Wednesday, November 28, 2007

मैंने तसलीमा को देखा है -दो


तसलीमा जी कि बात उस दिन अधूरी रह गयी थी , हाँ तो मैं उस मुलाक़ात को आपसे बाँट रहा था , अपने मित्र डॉ दिनेश चारन के साथ मैं उनसे मुखातिब था ,कुछ व्यक्तिगत बातें हुईं . उन्होने हमारे बारे में पूछा फिर हम ने पहला सवाल पूछा , कि उन्हें लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है , (बताता चलूँ पहले मैंने हिन्दी में बात की , फिर उन्हें असहज पाया तो अंगरेजी में बात करना मुनासिब समझा , लिहाजा ये अनुवाद है उनसे हुयी बात का)


उनका जवाब था कि मानव उसके दर्द उसकी खुशियाँ ही मुझे लिखने को प्रेरित करती हैं, बहुत छोटा सा पर मुक्काम्मक सा जवाब उन्होने मेरे हाथ पे रख दिया था।


मैंने जिज्ञासा रखी कि कि स्त्री विमर्श और फेमिनिज्म कि बात कब तक करते रहेंगे? वे थोडा रुकीं , सोचने लगीं और फिर बोलीं-जब तक महिलाओं के साथ समान व्यवहार व न्याय नहीं होगा तब तक.मुझे लगता है कई बार महिलाओं को कुछ समानता मिलती है पर वो प्रयाप्त नहीं है.सौ प्रतिशत समानता हर स्तर पर, जीवन के क्षेत्र में जब तक नहीं हों पायेगी, तब तक स्त्री विमर्श का प्रश्न बना रहेगा ।


हमने पूछा कि क्या आप मानती हैं महिलाओं के बारे में किसी महिला का ही लेखन अधिक प्रभावशाली व प्रमाणिक हों सकता है?


तो वे कहती हैं कि हाँ मैं ऐसा ही सोचती हूँ ,कुछ पुरुषों ने महिलाओं के दर्द और पीडा को लिखने के प्रयास किये हैं परन्तु वे केवल बाहरी तौर पर ही देख समझ और लिख पाते हैं,इसी कारण उनके लिखने मी एक गेप बना रहता है।


एक बहुत सहज जिज्ञासा थी मेरी कि उनसे पूछूं वे समग्रता पुरुष को कैसे देखती हैं ?? उनसे हिम्मत करके पूछ लिया तो बोलीं देखिए दुष्यंत सामान्यीकरण तो संभव नही है ,कुछ पुरुष अधिकारवादी होते हैं क्योंकि वे पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था कि उपज हैं ,और वे उसमे गहरा विश्वास रखते हैं,वे मानते हैं कि उन्हें स्त्री को दबाने का पूरा अधिकार है.वे अपने को श्रेष्ठ मानते हैं,

2 comments:

abhishek said...
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neelima garg said...

Taslima is a good agressive writer .But she should be given proper protection.