Monday, October 27, 2014

लेखक के दर्द की स्वानुभूति की फिल्म

विचार को तथ्यों और तर्को पर बिना कसे ही बिना कोर्ट बिठाए सजा देने का काम सदियों से हमारी सभ्यताएं करती रही हैं, 'निर्बाशितो' भी उसी की दास्तान है, बस किरदार अलग है, और इस तरह से यह हमारे निरंतर और ज्यादा, बहुत ज्यादा असहिष्णु होते जाते समय का एक क्रूर बयान है।

'निर्बाशितो' (Bangla-English, 2014) देखना उपलब्धि रहा है। एक लेखक की जीवनस्थितियों का सुंदर पर रूला देना वाला अकाउंट प्रस्तुत किया है चुरनी गांगुली ने।
एक निर्देशक के रूप में यह उनकी पहली फिल्म है, लिखा भी उन्होंने ही है, मुख्य भूमिका में भी वही हैं। चुरनी ने मुख्य भूमिका में अभिनेत्री के तौर पर कमाल की सहजता के साथ तस्लीमा के रूप में एक लेखिका की यथेष्ट सवेदनशीलता को मूर्त किया है। वे कहीं भी लाउड नहीं है, सहजता में ही भाव का वांछित प्रकटीकरण किया है।


जिस बात में लेखक का विश्वास है, उसे कहने की सजा उसको भुगतनी पड़े, उसे अपने देश, अपने लोगों से दूर कर दिया जाए, सारे संचार माध्यमों से काट कर किसी समुद्री टापू पर रख दिया जाए, यह कहना सुनना लिखना जितना सहज लगता है, उतना सहज उससे गुजरना नहीं है, कतई नहीं है, फिल्म अपने कैनवस पर उसी पीड़ा के भाव को जीवंतता से चित्रित करती है, कि हम सामने बैठकर उस दर्द में हमदर्द हो जाते हैं। 'निर्बाशितो' कहने को निर्वासन के बाद लेखिका और उससे बिछुड़ी बिल्ली बाघिनी की कहानी है पर दरअसल अपनी सतह के नीचे समंदर के गहरे जल सी विराट हलचलों को समेटे हुए है।

बिना नाम लिए हुए पूरी फिल्म तस्लीमा नसरीन की कहानी कहती है, नाम की जरूरत भी नहीं है, एक रचनात्मक व्यक्ति का दर्द उसका संघर्ष रूप बदल बदल कर वही होता है। कभी वह सुकरात होता है, कभी गांधी होता है, कभी मंसूर होता है, कभी गैलिलियो /कॉपरनिकस होता है। विचार को तथ्यों और तर्को पर बिना कसे ही बिना कोर्ट बिठाए सजा देने का काम सदियों से हमारी सभ्यताएं करती रही हैं, 'निर्बाशितो' भी उसी की दास्तान है, बस किरदार अलग है, और इस तरह से यह हमारे निरंतर और ज्यादा, बहुत ज्यादा असहिष्णु होते जाते समय का एक क्रूर बयान है। एक पंक्ति में कहा जाय तो 'निर्बाशितो' लेखक के दर्द से सहानुभूति नहीं, उस दर्द की स्वानुभूति की फिल्म है। फिल्म बायोपिक नहीं है, तस्लीमा के जीवन के एक छोटे से हिस्से की कथा है, जो अपने स्वरूप में बड़ा है।

बंगाली और अंग्रेजी में कही गई कहानी कोलकाता से दिल्ली होती हुई स्वीडन और फिर एक समुद्री टापू पर पीड़ा के चरम और उम्मीद के दामन को थामे हुए समाप्त होती है।
फिल्म में बीच बीच में तस्लीमा की कविताओं के बेकग्राउंड पाठ ने गीतों की जगह भरते हुए कहानी को सान्द्र, सघन बनाया है।बिल्ली को राजनीतिक व्यंग्य के लिए मैटाफर बनाना भी खूबसूरत लगा है पर उस हिस्से का थोडा सा अधिक हो जाना खलता है।

लेखक का जीवन पर्दे पर आना महत्वपूर्ण है, उसे इस तरह पर्दे पर ला पाना और ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, तस्लीमा के जीवन को अंकित करना बेहद दुस्साहसिक चुनौती स्वीकारने जैसा है, उसके साथ न्याय कर पाना उसी चुनौती को गंभीरता से लेने की जिम्मेदार कोशिश का नाम है।

