आज नीलिमा जी का बचपन पर लिखा ब्लोग पढा ,
बहुत कुछ याद आगया, सबसे ज्यादा बचपन में पापा कैसे थे , माँ का दुलार ,
इसी तरह उन यादों में खोये हुए बहूत दूर निकल आया ,
फिर विदिशा में रहने वाले मित्र शायर आलोक श्रीवास्तव की ग़ज़ल
याद आयी जिसे आपसे बाँट रहा हूँ-
घर की बुनियादें ,दीवारें, बामो दर थे बाबूजी
सब को बंधे रखने वाला ,खास हुनर थे बाबूजी
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्माजी की साड़ी सज धज सब जेवर थे बाबूजी
तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था
अच्छे खासे ऊँचे पूरे कद्दावर थे बाबूजी
भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग ,अनूठा अन्बूझा सा इक तेवर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस,आधा दर थे बाबूजी
2 comments:
jab mere bachpan ke din the
chand me pariyan rahti thi
-sung by Jagjit singh
-written by Jawed Akhatar
अब्बा याद आ गए. आलोक साहब और आपका शुक्रिया.
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