Saturday, November 20, 2010

शाही शादी में अब्दुल्ला और दीवाने कितने?


एक सरकार आई थी जिसके लिए परंपरा और हैरिटेज का अर्थ केवल पर्यटन का बाजार था और अब अनेक बुद्धिजीवियों और मीडिया के दोस्तों के लिए हैरिटेज और राजस्थानी संस्कृति का अर्थ केवल सामंती परपराओं और प्रतीकों की निरंतरता है...
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शादी की तैयारियां जोरों पर थी, और पर्यटन व्यवसाय से वाबस्ता एक दोस्त चैट पर मुखातिब थे, उन्होंने पूछा कि क्या मैं उसमें शामिल हो रहा हूं, तो मैं ने कहा कि मन नहीं है और मन होता भी तो न्यौता नहीं हैं। मैंने प्रतिप्रश्र कर दिया आप तो जा ही रहे होगे पेशेवर कारणों से? तो उन्होंने कहा कि कहां राजाओं के घर मैं सुदामा? मेरा जवाब अनायास था बंधु, माफ कीजिए, ना तो वो राजा हैं और ना आप सुदामा ही। तो मेरे दोस्त मेरी इस बात पर मुग्ध भाव से मुस्कुराए, जैसी भी मुस्कुराहट चैट बॉक्स में संभव थी। पर मेरी यह छोटी बात या छोटे मुह और छोटी बात कि वे अब राजा नहीं रहे, सबको पता है और नहीं भी, या बहुत से लोग पता होकर भी अनजान बने रहते हैं, संभव है इससे उनके कोई हित जुड़े हों, माफ कीजिए साहिब, अगर पत्रकार के लहजे में कुछ कह रहा हूं तो। पर देखिए ना, मीडिया का एक बड़ा तबका अब भी यह मान रहा है कि किसी राजकुमार की शादी है, कई राजे-राजकुमार शादी में शामिल हैं। संविधान में हम सब बराबर हैं, सारी शाही पदवियां समाप्त की जा चुकी हैं।

अब जब कि शादी हो गई है, मुहावरे में कहें तो सब कुछ राजी खुशी, सांई सेंती निपट गया है, मेरी यह अब्दुल्लानुमा दीवानगी ही मानिए कि अशुभ बातें कह रहा हूं, गौरवान्वित शहर का मजा किरकिरा कर रहा हूं, पर क्या किया जाए। एक सरकार आई थी जिसके लिए परंपरा और हैरिटेज का अर्थ केवल पर्यटन का बाजार था और अब अनेक बुद्धिजीवियों और मीडिया के दोस्तों के लिए हैरिटेज और राजस्थानी संस्कृति का अर्थ केवल सामंती परपराओं, प्रतीकों की निरंतरता है तो तकलीफ का ईमानदारी से बयान दीवानगी कहा जाए, वाजिब ही है। इस शहर में ऐसी दीवानगी वाले लोग कम नहीं होगे, यह भी मुझे यकीन है, अकेले होने का कोई मुगालता नहीं है मुझेे।

खैर, हम सब आजाद हैं, अपनी राय बनाने के लिए, अपनी जिंदगियां और उसे जीने के तौर तरीके चुनने के लिए, संविधान को भूलने के लिए भी। पर राजस्थानी की एक कहावत हमें अपने आसपास टांग या चस्सा करके रख लेनी चाहिए- आप कमाया कामड़ा कीनै दीजे दोस।

Saturday, October 2, 2010

मेरी जात क्या पूछते हैं साहिब ?



महानगरों में डेढ़ दशक की रहनवारी के बाद मैं नाउम्मीद सा हूं कि भारत में कभी ऐसा होगाकि जब लोग आपकी जातीय पहचान जानने को लालायित नहीं होंगे। मेरा जाती खयाल है कि यह लालायित तबका हमेशा ही बड़ा रहा है और रहेगा भी।


लेखक और जाने माने स्तंभकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक पिछले दिनों मेरे लिए अतिरिक्त सम्माननीय इसलिए हो गए कि उन्होंने जनगणना में जातीय आधार और फिर जातिवाद के खिलाफ एक अभियान की जोरदार कोशिश की, मैं जाती तौर पर इस खयाल का रहा हूं, थोड़ा व्यक्तिगत बात कहने की छूट लेते हुए कहूं तो इसीलिए अपने नाम को किसी जातिमूलक प्रत्यय से बचा के रखता हूं। मेरा मानना है कि अगर मैं अपने काम में बुरा हूं तो गाली देने के लिए और अच्छा हूं तो भी श्रेय के लिए किसी जातिसूचक शब्द तक जाने की जरूरत क्या है। वैसे यह भी पूरी तरह जाती मामला है कि आप अपनी पहचान किस रूप में मानते हैं और किस रूप में लोगों के सामने पेश होना चाहते हैं, यकीन मानिए मुझे जरा भी अफसोस नहीं है कि इस घोर गैरजातिवादी सोच के कारण जिंदगी में कितने दोस्त खोए हैं जिनके लिए किसी की पहचान उसकी जात से शुरू होती है। इतिहास के थोड़े बहुत जानकार तो कम से कम मेरे साथ खड़े ही होंगे कि इनसान तो दुनिया में तब भी था जब किसी काल विशेष में जातियों का विभाजन नहीं हुआ था, और तार्किक रूप से जब कर्म के आधार पर, अगर केवल भारतीय संदर्भों की बात करें तो, पहले वर्ण बनें और तदंतर वे जाति के रूप में प्रतिस्थापित, प्रचलित और मान्य हो गए, सेवा में, सविनय निवेदन है कि, तो फिर क्या इस मूलत: कर्म आधारित व्यवस्था को पूरे जीवन का आधार बनाना वाजिब है?
मुझे अपने विद्यार्थी जीवन का एक किस्सा याद आता है, मुझसे एक बहुत मेधावी लड़की, जो एक दर्जा आगे थी पर उम्र में मुझसे छोटी थी, तथाकथित रेगिंग के दौरान, उसने मेरे नाम को अधूरा पाकर पूछा- आगे? तो इस अप्रत्याशित सवाल पर मेरा जवाब भी अनायास था कि अगर मैं जिस जाति से हूं जिससे आप, तो क्या आप मुझसे शादी कर लेंगी और नहीं तो क्या मुझे गोली मार देंगी? मेरे जवाब में तल्खी थी और अब उसके पास कोई जवाब नहीं था, जाहिरन उसका मूड खराब हुआ और मेरा भी। और फिर जब तक हम उस संस्थान में रहे, हमारा छत्तीस का आंकड़ा रहा। इससे इतर भी जिंदगी में जाति ना जाहिर करने की वजह से बहुत अजीबोगरीब वाकए मेरे साथ हुए हैं, कई बार लोग यह मानते हैं कि दलित होकर किसी हीनताबोध में जाति छुपाता हूं, या कई बार तथाकथित वर्णसंकर होने के किस्से अपने बारे में सुनने को मिलते हैं, जो मानना चाहें लोग मान सकते हैं। काबिले गौर है कि ऐसे वाकए तथाकथित सभ्य-पढ़े लिखे तबकों की ओर से होते हैं, महानगरों में डेढ़ दशक की रहनवारी के बाद मैं नाउम्मीद सा हूं कि भारत में कभी ऐसा होगाकि जब लोग आपकी जातीय पहचान जानने को लालायित नहीं होंगे। मेरा जाती खयाल है कि यह लालायित तबका हमेशा ही बड़ा रहा है और रहेगा भी।
अपने निजी उदाहरण से ही एक बात और कहूं तो अपनी नौकरियों के दौरान भी एचआर विभागों के लोगों से हर जगह मेरी झड़प हुई है, वे कोई तर्क आसानी से नहीं मानते कि मैं क्यों अपनी पहचान में जाति इस्तेमाल नहीं करता, और वे मेरे पिता के नाम से उठा के जातिवाचक शब्द मेरे नाम से जोड़ देते हैं, और मैं अकसर उग्र हो जाता हूं, पर फिर मुझे उन पर रहम आता है, और फिर खुद पर भी। दुआ ही कर सकते हैं कि जातियां हमारी बुनियादी पहचान ना बनें, और जातियों के आधार पर हम दोस्तियां या रिश्ते या दुश्मनियां ना बनाएं। ऐसे जातिनिरपेक्ष लोग अभी तो बहुत कम हैं, वैसे भी हमें जातियों में बांटकर अपनी जीत को पक्का करना सियासत की मजबूरी और बेशर्मी हो सकती है, पर हमारी क्यों हो?

Monday, June 21, 2010

लेखक भी तो बाजार का हिस्सा हैं




क्या आप यकीन कर सकते हैं कि आजादी के बाद के साठ सालों के बारे में कोई इतिहास निर्विवादित रूप से लिखा जा सकता है जिस पर कोई ना कोई ‘आहत’ ना हो।


कोई लेखक क्यों लिखता है, सवाल बहुत बड़ा है और इसके जवाब कई हो सकते हैं। इस एक सवाल पर सैंकड़ों शोध हो सकते हैं, हुए भी होंगे, कई किताबें लिखी जा सकती हैं, लिखी भी गई होंगी। इस विषय पर लिखने के बारे में सोचने से पहले लेखक रसेल बेकर का एक कथन कहीं से मेरे सामने आया और जेहन पर तारी रहा है। वह कथन यह है- ‘मैं केवल लेखक होने के लिए ही उपयुक्त था, मुझे संदेह था कि क्या मैं वास्तव में कोई भी कर सकता हूं, लेखन के लिए किसी काम को करने की जरूरत ही कहां होती है।’ आंशिक रूप से सहमत होते हुए भी मैं रसेल के इस कथन से पूरी तरह सहमत तो नहीं हो सकता।

इतिहास का विद्यार्थी हूं और हाल के कुछ सालों में इत्तेफाकन इतिहास पर लिखी किताबों ने ही ज्यादा कहर बरपाया है, कई चूलें हिलाई हैं, सत्ताएं उखड़ती-उखड़ती बची हैं। कभी नेहरू को लेकर, कभी गांधी को लेकर, कभी जिन्ना को लेकर कभी इंदिरा को लेकर। मैं अक्सर ये सोचता हूं कि आजादी के बाद के भारत को लेकर सबसे महत्वपूर्ण किताब रामचंद्र गुहा ने लिखी- इंडिया आफ्टर गांधी। शुक्र है कि उस पर कोई विवाद नहीं हुआ, मुझे यकीन है कि विवाद पैदा करने वाले इसका वृहदाकार देखकर खोलने की हिम्मत नहीं करते होंगे, खोजकर विवादास्पद पंक्ति या विचार खोजना तो बाद की बात है। क्या आप यकीन कर सकते हैं कि आजादी के बाद के साठ सालों के बारे में कोई इतिहास निर्विवादित रूप से लिखा जा सकता है जिस पर कोई ना कोई ‘आहत’ ना हो। इसलिए मेरे प्रिय इतिहासकार गुहा पर निस्संदेह ईश्वर मेहरबान है, शुक्र है।

जिन्ना पर जसवंत सिंह ने लिखा, बवाल मचा, गांधी पर जेड एडम्स की किताब आई -नेक्ड एम्बिशन, बवाल ना हो, ऐसा हो नहीं सकता था, तो हुआ। अब तो कई बार यह भी लगता है कि इन ऐतिहासिक पात्रों पर कुछ भी लिख दीजिए, चर्चा और विवाद तय है। और यही बात इस बहस की मूल बात है जिसे दूसरे तरीके से कान पकडऩे के रूप में लेना चाहिए यानी लेखक विवादित होकर चर्चा मे आकर लिखता है या इन विषयों पर कुछ भी लिख दे तो चर्चा में आना, विवाद में आना लाजिम है। मेरी राय है कि नई किताब आए तो ज्यदा महत्वपूर्ण उसका तथ्यसम्मत होना है, संभव है लेखक ने अब तक अज्ञात या लगभग अज्ञात तथ्यों और स्रोतों को खेजा हो या पूर्व उपलब्ध तथ्यों और स्रोतों की पुनव्र्याख्या की हो। जेड एडम्स जो एक काबिल और समझदार इतिहासकार माने जाते रहे हैं, ने भी यही किया, विवाद होना लाजिम था क्योंकि इसमें एक महान इनसान की सहज मानवीय कमजोरियों की ओर इशारा था, यह कौन पूछे कि वो तथ्यसम्मत है या नहीं, हम उनके नाम पर राजनीति की रोटी सेंकते हैं, तो उनकी छवि को बेदाग रहना चाहिए तथ्य जाए भाड़ में, व्याख्या जाए जहन्नुम में। और यही बात बहुत संभव है कि जेवियर मोरो की लाल साड़ी को लेकर हो।

अब जरा इस बात पर आएं कि लेखक क्या ऐसे विषयों पर जानबूझ कर लिखता है, इस तरह से जानबूझकर लिखता है कि वह विवाद में आ जाए, पहली बात तो यह कि विवदित विषय पर लिखने में कोई बुराई नहीं है, पर शर्त इतनी सी है कि तथ्यों के साथ लिखा जाए। ओमपुरी की जीवनी लिखी नंदिता पुरी ने, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान एक डिनर पर वे साथ थीं तो पत्रकारीय मित्रता भाव से पूछ बैठा, उनका जवाब विश्वसनीय था, जिसे बाद में उन्होंने मंच से भी स्वीकारा कि उस किताब के विवादित अंश बिना उनकी जानकारी के संभवत: प्रकाशक ने जारी कर दिए। तो दूसरी बात यह कि मुझे यह लगता है कि विवाद और उसके बाद बेस्टसेलर होने के गणित में लेखक से ज्यादा भूमिका प्रकाशक की होती है, किताब लिखना और छपना दोनों अलग बाते हैं और छपकर बिकना इससे भी अलग और आगे की बात। लेखक चाहे- अनचाहे इस बाजार के गणित का हिस्सा ना हो, ऐसा दावे के साथ हम नहीं कह सकते, पर लेखक लिखता क्यों है और विवादित लेखन सायास करता है क्या? इस सवाल के लिए हमें यह और साफ तौर पर देखने की जरूरत है कि यश की इच्छा तो सृजन में छुपी होती ही है, और सृजन के पाठक या दर्शक या श्रोता की दरकार भी सहज है, इसके साथ अर्थ का जुडऩा भी स्वाभाविक है, अखबार तात्कालिक और विवादित विषयों को उठाते ही है, यह पठनीयता के लिहाज से किया जाता है, और यह पठनीयता बाजार से भी कई बार संचालित होती है, पर पुस्तक लेखन हो या अखबार, इसका विस्तार अतिरेक में किसी भी हद तक जाने का हो जाए, यह असंभव नहीं है तो सही तो इसे कोई शायद ही कहेगा, पर अंतत: अगर बाजार का दोष है तो गालियां सिर्फ लेखक को क्यों दी जाए? यानी उसे बेचारा मान कर उसी को बलि का बकरा मत बनाइए।

Saturday, May 1, 2010

समय जब लिखता है इतिहास



हाल ही एक किताब आई है- गांधी: नेक्ड एम्बिशन, जो ब्रिटिश लेखक जेड एडम्स ने लिखी है, इसमें गांधी के यौन व्यवहार पर खुलकर बात की गई है।


ऑस्टे्रलिया के गांधीवादी दोस्त अब्बास रजा अल्वी का ई-मेल आया, उनकी चिंता वाजिब है। दरअसल एक किताब आई है जो ब्रिटिश लेखक जेड एडम्स ने लिखी है- गांधी: नेक्ड एम्बिशन। जेड एडम्स फिलहाल लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एडवांस स्टडी के अंग्रेजी अध्ययन विभाग में रिसर्च फेलो हैं, उन्हें हम द डायनेस्टी- गांधी नेहरू स्टोरी, टोनी बेन जैसी किताबों के लिए जानते हैं। कहा जा रहा है कि इस नई किताब में गांधी के यौन व्यवहार पर खुलकर बात की गई है, अल्वी को यह खबर वहां के एक अखबार में मिली, वे इसलिए भावुक हुए कि कुछ लेखक सस्ती लोकप्रियता के लिए गांधी पर कीचड़ उछाल रहे हैं। फिर तो कई ईमेल के जरिए यह लिंक देश भर से जाने अनजाने लोगों से बार-बार आया, सभी राष्ट्रपिता की छवि को लेकर बहुत चिंतित प्रतीत हुए। दरअसल, गांधी पर इस तरह की यह पहली किताब नहीं है, जैसे हंसराज रहबर ने भी कभी गांधी बेनकाब लिखी थी। इतिहास के विद्यार्थी के तौर पर मेरा मानना है कि भावुकता से ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य या वह स्रोत हैं जिन के आधार पर निष्कर्ष निकाले गए हंै। और व्यक्ति कोई भी हो, कोई भी ऐतिहासिक निर्णय तो आखिरकार व्यक्ति की बजाय तथ्य से तय होगा और ऐसा होना भी चाहिए। एक बात और मेरी समझ से बाहर है कि क्या महान लोगों को हमें सामान्य मानवीय कमजोरियों से ऊपर मान लेना चाहिए? क्या यह सच नहीं है कि स्थूल भावुकता हमें कहीं नहीं ले जाती, तर्क और तथ्यों के आलोक में निपजी भावुकता यकीनन स्थाई और सहज हो सकती है। मान लीजिए, अतीत में मेरे बुजर्गो ने कुछ मानवीय कमजोरियों के वशीभूत कुछ बुरा काम किया तो मुझे उसे उसी सहजता से क्यों नहीं स्वीकार करना चाहिए जितना अच्छे कामों को स्वीकारते हुए गौरवान्वित होता हूं। इसी तरह, गांधी मेरे प्रिय व्यक्तित्वों में से हैं और अगर कोई ऐतिहासिक तथ्य गांधी में कुछ मानवीय कमजोरियों को सिद्ध भी कर दें तो उनके पिछली सदी में हमारे सबसे महत्वपूर्ण और सर्वकालिक महान व्यक्ति होने का तथ्य और उनका महान काम कमतर तो नहीं हो जाएंगे?