Saturday, October 4, 2014

गहरे अंधेरे के पार उजाले का दरख्त


पाठक के लिए सहजता के स्तर पर रवि बुले का उपन्यास ‘दलाल की बीवी’ पल्प और साहित्य के बीच का पुल है। देहव्यापार की कथा कहते कहते कहीं कहीं अश्लीलता के स्तर को छू जाने का खतरा लेखक को उठाना पडता है, वह रवि ने उठाया है। मुम्बइया अपराध जगत और देह व्यापार की दुनिया की डिटेलिंग में वे नया संसार नहीं खोलते, पर बेशक औपन्यासिक कथा, उसके शिल्प और उसे कहने की भाषा में वे नयापन लिए हुए हैं...




अपराधजगत के सियाह कोनों में विचरण फिल्मकारों और अफसानानिगारों का पुराना शगल रहा है। रवि बुले का हार्पर हिंदी से आया पहला उपन्यास ‘दलाल की बीवी’ उस अपराध जगत के खास हिस्से देह व्यापार की संकरी घाटियों में अपने विरले कथाशिल्प और भाषाई कलाकारी के साथ प्रवेश करता है तो हिंदी के ईन-मीन-साढे तीन सौ साहित्यिक पाठकों की उम्मीदों, उनमें बहुतांश आत्ममुग्ध लेखकों की ईर्ष्यामिश्रित कुंठाओं और आलोचकों की लेखकों से पादचंपी की लालसाओं से आगे जाना निहायत स्वाभाविक और जरूरी प्रक्रिया हो जाता है। और रवि ने अपने लेखकीय कौशल, अपने समय को देखने और अंकित करने की समझ तथा जिद से उसमें मुकम्मल हस्तक्षेप किया है।

पूरी कथा में नायक महानगर है या ‘कितने पाकिस्तान’ में कमलेश्वर की भूमिका को याद करते हुए कहा जाए तो समय है, हमारा समय। परंपरागत हिंदी आलोचकीय भाषा में - मंदी के बहाने उपन्यास बाजारवादी तंत्र में मानवीय मूल्यों में मंदी का आख्यान है। गांवों ओर छोटे कस्बों से बडे शहरों खासकर मुम्बई के आईने में देखते- झांकते हुए रवि बुले इस उपन्यास में शीर्षक के बवजूद दलाल की बीवी को नायिका का दर्जा नहीं देते हुए प्रतीत होते हैं। उसका नायिका भाव बस इतना है कि वह शुरूआती चतुर्थांश से लेकर अंतिम यानी 22 वे अध्याय से पहले यानी इक्कीसवें अध्याय तक उपस्थित हैं। यह उपस्थिति उतार चढावों वाली है, जैसे वह एक सागर है और आसपास के कई पात्र जैसे नदियां हैं जिन्हें आके उस सागर में गिरना होता है। यहां तक कि दलाल की हैसियत भी कहानी में एक नदी सी ही मालूम पडती है। अपनी लुप्त बीवी को ढूंढता कमाल झूठे वादों, कामुक इरादों, मादा देह के इर्दगिर्द मंडराती मर्दाना देहों के बीच कवि पात्र लगता है, दलाल का उसे कहा गया एक वाक्य उपन्यास का यादगारी सूक्ति वाक्य है- ‘’जो औरत इस दुनिया में खो जाती है, फिर वह दोबारा नहीं मिलती। औरत बहती नदी है। उसके साथ रहने का एक ही तरीका है, उसमें डूबकर उसके साथ तैरते रहो। एक बार वह छोडकर चली गई तो फिर खो ही जाती है।‘’

जीवन सफर में जरूरी सामान खोकर टिकट के पैसे जुटाने में पोर्न फिल्मों का नायक बन जाने वाला इटली का पर्यटक रेनातो मिलानी, मीठे सपनों में जहर का स्वाद चखती मिटठू कुमरी, नैनों से भोग और सन्यास का आनंद एक साथ उठाते नयनानंद, दलाल और नयनानंद के बीच झूलती सेक्स डॉल नेपालन, सी-फेसिंग गगनचुम्बी इमारत में मोहिनी मजूमदार का बॉलीवुडीय संघर्ष, सपनों की छटपटाहट में फिसलन कथा को पाठकीय आकांक्षाओं के पर्वत लांघने का हौसला देते हैं। और तो और उपन्यास में बिल्ल्यिां और मछलियां भी पात्र हैं, मुकम्मल पात्र।

