इतने दिनों बाद फ़िर से मुखातिब हूँ ..इस बीच बड़ी बात ये हुई है कि तीस जून गुज़री ...मेरी जिन्दगी में तीस जून इस बार इस लिहाज से ज़्यादा ख़ास थी कि ख़ुद मैंने ये तय किया कि इस दिन को इतना याद करूं कि भूलने ना पाऊं...तीस जून २००६ से २००८ तक इस दिन के मायने बहुत बदले हैं....ये जाहिर तौर पर निहायत जाती मसला है पर ...
तो इस बार शहर को एक बार फ़िर से देखा महसूस किया... ख़ास जगहों को महसूस किया ..हवाओं की खुशबू को देखने और दृश्यों की सुन्दरता को सूंघने की कोशिश की ,
कई घंटे बिरला मन्दिर के प्रथम मंजिल वाले छोटे से घास के मैदान में तकरीबन दस अलग अलग बिन्दुओं पर अलग अलग एंगल में बैठ कर ना जाने क्या क्या कुछ याद किया॥
डेढ़ घंटा बुक वर्ल्ड के सामने केन्टीन में गुजरा..टिफिन में से खाना खाया ...
राजापार्क की उस ज्यूस शॉप से ज्यूस पीना नहीं भूला ...
वहाँ उस परचून वाले अंकल से बिना ज़रूरत कई चीज़ें उठा लाया...
बुक वर्ल्ड मेंजान बूझकर बिना किताब लिए वक्त गुजारा बिना प्रमोद जी और रजनीश जी बात किए चुपचाप... ख़ुद से लगातार बात करते... चुपचाप...
शहरकी सड़कों पर बिना काम भटका....न्यू गेट से त्रिपोलिया तक चौडा रास्ता पैदल घूमा ...
रात को स्टेच्यु सर्किल बैठा...जैसे आधी रात किसी को सिंधी केम्प छोड़ना है ,उस वक्त तक समय गुजारना है ......फ़िर से टिफिन से खाना खाया वहाँ बैठ कर और फ़िर नेस केफे के स्टॉल से कॉफी पी..हमेशा की तरह अच्छी नहीं लगी..बनावटी मुस्कराहट के साथ पूरी की,जैसे कोई देख रहा हो...फ़िर खिसियानी हँसी चोरी पकडी जाने के बाद और वही स्वर कानों में - 'जब अच्छी नहीं लगती तो क्यों सिर्फ़ कंपनी देने के लिए पीते हो '.....कई देर तक गूंजता रहता है...फ़िर स्टेशन के पास वाले उस ढाबे से बिना ज़रूरत स्टफ्फड आलू की सब्जी खरीद लाया जैसे अभी कहीं यात्रा पर निकल रहा होऊं .......
सोचता हूँ क्या यूँ अपने ब्रेक अप के दिन को याद करना बेमानी और अजीब नहीं है ..है तो है ...
कुछ दोस्त कहते हैं दो साल हो गए पता ही नहीं चला यार ...
मुझे पता है दो साल दो युग से गुजारे हैं....हर दिन एक उम्मीद में ढला है हर सुबह एक आस में जागा हूँ ...
गालिब कभी नहीं भूलते मुझे कहते हुए -
' मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का
उसी को देखकर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले '
12 comments:
bhut sundar lekh. jari rhe.
aap apna word verification hata le taki humko tipani dene me aasani ho.
bhut sundar lekh. likhate rhe.
aap apna word verification hata le taki humko tipani dene me aasani ho.
jo adesh
दिल को छू जाने वाला आलेख. सीधे दिल से निकला और दिल तक पहुंचा. लेकिन बधाई भी कैसे कहूं इस बात के लिए? ज़िक्र तो ब्रेक अक का है.
दुष्यंत भाई,
बहुत खूब ! ख़ुद को तारिख में बदलते हुए आप देख पाए, यहाँ तो अहसासों की पद्चापे सुनने से भी महरूम हो गए हैं. खैर, जो आपने जीया, खूब जीया. जाते-जाते -
'मैंने देखा हैं सहरा को समुन्दर में ढलते हुए, भटकता तब था, डूबता अब हूँ '
kya baat hai
यूँ शब्दों में पिरोया कि निशब्द कर दिया है ..
kya kamaal likhte ho boss !
Nice post...will visit again.
Aapke blogpe aayee aur padhne lagee to samajhme nahi aa raha ki kahan tippani dun!!
Par pichhali baarbhi comment nahi chhod paa rahi thi..kuchh to technical baat hai jo mere pare hai..
Itna sab padhneko hai, par padh nahi paatee samayke karan...khai teree khushboose saaraa sheher raushan, ye sheershakhi bada anokha hai!Yaad aati hain gulzaarki panktiyan,"hamne dekhi hai un aankhonki mehkati khushboo..."!
इंतज़ार भी खुशनसीबों को मिलता है, कई बार तो दूरियां इतनी बढ़ जाती हैं कि एक जन्म कम होता है फ़िर से करीब आने के लिए. तब तो बस दुआ रहती है कि अगले जन्म में फ़िर से मिल सकें.
samajh hi nahin aata kya kahna chahiye......sirf itna ki yaad agar kamzori bane to use bhul jaana achha.........doston ki kami thode na hai zindgi me......bas dil ke darvaaze khule rakhne ki zarurat hai........hai na????????
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