Monday, April 26, 2010

ऑरकुट भर आकाश है, ट्विटर भर संसार




इस नई चौपाल ने नई बहस, नई आजादी, नई चुनौतियों को जन्म दिया है, कोई भी नया संचार माध्यम अच्छे के साथ बुरी संभावनाओं को भी अपने भीतर लिए हुए होता है, तो यह चौपाल भी इसका कतई अपवाद नहीं है और इसमें कुछ नया भी नहीं है। अब यह तो यकीनन इस्तेमाल करने वाले पर ही है कि वह किसी माध्यम को कैसे अपनाता है जैसे विषयांतर होने की आजादी लेते हुए कहूं तो, लगभग सवा सदी से गांव के अकेले मेरे ब्राह्मण परिवार और पढे लिखे भी यानी ज्ञानपिशाच परिवार ने धर्म का इस्तेमाल रचनात्मक कम और अपने स्वार्थवश ज्यादा किया तो इसमें धर्म का क्या दोष?


मार्च के आखिरी दिन की शाम ढल गई थी, मेरे विवाह की अफवाह से ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर और बज पर हंगामा था, थोड़ी सी देर के वक्फे में आश्चर्यजनक रूप से तकरीबन डेढ़ सौ लोगों तक अफवाह पहुंच गई और सुबह तक एसएमएस, फोन, ईमेल से और व्यक्तिश: शुभकामना, बधाई, आश्चर्य और तानों का मिश्रित सिलसिला रहा, मेरी हालत जिंदगी में कभी इतनी एम्बे्रसिंग नहीं हुई, ये दरअसल पहली अप्रेल की पूर्व संध्या पर एक मित्र का मजाक था पर इस प्रकरण से जाती तौर पर सोशल नेटवर्किंग की ताकत का एहसास मुझे गहरे तक हो गया। अब इसे जरा व्यापक स्तर पर देखने की कोशिश करें तो शशि थरूर और ललित मोदी की ट्विटरिंग से दुनिया में भूचाल अभी थमा नहीं है, थरूर की महिला मित्र सुनंदा पुष्कर के तथाकथित फेसबुक अकाउंट पर की गई टिप्पणियां भी चर्चा में रही हैं, कुलमिलाकर नतीजा यह है कि ऑरकुट, फेसबुक ट्विटर के नाम तद्भव रूप में गांव की चौपाल पर बैठे लोगों यानी सोशल नेटवर्किंग से लगभग नावाकिफ लोगों की जुबान पर आ गए हैं और गोया इस कदर कि पड़ौसी की बात हो रही हो। और कम्प्यूटर से जुड़ा शायद ही कोई शख्स होगा जो किसी ना किसी सोशल नेटवर्किंग पर ना होगा, मेरी जानकारी में तो नहीं ही है, आप भी याद करके देखिए क्या आपके परिचय में कोई ऐसा है।

सैद्धांतिकी की स्तर पर दो समाजशास्त्रीय शब्दों से मेरा नजदीक का संबंध रहा है, वे हैं- समाजीकरण और सामाजिक अंतर्कि्रया। आज इस वेबजालीय उठापटक की बात करते हुए इन दोनों शब्दों की अनुगूंज हमारे पास महसूस हो रही है। मूल वजह ये है कि किसी भी जीव का अपना समाज होता है और उसकी अपनी समाजीकरण की एक खास प्रक्रिया भी होती है, साथ ही पारस्परिक अंतर्कि्रया उसका बुनियादी स्वभाव होता है, हां ये जरूर है कि अंतक्र्रिया किस स्तर पर और किस जरिए से हो, प्राय: सामाजिक अंतक्र्रिया समान रुचि या किसी अन्य सामान्य आधार जैसे कि लिंग, पेशा, जाति, धर्म या क्षेत्रीय पहचान के इर्दगिर्द होती है, मुझे यह कह देना चाहिए कि सोशल नेटवर्किंग से ये तमाम दायरे छोटे या गौण हो गए हैं यानी क्या समाजविज्ञानियों के लिए यह चिंतनीय आहट नहीं है कि इससे सदियों पुराने समाजशास्त्रीय मिथक टूट रहे हैं या गड्डमड्ड हो रहे हैं। आप अपने या किसी दोस्त के सोशल नेटवर्किंग साइट के प्रोफाइल में फे्रंड्स नेटवर्क को खंगालिए, तो पता चलेगा कि सोशल नेटवर्किंग ने हमारी मित्रताओं या परिचय को विविधता का असीम विस्तार दिया है, यही कारण है कि मीडिया से जुड़े होने के कारण मैं सोशल नेटवर्किंग को पत्रकारों के लिए तो स्वर्ग ही मानता हूं, लिहाजा जनसंपर्क की अथाह संभावना और विविध जीवन स्थितियों तथा कार्यक्षेत्रों ने जो वर्चुअल अनुभव का संसार रचा है, उसे गूंगे का गुड़ ही कहना चाहिए। एकांत और अकेलेपन के संत्रास से गुजरती दुनिया को सोशल नेटवर्किंग ने जुडऩे का, खुद को जाहिर करने का जो व्यापक अवसर और विकल्प दिया है, उससे जाहिर होता है कि मनुष्य स्वभावत: जुडऩा चाहता है, पर उसके जुडऩे की सीमा और स्वरूप वह खुद तय करना चाहता है, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है। व्यक्तिश: या आवाज के जरिए मोबाइल की संचार क्रांति ने आजादी तो दी थी पर यह अतिवादी आजादी कि सीमा वह खुद तय करे, यह मुमकिन नहीं हो पाया था जो कि सोशल नेटवर्किंग ने संभव कर दिया। सोचकर देखिए कि ऑरकुट पर स्के्रप छोडऩे, फेसबुक की वॉल पर या बज पर कुछ विचार बांटने, ट्विटर पर 140 शब्द लिखने, या किसी भी सोशल नेटवर्किंग साइट पर फोटो शेयर करने के बाद किसी दोस्त की अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया पर यह जरूरी नहीं कि आप जवाब दें और फिर यहां सब इतनी तेजी से भी घटता है कि ठहराव की कोई गुंजाइश नहीं होती।

बेशक, इस नई चौपाल ने नई बहस, नई आजादी, नई चुनौतियों को जन्म दिया है, कोई भी नया संचार माध्यम अच्छे के साथ बुरी संभावनाओं को भी अपने भीतर लिए हुए होता है, तो यह चौपाल भी इसका कतई अपवाद नहीं है और इसमें कुछ नया भी नहीं है। अब यह तो यकीनन इस्तेमाल करने वाले पर ही है कि वह किसी माध्यम को कैसे अपनाता है जैसे विषयांतर होने की आजादी लेते हुए कहूं तो, लगभग सवा सदी से गांव के अकेले मेरे ब्राह्मण परिवार और पढे लिखे भी यानी ज्ञानपिशाच परिवार ने धर्म का इस्तेमाल रचनात्मक कम और अपने स्वार्थवश ज्यादा किया तो इसमें धर्म का क्या दोष? और इसी तरह जैसे, मेरे कितने ही परिचित मुस्लिम परिवार दो वक्त की हक की रोटी और खौफेखुदा और नेकनीयत के साथ जिंदगी बसर कर रहे हैं तो उसी मजहब के कुछ सरफिरे लोग जेहाद का खूनी खेल खेलते हैं, तो यही बात सौ फीसदी सोशल नेटवर्किंग पर भी लागू होती है, यहां भी सरफिरे हैं, यहां भी स्वार्थी लोग हैं।

बहरहाल, हमारे समय का कमाल यह है कि दुनिया सिमट गई है, सिमटी भी इतनी कि खुद सिमटने की क्रिया भी शरमा जाए, निदा फाजली के दोहे को तोड़ मरोडऩे को दिल कर रहा है, निदा से माफी चाहता हूं- छोटा करके देखिए जीवन का विस्तार, ऑरकुट भर आकाश है, ट्विटर भर संसार। आप इससे असहत हो सकते हैं क्या? अगर ऐसा है तो जरा खोलकर बताने की इजाजत दीजिए, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जितना लोग खुद को, अपने विचार और इच्छाओं को बांट रहे है, उसे देखकर हैरानी होती है, इतना कुछ इस धरती के इनसानों के सीनों में घुट रहा था, जो जाहिर हो रहा है, गुस्सा, प्यार, नफरत, तारीफें, या अपनी पसंद के गाने वेबसाइट्स के लिंक्स, क्या- क्या कुछ नहीं है जो लोग बांट रहे हैं, बांटने की खुशी के समंदर ठाठें मार रहे हैं, नफरतें जाहिर हो रही है तो मन का गुबार निकल रहा है, यह दबा रहता तो कितनी आत्महत्याएं हो सकती थीं, तनाव और कुंठा के मारे लोग कितने और हो सकते थे? इतना ही नहीं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर चंद लफ्जों में लोगों का सेंस आफ ह्यूमर देखिए, जनाब हमें तो हैरानी होती है।

और एक बात देखने लायक है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स अब सिर्फ दोस्ती का जरिया नही हैं, केवल मन के गुबार निकालने का वाइज नहीं है, प्रमोशन का बड़ा जरिया भी है, हमारे फिल्मी दुनिया से जुड़े दोस्त फिल्म का ग्रुप बनाकर भावी फिल्म के लिए माहौल बना रहे हैं, लिटरेरी एजेंसी अपनी गतिविधियों की जानकारी दे रही है, एक गायक दोस्त प्रचार में लगा है, प्रकाशक अपनी किताबों का प्रचार कर रहे हैं, और मुझे कम से कम इन सब में कोई बुराई भी नजर नहीं आती है और इससे यह तो जाहिर है ही कि यह हम पर है, इसे किस तरह लेते हैं, किस तरह इसका इस्तेमाल करते हैं, हमारी सोच अगर सकारात्मक है तो हमें उसकी उड़ान के लिए यह अनंत आकाश देता ही है। जाहिर सी बात है कि यह खुला मंच है, सबके लिए है, और अपने स्वरूप में बेहद लोकतांत्रिक भी है। हर माध्यम की अपनी चुनौतियां होती है, इसकी चुनौतियों पर विजय पाने के तरीके और रास्ते खोज लें, अभीष्ट तो यही है, इसकी आलोचना से कुछ हासिल होना नहीं है और इससे वापसी का रास्ता तो अब बंद ही मानिए।

Wednesday, April 21, 2010

एक कविता सा कुछ



कविता लिखना इतना अनायास होता है कि खुद मैं बहुत बार हैरानी करता हूं और फिर यह यकीन भी पुख्ता हो जाता है कि कविता दरअसल इलहाम होती है ऐसी ही एक ताजा इलहामी कविता पेशे नजर है
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बुझे से दिन और उदास शामें
बिखरे सपने हैं
उजाड से आशियाने में
जैसे टूटी हांडी में दबा रखती थी कुछ बीज मेरी दादी
दस घडों वाले परिंडे के कोने में

मुझे सहानुभूति की जरूरत नहीं है
पर छुपाना भी तो नहीं आता है मुझे

सच कह रहा हूं
छुपाने की नाकामयाब कोशिशों में
बहुत खत्म हुआ हूं मैं, मेरे दोस्त

शाम ढल ही जाती है
सुबह हो ही जाती है
उम्र बीत ही जाती है

छूटे हुए रिश्ते और बिछडा हुआ प्रेम
तात्कालिक याद से हट जाते हैं कुछ वक्त बाद
जीना संभव बनाने के लिए
या
जीना संभव हो ही जाता है

हांडियां कई बंधी है
बीज जिनके बेकार हो गए हैं
दिन मेरे बुझ गए हैं
और शामें बेतरह उदास
क्या किसी हांडी में छुपाके मिटटी में दबा दिया गया है
उनका कुछ हिस्सा हमेशा के लिए।

Painting by Tim Parish

Tuesday, March 9, 2010

कच्ची रेखाएं और जाहिद अबरोल साहब की एक नज्म

अपने बनाए एक कच्चे से पर सच्चे से रेखाचित्र को बांट रहा हूं
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लगे हाथ, पंजाब के मशहूर शाइर जाहिद अबरोल साहब की नज्म भी मुलाहिजा फरमाइए जो अंबाला में रहने वाले मेरे दोस्त शिवनंदन बाली ने साढे तीन साल पहले, मेरे ब्रेक-अप के बाद सुनाई थी-


जब मैं नन्हा सा बच्चा था
मेरी मां ने इक दिन मुझसे
एक पहेली पूछी थी-

एक डाल पे पांच कबूतर
एक शिकारी ने गोली से
एक कबूतर मार गिराया
बोलो कितने बचे कबूतर!

मैंने नन्हीं सी उंगली पर
गिनकर चार कहा था लेकिन
मो ने मुझको समझाया था
एक कबूतर के मरने से
बाकी के सब भाग गए हैं

आज तुम जीवन के वीराने पथ पर
मुझे अकेला छोड चले हो,
एक खुशी दम तोड रही है
बाकी खुशियों का क्या होगा!
वही पहेली आज मैं तुमसे पूछ रहा हूं -
जो मेरी मां ने मुझसे पूछी थी,

एक डाल पे पांच कबूतर
एक शिकारी ने गोली से
एक कबूतर मार गिराया,
एक खुशी दम तोड रही है
बाकी खुशियों का क्या होगा!

Sunday, March 7, 2010

मित्थल मौसी का परिवार पुराण यानी जब समय हमारा बोलता है...