पाठक के लिए सहजता के स्तर पर उपन्यास पल्प और साहित्य के बीच का पुल है। देहव्यापार की कथा कहते कहते कहीं कहीं अश्लीलता के स्तर को छू जाने का खतरा लेखक को उठाना पडता है, वह रवि ने उठाया है। मुम्बइया अपराध जगत और देह व्यापार की दुनिया की डिटेलिंग में वे नया संसार नहीं खोलते, पर बेशक औपन्यासिक कथा, उसके शिल्प और उसे कहने की भाषा में वे नयापन लिए हुए हैं, जिसकी उम्मीद और भरोसा वे अपने दो कहानी संग्रहों से पाठकों के मन में पहले ही जगा चुके थे। कडवे और नंगे सच को नंगी आंखों से देखना -लिखना आसान नहीं होता, पढना भी आसान नहीं होता, पर रोशनी का रास्ता अंधेरों से होकर ही तय होता है, इसलिए रवि बुले का यह उपन्यास व्यापक पाठ की मांग करता है और पाठ का वाजिब हकदार भी है।



Saturday, August 10, 2013

दिल की जुबां से सुनिए, देखिए..

फिल्म इल्म- चेन्नई एक्सप्रेस :

भारतीय भाषाओं के बीच पुल बनाती फिल्म आखिरकार इस स्तर तक आ जाती है कि भाषाएं गौण हो जाती हैं, यह फिल्म का एक संदेश भी है, एक और संदेश भी है कि लड़कियों को मन से अपना जीवन साथी चुनने की आजादी देश के आजाद होने के ६६ साल बाद भी नहीं है।

मीना लोचनी अलकसुंदर नाम की लड़की की कहानी है- चेन्नई एक्सप्रेस। जिसके पिता दक्षिण भरत के किसी इलाके के डॉन हैं। यूं कहानी लेखक के. सुभाष हैं जो तमिल फिल्म निर्देशक हैं। क्रिकेट से प्यार करने वाले और सचिन की तरह ९९ पर आउट दादाजी की अस्थियां प्रवाहित करने मुम्बई से रामेश्वरम जा रहे उत्तर भारतीय अधेड़ के तमिल लड़की से मिलने, और प्रेम करने की की यात्रा को भी हम चेन्नई एक्सप्रेस कह सकते हैं। राहुल यानी शाहरुख और मीना यानी दीपिका पादुकोण का रासायनिक ताना- बाना इस फिल्म को सुंदर और स्वादिष्ट सांभर-इडली डोसा बना देता है। भारतीय परंपरा की कई परतें फिल्म में दिखती हैं, उत्तर भारतीय गोरे होते हैं, एक मान्यता के अनुसार दक्षिण भारतीय द्रविड़ लोग हैं जो पहले उत्तर में रहते थे, हिंसक थे, बदसूरत थे, और आर्यो ने उन्हें दक्षिण की ओर धकेल दिया था। कबीलाई संस्कृति है कि पिता दो बलवानों या इच्छुक युवाओं में से उसी को बेटी का हाथ सौंपेगा जो लड़ाई में जीतेगा।

भारतीय भाषाओं के बीच पुल बनाती फिल्म आखिरकार इस स्तर तक आ जाती है कि भाषाएं गौण हो जाती हैं, यह फिल्म का एक संदेश भी है, एक और संदेश भी है कि लड़कियों को मन से अपना जीवन साथी चुनने की आजादी देश के आजाद होने के ६६ साल बाद भी नहीं है। दक्षिण की खूबसूरती को कैमरे में समेट के लाने में कमाल हुआ है। स्विटजरलेंड घूमते कुछ फिल्मकारों को यह सुंदर जवाब है। इस लिहाज से फिल्म देखना हमें खुशकिस्मत भारतीय होने का अहसास भी देगा। और शायद यह भी कि हम छुट्टियां मनाने विदेश जाने के सपने पालते हैं, जाते हैं, पर हमने अभी भारत को भी कायदे और करीने से नहीं देखा है। यानी फिल्म दृश्यावलियों का वह तिलिस्म रचती है जो आपको बांधे रखता है, आपको बांधने में दूसरा योगदान युनुस सजावल की लिखी चुस्त और गतिमान पटकथा का भी है और साजिद फरहाद के लिखे संवादों का भी जो माकूल असर पैदा करते हैं। अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे गीत सुनने लायक हैं, गुनगुनाने लायक भी हैं।

