Thursday, August 27, 2009

जिन्ना उर्फ़ इतिहास से डर क्यों लगता है?


जसवंत सिंह की किताब पढ डालिए, दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार और नेहरू स्मृति पुस्तकालय तथा लंदन स्थित इडिया हाउस लाइब्रेरी में उपलब्ध मूल दस्तावेजों को खंगालिए और सच से सामना कीजिए, बस इतनी सी जरूरत है। हो सकता है कुछ ऐसा निकल जाए जो इन सब धारणाओ को बदल दे और यकीनन इससे इतिहास का भी भला होगा और हमारे भविष्य का भी। पर ये चिंतन बैठकों में और संघ कार्यालयों में बैठकर फतवे जारी करने से नहीं होगा, ये भी तय है।
जब मै लिखने बैठा तो मन हुआ कि पाकिस्तान के बडे अखबारों के आन लाइन संस्करणों पर नजर डाल लू, तो पाया कि द डान, नेशन, द न्यूज, डेली टाइम्स आदि पर जसवंत सिंह का भाजपा से निष्कासन या नरेंद्र मोदी दवारा इस किताब पर प्रतिबंध पहली या दूसरी बडी खबर है। जब ये खबर आई थी, कराची (इत्तेफाकन उसी शहर की, जहां जिन्ना जन्मे और आज भी कब्रगाह में है) की स्वतंत्र पत्रकार और फिल्मकार बीना सरवर ने चैट पर मुझसे जिज्ञासा जताई कि माजरा क्या है जनाब! उन्होने बताया कि जसवंत सिंह ने वही कहा है जो आयशा जलाल कुछ बरस पहले अपनी किताब जिन्ना-द सोल स्पोक्समैन मे कह चुकी हैं। आयशा ने तो यहां तक कहा था कि जिन्ना की तो विभाजन की इच्छा ही नहीं थी। बताता चलूं कि मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो के भतीजे हामिद जलाल की बेटी आयषा जलाल टफ्टस विवि अमेरिका में इतिहास की प्रोफेसर हैं।
वैचारिक दुनिया में अलग विचार को अपने तर्को के आधार पर रखने की परंपरा होती है चाहे वो विचार कैसा भी हो, चाहे तदंतर उन तर्को को तथ्यो के साथ मिलाकर देखते हुए खारिज कर दिया जाए, यहां तो परीक्षण की बात ही बेमानी है साहिब!वैसे वैचारिक बगावत के लिए जसवंत सिंह के साहस को सलाम कीजिए, सियासी तौर पर भाजपा निकट भविष्य में षायद ही सत्ता में आए, और विदेश और रक्षामंत्री वो रह लिए हैं, राजनीतिक तौर पर करियर का चरम देख लिया है और किताब की लोकप्रियता एक बेस्टसेलर लेखक के तौर पर उन्हे निस्देह स्थापित कर रही है।
पहली नजर में मुददा सियासी है पर है तो अतीत की सियासत से। किसी भी दल की नीति इतिहास से इतर होनी चाहिए क्या! सवाल तो मौजू है, चाहे आंखें मूद लीजिए। उससे भी बडा सवाल ये कि इतिहास और सच जानने की कवायद के बजाय अतार्किक तौर पर पार्टी नीतियों का झंडा उठाया जाता है। अब ये जनता पर है कि पार्टी की देश के प्रति प्रतिबद्धता देखे या कि पार्टी की निजी प्रतिबद्धता पर। आडवाणी के जिन्ना के बारे में सायास कुछ नहीं कहूंगा। जरा पीछे चलिए, मैं बचपन से इस बात को सुनकर बडा हुआ कि गांघी भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे, पर फिर पता चला कि वो आधा सच था। दो साल पहले हिंदी लेखक प्रियंवद की किताब आई थी- भारत विभाजन की अंतःकथा। मेरे सनातन प्रिय विषय की इस किताब में उन्होंने लिखा है कि ‘1920 में जिन्ना कांग्रेस से अलग हुए, पर उन्होंने कोई अलग राह नहीं बनाई। अब जिन्ना कांग्रेस से तो अलग थे ही उनकी राह भी अलग थी,भविश्य में यह राह एक नए राष्ट्र की ओर जाने वाली बन गई। जैसा अंबेडकर ने कहा था कि मसला बडा नहीं रह गया था ,पर खाई पाटने की इच्छा दोनों ओर नहीं थी।