Monday, May 21, 2012

गुजरा हुआ जमाना, आता नहीं दुबारा


हर आदमी का अपना इतिहास होता है, कभी गौरवपूर्ण कि हम बार-बार चिल्लाके बताना चाहें तो कभी छुपानेलायक कि बचते रहें। यही देशों और सभ्यताओं के साथ होता है। यह परिपक्वता और सहनशीलता पर है कि हम समय के साथ हर चीज को जैसी वह थी, बिना भावुक हुए अपने स्वरूप में स्वीकारना सीख जाएं।

अतीत यूं भी सताता है, अतीत आपको कभी नहीं छोड़ता, अतीत खुद को दोहराता है, अतीत यानी इतिहास को लेकर कितने ही मुहावरे हम में से हर किसी की जुबान पर रहते हैं। मसलन, इतिहास दोहराने की बात ही सच होती तो इब्ने इंशा साहब को क्यों कहना पड़ता कि झूठ है सब तारीख हमेशा अपने को दोहराती है, अच्छा मेरा ख्वाबेजवानी थोड़ा सा दोहराए तो। कोई साठ साल पहले छपा कार्टून फिर जिंदा हो गया, यह किसी कलात्मक चीज का कालजयी होना था क्या? यकीनन नहीं, यह दरअसल परीक्षा थी, कई मायनों में परीक्षा और इसमें हम सब फेल हुए या पास यह तय करने का फैसला आप पर ही छोड़ता हूं। साधारण अर्थों में अतीत की जकडऩ में वर्तमान का आ जाना ही कह सकते हैं इसे ...पर बात इतनी सी नहीं है, बजाहिर बात इतनी सी होती तो कोई खास बात थी भी नहीं। इसके मायने और सरोकार कहीं बड़े हैं।

हमारे आसपास बहुत कुछ घटता है, सब कुछ क्या इतिहास में दर्ज होने लायक होता है, कौन दर्ज करेगा? दर्ज करनेवाला क्या वस्तुनिष्ठ रहेगा? उसके खुद के आग्रह क्या बीच में नहीं आएंगे? वह भी तो इनसान है, उसके सुख, दुख, दोस्तियां, दुश्मनियां भी तो उसके साथ ही रहेंगी। समय के साथ उसमें चाटूकारितांए और राजनीतिक जरूरतें भी शामिल हो जाती हैं और तब इतिहास इतिहास नहीं रहता, जरूरत के मुताबिक अतीत का पक्षविशेष तक सीमित कोई दस्तावेज भर ही तो रह जाता है।


इसे हम क्या कहेंगे कि जिनको कार्टून का पात्र बनाया गया था, उनकी भावनाएं तो उस वक्त आहत नहीं हुईं, अब उनके झंडाबरदारों की भावनाएं इतनी नाजुक हैं कि पूछिए मत।अगर कोई इस संसार से परे का संसार होता है तो उसमें बैठे नेहरू, अंबेडकर सोच रहे होंगे कि यार हमने तो सोचा ही नहीं, हम क्या मूर्ख ही थे। क्या इसे अतीत और प्रकारांतर से हमारे व्यवहार में सहनशीलता की घटती प्रवृति को नहीं देखना चाहिए। या तो हम यही मान लें कि अतीत को चिकना चुपड़ा धो-पोंछकर ही सामने लाया जाएगा, तो फिर वह अतीत की परिभाषा कि इतिहास यानी जैसा था से तो कहीं परे हो ही जाएगा। हालांकि हर समय में प्रायोजित इतिहास के बरक्स छोटी छोटी कोशिशें होती हैं जो झूठे इतिहासों को कठघरे में खड़ा कर देती हैं, और शायद यही डर झूठा इतिहास लिखने वालों को भी रहता है कि कहीं कोई खब्ती लेखक, कवि, पत्रकार अपने समय का सच्चा दस्तावेजीकरण कर रहा होगा, बकौल हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स -झूठ को सौ बार दोहराओ कि वह सच बन जाए, झूठा इतिहास रचने वाले बार-बार अपने तथाकथित इतिहास को अलग-अलग रूपों में रच और पेश करके उसे स्थापित करते रहते हैं।


यहां हम आपको याद दिला दें कि इतिहासकार ई एच कार ने कहा था -इतिहास अपने आप में उसके तथ्यों और उसके बीच की अंतक्रिया है, इसलिए इतिहासकार को इस बात की इजाजत दी जानी चाहिए कि वह अपने समय और पूर्वाग्रहों से सर्वथा मुक्त ना हो पाए ...और ईएच कार के इस खयाल की वजह शायद यह रही होगी कि इतिहासकार अपने वक्त की जमीन पर खड़ा होके ही अपनी आंख से अतीत को देखता-परखता है, वह उससे मुक्त कैसे हो सकता है? पर केवल भावानाएं आहत होने से वोटबैंक पर मंडराते खतरों से घबराए लोग तो इतिहासकार नहीं है और इतिहास की बुनियादी समझ भी उनमें से बमुश्किल पांच-सात लोग ही रखते होंगे।

आप सहमत होंगे कि हर आदमी का अपना इतिहास होता है, कभी गौरवपूर्ण कि हम बार-बार चिल्लाके बताना चाहें तो कभी छुपानेलायक कि बचते रहें। यही देशों और सभ्यताओं के साथ होता है। यह परिपक्वता और सहनशीलता पर है कि हम समय के साथ हर चीज को जैसी वह थी, बिना भावुक हुए अपने स्वरूप में स्वीकारना सीख जाएं। उदाहरण के तौर पर हमारे हमजाद और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में इतिहास पढ़ाते समय शायद यह भावना प्रबल रहती है कि वह पांच हजार साल की परंपरा के इतिहास से खुद को अलग ही दिखाए, साथ दिखाना कई राजनीतिक परेशानियों में डालता होगा। ये सहनशीनता उधर कभी आ पाएगी, दुआ तो करते हैं, पर उम्मीद जरा कम है।


इसी तरह, गांधी को लेकर समय-समय पर तथाकथित नई-नई चीजें सनसनी के रूप में पेश करने का फैशन भी रहा ही है, वह भी इतिहास को देखना है ...मैं इसे बुरा नहीं मानता, ज्ञात तथ्यों की नई व्याख्या और अज्ञात या कम ज्ञात तथ्यों को खोजना और पेश करना ही इतिहास का पुनर्लेखन होता है। किसी व्याख्या से आहत होकर यहां भी सत्य तक नहीं पहुंच सकते। यहां कहना जरूरी है कि जिन दिनों में भारतीय लोकतंत्र की प्रतीक संसद क ी पहली बैठक के साठ साल पूरे हुए हैं, लगभग उन्हीं दिनों में ऐसा वाकया होना कमाल ही नहीं उन लोगों के सठियाने का आभास देता है जिनके कांधों पर देश की लोकतांत्रिक परंपरा और करोड़ों के जनविश्वास की बड़ी जिम्मेदारी है। हमारे राष्ट्रीय नायकों के प्रति अंधमोह के स्थान पर उन्हें मानव और मानवीय कमजोरियों से युक्त प्राणी मानकर देखने की आदत और प्रवृति की अहमियत को कतई खारिज नहीं कर सकते। आखिर में शाइर निदा फाजली के शब्दों में एक गुजारिश- गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो, जिसमें खिले है फूल वो डाली हरी रहे।
आमीन।

1 comment:

shikha varshney said...

इतिहास तो कभी सच्चा लिखा नहीं गया..इसका इतिहास गवाह है.