इससे गुजरना अनायास अपने अतीत और एक अनुशासन के तौर पर इतिहास से गुजरना है, मुकम्मल तरीके से, अंदर गहरे तक उतरते, डूबते हुए, कभी हंसते हुए, कभी मुस्कुराते हुए तो कभी रोते हुए। हार्पर हिंदी ने इसे छापा है, उनके साहस को सलाम करना पड़ेगा क्योकि यह किसी नामचीन महिला की आत्मकथा नहींं है,


आज विश्व महिला दिवस से एक दिन पहले एक महिला की आत्मकथा की बात करें तो यकीनन कोई बड़ी बात नहीं मानी जाएगी। पर एक आत्मकथा अगर खतों के रूप में हो तो पहली नजर में अचरज होना लाजमी है और इस रूप में चाहे वह पुरुष की हो या महिला की। मित्थल मौसी का परिवार पुराण एक अलग किस्म की आत्मकथा है, जाहिर है कि अपनी भंाजी टीटू को लिखे खतो के जरिए है पर वह अपने समय जिसका फैलाव चाहे अनचाहे एक सदी तक है, का इतिहास है, एक औपन्यासिक रचना का सा सुख देती इस किताब को पढते हुए मुझे इतिहास के विद्यार्थी के तौर पर बहुत हिचक हुई कि इसे कैसे इतिहास कहा जाए। जब इसे पूरा करके उठा तो लगा कि यह तो सौ फीसदी इतिहास है और इसे आत्मकथा के फॉरमेट में लिखा गया है।
कहने को यह मित्थल मौसी के शब्दों में मित्थल मौसी के परिवार की कथा है, पर दो ऐतिहासिक शैक्षणिक संस्थाओं अजमेर की सावित्री पाठशाला और जयपुर के महारानी कॉलेज की नींव पडऩे की कथा से लेकर अपने समय के नामचीन लोगों के प्रसंगों तक कथा साधारण कायस्थ परिवार की कथा से आगे अपने समय का इतिहास हो जाती है जैसे महात्मा गांधी, सरोजनी नायडू, सुमित्रानंदन पंत, हरिवंशराय बच्चन (जिनसे मित्थल की सगाई होने वाली थी), मिर्जा इस्माइल, मानसिंह और उनकी तीसरी पत्नी गायत्री देवी, विश्वमोहन भट की मां, सितार वादक विलायत खान और तबला वादक गुदई महाराज, मोहनलाल सुखाडिय़ा जैसे लोग जो समाचार की तरह नहीं बल्कि पात्र की तरह कथा में आते है। इनको भूल भी जाएं तो साधारण परिवार की कथा बीसवी शताब्दी के भारत का सामाजिक वस्तुनिष्ठ और फस्र्ट हैंड अनुभव हमारे सामने रखते हुए बड़े फलक का निर्माण करती है। लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद सहित उत्तर प्रदेश तथा अजमेर, जयपुर, उदयपुर सहित राजस्थान और मघ्यप्रदेश के अनेक शहरों तथा दिल्ली में घूमती हुई कथा कब देशव्यापी रूप ले लेती है, पता ही नहीं चलता।
स्त्रीविमर्श के फैशननुमा दौर में कहना जरूरी है कि मित्थल मौसी का परिवार पुराण किसी नारीवादी नारे की तरह नहीं है, पिछले कुछ समय में आई हिंदी आत्मकथाओं से सर्वथा अलग इसलिए भी है कि पुरुष संदर्भश: आता है,वह भगवान नहीं है तो उसकी आलोचना नहीं है, शोषण का प्रलाप नहीं है। पति का जिक्र भी मित्थल मौसी यानी मिथिलेश मुखर्जी बहुत अनिवार्य स्थितियों में केवल संदर्भवश ही करती है। इसमें पुरुष साधारण रूप में ही हमारे सामने आते है, किसी भी अतिशयोक्ति के रूप में कहीं नहीं। पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा के संपादन में यह किताब पठनीय है, सुरुचिपूर्ण है, नई विधा सी होते हुए भी शुरू से आखिर तक बांधे रखती है। इससे गुजरना अनायास अपने अतीत और एक अनुशासन के तौर पर इतिहास से गुजरना है, मुकम्मल तरीके से, अंदर गहरे तक उतरते, डूबते हुए, कभी हंसते हुए, कभी मुस्कुराते हुए तो कभी रोते हुए। हार्पर हिंदी ने इसे छापा है, उनके साहस को सलाम करना पड़ेगा क्योकि यह किसी नामचीन महिला की आत्मकथा नहींं है, पर वैसे देखा जाए तो स्व.मिथिलेश मुखर्जी तो जीवंतता से कथा कहने वाली हैं, इसका मुख्य पात्र तो समय है, जो महिलाओं का, पुरुषों का, सबका है, वही इसको इतना महत्वपूर्ण बनाता है।

Monday, February 15, 2010

संस्कृति मीमांसा में मेरी प्रेम कविताएँ


painting by alfred gokel,courtesy -google

राजाराम भादू जी के संपादन में िनकल रही संस्कृति मीमांसा के जनवरी-फरवरी अंक में मेरी उन १०४ में से बारह कविताएँ चुनकर छापी हैं जॊ दरअसल मेरे प्रेम में टूटन के बाद दूसरे प‌क्ष की ऒर से हैं.
छपने की कहानी जरा इस तरह है कि ये १०४ कविताएँ उनकॊ आलॊचकीय नजर से पढने के लिए दी तॊ बॊले - 'छापने के लिए क्यों नहीं है, वजह बताऒगे! बडी कीमत में बेचॊगे क्या !' मैंने कहा - मुझे लगता है कि ये निजी हैं इसीलिए तीन साल से लिखी पडी हैं तॊ बॊले - 'ऐसा नहीं है और मैं इनकॊ छाप रहा हूं'
तॊ ये छपकर सामने हैं ....



1

क्यों तुम मेरे सपनों में आते हो
आधी रात उठकर बैठ जाती हूँ
रोती हूँ, सुबकती हूँ
कोसते हुए ईश्वर को
काल को
नियति को कभी
कहां हो और क्यों तड़पा रहे हो
आखिर मेरे प्रिय!

2

यह इमारत
जिसके नीचे पड़ी बैंच पर
तुमने पकड़ा है
पहली बार मेरा हाथ
नहीं भूलेगी यह बैंच, यह इमारत
जैसे हम तुम नहीं भूलेंगे एक दूसरे का साथ
नहीं छोड़ेगे एक दूसरे का साथ
हैं ना, मेरे प्रिय ?



3

कुछ होने के लिए
ज़रूरी नहीं होता है वाक़ई कुछ घटित होना
स्वाभाविक रूप से
हर घटना को घटना मान लेना भी ज़रूरी नहीं
घटना हो सकती है मात्र प्रतीति भी
हो सकती है पूर्वाभास भी
और कभी-कभार
संयोग-दुर्योगवश भी हो सकती है
कोई घटना
सोचती हूँ हमारा प्रेम भी तो ऐसा ही है, मेरे प्रिय!



4-

प्रेम की आड़ी तिरछी रेखाओं में
कहीं मैं गुम हूँ
और कहीं तुम गायब
पर मिलते हैं फिर
किसी ख़ला में अमूर्त-से हम तुम
देश काल की सीमाओं से ऊंचे उठते हुए
मेरे प्रिय!

5

दिल्ली - तीन


सपनों की
दिल्ली बहुत दूर होती है।
पर
तुमने सिखाया और बताया
कि सपनों की दिल्ली दूर नहीं है मेरे प्रिय
पर
अब दिल्ली दूर नहीं है सपनों की
लेकिन
अब सपने ही नहीं हैं ना दूरी के
ना पास के
ना दिल्ली के, मेरे प्रिय!

6-

तुम प्रेम में मर भी सकते हो
इतना प्यार करते हो तुम मुझे
मैं मर नहीं सकती यही है शर्त मेरी प्रेम में
मैं प्रेम में जीना चाहती हूँ
इतना ही करती हूँ प्रेम मैं
सिर्फ इतना ही, मेरे प्रिय!


7-
क्या तुम्हारा साथ वाजिब है
जब तुम रीत गए
भरते हुए मेरा खालीपन
और मैं रीत गई
भरते हुए तुम्हारा खालीपन
पर किसी का भी नहीं भरा
और रीत गए दोनों ही समूचे, मेरे प्रिय!


8-

आओ कॉफी हाउस की इस टेबल पर
बैठे हुए हम
अशरीरी हो जाएं
दो रूहों को बात करने दें
चुपचाप
एक दूसरे को देखते हुए
अपलक, मेरे प्रिय!

9

उस बहते हुए पानी में जहां हम साथ नहीं थे
साक्षी बनाते हुए उसे हमारे प्रेम का
बहाए प्रेम पत्र एक एक करके
लगा तुम्हें बहा रही हूँ चिंदी-चिंदी
या
खुद को बहा रही हूँ कतरा-कतरा
सोचती हूँ
प्रेम जीने के लिए होता है क्या
प्रेम पाने और खोने के लिए होता है
या
प्रेम होता है
बहाने के लिए प्रेम पत्र की तरह -
निनिZमेष, मौन, मेरे प्रिय!

10

प्रेम का भ्रम - तीन


प्रेम में तुम चाहते थे प्रेम
प्रेम में मै चाहती थी प्रेम
प्रेम के बीच में पला प्रेम का भ्रम
प्रेम के साथ
हमारे बीच और
जब बिखरा भ्रम तो
टूट गया प्रेम भी मेरे प्रिय!

11

मरुधरा - तीन

मेरा प्रेम कहां समाता आिख़र
मरुस्थल के रेतीले प्यासे धोरों में
मुझे क्षमा करना, मेरे प्रिय!

12-

मरुधरा - छ:

हमारे प्रेम की सरस्वती
सूख गई आखिर काल के प्रताप से
लुप्त हो गई मरुधरा में
अज्ञात काल के लिए, मेरे प्रिय!

Friday, February 12, 2010

मेरी प्रेम कवितायें


दोस्तों की मांग पर पेश है मैसूर में कृत्या अंतरराष्टीय काव्योत्सव-2010 में पढी प्रेम कविताएं --

1

तुम्हारे मिलने से

मिली सूरज की किरण

मेरी आँखों में हो गयी शामिल

और मेरी रोशनी

असीम हो गयी

सच

तुम मिली और

मैं उजालों से भर गया

इस अंधेरी रात में

मरुस्थल में उतरते चाँद की तरह....।


2-

अकेला चाँद और तुम

तारों की भीड़ में

टिमटिमाती तुम

उजाले की अंगीठी में

मेरी फूंक से जलती और

शोला बनती मेरी प्रिय

क्या तुम चाँद भी होती हो कभी !

किसी क्षण ....


3

तुम्हारी आंख के

काजल से चाँद को काला कर के

ढक दूँ

और तुम्हारे चेहरे पर

लिख दूँ

नाम चाँद का

काला चाँद फिर चुपके से आए

और शरमाये पूछे खुद मुझसे अपनी शिनाख्त ।

कोई काजल किसी की आंख का

अश्कों के मोती लेकर हथेली में आए

और प्यार की उजली किरणों से

दुनिया का कोई नक्शा बनाये

और

चाँद को सांवली सी दुल्हन बनाए

आंख में उजाले भर जाए ....

फिर किसी

बादल की डोली में बिठा के

दिल की गली में

आशियाँ मुहब्बत का सजाये

चाँद को मुकम्मल बनाये

याद को पागल बनाए

फिर कोई चुपके से आकर

चाँद को साजन बना दे

मरुस्थल के चाँद को

समंदर की छागल बना दे।


4

रात भर किया

दो कुर्सियों ने प्रेम

दो पेड़ों ने

बांहें फैलाकर किया आलिंगन

घर के दरवाजे की चैखटें

करीब आकर चुंबन लेती रहीं रात भर

प्रेम में डृबी रही

पंखे की पंखुडियां चुपचाप

एक ठिठुरती जाड़े की रात में

पति पत्नी लड़ते रहे रात भर

लगभग बिना ही कारण

जो कहते नहीं थकते-

'आय एम लकी बहुत अच्छी बीवी मिली है मुझे '

और

'मेरे पति बहुत प्यार करते हैं मुझसे '

आज फिर देखूंगा

सुबह सुबह दफ्तर में दो कंम्प्यूटर पाये गए

आपत्तिजनक अवस्था में

जो आलिंगनबद्ध रहे रात भर।

5

उन नितांत अकेले क्षणों में

जब ठीक आधी रात को

एक दिन विदा लेता है

और दूसरा दिन शुरू होता है,

याद करता नहीं हूं

याद आती हो तुम

जैसे कोई दीप किसी मंदिर का जल जाए चुपचाप

वो क्षण स्तब्ध से गिनते हैं

शोर के कदमों की आहटों को।

कोई खयाल तो नहीं हो तुम,

और कोई बेखयाल सी भी नहीं हो हरगिज।

प्रेम के उन नितांत अकेले क्षणों की परिधि में जो अधूरा रह गया हो

बिछड़े हुए प्रेम के दिये ही जलते हैं,

कोई मशाल नहीं।

6

ओ मेरे प्रिय !

रोशनी गुमसुम है और धुन जिंदगी की निस्तेज

प्रेम सूखे हुए पेड़ को सहलाना है क्या?

प्रेम रक्तबीज है

प्रेम बस प्रेम है

भोगने के लिए या भुगतने के लिए।



7

अब भी जब सूरज आके पूछता है

उससे मिलने जाना है क्या आज?

कहां मिलोगे? वहीं महिला छात्रावास?

चांद सुलाता है, मुझे लोरी देता है-

सो जा, वो सो गई है, आज फिर बिना तुम्हारा नाम लिए!


8

प्रेम के पल जीवन के सुंदरतम पल हैं

जो किसी के इंतजार में गुजरते हैं

कुछ भ्रमों को जीवन में पालकर

बहुत प्यारे भ्रम!

जीवन के श्रेष्ठ क्षणों के सूत्रधार

और

प्रेम के अर्थ को व्यर्थ होने से बचाने वाले वे निर्दोष से!

Wednesday, January 27, 2010

अदब से बात अदब की




लगभग हर नियमित दर्शक-श्रोता की स्मृति में कोई ना कोई सत्र सकारात्मक रूप से अंकित ना हुआ हो, किसी न किसी लेखक से संवाद, दर्शन या पास में बैठने का अनुभव गौरवमिश्रित खुशी का वाइज नहीं बना हो, ऐसा मुझे नहीं लगता, तो क्या इसे कम बड़ी जमीनी उपलब्धि माना जाना चाहिए?


