उनके कोई हित जुड़े हों, माफ कीजिए साहिब, अगर पत्रकार के लहजे में कुछ कह रहा हूं तो। पर देखिए ना, मीडिया का एक बड़ा तबका अब भी यह मान रहा है कि किसी राजकुमार की शादी है, कई राजे-राजकुमार शादी में शामिल हैं। संविधान में हम सब बराबर हैं, सारी शाही पदवियां समाप्त की जा चुकी हैं।

अब जब कि शादी हो गई है, मुहावरे में कहें तो सब कुछ राजी खुशी, सांई सेंती निपट गया है, मेरी यह अब्दुल्लानुमा दीवानगी ही मानिए कि अशुभ बातें कह रहा हूं, गौरवान्वित शहर का मजा किरकिरा कर रहा हूं, पर क्या किया जाए। एक सरकार आई थी जिसके लिए परंपरा और हैरिटेज का अर्थ केवल पर्यटन का बाजार था और अब अनेक बुद्धिजीवियों और मीडिया के दोस्तों के लिए हैरिटेज और राजस्थानी संस्कृति का अर्थ केवल सामंती परपराओं, प्रतीकों की निरंतरता है तो तकलीफ का ईमानदारी से बयान दीवानगी कहा जाए, वाजिब ही है। इस शहर में ऐसी दीवानगी वाले लोग कम नहीं होगे, यह भी मुझे यकीन है, अकेले होने का कोई मुगालता नहीं है मुझेे।

खैर, हम सब आजाद हैं, अपनी राय बनाने के लिए, अपनी जिंदगियां और उसे जीने के तौर तरीके चुनने के लिए, संविधान को भूलने के लिए भी। पर राजस्थानी की एक कहावत हमें अपने आसपास टांग या चस्सा करके रख लेनी चाहिए- आप कमाया कामड़ा कीनै दीजे दोस।

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