Monday, June 16, 2008

अपने शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह

आज फिर अपने शहर से लौटा हूँ ,यूं तो पिछले १४ साल से बीच के कुछ अंतराल अगर ना निकालूं तो जयपुर में हूँ पर अपने शहर से कभी अलग नहीं हों पाया ,मेरा शहर यानी गंगानगर यूं तो उस शहर से भी वाबस्तगी कोई बहुत लम्बी नहीं रही ,महज पाँच साल ..उस से पहले यहाँ वहाँ जहाँ पिताजी पढाते वहाँ वहाँ उत्तरी राजस्थान की जिन्दगी के पहलुओं को बचपन की आँख से देखा समझा ,जितना समझ सकता था ,यायावरी शायद तभी से खून में शामिल हों गयी ,
इस बार सिर्फ़ दो दिन के लिए गया आज सुबह लौटा हूँ गालिबन उसी ट्रेवल्स की बस से जिस से १९ जुलाई १९९४ को पहली बार जयपुर आया था ,पर इन १४ सालों में कितना कुछ बदल गया, लोग बदले , सपने बदले, जीने के तौर तरीके बदले॥ और मैं भी बहुत बदल गया नहीं बदली नहीं छूटी तो उस शहर की याद जो शायद अब नोस्टेल्जिया में है और रहेगा, शहर जो अब स्म्रतियों में है , वहाँ वाकई वजूद में नहीं है, जैसे मेरा गाँव और वो तमाम चीज़ें अब उस तरह से नहीं हैं..हालांकि वक्त के साथ चीज़ें बदलती हैं और बदलनी भी चाहिए..ये कहते हैं कुदरत का नियम है ॥ मेरे दादा पंजाब के गाँव पंचकोसी से यहाँ बीकानेर राज में पटवारी होकर आए और यहीं बस गए ..बताते हैं तीन पीढी पहले मेरे पुरखे चुरू के किसी गाँव सोम्सीसर से पंचकोसी गए थे ,ठहराव नहीं है। शायद जिन्दगी रुकने का नाम है भी नहीं ,ये भी संक्रमण का दौर है,मैं फिर नयी ज़मीन की तलाश में हूँ, क्या मिल चुकी है ख़ुद मुझे पता नहीं ,पता है भी तो यकीन नहीं ..
अपने शहर से अपनी आँखों में मां पिता के निरंतर थके से दो चेहरे लाया हूँ ,पंजाबियत की खुशबू वाला शहर है तो गुरदास मान,हरभजन मान के गीतों की एम् पी ३ लाया हूँ ,दोस्त अब वहाँ मिलते नहीं अपनी जिन्दगी में गुम है ,इसलिए उनसे शिकायत भी नहीं ,शिकायत नहीं ये भी शिकायत की वजह हों सकती है ,कि क्यों नहीं है ..ये दर्द का दरिया है..जो अभी बहेगा ॥
गुलाम अली की ग़ज़ल का मत्तला गूंजता रहा -हम तेरे शहर में आए है मुसाफिर की तरह ,पर बदले हुए मिसरे के साथ -
हम अपने शहर में आयें हैं मुसाफिर की तरह....

7 comments:

Udan Tashtari said...

हम अपने शहर में आयें हैं मुसाफिर की तरह...सबके यही हाल हैं. आपने उन्हें बेहतरीन शब्दों में बांधा है.

cartoonist ABHISHEK said...

mere dil ko chhoo liya dushyant tumne....

राजीव जैन said...

सच कहा आपने
वेसे आदमी ख़ुद भी तो मुसाफिर ही है, बस यु समज लीजिये की कुछ दिन यहाँ रहने आया है

sudhakar soni,cartoonist said...

dushyantji,aapne mujhe mere grihnagar ki yaad dila di ...sach jab hum bachpan k dino kbaare me sochte h to dil me ek tees uthati h

sudhakar soni,cartoonist said...

behtarin prastuti

manglam said...

दिल की बात जुबां पर क्या खूब आई है। जमीन की तलाश तो बनी रहती है, रहनी भी चाहिए आखिरकार जिजीविषा का ही तो दूसरा नाम जीवन है। वैसे अपने शहर से जो कुछ सहेजकर लाय उसे जिस खूबसूरती से परोसा, काबिले तारीफ है। गंगानगर की गंगा से दीदार कराने के लिए पुनः साधुवाद।

manglam said...

दिल की बात जुबां पर क्या खूब आई है। जमीन की तलाश तो बनी रहती है, रहनी भी चाहिए आखिरकार जिजीविषा का ही तो दूसरा नाम जीवन है। वैसे अपने शहर से जो कुछ सहेजकर लाय उसे जिस खूबसूरती से परोसा, काबिले तारीफ है। गंगानगर की गंगा से दीदार कराने के लिए पुनः साधुवाद।