सबसे पहली बात तो यह कि मैं ना तो जयपुर साहित्य उत्सव के आयोजकों में से हूं और ना ही प्रतिभागी लेखकों में। पर पिछले पांच सालों से लगातार एक पाठक-लेखक के तौर पर दर्शक रहा हूं और पत्रकार के तौर पर अखबार, टीवी और मैगजीन के लिए कवर भी किया है। इत्तेफाक यह है कि मुझे हर बार इसके विरोध में उठती आवाजें समर्थन के तर्कों के सामने गौण लगती हैं। वजह यह है कि व्यक्तिगत रूप से मुझे यह उत्सव परंपरागत रूप से प्राप्त दयनीयता के बोध से मुक्ति देते हुए साहित्य को एक गरिमा और लोकप्रिय मुहावरे में ग्लैमर प्रदाता दिखता है।
आलोचकों की जुबान के जरिए साहित्य और साहित्यकारों को मिलती यह गरिमा और ग्लैमर की चुभन ही तो प्रकट नहीं हो रही? पिछले साल इस आयोजन के बाद डेली न्यूज - हमलोग के लिए लिखते हुए हिंदी की प्रसिद्ध कथाकार गीतांजलि श्री ने प्रतिभागी लेखक के तौर पर अपने अनुभवों को बांटते हुए जो कहा था, आज मुझे याद आ रहा है कि यह बड़े अदब से अदब की बात करना है और हिंदी वालों को इससे सीखने की जरूरत है। गीतांजलि श्री की इस बात से कोई असहमत भी हो सकता है क्या? खैर, पहली बात, इस बार के आयोजन में पिछले दो सालों की तरह मीडिया में नकारात्मक खबर बनाने का काम नहीं हुआ, उसके कारण को शब्द देने की जरूरत नहीं जान पड़ती। दूसरी खास बात यह कि लगभग हर नियमित दर्शक-श्रोता की स्मृति में कोई ना कोई सत्र सकारात्मक रूप से अंकित ना हुआ हो, किसी न किसी लेखक से संवाद, दर्शन या पास में बैठने का अनुभव गौरवमिश्रित खुशी का वाइज नहीं बना हो, ऐसा मुझे नहीं लगता, तो क्या इसे कम बड़ी जमीनी उपलब्धि माना जाना चाहिए? मैं व्यक्तिगत रूप से चार सत्रों नंदिता पुरी-ओमपुरी की नमिता भेंदे्र से बातचीत, फैज अहमद फैज की यादगार वाला सत्र और अशोक वाजपेयी के साथ यतींद्र मिश्र के सत्रों को बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं। आयोजन की गंभीरता पर सवालिया निशान लगाने वाले दोस्त, ज्ञानपीठ से सम्मानित नाटककार एवं अभिनेता गिरीश कर्नाड वाले अद्भुत व्याख्यानात्मक सत्र को भूल कर ही यह कह सकते हैं, जिसमें उनका विस्तृत अध्ययन, शोधपरक नजरिया क्या आयोजन की चकाचौंध वाली, फिल्मी ग्लैमर वाली छवि के बरक्स जोरदार जवाब नहीं था?
फैज वाला सत्र क्या ऐतिहासिक क्षण नहीं था जब उनकी बेटी सलीमा हाश्मी के सामने जावेद अख्तर फैज से अपनी अविश्वसनीय किंतु सत्य किस्म की पहली मुलाकात नोस्टेल्जिक और पटकथा लेखक के हुनर से मिलाते हुए लोगों से बांट रहे हैं कि कैसे वे मुंबई में एक मुशायरे में भाग लेने आए फैज से मिलने ठर्रा पीकर आत्मविश्वास से, बिना टिकट लोकल ट्रेन में अंधेरी से मरीन ड्राइव की यात्रा करके गए, बिना परिचय के ही रात होटल में उनके ही कमरे में गुजारी थी और सुबह-सुबह कुलसुम सायानी की प्रेस कॉन्फे्रेस के बीच इजाजत लेकर चुपके से अजनबीके रूप में ही निकल आए थे। जावेद साहब के इस संस्मरण साझा करने के बाद शबाना आजमी और पाकिस्तान से आए अली सेठी फैज साहब की नज्मों का सुंदर पाठ किया और नोबल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार पाब्लो नेेरूदा और फैज की मित्रता के अंतरंग क्षण स्क्रीन पर फिल्म के रूप मेंं दिखाए गए।
बहरहाल, यकीनन पूरा आयोजन एक मजमा था, बेहतरीन मजमा। जिसके लिए पटना से आए कवि पद्मश्री रवींद्र राजहंस ने व्यक्तिगत क्षणों में मेला ठेला कहा, यह कहते हुए कि मेले में बहुत गंभीर विमर्श की अपेक्षा नहीं की जा सकती, मैं उनसे सहमत होते हुए जोडूंगा कि मेले का कोई सत्र आपको कुछ भी छोटी सी वैचारिक उलझन, खुशी या प्रेरणा दे दे तो क्या उस मेले को खारिज किया जा सकता है?
अब मुझे पत्रकार की भूमिका में आना चाहिए, बुद्धिजीवियों की राय कानों में पड़ी कि ऐसे आयोजनों से लोकतांत्रिक संस्थाओं का पतन होता है, बात तो सही है, बात में तर्क है और दमदार भी है, तो क्या किया जाए? या तो से आयोजन सरकारी स्तर पर हों जैसा लगभग सफल किस्म का मॉडल राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी ने पुस्तक पर्व के रूप में (कतिपय स्वाभाविक आंरभिक कमियों के बावजूद) हाल ही हमारे सामने रखा। दूसरी बात यह कि जब साठ साल के गणतंत्र के जश्न में डूबे देश के लोगों के सामने कुछ लोग अपनी मेधा, मेहनत और विजन से एक सफल किस्म का लोकप्रिय (चाहे उसे गंभीरता में साधारण ही क्यो ना कह दिया जाए) आयोजन खड़ा करते हैं, तो उसे विरोध के लिए विरोध की मुद्रा में खारिज करने का काम भी होगा ही, पर होना नहीं चाहिए।
ऐसा नहीं है कि इस आयोजन में किसी तरह की निराशा नहीं हुई, कमियां नहीं दिखीं, मसलन राजस्थानी का सत्र फीका सा रहा तो पीड़ा हुई और लगा कि क्या इससे अधिक क्षेत्रीय और भाषाई भागीदारी का तर्क कमजोर नहीं होता और अपने ही लोग समयबद्ध रूप से रोचक सत्र नहीं बना पाए तो आयोजकों को क्या दोष दें? वहीं, अभिजात्यता और चकाचौंध को हम मान भी लें तो क्या पूरे आयोजन में लोकतांत्रिकता के अनूठे अवसर यादगार नहीं बनाते? याद कीजिए, गुलजार नज्में पढ़ रहे हैं, जावेद अख्तर सामने बैठ कर सुन रहे हैं, ओमपुरी को बैठने की जगह नहीं मिलती पर बिना शिकवा किए, बिना झल्लाए लगभग मध्य में खड़े सुन रहे हैं और जब माइक गड़बड़ाता है तो आवाज के लिए कहते हैं, यहां तक तो आवाज आ रही है। तो साहित्यिक आयोजन को आसमान की उंचाइयों तक ले जाने वाले इसके सूत्रधार संजोय रॉय मंच के पास नीचे जमीन पर बैठकर ही नज्म सुनें तो इसे क्या कहेंगे? एक आयोजन सिर्फ इसलिए कि वह सरकारी नहीं है, अंग्रेजी के वर्चस्व वाला है, आलोचना करें, यह भूलकर कि पूरी दुनिया और कम से कम एशिया में जयपुर की पहचान के साथ एक सार्थक सी, प्रकटतया गंभीर विषय साहित्य को जोड़ रहा है और वह भी बड़े मर्तबे के साथ, तो यह गौरवपूर्ण नहीं तो संतोषजनक जरूर है। और साहित्य से सिनेमा और संगीत जुड़ कर कोई गुनाह कर रहे हैं क्या?
इसे आप क्या कहेंगे कि वसुंधरा राजे सिंधिया प्रतिलिपि पत्रिका के दलितों पर केंद्रित ताजा अंक को खरीद रही हैं, यानी साहित्य के बहाने विविध क्षेत्रों के लोग एक साथ जुट रहे हैं और पारस्परिक संवाद के अवसर सुलभ हो रहे हैं। और शाम को भोजन के समय की अनौपचारिकताओं एवं आत्मीयताओं की अहमियत को तो शाम के गवाह लोग ही जान सकते हैं। और लगभग एक हफ्ते बाद जब मैं मैसूर में ऐसे ही एक आयोजन-पांचवें अंतरराष्ट्रीय काव्योत्सव में काव्यपाठ कर रहा होऊंगा, तो यकीन मानिए पांच साल के जयपुर साहित्य उत्सव को अपनी स्मृति और चेतना में एक निकष के रूप में रखते हुए वहां जयपुर की सी अपेक्षाएं करूंगा, तो जयपुर के इस आयोजन को लेकर हम सबकी या कम से कम मेरी शिकायतें तथा नुक्ताचीनी और भी गौण नहीं हो जाएंगी क्या?



28 जनवरी 2010 को डेली न्यूज के संपादकीय पेज पर अग्र लेख

Friday, January 22, 2010

गुनगुनी धूप में सर्द सचाइयां


जयपुर की सुहानी सुबह में देश का मशहूर और बेहतरीन अदाकार खुद पर लिखी किताब पर बात कर रहा था और साथ थी किताब की लेखक और उनकी पत्नी नंदिता पुरी, दोनों से मुखातिब नमिता भेद्रे। शुरूआत बहुत अनौपचारिक सी, ओम पुरी अपनी सीट से उठकर नंदिता के पास आकर माइक चेक करते हैं, इतने करीब से कि अपनी पत्नी के सांस महसूस कर सकें। दोनों के सांसो की मिलीजुली आवाज होटल डिग्गी हाउस के खुले लान में सांय सांय गूंजती हैं। नंदिता ने कहा कि ठीक है अब आप अपनी जगह बैठ सकते हैं, ओम अपनी जगह बैठे तो नमिता ने कहा कि ओम की इच्छा तो वहां से हटने की नहीं है पर सामने फेमिली आडियंस है।
पहला सवाल यह था कि क्या किताब अनलाइकली हीरो पर विवाद प्रचार के लिए था तो नंदिता ने कहा कि नहीं, मैं तो हैरान थी, मुझे तो धक्का लगा था, यह वो हिस्सा नहीं था जो हमने प्रकाशक के साथ मिलकर अखबारों और पत्रिकाओं के लिए चुने थे। जब यही सवाल ओम से किया गया तो उनका कहना था हां, यह था पर हमारी ओर से नहीं प्रकाशक की ओर से, उसकी भूमिका के बगैर कैसे वह हिस्सा मीडिया के पास चला गया! इस वक्त पत्नी नंदिता के चेहरे भाव देखने लायक थे। पति पत्नी एक ही बात पर अलग अलग थे। बातों बातों में जब ओम ने कहा कि जब मैं ड्रामा स्कूल में था बीस साल का था तो नंदिता चार साल की थी तो नंदिता के चेहरे भाव मुस्कुराहट में कुछ लजाने के थे और लान में आगे से पीछे तक गूजता हुआ एक कहकहा था ।
ओम ने कहा कि लोगों ने पूछा कि क्या मुझे अपने सेक्स जीवन को यूं बताना चाहिए था, मेरी नजर में जीवनी का मतलब क्योकि किसी इनसान को संपूर्णता में देखना चाहिए उसकी उपलब्धियां, कमजोरियां, खूबियां सब कुछ आना चाहिए। उनसे जब नमिता ने कहा कि आप अच्छे अदाकार है फिर सिंह इज किंग जैसी कैसी कैसी फिल्में कर रहे हैं ! तो आराम की मुद्रा में बैठे ओम ने दोनों हाथ पावों के बीच बांधे और लगभग कमर को आगे बैड करते हुए सिर झुका कर कहा कि नमिता आय एम सारी आई वर्कड इन सिंह इज किंग! फिर अपनी मुद्रा में वापिस आए और बोले अपनी आरभिक फिल्मों के पारिश्रमिक का ब्योरा दिया और बोले कि जब पेंतालीस का हुआ तो लगा कि परिवार है और बुढापा आएगा, मेरे पास कुछ नहीं है और मैं कमर्शियल फिल्मों की ओर मुडा। जैसे फिएट चलाता था तो लोग कहते थे बेहतर कार से रेट अच्छा मिलता है तो मैं कहता था यार मेरे लिए घर जरूरी है कार से पहले।
उनसे जब पूछा गया कि तो क्या आपको लगता है आपकी किस्म की फिल्में बनती नहीं रोल नहीं होते! तो बोले कि रोल भी है, फिल्मे भी हैं पर वो बच्चन साहब ले जाते हैं, दोनों के बाल ग्रे हैं, दोनो की आवाज भी अच्छी है और दोनों की अदाकार भी। मैं चाहता हूं उनके पास इतना काम आए कि वो कहें कि जाओ सात बंगला चले जाओ, तो कुछ काम मुझे मिले, उन्होंने याद किया कि अमिताभ की वजह से उन्हें अर्द्धसत्य मिली जो उनके लिए लाटरी थी। कमर्शियल करने के बाद फिर अपने मन का काम करने का जरिया उनके लिए ब्रिटिश सिनेमा बना जिसके लिए उनका मानना है कि वे आर्ट सिनेमा बनाते है, और हालीवुड वाले कमर्षियल।
जब उनकी पत्नी नंदिता पुरी ने कहा कि सिनेमा के लोग आत्म मुग्ध होते हैं तो नमिता ने पूछा कि क्यो ओम भी है! तो नंदिता ने कहा माइल्डली। नमिता ने कहा कि सिनेमा भी अब क्लोज होता जा रहा है यानी परिवार केंद्रित सा। क्या उन्हे लगता है कि कोई नया आदमी उसमं घुस कता है तो बोले कि परिवार मदद करता है पर अंततः अपनी प्रतिभा से ही स्थापित होते हैं , असफल के उदाहरण हमारे पास हैं ही, बाहर वाले ष्षाहरूख है जो हिट हैं नंबर वन हैं। और जैसे बीए करते ही दुकानदार बेटे को कहता है बैठना शुरू करदे यहां भी है।
ऐसे ही चुटीले सवाल जवाब और हसीं मजाक में अनौपचारिक बातचीत के बाद नंदिता ने किताब का अंश पढना शुरू कर दिया- ओम का जन्म अंबाला में हुआ, जो पंजाब में था अब हरियाणा में है, जन्म का दिन निश्चित नहीं है.....
गुनगुनी धूप अब कुछ तीखी होने लगी थी।

Friday, January 1, 2010

जुबानें ज्ञान की खिडकियां है ज्ञान नहीं


माफ कीजिए अंग्रेजी के वेदप्रकाश शर्मा या सुरेंद्रमोहन पाठक यानी चेतन भगत हिंदी के अखबारों में गर्व से लिख रहे हों तो जुबान के नाम पर नए दशक का व्यवहार और संसार हमारे सामने खुलकर नहीं आ जाता क्या!

गुजरते साल की आखिरी शाम ताजा धुले लिहाफ में कालिंगवुड की 'द आइडिया आफ हिस्ट्री' का पाठ करते हुए( दो सालों के संधिकाल में इतिहास पढने से बेहतर मुझे कुछ नहीं लगता) जो चीज बार बार ध्यान भंग कर रही थी, वह थी गली के तात्कालिक उत्सव पंडालों से उठती पंजाबी गीतों की आवाज। सुबह उठा तब भी हरभजन मान का गाया पंजाबी गीत कहीं बज रहा था। यह इस शहर का मिजाज मुझे मालूम नहीं होता। जब राजस्थान के एक मात्र पंजाबी इलाके से आए मुझ किशोर के लिए सुखद होते हुए भी पंद्रह साल पहले इस शहर में पंजाबी गीत लगभग वैसा ही था जैसा कोई तमिल तेलुगू गीत आज भी होता हो।
क्या यह वैश्विक भाषाई बहुलतावाद की एक झलक नहीं है। इसे जरा विस्तार देकर देखें तो जब आंध्र फिर भाषा के नाम पर उबल रहा है और दूसरी तरफ पाउलो कोएलो दुनिया की आधी से ज्यादा जुबानों में पढे जा रहे हों, दूर क्यों जाएं हिंदी के उदय प्रकाष दुनिया की दो दर्जन भाषाओं में पढे जा रहे हों और माफ कीजिए अंग्रेजी के वेदप्रकाश शर्मा या सुरेंद्रमोहन पाठक यानी चेतन भगत हिंदी के अखबारों में गर्व से लिख रहे हों तो जुबान के नाम पर नए दशक का व्यवहार और संसार हमारे सामने खुलकर नहीं आ जाता क्या! चेतन भगत की ताजा किताब टू स्टेटस कहीं टू लेंग्वेजेज होती तो! या होनी चाहिए थी!
इसका सीधा साधा मतलब यह है कि जुबान की दादागिरी का वक्त भी अब खत्म हो गया है जैसे तथाकथित रूप से पांडित्य और विद्वता की भाषाई दादागिरी का पर्याय संस्कृत और पढे लिखे होने की जुबानी पहचान अंग्रेजी रही है, अब नहीं है, प्रबंधन की पाठशालाओं में कई जुबानें सिखाई जा रही हैं यानी तय है कि केवल अंग्रेजी से काम नहीं चलेगा। यह लगभग वैसा ही होगा जब आप दक्षिण भारत में जाते हैं तो विज्ञापनों पर जुबान और चेहरे दोनों बदल जाते हैं। तो बाजार की जुबान हमारी जुबान और हमारी जुबान बाजार की। यही कारण है कि बदलती दुनिया में अंग्रेजी के बावजूद हिंदी के व्यापक फैलाव से लोग हैरत में है। किताबों और अखबारों का बाजार झूठ तो नहीं बोलता। और मैं बाजार के इस स्वरूप का नकारात्मक नहीं मानता, क्योकि इसमें अहित तो किसी का नहीं है, ना जुबानों का ना उन्हें बोलने वाले लोगों का।
जाहिर है कि ज्यादा जुबानें जानना अब बड़ी जरूरत है। मल्टीलिंग्वल कल्चर का युग प्रारंभ हो गया है, वैसे भी जैसा कभी मेरे दादाजी ने बचपन में मुझे कहा था कि बेटा, ज्ञान और कौशल का रास्ता जुबानें बनाती हैं, जुबानों की खिड़की से हम वहां पहुचते हैं, बस जुबान की यही और इतनी सी अहमियत है, यानी जुबान ज्ञान का विकल्प तो नहीं ही होती। आइए, नए साल में हम भी कोशिश करें कुछ जुबानें और जानें, कुछ खिड़कियां और खोलें ज्ञान की।

Monday, December 28, 2009

2009 की एक फिल्म जो 2010 के लिए है



अपूर्वा याज्ञिक की फिल्म सच दिखाकर झकझोरती है, और चेताती है तो सिखाती भी है और अंतत: सार्थक विमर्श खड़ा करती है, इसलिए इसे देखना एक अच्छी किताब पढने का आनंद लेना है


