Monday, December 28, 2009

2009 की एक फिल्म जो 2010 के लिए है



अपूर्वा याज्ञिक की फिल्म सच दिखाकर झकझोरती है, और चेताती है तो सिखाती भी है और अंतत: सार्थक विमर्श खड़ा करती है, इसलिए इसे देखना एक अच्छी किताब पढने का आनंद लेना है


साल 2009 गुजर गया जैसे हर साल गुजरता है, 2010 शुरू हो रहा है ठीक वैसे ही जैसे हर नया साल होता है, राजस्थान की एक फिल्म की बात कर रहा हूं जो इस साल आई और जिसकी प्रासंगिकता 2010 में सिद्ध होनी तय है। कुछ ही समय बाद यहां पंचायत चुनाव होने हैं और पंचायतों में पचास फीसदी भागीदारी महिलाओं की पहली बार होनी है और यह फिल्म उन पर ही है, उन्हें ही संबोधित है। आप निराश हो सकते हैं, यह फीचर फिल्म नहीं है, यह 78 मिनट की डॉक्यूमेंट्री फिल्म है।
काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपुल्स एक्शन एंड रूरल टेक्नोलॉजी यानी कपार्ट की इस फिल्म पंचायती राज में महिलाएं का निदेंशन अपूर्वा याज्ञिक ने किया है। इस फिल्म को देखते हुए मुझे आईसीएचआर की एक परियोजना पर राजस्थान की महिलाओं पर लंबे शोध के दौरान हुए अनुभव सीन दर सीन याद आए। ऐतिहासिक परंपरा को सहेजे हुए पर उसे जरा भी ना छूते हुए आज की बात करना बहुत मुश्किल काम है, यानी राजस्थान के सामाजिक ढांचे और उसमें महिलाओं की बुनियादी हालत के बगैर उनकी राजनीतिक स्थिति का निर्धारण और भविष्य की कल्पना असंभव है, इस लिहाज से फिल्म की सबसे बड़ी खासियत गहन एवं सूक्ष्म शोध और उसका उपयुक्त विजुअलाइजेशन है। आरक्षण और क्रमश: राजनीतिक भागीदारी तथा राजनीतिक रूप से ठोकर खाती, समझ विकसित करती, पति के लिए बराएनाम चुनाव लड़ती और फिर केवल हस्ताक्षर तक के लिए सीमित होने से लेकर अपने अनकिये परंतु अपने नाम पर हुए भ्रष्टाचार को झेलती औरतों के आंखें पढने का काम अपूर्वा के कैमरे ने किया है।
क्या यह मासूम इत्तेफाक है कि यह फिल्म वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री काल में शूट हुई है, केवल पोस्ट प्रॉडक्शन गहलोत के समय हुआ है। हमारे समय का कड़वा सच यह है कि इस फिल्म को फिल्मी पन्नों और खबरों में जगह नहीं मिली, यह एक तरह से ठीक भी है, कड़वे जीवन यथार्थ वाली फिल्म को चटपटी खबरों के बीच क्यों आना चाहिए। राजस्थान से यह गंभीर काम हुआ है, जो दस्तावेज ही नहीं मार्गदर्शिका भी है, यह फिल्म समस्या ही नहीं बताती रास्ता भी बताती है, सवाल तो उठाती ही है, मोनोलॉग बाइटस के रूप में सामाजिक कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, पत्रकारों और पंचायत सदस्यों के अनुभवों और विचारों के साथ एक सार्थक बहस चुपचाप करवाकर मौन एक्टिविज्म की सूत्रधार बनती है।
शेखावाटी, जयपुर और दक्षिणी राजस्थान में शूट हुई फिल्म की भाषा को इस लिहाज से देखा जाना चाहिए कि बड़े क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है, पर अगर इसे हम राजस्थानी नहीं कह सकते, तो जैसा कहा गया है मारवाड़ी नहीं कह सकते क्योकि मारवाड़ी तो मारवाड़ यानी जोधपुर की भाषा या बोली है। फिल्म में पटकथा और संपादन रमेश आशर का है तो सूत्रधार के रूप में अपूर्वानंद से बेहतर शायद ही कोई होता। हालांकि इनके द्वारा बोली गई हिंदी कई बार खटकती है, कि असहज हो जाती है, मेरा मानना है कि जब वो उर्दू शब्दों का इस्तेमाल कर ही रहे हैं तो जैसे -यद्यपि की जगह हालांकि कहने में क्या बुराई है, खैर यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। फिल्म बहुत मेहनत, शोध और मन से बनाई गई है तथा अव्यावसायिक है तो जनहित के लिहाज से उसे बड़ा श्रेय क्यों नहीं मिलना चाहिए।

4 comments:

Udan Tashtari said...

यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

आपका साधुवाद!!

नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!

समीर लाल
उड़न तश्तरी

sunanda said...

sundar artical! apka lekhan dil ko chhoo leta hai dushyant ji.

Ashish Verma said...

badhiya lekh, bahut bahut dhanyawad film ki jankari ke liye.

पृथ्‍वी said...

good one.. have to watch the movie!