‘ अंबेडकर की बात मार्के की है विषेषकर उत्तरार्द्ध। यह ऐतिहासिक सच है कि असफल दाम्पत्य के बावजूद रत्ती जिन्ना की मृत्यु के बाद टूटे हुए, निराश, अकेले जिन्ना लंदन से आकर बंबई में 35 साल गुजारने के बाद 4 अक्टूबर 1930 को वापिस लंदन जाने के लिए भारत छोड दिया था, रफीक जकारिया ने अपनी किताब मैन हू डिवाइड इंडिया में बताया है कि कैसे रत्ती जिन्ना को दफनाते वक्त कायदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना की आंखे भर आईं थी और वे अपनी मानवीय कमजोरियों को छुपा नही पाये थे। ये उनका मानवीय पहलू है।
1947 के अप्रेल महीने का पहला दिन याद दिलाना चाहता हूं, एक दिन पहले गांधी और माउंटबेटन की पहली मुलाकात हुई थी, औपचारिक सी, अगले दिन यानी पहली अप्रेल को सुबह तकरीबन 9 बजे, दूसरी मुलाकात में गांधी ने माउंटबेटन को प्रस्ताव दिया कि जिन्ना को देश का प्रधान मंत्री बनने दिया जाए। माउंटबेटन ने कहा- जिन्ना क्या कहेंगे? गांधी ने जवाब दिया- हमेषा की तरह वो कहेंगे कि आह फिर वही कपटी गांधी। मांउटबेटन ने कहा कि वो सही ही होगे? गांधी ने जवाब दिया - नही, मैं गंभीर हूं। पर माउंटबेटन ही नहीं नेहरू और पटेल सबने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। यहां तक कि कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में गांधी अलग थलग पड गए। नेहरू और पटेल के विरोध के बावजूद उनका कहना था कि विभाजन समस्याओं को सुलझाएगा नही बल्कि बढाएगा, अंततः निराष गांधी ने कहा कि मेरे प्रयासों की षुद्धता की अब परीक्षा होगी, मेरी ईष्वर से प्रार्थना है कि मुझे यह दिन देखने के लिए जीवित ना रखे। 10 औरंगजेब रोड से वायसराय हाउस पहुचे जिन्ना से भी मांउटबेटन ने 6 अप्रेल को बात की, तो जिन्ना के अपनी ष्षर्ते रखने से पहले ही माउटबेटन ने अपना दृढ पक्ष रख दिया जो जिन्ना से अधिक दृढता से रखा गया था और जिन्ना के पक्ष में भी था। उस रात जिन्ना के साथ उसकी बहन फातिमा भी रात के डिनर में वहां थीं। ये सब मेरा रचा फिक्षन नहीं, एचवी हडसन की किताब द ग्रेट डिवाइड में दर्ज है।
च्लिए जिन्ना पर आते है, उनके लिए गांधी ने कहा था -'ग्रेट इंडियन'। और छवि से इतर वास्तव में एक सेकुलर मुसलमान जो परिस्थितिवष उस कौमी मुहिम का नायक हो गया जिसका अंत एक एक मुल्क की तामीर में हुआ। हां, नायक या खलनायक होने में कोई संदेह नहीं है, यह महज देष काल सापेक्ष दृष्टिकोण का फर्क है। जैसा प्रसिद्ध इतिहासकार बिपन चंद्र ने इडियाज स्टगल फार फ्रीडम में लिखा है कि जिन्ना जब 1906 में बैरिस्टर बने के बाद भारत लौटे तो वे धर्मनिरपेक्ष, उदार राष्ट्रवादी और दादा भाई नोरोजी के समर्थक थे, भारत आते ही वे कांगे्रस में शमिल हो गए, उन्होने मुस्लिम लीग के गठन का विरोध किया। राष्टीय एकता पर बल दिया तभी सरोजनी नायडू ने उन्हे हिंदू मुस्लिम एकता के राजदूत की उपाधि दी थी। पर इतिहास की ग्रेटमेन थ्योरी जिसके प्रवर्तक थामस कार्लाइल है, के अनुसार महान लोग दो तरह के होते है एक जन्मजात और दूसरे जिन्हे परिस्थितियां बना देती हैं, जाहिर है कि जिन्ना कमोबेश दूसरी श्रेणी में आते हैं।