साल 2009 गुजर गया जैसे हर साल गुजरता है, 2010 शुरू हो रहा है ठीक वैसे ही जैसे हर नया साल होता है, राजस्थान की एक फिल्म की बात कर रहा हूं जो इस साल आई और जिसकी प्रासंगिकता 2010 में सिद्ध होनी तय है। कुछ ही समय बाद यहां पंचायत चुनाव होने हैं और पंचायतों में पचास फीसदी भागीदारी महिलाओं की पहली बार होनी है और यह फिल्म उन पर ही है, उन्हें ही संबोधित है। आप निराश हो सकते हैं, यह फीचर फिल्म नहीं है, यह 78 मिनट की डॉक्यूमेंट्री फिल्म है।
काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपुल्स एक्शन एंड रूरल टेक्नोलॉजी यानी कपार्ट की इस फिल्म पंचायती राज में महिलाएं का निदेंशन अपूर्वा याज्ञिक ने किया है। इस फिल्म को देखते हुए मुझे आईसीएचआर की एक परियोजना पर राजस्थान की महिलाओं पर लंबे शोध के दौरान हुए अनुभव सीन दर सीन याद आए। ऐतिहासिक परंपरा को सहेजे हुए पर उसे जरा भी ना छूते हुए आज की बात करना बहुत मुश्किल काम है, यानी राजस्थान के सामाजिक ढांचे और उसमें महिलाओं की बुनियादी हालत के बगैर उनकी राजनीतिक स्थिति का निर्धारण और भविष्य की कल्पना असंभव है, इस लिहाज से फिल्म की सबसे बड़ी खासियत गहन एवं सूक्ष्म शोध और उसका उपयुक्त विजुअलाइजेशन है। आरक्षण और क्रमश: राजनीतिक भागीदारी तथा राजनीतिक रूप से ठोकर खाती, समझ विकसित करती, पति के लिए बराएनाम चुनाव लड़ती और फिर केवल हस्ताक्षर तक के लिए सीमित होने से लेकर अपने अनकिये परंतु अपने नाम पर हुए भ्रष्टाचार को झेलती औरतों के आंखें पढने का काम अपूर्वा के कैमरे ने किया है।
क्या यह मासूम इत्तेफाक है कि यह फिल्म वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री काल में शूट हुई है, केवल पोस्ट प्रॉडक्शन गहलोत के समय हुआ है। हमारे समय का कड़वा सच यह है कि इस फिल्म को फिल्मी पन्नों और खबरों में जगह नहीं मिली, यह एक तरह से ठीक भी है, कड़वे जीवन यथार्थ वाली फिल्म को चटपटी खबरों के बीच क्यों आना चाहिए। राजस्थान से यह गंभीर काम हुआ है, जो दस्तावेज ही नहीं मार्गदर्शिका भी है, यह फिल्म समस्या ही नहीं बताती रास्ता भी बताती है, सवाल तो उठाती ही है, मोनोलॉग बाइटस के रूप में सामाजिक कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, पत्रकारों और पंचायत सदस्यों के अनुभवों और विचारों के साथ एक सार्थक बहस चुपचाप करवाकर मौन एक्टिविज्म की सूत्रधार बनती है।
शेखावाटी, जयपुर और दक्षिणी राजस्थान में शूट हुई फिल्म की भाषा को इस लिहाज से देखा जाना चाहिए कि बड़े क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है, पर अगर इसे हम राजस्थानी नहीं कह सकते, तो जैसा कहा गया है मारवाड़ी नहीं कह सकते क्योकि मारवाड़ी तो मारवाड़ यानी जोधपुर की भाषा या बोली है। फिल्म में पटकथा और संपादन रमेश आशर का है तो सूत्रधार के रूप में अपूर्वानंद से बेहतर शायद ही कोई होता। हालांकि इनके द्वारा बोली गई हिंदी कई बार खटकती है, कि असहज हो जाती है, मेरा मानना है कि जब वो उर्दू शब्दों का इस्तेमाल कर ही रहे हैं तो जैसे -यद्यपि की जगह हालांकि कहने में क्या बुराई है, खैर यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। फिल्म बहुत मेहनत, शोध और मन से बनाई गई है तथा अव्यावसायिक है तो जनहित के लिहाज से उसे बड़ा श्रेय क्यों नहीं मिलना चाहिए।

Monday, December 21, 2009

समय का पहिया घूमे रे...



बजाज कंपनी ने स्कूटर ना बनाने का फैसला किया है, यह भारतीय मध्यम वर्ग के जीवन में एक बदलाव के हथियार का इतिहास बनना नहीं है क्या?

बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर, हमारा बजाज... यह विज्ञापन देख और सुनकर बचपन गुजारने वाली पीढी अब जवान होकर युवतर हो रही है, मैं भी उसी लाइन के आखिर में खड़ा हूं। बदलाव जिंदगी का जरूरी हिस्सा है और जिसके लिए कहा जाता है कि बदलाव के अलावा कुछ भी स्थाई नहीं है। बजाज स्कूटर से बाइक का सफर सिर्फ उस कंपनी और दुपहिया चालकों का सफर नहीं है, यह देश के साथ दुनिया के बदलने का वक्त है। इसे दो पीढियों के अंतराल के स्पष्ट विभाजन के रूप में देखा जाना चाहिए। बजाज के चेतक मॉडल को याद करें, जो अब भी आपको साल में दो-चार बार दिख ही जाता होगा। उसे देख के नॉस्टेलजिक नहीं होते क्या! हमारा पहला स्कूटर, उस पर जाकर पहला प्रेम प्रस्ताव या कॉलेज का पहला दिन, सारे घर का दुलारा, सारे मोहल्ले की जलन टाइप कितनी ही बातें क्या उमड़ती-घुमड़ती नहीं है!
आज जवान होती पीढी टेपरिकॉर्डर, ऑडियो-वीडियो कैसेट, वॉकमेन के बाद की पीढी है। मौहल्ले में चंदा करके किसी वीकेंड पर वीडियो पर रात भर फिल्में देखने का विचार और उसका तिलिस्मी अहसास क्या आज की युवा जमात को अविश्वसनीय नहीं लगेगा जो लैपटॉप में दुनिया भर की फिल्में लिए घूमती है। और इस तरह बात वहीं आ गई कि उस वक्त की कितनी ही हिंदी फिल्मों में एक मैटाफर के तौर पर बजाज स्कूटर की उपस्थिति देखी जा सकती है। जरा, पहिए के आविष्कार को याद करें, यह ऐतिहासिक रूप से नवपाषाण काल की घटना है, जो तीन हजार ईसा पूर्व प्रारंभ होता है यानी आज से तकरीबन पांच हजार साल पहले, और यह प्राय: मिटटी के बर्तन का समय था। यह पहिया ही था जिसने उस कालखंड को महत्वपूर्ण बनाया था, हालांकि इसका व्यापक प्रयोग तदंतर इसी मिटटी के बर्तनों के युग के ताम्र-कांस्य काल में हुआ, जब गाडिय़ां बननी शुरू हुईं और फिर समय का पहिया घूमा और वक्त की रफ्तार बढ़ी और मानवीय तरक्की के रास्ते खुले। जब पहली बार जयपुर से पांच सौ किलोमीटर दूर कालीबंगा के संग्रहालय में मौजूद उस ताम्रकांस्ययुगीन पहिए का मिट्टी का प्रतिरूप देखा था, मेरी आंखों की हैरानी मुझे आज भी याद है। वक्त के पहिए ने बहुत सी चीजों को इतिहास बनाकर हमारी याद और किताबों-लफ्जों तक सीमित किया है, बजाज स्कूटर भी वैसा ही प्रतीक है। राजस्थान की पाक सीमा के उस तरफ के राजस्थानी गांव की कथा पर महरीन जब्बार की फिल्म रामचंद पाकिस्तानी के शुरुआती सीन को याद कीजिए जिसमें बालक रामचंद साइकल के चक्के को लकड़ी से ठेलते हुए खेल रहा है। तो आइए, गुजरे हुए वक्त को थामे हुए गुजरते हुए और आते हुए वक्त की रफ्तार को पकड़ें।

Monday, November 2, 2009

पाउलो कोएलो- शब्द जब जिंदगियां बदल देते हैं



'पोर्तोबॅलो की जादूगरनी' के शिल्प में खास बात यह है कि नायिका एथिना के जीवन प्रसंगों को उससे जुड़े लोगों के मुंह से क्रमश: कहलवाया है


हार्पर हिंदी से पाउलो कोएलो या पॉलो क्वेल्हो की हिंदी में तीसरी किताब आई हैं- 'पोर्तोबॅलो की जादूगरनी'। वो मुझे हमारे समय का दैवीय लेखक लगता है। अपने एक इंजीनियर मित्र के मुंह से डेढ दशक पहले अयन रैंड के साथ पाउलो का नाम, जिस किताब के नाम से उसे दुनिया जानती है, उसी के हवाले से सुना था, यानी 'अलकेमिस्ट'। तब तक उसका हिंदी अनुवाद कमलेश्वर जी ने नहीं किया था, मैं भी उस किताब से चमत्कृत हुए बिना नहीं रह सका। फिर 'ब्रीडा' पढ़ी, जो पाउलो की पहली लोकप्रिय किताब थी, इस बारे में एक दिलचस्प बात यह कि अलकेमिस्ट के पहले संस्करण की केवल 900 प्रतियां बिकीं और प्रकाशक ने दूसरा संस्करण छापने से मना कर दिया था, फिर ब्रीडा की लोकप्रियता के कारण पाठकों-आलोचकों में वो यकायक चर्चा में आ गए थे और जिसके कारण लोगों का ध्यान 'अलकेमिस्ट' की ओर गया था। जब कमलेश्वर जी ने मुझे बताया था कि 'तुम्हारी' 'अलकेमिस्ट' का अनुवाद कर दिया है तो बड़ा सुखद लगा था। मृत्यु से पूर्व वे 'द जाहिर' का भी अनुवाद हिंदी संसार को सौंप गए थे। लेखक के नाम की जो वर्तनी 'पाउलो कोएलो' कमलेश्वर ने इस्तेमाल की, वह ही मुझे उपयुक्त लगती है। हिंदी में उसके नाम की वर्तनी भी अलग-अलग सामने आती है। हार्पर ने ताजा किताब में पॉलो क्वेल्हो इस्तेमाल किया है।

खैर, 'पोर्तोबॅलो की जादूगरनी' के शिल्प में खास बात यह है कि नायिका एथिना के जीवन प्रसंगों को उससे जुड़े लोगों के मुंह से क्रमश: कहलवाया है, जैसे- पत्रकार हैरन रायन, अभिनेत्री एंड्रिया मैक्केन, डॉक्टर एॅडा, न्यूम्रॉलॉजिस्ट लॅल्ला तैनब आदि, यह अलग किस्म की किस्सागोई अद्भुत बन पड़ी है। उनके लेखन की एक ताकत है और किसी हद तक कमजोरी भी कि उसके मुख्य पात्र आध्यात्मिक भूख के मारे होते हैं, बतौर उदाहरण- 'अलकेमिस्ट' का नायक गडरिया, 'ब्रीडा' की नायिका ब्रीडा, 'जाहिर' की नायिका एस्थर और 'पोर्तोबॅलो की जादूगरनी' की नायिका एथिना। इसीलिए लेखन और विचार की दुनिया के सबसे आकर्षक और तार्किक माने गए माक्र्सवाद की जगजाहिर धर्म- अध्यात्म से दूरी की स्पष्ट अस्वीकारोक्ति हमें पाउलो में मिलती है और चाहे उसमें ईसाई मिथकों और विचारों की प्रतिच्छाया ही क्यों ना हो, पाउलो की अपार लोकप्रियता, इस बात को सिद्ध ना भी करे तो कम से कम प्रबल संकेत क्या नहीं देती कि आध्यात्मिक भूख मनुष्य की मूल प्रवृति या सनातन भूख है?

पोर्तोबॅलो का अनुवाद कमलेश्वर जैसा सहज, सरल तो नहीं ही बन पाया है पर प्रकाशक को सलाह है कि जगत प्रसिद्ध पाउलो की रचना के साथ न्याय होना चाहिए, यह पाउलो के पाठकों का भी हक है, और उम्मीद करें कि अभी पाउलो की पहली चर्चित रचना ब्रीडा हिंदी में नहीं आई है, हिंदी पाठकों का यह भी तो वाजिब हक है। आखिर में, छोटी-सी पर खास और दिलचस्प बात यह कि बेस्टसेलर अंग्रेजी लेखकों के समकक्ष बिक्री और लोकप्रियता वाले पाउलो अंग्रेजी लेखक नहीं है, वे ब्राजील में रहकर पुर्तगाली में लिखते हैं।

Saturday, October 3, 2009

मैं भी जाने वाला हूं, मुझ पर किससे लिखवाओगे -हरीश भादानी


शुक्रवार की सुबह अखबार से पहले एसएमएस से एक दुखद खबर आई। एक पहाड़ सा विराट व्यक्तित्व, बच्चे सी कोमलता, सहजता और सरलता, चट्टान सी वैचारिक दृढ़ता वाला और खुद अपने ही शब्दों में 'कलम का कामगार' नहीं रहा। कवि-गीतकार हरीश भादानी की देह शांत होने के बाद मैं याद करता हूं-लगभग एक दशक के परिचय में उनसे किये तीन साक्षात्कार, बीकानेर प्रवास के दौरान दर्जन भर मुलाकातें और कोई पचासेक बार फोन पर बात, मैं याद करता हूं- आखिरी बार जयपुर के प्रेस क्लब में जनवादी लेखक संघ के एक साहित्यिक आयोजन में द्वार पर घुसते ही एक तरफ आयोजक के रूप में, सफेद कुर्ते और ग्रे पेंट में प्लास्टिक की कुर्सी पर सहज रूप से बैठे दद्दू को, जो नाम सबसे पहली मुलाकात में उनके लिए भाई प्रमोद कुमार शर्मा ने मुझे सौंपा था, मेरी जुबान पर सिर्फ उनके लिए ही आरक्षित है। मेरे उन तीन साक्षात्कारों में एक हमलोग में ही छपा था। उन्हें राजस्थान का बच्चन यूं ही नहीं कहा गया, सत्तर और अस्सी के दशक में उनके गीतों की धूम थी। उस समय के सुने उनके गीत आज भी लोगों के कंठ में हैं। घोषित मार्क्‍सवादी कवि का वैचारिक पक्ष उनके गीतोंों में उभरता है.. एक गीत जो उनकी पहचान के रूप में आज भी याद किया जाता है, की कुछ पंक्तियां देखिए-

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे

भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण
तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले
दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है।

उनका जाना कंठ और शब्द के मसीहा का जाना है, उनका एक प्रसिद्ध गीत देखिए-

मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों, दफ्तरों को
रात के मुर्दे, देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के/ ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढऩे बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!

वो हिंदी के विरले और शीर्षस्थ कवि तथा लोकप्रिय गीतकार थे, यह सर्वज्ञात है, राजस्थानी के प्रबल समर्थक रचनाकार भी थे, बकौल भाई सत्यनारायण सोनी, वे राजस्थानी को दूसरी राजभाषा बनाने की आवाज उठाने वाले पहले व्यक्ति थे। उनके शब्द याद करूं तो वो कहते थे-मेरे पास कवि होने और पढऩे के अलावा कोई रास्ता नहीं था, पढऩे ने वैचारिक दृष्टि दी और खुद को रैशनलाइज करना भी उससे आया। इसी तरह मैं उनका यह कहना भी कभी नहीं भूलता कि- जो जिया उससे संतुष्टि है, हालांकि खोया बहुत पर जो पाया वो खोने पर भारी रहा, खोयी भौतिक संपति तो पाए मानवीय संबंध ।

वे कविता कर्म को अपने पालक भत्तमाल जोशी के कथनानुसार 'हियै में कांगसी करणो हुवै' मानते थे। इस दृष्टि से भी अनूठे थे कि वे सिर्फ कवि थे, सिर्फ और सिर्फ कवि होकर जी पाना यह सिद्ध करता है कि उन्होंने कविता को रचा ही नहीं, कविता को जिया भी। यह लोकप्रिय मुहावरे की तरह नहीं कह रहा हूं, जिसे आजकल हर कवि की प्रशंसा में कह दिया जाता है, जो लोग उन्हें जानते हैं, मेेरी इस बात की तस्दीक कर सकते हैं। उनके लिए कविता मनोरंजन या आभिजात्य विलासिता नहीं थी, अनिवार्य जीवन कर्म थी। राजस्थान की माटी से निपजे ऐेसे विरले शब्दशिल्पी जिसने इलाहाबाद, दिल्ली और भोपाल के कुछ साहित्यिक लोगों के मिथ्या दर्प और तथाकथित एकाधिपत्य का सार्थक व सफल भंजन किया था, का जाना दुखद तो है, पर उनकी शाब्दिक उपस्थिति हमें गौरवान्वित करती रहेगी।

सालभर पहले हमलोग के लिए जब मैंने कन्हैयालाल सेठिया पर श्रद्धांजलि लेख लिखने को कहा, तो वे कोलकाता ही थे, उन्होंने मुझसे पूछा था-मैं भी जाने वाला हूं, मुझ पर किससे लिखवाओगे। मैंने कहा था-दादा, आप कैसी बात करते हो।
उनकी स्मृति को प्रणाम।

Tuesday, September 1, 2009

साधारण के असाधारण लेखक - संजीव




जिस समय कथाकार संजीव से मेरा पहला संपर्क हुआ, वे रसायनविद् थे, और मैं इतिहास का विद्यार्थी। तब उनके उपन्यास सूत्रधार को पढ़ा था, पहली नजर में कोई अद्भुत, असाधारण रचना नहीं लगी। बाद में यह अहसास हुआ कि उसकी साधारणता में ही सारा जादू है। हाल ही उनकी समस्त कहानियों को भारतीय ज्ञानपीठ ने संजीव की कथायात्रा के नाम से प्रकाशित किया है, इसके तीन खंड हैं जिन्हें पड़ाव कहा गया है। इस कथा-यात्रा से गुजरना किसी को भी मुग्ध कर सकता है। पहले पड़ाव की भूमिका को उन्होंंने शीर्षक दिया है- मैं क्यों लिखता हूं, इसका जवाब उन्होंने इस तरह दिया है- यह सवाल वैसा ही छीलनेवाला है, जैसे यह पूछना कि मैं क्यों जिंदा हूं। वक्त ने ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है कि न जिंदा रहने का कोई संतोषजनक तर्क समझ में आता है, न लिखने का, पर इसके सिवा मेरे पास विकल्प है ही क्या?

