Saturday, August 3, 2013

बीए पास विद फर्स्ट डिविजन

फिल्म इल्म- बीए पास :

केवल सायास अनायास रूप से बहुतप्रचारित अंतरंग दृश्यों की चाहत में फिल्म देखने जाने वाले निराश नहीं होंगे पर संवेदनात्मक सिनेमा के दर्शक उन दृश्यों के कारण फिल्म देखने नहीं जाएंगे तो नुकसान में रहेंगे।


फिल्म के प्रचारित अंतरंग दृश्यों को अलग कर दिया जाए तो बीए पास एक अच्छी फिल्म है। उन अंतरंग दृश्यों को रखना तो जरूरी था क्योंकि कहानी का ताना बाना उन्हीं के आसपास है, पर उन्हें प्रतीकात्मक और छोटे भी रखते तो अर्थ वही निकलते जो निर्देशक जाहिर करना चाहता था। खैर, कहानी की बात की जाए तो २००९ में दिल्ली के कई कहानीकारों की एक एक कहानी लेकर एक अंग्रेजी संग्रह हिर्श साहनी के संपादन में प्रकाशित हुआ- 'दिल्ली नोएर'। इसमें सब कहानियां अंग्रेजी नहीं थीं, हिंदी से उदयप्रकाश की कहानी भी थी। उस संग्रह में मोहन सिक्का की एक कहानी थी- 'द रेल्वे आंटी'। यह फिल्म उसी कहानी पर आधारित है, और बाकायदा निर्देशक ने शुरू में यह बताया है।

फिल्म की कहानी यह है कि एक किशोर मुकेश के माता पिता की मौत हो जाती है, दादा के खर्चे पर चाचा- चाची मुकेश को दिल्ली में रखना अनमने से स्वीकारते हैं और बीए में दाखिला दिलवा देते हैं, दो बहनों को उसी कस्बे में एक हॉस्टल में रख दिया जाता है। चाचा रेल्वे में नौकरी करते हैं, उनके बॉस की बीवी सारिका यानी शिल्पा शुक्ला किसी बहाने से मुकेश को घर बुलाती है और यौनिकता के पाठ पढ़ाते हुए दूसरी ऐसी महिलाओं जिनकी यौन आकांक्षाएं पूरी नहीं होती हैं, के पास भिजवाती है, चाचा चाची और उनके लड़के के ताने सुनते मुकेश के लिए आर्थिक आजादी का यह रास्ता धीरे-धीरे उसका काम हो जाता है। बहनों को असुक्षित हॉस्टल से बाहर निकालने और अपने जीवन की बुनियादी लड़ाई लड़ते इस किशोर का एक दोस्त जॉनी है जो ईसाई कब्रिस्तान में मुर्दो को दफनाने का काम करता है और पैसे जुटाकर मॉरीशस जाने के ख्वाब देखता है। इसी ताने बाने में मुकेश के उलझने और आखिरकार कहानी के दुखद अंत तक पहुंचने की दास्तां है-बीए पास। अधेड़ नायिका के तौर पर शिल्पा शुक्ला ने जितना अच्छा काम किया है उससे अच्छा काम किशोर नायक के तौर पर शादाब कमल ने किया है चाहे वह जॉनी की भूमिका निभा रहे दिव्येंदु भट्टाचार्य की फिल्म के लिए आयोजित एक्टिंग वर्कशाप का ही कमाल हो। सारिका के पति अशोक के तौर पर राजेश शर्मा ने भी स्वाभाविक अभिनय से खुद को दर्ज कराया है। फिल्म पंजाब के कस्बाई और दिल्ली के निम्रमध्यमवर्गीय जीवन का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण है, एक वर्जित विषय में साहसिक और सांद्र-सघन संवेदना से परिपूर्ण प्रवेश है।

एफटीआईआई से सिनेमेटोग्राफी की पढ़ाई करने वाले निर्देशक अजय बहल ने कैमरा खुद संभाला है तो कैमरा भी जादू करता चलता है। हालांकि मुकेश बीए पास नहीं कर पाता पर निर्देशक अजय बहल पहली फिल्म में जोरदार पास हुए हैं। किशोरवय और कुलमिलाकर हम आयुवर्ग की ऐन्द्रिक मनोस्थितियों को खंगालती फिल्म को देखते हुए दशकों तक दुनिया भर के मेडिकल कॉलेजेज में पाठयपुस्तक के रूप में पढ़ाए जाने वाले हैवलॉक एलिस के ग्रंथ यौन मनोविज्ञान की याद आती रही। केवल सायास अनायास रूप से बहुतप्रचारित अंतरंग दृश्यों की चाहत में फिल्म देखने जाने वाले निराश नहीं होंगे पर संवेदनात्मक सिनेमा के दर्शक उन दृश्यों के कारण फिल्म देखने नहीं जाएंगे तो नुकसान में रहेंगे।

तीन स्टार

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