Tuesday, September 1, 2009

साधारण के असाधारण लेखक - संजीव




जिस समय कथाकार संजीव से मेरा पहला संपर्क हुआ, वे रसायनविद् थे, और मैं इतिहास का विद्यार्थी। तब उनके उपन्यास सूत्रधार को पढ़ा था, पहली नजर में कोई अद्भुत, असाधारण रचना नहीं लगी। बाद में यह अहसास हुआ कि उसकी साधारणता में ही सारा जादू है। हाल ही उनकी समस्त कहानियों को भारतीय ज्ञानपीठ ने संजीव की कथायात्रा के नाम से प्रकाशित किया है, इसके तीन खंड हैं जिन्हें पड़ाव कहा गया है। इस कथा-यात्रा से गुजरना किसी को भी मुग्ध कर सकता है। पहले पड़ाव की भूमिका को उन्होंंने शीर्षक दिया है- मैं क्यों लिखता हूं, इसका जवाब उन्होंने इस तरह दिया है- यह सवाल वैसा ही छीलनेवाला है, जैसे यह पूछना कि मैं क्यों जिंदा हूं। वक्त ने ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है कि न जिंदा रहने का कोई संतोषजनक तर्क समझ में आता है, न लिखने का, पर इसके सिवा मेरे पास विकल्प है ही क्या?

पहले पड़ाव की जितनी कहानियां पढ़ पाया, उनमें से जसी बहू, मुर्दगाह, घर चलो दुलारीबाई और तीस साल का सफरनामा जैसी कहानियां अपने लोक को रचते हुए कहीं गहरे बहुत कुछ रच देती हैं। दूसरे पड़ाव की भूमिका का उन्होंने शीर्षक दिया है- मेरी रचना प्रक्रिया। इस पड़ाव में मेरी पढ़ी कहानियों में से- दुनिया की सबसे हसीन औरत, सागर सीमांत, कन्फेशन और खिंचाव खास तौर पर बार-बार पढऩे लायक हैं।तीसरे पड़ाव की भूमिका मैं और मेरा समय नाम से है और इसमें उनके लेखन, विचारधारा और दुनिया को लेकर उनका नजरिया साफ-साफ नजर आता है जो क्रिस्टल-सा है, ठीक रसायनविद् की तरह, नहीं तो प्राय: वैचारिक जगत में प्रवेश होते ही भाषा सहजता खोते हुए अकादमिक दुरूहता और एक किस्म की अभिजात्यता ओढ़ लेती है, पर यहां इसका ना होना संजीव की ताकत है। इस तीसरे पड़ाव में अवसाद, मरजाद, आविष्कार, गुफा का आदमी, गति का पहला सिद्धांत और खयाल उत्तर आधुनिकी शीर्षक कहानियों को चुनकर दुबारा पढ़ा, इन कहानियों को लंबे समय तक याद किया जाना चाहिए। संजीव ऐसे कथाकार हैं जो बहुत लोकप्रिय नहीं हैं, और स्टारडम से तो कोसों दूर है। कुछ बरस पहले दिल्ली में जेएनयू परिसर में हुई एक छोटी-सी मुलाकात में उन्हें अतिसाधारण पाया था, इतना लेखन जो लगातार सराहा गया है, देर-सबेर आलोचकों ने भी उनके जिस लेखन की साधारणता में छिपी विलक्षणता को स्वीकारा, क्या किसी अतिसाधारण आदमी को पागल नहीं बना देता? पर वो लगातार साधारणता का जादू बिखेर रहे हैं। संजीव हिंदी और पूरे साहित्यिक जगत को अभी कुछ क्लासिक देंगे, पाठकों को उम्मीद करनी ही चाहिए। पर उनकी साधारणता और मासूमियत इस पागल प्रतिस्पर्धा के दौर में कैसे बच पाएगी, अगली मुलाकात में पूछा जाएगा। फिलहाल, साहित्यिक पत्रिका पाखी का ताजा अंक उन पर विशेषांक है। फुरसत मिले तो आप देख लीजिएगा, संजीव को और जानने का मौका मिलेगा।

1 comment:

ashish mishra said...

sanjiv ji ka fan hun. shandar lekh! badhai dushyant ji!