पहले पड़ाव की जितनी कहानियां पढ़ पाया, उनमें से जसी बहू, मुर्दगाह, घर चलो दुलारीबाई और तीस साल का सफरनामा जैसी कहानियां अपने लोक को रचते हुए कहीं गहरे बहुत कुछ रच देती हैं। दूसरे पड़ाव की भूमिका का उन्होंने शीर्षक दिया है- मेरी रचना प्रक्रिया। इस पड़ाव में मेरी पढ़ी कहानियों में से- दुनिया की सबसे हसीन औरत, सागर सीमांत, कन्फेशन और खिंचाव खास तौर पर बार-बार पढऩे लायक हैं।तीसरे पड़ाव की भूमिका मैं और मेरा समय नाम से है और इसमें उनके लेखन, विचारधारा और दुनिया को लेकर उनका नजरिया साफ-साफ नजर आता है जो क्रिस्टल-सा है, ठीक रसायनविद् की तरह, नहीं तो प्राय: वैचारिक जगत में प्रवेश होते ही भाषा सहजता खोते हुए अकादमिक दुरूहता और एक किस्म की अभिजात्यता ओढ़ लेती है, पर यहां इसका ना होना संजीव की ताकत है। इस तीसरे पड़ाव में अवसाद, मरजाद, आविष्कार, गुफा का आदमी, गति का पहला सिद्धांत और खयाल उत्तर आधुनिकी शीर्षक कहानियों को चुनकर दुबारा पढ़ा, इन कहानियों को लंबे समय तक याद किया जाना चाहिए। संजीव ऐसे कथाकार हैं जो बहुत लोकप्रिय नहीं हैं, और स्टारडम से तो कोसों दूर है। कुछ बरस पहले दिल्ली में जेएनयू परिसर में हुई एक छोटी-सी मुलाकात में उन्हें अतिसाधारण पाया था, इतना लेखन जो लगातार सराहा गया है, देर-सबेर आलोचकों ने भी उनके जिस लेखन की साधारणता में छिपी विलक्षणता को स्वीकारा, क्या किसी अतिसाधारण आदमी को पागल नहीं बना देता? पर वो लगातार साधारणता का जादू बिखेर रहे हैं। संजीव हिंदी और पूरे साहित्यिक जगत को अभी कुछ क्लासिक देंगे, पाठकों को उम्मीद करनी ही चाहिए। पर उनकी साधारणता और मासूमियत इस पागल प्रतिस्पर्धा के दौर में कैसे बच पाएगी, अगली मुलाकात में पूछा जाएगा। फिलहाल, साहित्यिक पत्रिका पाखी का ताजा अंक उन पर विशेषांक है। फुरसत मिले तो आप देख लीजिएगा, संजीव को और जानने का मौका मिलेगा।

Thursday, August 27, 2009

जिन्ना उर्फ़ इतिहास से डर क्यों लगता है?


जसवंत सिंह की किताब पढ डालिए, दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार और नेहरू स्मृति पुस्तकालय तथा लंदन स्थित इडिया हाउस लाइब्रेरी में उपलब्ध मूल दस्तावेजों को खंगालिए और सच से सामना कीजिए, बस इतनी सी जरूरत है। हो सकता है कुछ ऐसा निकल जाए जो इन सब धारणाओ को बदल दे और यकीनन इससे इतिहास का भी भला होगा और हमारे भविष्य का भी। पर ये चिंतन बैठकों में और संघ कार्यालयों में बैठकर फतवे जारी करने से नहीं होगा, ये भी तय है।
जब मै लिखने बैठा तो मन हुआ कि पाकिस्तान के बडे अखबारों के आन लाइन संस्करणों पर नजर डाल लू, तो पाया कि द डान, नेशन, द न्यूज, डेली टाइम्स आदि पर जसवंत सिंह का भाजपा से निष्कासन या नरेंद्र मोदी दवारा इस किताब पर प्रतिबंध पहली या दूसरी बडी खबर है। जब ये खबर आई थी, कराची (इत्तेफाकन उसी शहर की, जहां जिन्ना जन्मे और आज भी कब्रगाह में है) की स्वतंत्र पत्रकार और फिल्मकार बीना सरवर ने चैट पर मुझसे जिज्ञासा जताई कि माजरा क्या है जनाब! उन्होने बताया कि जसवंत सिंह ने वही कहा है जो आयशा जलाल कुछ बरस पहले अपनी किताब जिन्ना-द सोल स्पोक्समैन मे कह चुकी हैं। आयशा ने तो यहां तक कहा था कि जिन्ना की तो विभाजन की इच्छा ही नहीं थी। बताता चलूं कि मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो के भतीजे हामिद जलाल की बेटी आयषा जलाल टफ्टस विवि अमेरिका में इतिहास की प्रोफेसर हैं।
वैचारिक दुनिया में अलग विचार को अपने तर्को के आधार पर रखने की परंपरा होती है चाहे वो विचार कैसा भी हो, चाहे तदंतर उन तर्को को तथ्यो के साथ मिलाकर देखते हुए खारिज कर दिया जाए, यहां तो परीक्षण की बात ही बेमानी है साहिब!वैसे वैचारिक बगावत के लिए जसवंत सिंह के साहस को सलाम कीजिए, सियासी तौर पर भाजपा निकट भविष्य में षायद ही सत्ता में आए, और विदेश और रक्षामंत्री वो रह लिए हैं, राजनीतिक तौर पर करियर का चरम देख लिया है और किताब की लोकप्रियता एक बेस्टसेलर लेखक के तौर पर उन्हे निस्देह स्थापित कर रही है।
पहली नजर में मुददा सियासी है पर है तो अतीत की सियासत से। किसी भी दल की नीति इतिहास से इतर होनी चाहिए क्या! सवाल तो मौजू है, चाहे आंखें मूद लीजिए। उससे भी बडा सवाल ये कि इतिहास और सच जानने की कवायद के बजाय अतार्किक तौर पर पार्टी नीतियों का झंडा उठाया जाता है। अब ये जनता पर है कि पार्टी की देश के प्रति प्रतिबद्धता देखे या कि पार्टी की निजी प्रतिबद्धता पर। आडवाणी के जिन्ना के बारे में सायास कुछ नहीं कहूंगा। जरा पीछे चलिए, मैं बचपन से इस बात को सुनकर बडा हुआ कि गांघी भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे, पर फिर पता चला कि वो आधा सच था। दो साल पहले हिंदी लेखक प्रियंवद की किताब आई थी- भारत विभाजन की अंतःकथा। मेरे सनातन प्रिय विषय की इस किताब में उन्होंने लिखा है कि ‘1920 में जिन्ना कांग्रेस से अलग हुए, पर उन्होंने कोई अलग राह नहीं बनाई। अब जिन्ना कांग्रेस से तो अलग थे ही उनकी राह भी अलग थी,भविश्य में यह राह एक नए राष्ट्र की ओर जाने वाली बन गई। जैसा अंबेडकर ने कहा था कि मसला बडा नहीं रह गया था ,पर खाई पाटने की इच्छा दोनों ओर नहीं थी।‘ अंबेडकर की बात मार्के की है विषेषकर उत्तरार्द्ध। यह ऐतिहासिक सच है कि असफल दाम्पत्य के बावजूद रत्ती जिन्ना की मृत्यु के बाद टूटे हुए, निराश, अकेले जिन्ना लंदन से आकर बंबई में 35 साल गुजारने के बाद 4 अक्टूबर 1930 को वापिस लंदन जाने के लिए भारत छोड दिया था, रफीक जकारिया ने अपनी किताब मैन हू डिवाइड इंडिया में बताया है कि कैसे रत्ती जिन्ना को दफनाते वक्त कायदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना की आंखे भर आईं थी और वे अपनी मानवीय कमजोरियों को छुपा नही पाये थे। ये उनका मानवीय पहलू है।
1947 के अप्रेल महीने का पहला दिन याद दिलाना चाहता हूं, एक दिन पहले गांधी और माउंटबेटन की पहली मुलाकात हुई थी, औपचारिक सी, अगले दिन यानी पहली अप्रेल को सुबह तकरीबन 9 बजे, दूसरी मुलाकात में गांधी ने माउंटबेटन को प्रस्ताव दिया कि जिन्ना को देश का प्रधान मंत्री बनने दिया जाए। माउंटबेटन ने कहा- जिन्ना क्या कहेंगे? गांधी ने जवाब दिया- हमेषा की तरह वो कहेंगे कि आह फिर वही कपटी गांधी। मांउटबेटन ने कहा कि वो सही ही होगे? गांधी ने जवाब दिया - नही, मैं गंभीर हूं। पर माउंटबेटन ही नहीं नेहरू और पटेल सबने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। यहां तक कि कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में गांधी अलग थलग पड गए। नेहरू और पटेल के विरोध के बावजूद उनका कहना था कि विभाजन समस्याओं को सुलझाएगा नही बल्कि बढाएगा, अंततः निराष गांधी ने कहा कि मेरे प्रयासों की षुद्धता की अब परीक्षा होगी, मेरी ईष्वर से प्रार्थना है कि मुझे यह दिन देखने के लिए जीवित ना रखे। 10 औरंगजेब रोड से वायसराय हाउस पहुचे जिन्ना से भी मांउटबेटन ने 6 अप्रेल को बात की, तो जिन्ना के अपनी ष्षर्ते रखने से पहले ही माउटबेटन ने अपना दृढ पक्ष रख दिया जो जिन्ना से अधिक दृढता से रखा गया था और जिन्ना के पक्ष में भी था। उस रात जिन्ना के साथ उसकी बहन फातिमा भी रात के डिनर में वहां थीं। ये सब मेरा रचा फिक्षन नहीं, एचवी हडसन की किताब द ग्रेट डिवाइड में दर्ज है।
च्लिए जिन्ना पर आते है, उनके लिए गांधी ने कहा था -'ग्रेट इंडियन'। और छवि से इतर वास्तव में एक सेकुलर मुसलमान जो परिस्थितिवष उस कौमी मुहिम का नायक हो गया जिसका अंत एक एक मुल्क की तामीर में हुआ। हां, नायक या खलनायक होने में कोई संदेह नहीं है, यह महज देष काल सापेक्ष दृष्टिकोण का फर्क है। जैसा प्रसिद्ध इतिहासकार बिपन चंद्र ने इडियाज स्टगल फार फ्रीडम में लिखा है कि जिन्ना जब 1906 में बैरिस्टर बने के बाद भारत लौटे तो वे धर्मनिरपेक्ष, उदार राष्ट्रवादी और दादा भाई नोरोजी के समर्थक थे, भारत आते ही वे कांगे्रस में शमिल हो गए, उन्होने मुस्लिम लीग के गठन का विरोध किया। राष्टीय एकता पर बल दिया तभी सरोजनी नायडू ने उन्हे हिंदू मुस्लिम एकता के राजदूत की उपाधि दी थी। पर इतिहास की ग्रेटमेन थ्योरी जिसके प्रवर्तक थामस कार्लाइल है, के अनुसार महान लोग दो तरह के होते है एक जन्मजात और दूसरे जिन्हे परिस्थितियां बना देती हैं, जाहिर है कि जिन्ना कमोबेश दूसरी श्रेणी में आते हैं।
हम साठ साल बाद ये सोच सकते है कि गांधी का वो प्रस्ताव अगर जिन्ना के सामने रख दिया जाता तो इतिहास क्या होता और भारतीय उपमहाद्वीप की ष्षक्ल क्या होती! मुझे लगता है कि माउंटबेटन या अंगे्रज भारत के विभाजन के लिए कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं नेहरू, पटेल या जिन्ना के। ऐतिहासिक दस्तावेजो की रोषनी मे तो यही मानना पडता है कि विभाजन तत्कालीन घटनाओं का स्वाभाविक परिणाम था, जिनके लिए मुस्लिम लीग निःसंदेह जिम्मेदार थी, जिसकी स्थापना 1906 में दरअसल लार्ड मिंटो के प्रा्रेत्साहन हुई थी। और इसीलिए यह कोई मासूम सी व्याख्या नही है कि अंगे्रज भारतीयों को आपस में बांटकर ढाई सौ साल तक राज करते रहे और आखिरकार भी उन्होंने भौगोलिक और राजनीतिक आधार पर बांटकर ये मुल्क छोडा। हालांकि इतिहास बुनियादी तौर पर मानता है कि जिन्ना भारतीय विभाजन का खलनायक है, हालात का समीचीन मूल्यांकन यह प्रबल संकेत करता है कि प्रकटतया तो ऐसा ही है पर दरअसल वो सिर्फ एक मोहरा था जो 17 अगस्त 1947 को रेडक्लिफ नाम के अंगे्रज की खींची सरहद के एक तरफ महानायक हो गया और दूसरी तरफ खलनायक। इस बहस में चाहे उन्हें हम सेकुलर मानें या ना मानें, पर लोकतत्र में सेंकूलरिज्म से बेहतर तरक्की का रास्ता नहीं हैं यह उन्होने भी माना और यकीन ना आए तो 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के नाम उनके संदेष को कहीं से पढ लेना चाहिए।
वापिस जरा जसवंत सिंह पर आ जाएं, संघ और भाजपा को गांधी भी कभी प्रिय नहीं रहे, जिन्ना कैसे होते! तार्किक आधार पर दोनों महान भारतीय ठहरते हैं, गांधी को पूरा भारत महान मानता ही है और जिन्ना को गांधी महान कहते थे। और जिन्ना पर जसवंत की इस बयानी के लिए उनका कोर्ट माशल इतिहास से मुह मोडना है या बहस से या महज अनुशासन का अतार्किक संदेष देना, राजनाथ या आडवाणी बेहतर बता सकते हैं। परेषानी या कमाल तो ये है कि महज साठ सत्तर साल पहले का सब कुछ कहीं ना कहीं दर्ज है, जिसे मिटाना या बदलना मुमकिन नहीं है। जसवंत सिंह की किताब पढ डालिए, दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार और नेहरू स्मृति पुस्तकालय तथा लंदन स्थित इडिया हाउस लाइब्रेरी में उपलब्ध मूल दस्तावेजों को खंगालिए और सच से सामना कीजिए, बस इतनी सी जरूरत है। हो सकता है कुछ ऐसा निकल जाए जो इन सब धारणाओ को बदल दे और यकीनन इससे इतिहास का भी भला होगा और हमारे भविष्य का भी। पर ये चिंतन बैठकों में और संघ कार्यालयों में बैठकर फतवे जारी करने से नहीं होगा, ये भी तय है। आखिर में बीना सरवर की बात से अंत करना ठीक है कि विभाजन वो सच है जो धटित हो चुका है और जिसे अधटित नहीं किया जा सकता, हम इतना ही कर सकते है कि दोनों मुल्क शाति से रहें। आमीन!