हम साठ साल बाद ये सोच सकते है कि गांधी का वो प्रस्ताव अगर जिन्ना के सामने रख दिया जाता तो इतिहास क्या होता और भारतीय उपमहाद्वीप की ष्षक्ल क्या होती! मुझे लगता है कि माउंटबेटन या अंगे्रज भारत के विभाजन के लिए कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं नेहरू, पटेल या जिन्ना के। ऐतिहासिक दस्तावेजो की रोषनी मे तो यही मानना पडता है कि विभाजन तत्कालीन घटनाओं का स्वाभाविक परिणाम था, जिनके लिए मुस्लिम लीग निःसंदेह जिम्मेदार थी, जिसकी स्थापना 1906 में दरअसल लार्ड मिंटो के प्रा्रेत्साहन हुई थी। और इसीलिए यह कोई मासूम सी व्याख्या नही है कि अंगे्रज भारतीयों को आपस में बांटकर ढाई सौ साल तक राज करते रहे और आखिरकार भी उन्होंने भौगोलिक और राजनीतिक आधार पर बांटकर ये मुल्क छोडा। हालांकि इतिहास बुनियादी तौर पर मानता है कि जिन्ना भारतीय विभाजन का खलनायक है, हालात का समीचीन मूल्यांकन यह प्रबल संकेत करता है कि प्रकटतया तो ऐसा ही है पर दरअसल वो सिर्फ एक मोहरा था जो 17 अगस्त 1947 को रेडक्लिफ नाम के अंगे्रज की खींची सरहद के एक तरफ महानायक हो गया और दूसरी तरफ खलनायक। इस बहस में चाहे उन्हें हम सेकुलर मानें या ना मानें, पर लोकतत्र में सेंकूलरिज्म से बेहतर तरक्की का रास्ता नहीं हैं यह उन्होने भी माना और यकीन ना आए तो 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के नाम उनके संदेष को कहीं से पढ लेना चाहिए।
वापिस जरा जसवंत सिंह पर आ जाएं, संघ और भाजपा को गांधी भी कभी प्रिय नहीं रहे, जिन्ना कैसे होते! तार्किक आधार पर दोनों महान भारतीय ठहरते हैं, गांधी को पूरा भारत महान मानता ही है और जिन्ना को गांधी महान कहते थे। और जिन्ना पर जसवंत की इस बयानी के लिए उनका कोर्ट माशल इतिहास से मुह मोडना है या बहस से या महज अनुशासन का अतार्किक संदेष देना, राजनाथ या आडवाणी बेहतर बता सकते हैं। परेषानी या कमाल तो ये है कि महज साठ सत्तर साल पहले का सब कुछ कहीं ना कहीं दर्ज है, जिसे मिटाना या बदलना मुमकिन नहीं है। जसवंत सिंह की किताब पढ डालिए, दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार और नेहरू स्मृति पुस्तकालय तथा लंदन स्थित इडिया हाउस लाइब्रेरी में उपलब्ध मूल दस्तावेजों को खंगालिए और सच से सामना कीजिए, बस इतनी सी जरूरत है। हो सकता है कुछ ऐसा निकल जाए जो इन सब धारणाओ को बदल दे और यकीनन इससे इतिहास का भी भला होगा और हमारे भविष्य का भी। पर ये चिंतन बैठकों में और संघ कार्यालयों में बैठकर फतवे जारी करने से नहीं होगा, ये भी तय है। आखिर में बीना सरवर की बात से अंत करना ठीक है कि विभाजन वो सच है जो धटित हो चुका है और जिसे अधटित नहीं किया जा सकता, हम इतना ही कर सकते है कि दोनों मुल्क शाति से रहें। आमीन!

1 comment:

Dr. Braj Kishor said...

जिन्ना को पी एम् बनाना ठीक होता क्या?
लोकतंत्र को किनारे कर के समझौता करना शायद घुटने टेकना कहा जाता.