एक तो चेन्नई वाला किस्सा पूरा नहीं कर पाया हूँ और फिर दूसरे किस्से बन ने शुरू हों गए ,जिन्दगी है ही ऐसी कमबख्त ..जितना समझने और सुलझाने की कोशिश करता हूँ उतनी ही उलझती जाती है ,समझ से परे होती नज़र आती है ,महान या कहूं भयंकर वाली कुंठा के दौर में हूँ ..अवसाद है पीड़ा है .घुटता मन है -बालमन ,उसके हठ हैं ,राजेश रेड्डी की ग़ज़ल का मिसरा याद करूं तो 'या तो इसे सब कुछ ही चाहिए या कुछ भी नहीं',
...न कर पाने ,ना हों पाने की छटपटाहट है ..जो हो रहा है उसे ना रोक पाने की छटपटाहट है ..जिन्दगी एक मुअम्मा हो गयी है जावेद अख्तर साहेब को याद करते हुए कहूं तो॥
कितना कुछ गड्ड मड्ड सा लगता है ,कई बार बनावटीपन से कोफ्त होती है तो कई बार ये बड़ा सुहाना लगता है ,सच्चाई कई बार बहुत गर्व करवाती है कई बार कुंठा में डालती है ,तर्क की दुनिया में जीते हुए तर्क की सबसे बुरी बात बेहद परेशान करती है कि उसे दोनों तरफ़ उसी प्रकार खडा किया जा सकता है ,किया भी है ..फिर लगता है कि तर्क अहमियत क्या है ..आखिर होना क्या चाहिए ,दिल की सुनें तो तर्क को भूल जायें या कि तर्क को मानें तो दिल को..
3 comments:
सही है जी
फंस गया हूँ मैं दिल और दिमाग की जंग मे
इधर जाऊं की उधर जाऊं.
पर क्या करे थोड़-थोड़ा दोनों को सुनकर काम चला लेते है.
आप भी यही कीजिये.
कुछ वक़्त की बात है ,निकल आयेंगे.....
इस तरह के पल सबके साथ आते जाते रहते हैं. नो टेंशन.
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