Tuesday, August 11, 2009

दोराहे को समझने की जद्दोजहद में

मीरा कान्त की किताब 'उर्फ़ हिटलर '

ये किताब यहूदियों पर हिटलर के जुल्मो सितम, उसके प्रचार मंत्री गोएबल्स के उन्मादी कारनामों को महसूस कराती हुई बीच बीच में असली भारत को निम्न मध्यमवर्गीय कथा के जरिये पेश करती है ....

मीरा कांत के दो साल पहले आए उपन्यास उर्फ़ हिटलर को को पढना बड़ा ही विचित्र रहा है। दो कहानियों को सामानांतर पढने जिसमे एक इतिहास से है, की लालसा ने इस किताब को खरीदने को मजबूर किया था। शुरू में बहुत आनंद नहीं आया बावजूद इसके कि मीरा कान्त को बतौर लेखक पसंद करता रहा हूं।पेंग्विन ने इसे क्यों छापा ये सवाल उठता रहा, फिर सवाल के जवाब मिलते गए धीरे धीरे, एक ही सवाल के कई जवाब। शालिनी के रूप में लगभग आत्मकथात्मक तरीके से मीरा कान्त आद्योपांत उपस्थित हैं।

भारत सरकार की एक अफसर के तौर पर वो जर्मनी के मुख्तलिफ शहरों में घूमती हुई हिटलर की नाजी जर्मनी को याद करती हैं। यहूदियों पर उसके जुल्मो सितम, उसके प्रचार मंत्री गोएबल्स के उन्मादी कारनामों को महसूस कराती हुई बीच बीच में असली भारत को निम्न मध्यमवर्गीय कथा के जरिये पेश करती हैं॥शुरू शुरू में ये कथा बहुत सामान्य लगती है, बाद में लगता है की इसका ये सामान्य यानी आम होना ही ख़ास बात है। एक बात जो महसूस होती है वो ये कि जर्मनी और हिटलर इतिहास रूप में तो उपस्थित होते हैं पर कथानक के रूप में स्वयं पात्र बनते नहीं दीखते, जिसकी उम्मीद मैं शुरू से आखिर तक करता हूं। भारतीय निम्न मध्यमवर्गीय जीवन का कोलाज तो अपने सामान्य स्वरूप में बहुत ख़ास बन गया है पर ऐतिहासिकता केवल ऐतिहासिक बन कर ख़ास के रूप में बहुत आम सी हो गयी है। कथानक की चर्चा करके आपके पाठकीय आनंद को नहीं छीनूंगा, जिस समय में जी रहे हैं वहां नितांत एकांत जीना संभव नहीं है चाहे वो हर रविवार को गूंजती कबाड़ी की आवाज हो या ओबामा का कोई भाषण, इसी में से जीने की सूरत निकलती है क्योंकि टीवी सेरियल के घटनाक्रम से, विधानसभा और संसद की बेहूदगियों और बद्तमीजियों से, इस शहर या उस शहर के हादसों से दूसरे देश या जगह की मंदी से निरपेक्ष जीना ना मुमकिन है क्योंकि हम मीडिया वालों ने सबको हमेशा बाखबर रखने का बीडा उठाया है तो हर छोटी से छोटी बात हम आप तक पहुंचानी है चाहे वो जरुरी हो या न हो। ये जीवन का द्वंद है और उर्फ़ हिटलर भी उसी द्वंद का एक साहित्यिक प्रतिरूप है जिसे पढ़ लेना चाहिए अपने समय और जीवन को बेहतर जीने में मदद मिलेगी ये मेरा विश्वास है।

Thursday, July 30, 2009

मैंने राजमाता गायत्री देवी को छुआ था




कल जब जयपुर की पूर्व राजमाता गायत्री देवी का निधन हो गया हैं, मुझे अपने पत्रकारीय जीवन के महत्वपूर्ण साक्षात्कारों में से एक को आप से बांटने का मन है।


सन् 2004, वो मई के पहले हफ्ते की एक दोपहर थी, उमस भरी। कुल जमा छत्तीस दिन के बाद मुझे लिलीपुल से जयपुर की पूर्व राजमाता गायत्री देवी के एडीसी रघुनाथसिंह का फोन आया- राजमाता ने आपसे मिलने की इजाजत दे दी है, आप एक बजे पधार जाएं यहां। दरअसल भाई आलोक तोमर की एजेंसी शब्दार्थ के जरिए एक विदेशी पत्रिका के लिए ये मेरा पहला असाइनमेंट था और छत्तीस दिन में मैं उम्मीद छोड़ चुका था कि मेरी मुलाकात हो भी पाएगी। खैर, इंटरव्यू हुआ,अब तक भी, पत्रकारीय जीवन का सबसे बेहतरीन मेहनताना शब्दार्थ की ओर से मिला था इस पर, और फिर भारत में भी दो बार छपा लगभग बिना मेहनताने के।
लिलिपुल पहुंचकर एडीसी रघुनाथसिंह के साथ कुछ वक्त इंतजार में गुजारा, कागजी औपचारिक ताएं पूरी कीं और फिर, थोड़ी देर बाद एक कारिंदे के साथ मैं दुनिया की दस बेहद खूबसूरत महिलाओं में शामिल एक शख्सियत से मिलने उनके मेहमानखाने में दाखिल हो रहा था। शाही महल का वो हिस्सा अद्भुत था,चारों ओर विशाल सोफे थे, आदमकद तस्वीरें, चमचमाते झूमर, टिमटिमाती रौशनियां और पीछे किसी लॉन में पानी देते प्रेशर पाइप की आवाज, वो तिलीस्मी सा माहौल था जहां मैं फिर बैठा दिया गया था, इंतजार के लिए। दस मिनट के इंतजार के बाद आसमानी नीले रंग की शिफॉन की साड़ी में वो सिर का पल्लू संभालते हुए आई, कहीं के और किसी भी शाही परिवार के सदस्य से यह पहली मुलाकात थी। उन्होंने और मैंने लगभग एक ही वक्त में एक दूसरे को अभिवादन किया और उन्होंने आगे बढकर हाथ मिलाया। उनके लिए यह आम बात होगी, मेरे लिए ये रोमांच का क्षण था। पंद्रह मिनट का अपांइटमेंट था और फिर वो तक रीबन डेढ घ्टे मेरे साथ रही,अतीत और वर्तमान के बीच सफर क रती रहीं, मुझे लगता हैं कि वो मुझसे इस मुलाकात में बहुत सहज थीं, इस तरह बात क रना उन्हें अच्छा लग रहा था। आखिर में निकलते वक्त उन्होंने पूछा क्या तस्वीर की जरूरत है, मैंने क हा आपके अंदर की खूबसूरती को देख और महसूस कर लिया है, यूं आपकी तस्वीरें मिल ही जाएंगी। वो अवाक हुईं और सौम्य मुसकुराहट बिखेर दीं,मुझे लगा, सोच रहीं होंगी-अजीब लडक़ा है, लोग मेरे साथ तस्वीर के लिए तरसते हैं। और कहा-कोई पुरानी तस्वीर चाहिए तो एडीसी साहब को बोल देती हूं, आपको दे देंगे। आज मुझे अफसोस हैं कि काश मेरी एक तस्वीर उस परी सी सुंदर सौम्य पूर्व राजमाता गायत्रीदेवी के साथ होती।


पेश है उस साक्षात्कार के अंश-

12 अगस्त 1947 को जब जयपुर रियासत स्वतंत्र भारत में मिला दी गई,तब आपको कैसा महसूस हुआ?


मुझेअच्छा नहीं लगा क्योंकि रजवाडों के अपने गौरवशाली इतिहास हैं,रजवाड़ों के जनता के साथ बहुत नजदीकी संबंध रहे हैं। मांबाप के जैसा रिश्ता था,लोग आजकल ये भूल जाते हैं। जब कभी रामबाग आते थे,ढेरों लोग खड़े रहते थे,लोग दरबार से पूछते थे,कहते थे-अन्नदाता, अनाज नहीं है, ये नहीं है, वो नहीं है, नई सरकार के आते ही उठते बैठते टैक्स लगता है, ऐसी बातें करते थे। हम अब उनके लिए कुछ नहीं कर सक ते थे।
आपने लोक तांत्रिक राजनीति में क दम रखा,राजगोपालाचारी के साथ काम किया, तीन बार जयपुर से लोक सभा केलिए चुनी गईं, फिर क्यों छोड़ी राजनीति?


इसलिए कि राजा जी नहीं रहे। स्वतंत्र पार्टी के सिद्धांत मुझे पसंद थे-स्वतंत्र भारत,स्वतंत्र जनता, सब कुछ स्वतंत्र। पंडित जी की मैं बहुत इज्जत करती थी,हर चीज को स्टेट में ले लिया,जनता को को ई आजादी नहीं थी,ये करो तो फॉर्म वो करो तो फॉर्म।एक बार जब राजाजी कांगे्रस में थे,नागपुर में पंडित जी ने क हा-आपकी जमीन भी हम ले लेंगे। राजा जी ने क हा कि किसानों के खेत नहीं लेन चाहिए। अगर आप ऐसा क रते हैं तो आपके विरोध में एक पार्टी बनाउंगा जो स्वतंत्र भारत, स्वतंत्र जनता के लिए। आप उम्र में बहुत छोटे हैं,आपको मालूम नहीं होगा कि पर्चे बांटे गए थे,पाठ्य पुस्तको ंमें लिखा गया था कि जमीन सरकार की इसलिए राजा जी ने पार्टी बनाई।1970 में आखिरी बार चुनाव लड़ा।दरबार भी नहीं थे,इंदिरा गांधी ने चुनाव मतदाता सूची में जिनके के आगे सिंह था,नाम क टवा दिये।रामबाग का राजमहल जिसमें हम रहते थे,उसके स्टाफ तक का नाम काब् दिया गया। कुचामन जहां से मैंने चुनाव लड़ा वहां भी ऐसा ही हुआ।

अभी दिन कैसे गुजरता है आपका?


हजारों चीजें हैं, एमजीडी स्कूल, सवाई मानसिंह स्कूल, एक चांद शिल्पशाला जहां लडकियां दस्तकारी सीखती हैं,और गलता के पास एक गांव में जग्गों की बावड़ी में एक स्क ूल है। गरीब बच्चों के लिए। मेरी चैरिटी भी है। बहुत कुछ है। कुछ ना कुछ करती रहती हूं।

आपका जीवन दर्शन क्या है?


दर्शन वर्शन कुछ नहीं है, मैं तो सामान्य सी इनसान हूं, को ई फिलास्फी-विलॉस्फी नहीं है।


क्या आप सोचती हैं कि आप राजकुमारी या महारानी की बजाय आम नागरिक होतीं?


मैं राजकुमारी की तरह पैदा हुई और महारानी हो गई,इसलिए नहीं जानती कि आम आदमी केसा होता हैं,सिर्फ महसूस कर सक ती हूं। पर मुझे लगता है कि इनसान तो इनसान होता है, मैं मानती हूं कि आम आदमी की तरह स्कूल गई। शांति निकेतन में पढी ,वहां आम थी,खास नहीं थी।

बहुत से लोग सोचते हैं और मैं भी कई बार सोचता हूं कि जनतंत्र की बुराइयां हमें यह कहने को विवश करती हैं कि शायद राजशाही लोक शाही से बेहतर थी।आपको क्या लगता है?


राजशाही अच्छी थी,हर जगह तो नहीं पर क ई जगह तो बहुत ही अच्छी थी।जैसे मेरे नानो सा सयाजीराव गायक वाड़ का राज बहुत ही अच्छा था।अंबेडकर को किसने पढाया,बनाया,उन्होंने ही ना। मेरे पीहर में भी अच्छा था,हिंदू मुस्लिम प्यार से साथ रहते थे। जयपुर में भी ऐसा ही था,दरबार हमेशा कहते थे हम जो कुछ भी हैं,जयपुर की वजह से हैं,जो कुछ भी हमारे पास है,जयपुर की वजह से है,सब जयपुर को देना है,लोग उनको बहुत मानते थे।

आपने दुनिया देखी है, आपका पसंदीदा शहर कौनसा है?


बेशक जयपुर !

कूचबिहार में आपका जन्म हुआ,वहां की यादें हैं अभी भी आपके जेहन में?

बहुत हैं,हर साल जाती हूं अब भी।इस साल कुछ कारणों से देर हो गई,शायद अक्टूबर नवंबर में जाऊं पूजा के समय।

अपने परिवार के बारे में बताएं।


बेटे महाराजा जगत सिंह का लडक़ा मेरा पोता देवराज यहीं हैं,उसने बीए किया है, शायद दिल्ली से मास्टर्स क रेंगे।पोती लालित्या अपनी मां के पास बैकॉक में रहती हैं, इन दिनों वो भी यहीं हैं, उसने मास्टर्स किया है।

आप गिरधारीलाल भार्गव के नामांकन के समय उनके साथ थीं,राजनीति में अब भी रुचि है?


उन्होंने बुलाया तो मैं गई थी,कोई रुचि नहीं अब राजनीति में,मैं तो बस यह चाहती हूं जयपुर की जनता खुश रहे, खुशहाल रहे, ये भी चाहती हूं कोई उनके लिए कुछ करे, मैं उम्मीद क रती हूं कि वसुंधरा राजे कुछ करेंगी क्योंकि वे अच्छे परिवार से हैं,समझती हैं,देखते हैं क्या करतीं हैं?



आप शांति निकेतन में पढीं हैं,रवींद्र बाबू से जुड़ी वहां की कोई याद ?


उन्हें हम गुरूजी क हते थे,मैं उनके पास जाती थी,बहुत जाती थी,एक बार उन्होने मुझसे कहा कि आपने डांस क रना क्यों छोड़ दिया,मैंने कहा:वो टेनिस का समय है,मुझे टेनिस बहुत पसंद है। उन्होने कहा-लड़कियों को नाचना चाहिए।


जबसे होश संभाला,आपका नाम सुना,ये जाना कि आपको दुनिया की सबसे खूबसूरत महिलाओं में गिना जाता है?


किसने कहा? ये सही नहीं है।

मुझे तो आज भी लगता है कि आप बेहद खूबसूरत हैं?


नहीं, नहीं, मेरी मां बहुत खूबसूरत थीं, मेरे पिताजी बेहद खूबसूरत थे, मेरे भाई बहिन भी सुंदर थे।

अगर सेहत साथ दे तो कुछ और क रने की इच्छा है?


कुछ नहीं अब क्या क र सक ती हूं ?

Monday, July 27, 2009

कलम को सलाम कीजिए


रामचंद्र गुहा का प्रकाशक पेंग्विन से करार हुआ है जिसके तहत वे इस साल उनके लिए 97 लाख रुपये में सात किताबें लिखेंगे, यह करार भारतीय लेखन जगत में एक इतिहास का रचा जाना है तो उचित लेखकीय मानदेय का उदाहरण भी।


एक बड़ी खबर यह है कि प्रसिद्ध इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा का एक प्रकाशक से करार हुआ है जिसके तहत वे इस साल उनके लिए 97 लाख रुपये में सात किताबें लिखेंगे। वे गद्यकार है, लिहाजा ये किताबें नॉन फिक्शन यानी कथेतर होंगी। उनकी पिछली किताब इंडिया आफ्टर गांधी भारत की कथेतर बेस्टसेलर है। गुणवत्ता में मिथकीय प्रतिमान स्थापित करने वाले लेखक का यह करार भारतीय लेखन जगत में एक इतिहास का रचा जाना है तो उचित लेखकीय मानदेय का उदाहरण भी।दरअसल भारत में लेखन को कला तो माना गया पर उसे व्यवसाय के तौर पर प्राय: हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है। इसीलिए लेखन को पारिश्रमिक से भी नहीं जोड़ा जाता। मै मानता हूं कि पैसे के लिए ना लिख जाए पर जो लिखें, उसका उचित लेखकीय मानदेय लेखक का हक है। ज्ञात हो कि आज राजेंद्र यादव और नरेंद्र कोहली हिंदी के सर्वाधिक रॉयल्टी पाने वाले लेखक हैं जबकि निर्मल वर्मा अपनी मृत्यु से ठीक पूर्व भी सालाना रॉयल्टी के रूप में केवल एक लाख रुपये के आसपास प्राप्त कर रहे थे। कुल मिलाकर लेखक को उचित मानदेय ना मिल पाने में प्रकाशकीय खोट भी कम नहीं है। पर लेखन में व्यवसायिकता को लाने की जरूरत और संभावना को लेखक प्रकाशक दोनों की आपसी समझ से तय कर सकते हैं। यहां संदर्भश: बताना चाहिए कि राजस्थान हिंदी गं्रथ अकादमी द्वारा स्थापित रॉयल्टी के पारदर्शी मॉडल को हिंदी सृजनात्मक लेखन में भी संभव बनाने की जरूरत है। ये संयोग भर नहीं है कि उपरोक्त करार करने वाले प्रकाशक पेंगुइन ने ही हिंदी के उदय प्रकाश से एडवांस रॉयल्टी पर उपन्यास लिखने का पहला करार किया है जबकि हिंदी के स्थापित नामचीन प्रकाशक नहीं कर पाये, हालांकि राजकमल प्रकाशन ने पिछले दिनों एक उत्साहजनक योजना अपनी स्थापना के साठ वर्ष पूरे वर्ष होने पर घोषित की है। जिसमें साठ पांडुलिपियों को रॉयल्टी के साथ साठ लाख
रुपये दिए जाएंगे। अब तक मुहावरे में कहा जाता है कि अंगे्रजी में लिखते हो तो रॉयल्टी की बात करो, हिंदी में प्रकाशक को बिना कुछ दिए छप जाओ तो गौरवान्वित होना चाहिए, पंजाबी, उर्दू और राजस्थानी में प्रकाशक को धन देकर भी छप जाओ तो गनीमत मानिए। पर अब माहौल बदलने लगा है जबकि अंगे्रजी के बड़े और अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक हिंदी में आ रहे हैं। तो परंपरागत भारतीय प्रकाशक भी बदलेंगे, उम्मीद करनी चाहिए।

Wednesday, July 8, 2009

इनसान परेशान यहां भी है, वहां भी


यह महज किताब नहीं है, दरअसल अतीत की वो खिड़की है जिससे भारतीय उपमहाद्वीप का भविष्य झांकता है...


हार्पर कॉलिन्स से एक किताब आयी है, जिसका संपादन इरा पांडे ने किया है। हिन्दी पाठकों को पता होगा ही कि वे प्रसिद्ध लेखिका शिवानी की बेटी हैं। इस ताजा किताब का नाम है- द ग्रेट डिवाइड -इंडिया एंड पाकिस्तान, जो दरअसल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, दिल्ली के त्रैमासिक जर्नल के विशेषांक का पुस्तकाकार रूप है और इसकी भूमिका डॉ।कर्ण सिंह ने लिखी है। साठ साल की आजादी का जश्न मना रहे दोनों देशों के हालात और अंतर्संबंधों पर ये किताब बहुत खास है जिसके लेखक सीमा के दोनों ओर के जाने माने लोग हैं, जिनमें उर्वशी बुटालिया, बीना सरवर, शिव विश्वनाथ, सोनिया जब्बार, अमित बरुआ, आलोक रॉय, लॉर्ड मेघनाथ देसाई, मुकुल केसवन आदि शामिल हैं। बेशक उस विभाजन को याद करना दर्द को कुरेदना है और जैसा मशहूर शायर निदा फाजली ने पाकिस्तान से लौटने के बाद कभी कहा था-
हिंदू भी मजे में है, मुसलमां भी मजे में,
इनसान परेशान यहां भी है, वहां भी।
उठता है दिलो-जां से धुआं दोनों ही तरफ,
ये मीर का दीवान यहां भी है, वहां भी।
पर जो कुछ साझा है,वो सुकून देता है। बेशक ये किताब इस मायने में नयी जमीन तोड़ती है कि इसमें दृष्टि सर्वथा नयी है, व्यवहारिक है, अकादमिक गंभीरता तो है, पर अकादमिक लफ्फाजी यहां बिलकुल नहीं है, इसकी बानगी के लिए बीना सरवर के लेख मीडिया मेटर्स का अंश देखें-

भारत और पाकिस्तान दोनों में आये मीडिया बूम ने दोनों देशों के लोगों को करीब लाने का काम किया है और बंधी बंधाई लीक से तोडऩे का काम भी किया है तो दूसरी तरफ इसके विपरीत पूर्वाग्रहों और पुराने अंधविश्वासों से भी पुनस्र्थापित किया है।

वहीं आलोक रॉय ने उर्दू को याद किया है, परमाणु मुद्दे पर सी. राजामोहन का बेहतरीन लेख है। सलीम हाश्मी का कला पर फोटो निबंध है, तो मेजर जनरल उदयचंद दुबे का रजमाक एलबम तकरीबन सौ साल पुरानी तस्वीरों के जरिए हमारे सामने उस युग को जीवंत कर देता है। सुनील सेठी का लिया हुआ मशहूर पाकिस्तानी कथाकार नदीम असलम का साक्षात्कार किताब को सार्थक बनाता है। दोनों के आजाद मुल्कों के रूप में जन्म से लेकर आज ये दोनों देश आर्थिक राजनीतिक सामाजिक तौर पर कहां खड़े हैं, किताब ये परीक्षा तो करती है, साथ ही कतिपय सॉफ्ट विषयों जैसा इरा स्वयं इसकी भूमिका में बांटती हैं- जैसे सिनेमा, साहित्य, भाषा, क्रिकेट, मीडिया आदि की बात भी खुलकर की गयी हैं। इस लिहाज से किताब केवल नोस्टालजिक कोलाज मात्र नहीं है, उससे कहीं आगे है। दोनों देशों के सदियों पुराने सांस्कृतिक संबधों और उनकी सांझी बुनावट को इस तरह याद किया गया है कि ये स्थापित हो जाता है कि सियासी बंटवारे हमारी तहजीब और दिलों को बंटवारा तो नहीं कर सकते हैं। कुल मिलाकर ये किताब नयी रोशनी में नयी सदी में दोनों मुल्कों के संबंधों को देखने का मुकम्मल जरिया देती है और ये उम्मीद या सवाल भी चुपके से जताती है कि हमें अच्छे पड़ोसी क्यों नहीं होना चाहिए।

Tuesday, June 30, 2009

आज तीस जून है



आज तीस जून है ...

तीन साल पूरे हो गए हैं एक घटना को ...पर जो अब भी ताजा है

वक्त को गुजरना है लम्हों को सहना है और दिल को तड़पना है ...

वो खुश होंगे .आज उन्हें दुनिया की सबसे बड़ी उपाधि मिलने की पूर्व पीठिका बननी है ..फिर उपाधि मिलना औपचारिकता मात्र होगी ..खुश हूँ मैं..लाजिम है ...

दिन , अगर ऊपर वाला है तो वो ही तय करता है ..कब क्या होना है ..

मैं तो चाहता था.आज इस शहर में ना होऊं..पर फिर भी रह गया...शायद दिमाग मुझे कहीं ले जाना चाहता था और दिल रोकना....रुक गया हूँ.. ..

Thursday, June 25, 2009

आलोक श्रीवास्तव की आमीन का सफर मुसलसल जारी

कुछ लोगों की सृजनात्मकता से ईर्ष्या होती है , उनमे पहली पंक्ति में हैं - भाई आलोक श्रीवास्तव ..उनकी शायरी के पहले मजमुए 'आमीन' का दिग्विजय अभियान जारी है ...पूरी खबर के लिए एक क्लिक तो कर ही लें...

http://qalam1.blogspot.com/

Monday, June 15, 2009

सौ साल की गवाही में एक किताब

हिंद स्वराज

आज एक किताब के बहाने उसके समय पर बात कर रहा हूं। पंद्रह साल पहले, पहली बार जब मेरा हिंद स्वराज नाम की किताब से राब्ता कायम हुआ था, गांधी को तार्किक रूप से समझना और उनके प्रति अपनी अगाध भक्ति के तार्किक आधार खोजना शुरू कर रहा था, उस वक्त किताब की उम्र जाहिर है 85 साल की थी। इस साल समय की रेत घड़ी में जब इस किताब को सौ साल हो रहे हैं, इस किताब की अहमियत मुझे लगता है कि बहुत बढ़ गयी है, जैसा गांधी इस किताब की भूमिका में कहते हैं कि यह द्वेष धर्म की जगह प्रेम सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है, पशु बल से टक्कर लेने के लिए आत्म बल को खड़ा करती है। दरअसल ये किताब भारत की दशा और बेहतरी के लिए मॉडल प्रस्तावित करती है हालांकि वे खुद कहते हैं कि हिदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रि य अंश के रूप में स्वीकारे तो स्वराज स्वर्ग से हिन्दुस्तान की धरती पर उतरेगा लेकिन मुझे दु:ख के साथ इस बात का भान है कि ऐसा होना दूर की बात है। ये अक्षरश: सच है आज भी, उस निर्मम समय में जब जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और वंशवाद राजनीति में स्वीकार प्राय: हो गए हैं।हिंद स्वराज के सौ साल एक तरह से भारत के बदलाव के सौ साल हैं, इन सौ सालों ने गांधी का अप्रतिम, अकल्पनीय और अद्भुत नेतृत्व तो देखा ही, साथ ही क्रमश: बढ़ती साम्प्रदायिकता, देश का विभाजन और विभाजित देश का विभाजन भी, गांंधी की हत्या, समाजवादी लोकतंत्र के सपने का बुना जाना और आंशिक सफलता के बाद उसका बिखर जाना, कांग्रेस के एकनिष्ठ राज, पतन और फिर क्षेत्रीय ताकतों का उद्भव और पुन: कांग्रेस का उदय, पंजाब और कश्मीर का जलना, गांंधी के ही गुजरात में सांप्रदायिकता के तांडव, उत्तर पूर्व के संकट, घोटालों के चरम, आतंकवाद और इंदिरा तथा राजीव की हत्याओं के दौर जैसी स्थितियों के बीच बनते, बिगड़ते, उभरते, उलझते, सुबकते, सुलगते मुल्क को भी देखा है। तो इन तमाम स्थितियों की गवाह किताब को इस लिहाज से देखा जाना जरूरी है कि ये किताब भारत के बनने और उसके बाद लगातार होती भूलों और चूकों, सायास चालाकियों, छद्म-अदृश्य राष्ट्रद्रोहों के आलोक में हमारे देश के गुनाहगारों की करतूतों का अतीत में रहस्योद्घाटन करती है और जैसे आज सौ साल बाद आके हर हिंदुस्तानी से कहती है कि इस गुनाह में तुम भी बराबर के शरीक हो और ये वो प्रेमपूर्ण हिदुस्तान नहीं है जिसकी कल्पना गांधी बाबा जैसे आजादी के लिए लडऩे वाले लोगों ने की थी और वो सपने अभी अधूरे हैं। गांधी बाबा जब इसमें लिखते हैं कि अगर हिदू मानें कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसनमान ही रहें तो उसे भी सपना समझिए तब बाबरी मस्जिद का ढांचा नहीं ढहा था, गुजरात नहीं जला था। और जब इस किताब में गांधी बाबा कहते हैं कि उसने सच्ची शिक्षा पाई है जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इंद्रियां उसके बस में हैं, जिसके मन की भावनाएं बिल्कुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है, ऐसा आदमी ही सच्चा शिक्षित माना जाएगा। तो क्या इसे संसार के समस्त नीतिशास्त्रों का निचोड़ नहीं माना जाना चाहिए। क्या आधुनिक झंडाबरदार तथाकथित राष्ट्रवादी इस किताब में दिए स्वदेशाभिमान के अर्थ को ग्रहण करेंगे कि स्वदेशाभिमान का अर्थ मैं देश का हित समझता हूं, अगर देश का हित अंग्रेजों के हाथ होता हो, तो मैं आज अंग्रेजों को झुककर नमस्कार करूंगा।


मेरी राय में तमाम अतिशयोक्तियों से बचते हुए कहा जाय तो भी यह किताब भारतीय परिप्रेक्ष्य में बेहतर जीवन, बेहतर समाज, बेहतर राष्ट्र और फिर बेहतर दुनिया का सहज और व्यावहारिक रास्ता बताने वाली बेहतरीन किताबों मे से एक है और उन विरासतों में से भी है जिन्हें बचाना बहुत जरूरी है।

Monday, June 8, 2009

तारीख लिखो तो ऐसे लिखो


ये पुस्तक समीक्षा कतई नहीं है न ही व्यक्ति परिचय है, किताब के बहाने व्यक्ति और व्यक्ति के बहाने किताब पर भी बात नहीं है। सच पूछें तो इन दिनों एक किताब ने नींद हराम कर रखी है, किताब है झुरावौ जिसका शाब्दिक अर्थ है विलाप, और मैं सचमुच विलाप की अवस्था में हूं। एक इतिहास का विद्यार्थी एक अल्पज्ञात से ऐतिहासिक प्रसंग को जब साहित्य में जीवंत देखता है तो शायद ऐसा ही होता हो । ऐसी ही अनुभूति मुझे कुछ बरस पहले झारखंड मे रहने वाले राकेश कुमार सिंह के उपन्यास जो इतिहास में नहीं है से गुजरते हुए भी हुई थी जिसे उसके बाद जामिया मिलिया से जुड़े रहे इतिहासकार सुधीर चन्द्र ने मुझसे अनौपचारिक बातचीत में कुछ यूं बयां किया था कि साहित्य में नामों के अलावा सब सच होता है और एक हद तक इतिहास में केवल नाम॥।


झुरावौ राजस्थानी और हिन्दी के जाने माने लेखक चन्द्रप्रकाश देवल की कविता कृति है। इसमें आउवा में विक्रमी संवत 1643 यानी 1586 ईस्वी में हुए जिस धरने को केंद्र में रखकर कवितायें रची हैं वो दरअसल सामंतवाद के खिलाफ आत्मसम्मान और प्रतिकार का प्रतीक है, और जिसे गांधी के सत्याग्रहों और बिजोलिया के सत्याग्रह की पूर्व पीठिका के रूप में देखा जा सकता है। ऐसा नहीं कि ये धरना इतिहास में अज्ञात है। सूर्यमल्ल मिश्रण, श्यामलदास, विश्वेश्वरनाथ रेउ, मुहता नैणसी इस घटना से परिचित हैं पर इसे मानवीय संवेदना की उंचाइयों तक झुरावौ ही पहुंचाती है अचम्भित करने की हद तक। ये इस घटना का जादू है, उस संवेदना का भी जिसने धरने की पृष्ठभूमि रची और अंतत कवि के कवित्व का भी। पहली कविता मीठी सी पीड़ा की आरंभिक पंक्तियां तिलिस्मी हैं - बेटा ! /कमरे की उत्तर दिशा वाली खिड़की मत खोल /यह आउवा की और खुलती है। या संग्रह की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां- मैं अपने होने और न होने के मध्य /उद्विग्न सा /नया आउवा तलाशता हूं /वह दूर तक मुझे /कहीं दिखाई नहीं देता।


राजस्थान के इतिहास प्रसंगों को साहित्य की विषय वस्तु बनाकर इस से पहले भी फिक्शन में उमेश शास्त्री और आनंद शर्मा के रस कपूर, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र के एकाधिक में से जनानी ड्योढी जैसे महत्वपूर्ण काम हुए तो हरिराम मीणा के धूणी तपे तीर जैसे हादसे भी रचे गए हैं पर कविता में झुरावौ अनोखा है और कविता तथा इतिहास के एक साथ दुर्लभ निर्वहन के साथ। इतिहास के साथ साहित्य के रिश्ते को लेकर मुझे लगता है कि बड़ा ही नाजुक रिश्ता है, कब कहां चूक हो जाए और पता भी ना चले और जब रसायनशास्त्री (राकेश कुमार सिंह और चंद्रप्रकाश देवल) साहित्य और इतिहास की कैमिस्ट्री को भरपूर निभाते हैं तो ईष्र्या-सी होती है। झुरावौ जैसी एक इतिहास आधारित साहित्यिक कृति से गुजरते हुए ये आभास होना लाजमी है कि वर्तमान की पीठ पर सवार होकर अतीत से भविष्य की यात्रा करना इंसानी आदत हो जाये तो हमारी बहुत-सी समस्याएं शुरू होने से पहले खत्म हो जाएं।


खुशामदीद !


इधर, युवा शायर धूप धौलपुरी की शायरी का पहला मजमुआ जज्बात की धूप हाल ही मंजरे आम पर आया है, फिल्मी लबोलहजे के इस शायर के अदबी मेयार की बानगी देखिए-


बादल से कहते हैं तुम ना बरसो मेरे आंगन में,


आंखों में, सावन के जैसी फिर भी झड़ी लग जाती है।


हमने बसा ली अपनी बस्ती दूर तुम्हारे शहरों में,


फिर भी न जाने कब ये बस्ती शहरों से मिल जाती है।