वायुयान से हरियाली के दृश्य बाकमाल लिए हैं, नदी के पुल से गुजरती ट्रेन और बिना स्टेशन के गांव में जब चेन खींचकर रेल रोकी जाती है तो आसपास का वह खूबसूरत कुदरती नजारा आंखों को ठहर के देखने और थम जाने को मजबूर कर देने वाला है। उस वक्त एक झरना दृश्य में जान डाल देता है, वह झरना रोमांच का झरना है, उल्लास का झरना है, हिंदी सिनेमा के भारतीय सिनेमा में क्रमश: तब्दील होते जाने की कोशिश का झरना है। आधी फिल्म तमिल में होते हुए भी आप कहीं फिल्म से कटते नहीं है। भाषा के बंधन का यह तटबंध टूटना और सायास तोडऩा रोहित शेट्टी की सबसे बड़ी ताकत है जिसके लिए इस फिल्म को अलग धरातल पर देखना पड़ेगा और मानना पड़ेगा। दीपिका ने जताया है कि वह मुख्य धारा के स्टार सिनेमा का हिस्सा होते हुए भी अभिनय के मामले में अपनी कई समकालीनों से इक्कीस हैं। एक तमिल लड़की के किरदार में उसकी जीवंतता अनुपमेय है। भारतीय सिनेमा के सौ सालवें वर्ष में हिंदी सिनेमा का यह भाषांतरित रूप खास तरह से रेखांकन मांगता है। यह सितारों का सिनेमा है तो कुछ अतिरंजनाएं भी हैं, पर उन्हें नजर अंदाज किया जा सकता है।

साढ़े तीन स्टार


Saturday, August 3, 2013

बीए पास विद फर्स्ट डिविजन

फिल्म इल्म- बीए पास :

केवल सायास अनायास रूप से बहुतप्रचारित अंतरंग दृश्यों की चाहत में फिल्म देखने जाने वाले निराश नहीं होंगे पर संवेदनात्मक सिनेमा के दर्शक उन दृश्यों के कारण फिल्म देखने नहीं जाएंगे तो नुकसान में रहेंगे।


फिल्म के प्रचारित अंतरंग दृश्यों को अलग कर दिया जाए तो बीए पास एक अच्छी फिल्म है। उन अंतरंग दृश्यों को रखना तो जरूरी था क्योंकि कहानी का ताना बाना उन्हीं के आसपास है, पर उन्हें प्रतीकात्मक और छोटे भी रखते तो अर्थ वही निकलते जो निर्देशक जाहिर करना चाहता था। खैर, कहानी की बात की जाए तो २००९ में दिल्ली के कई कहानीकारों की एक एक कहानी लेकर एक अंग्रेजी संग्रह हिर्श साहनी के संपादन में प्रकाशित हुआ- 'दिल्ली नोएर'। इसमें सब कहानियां अंग्रेजी नहीं थीं, हिंदी से उदयप्रकाश की कहानी भी थी। उस संग्रह में मोहन सिक्का की एक कहानी थी- 'द रेल्वे आंटी'। यह फिल्म उसी कहानी पर आधारित है, और बाकायदा निर्देशक ने शुरू में यह बताया है।

फिल्म की कहानी यह है कि एक किशोर मुकेश के माता पिता की मौत हो जाती है, दादा के खर्चे पर चाचा- चाची मुकेश को दिल्ली में रखना अनमने से स्वीकारते हैं और बीए में दाखिला दिलवा देते हैं, दो बहनों को उसी कस्बे में एक हॉस्टल में रख दिया जाता है। चाचा रेल्वे में नौकरी करते हैं, उनके बॉस की बीवी सारिका यानी शिल्पा शुक्ला किसी बहाने से मुकेश को घर बुलाती है और यौनिकता के पाठ पढ़ाते हुए दूसरी ऐसी महिलाओं जिनकी यौन आकांक्षाएं पूरी नहीं होती हैं, के पास भिजवाती है, चाचा चाची और उनके लड़के के ताने सुनते मुकेश के लिए आर्थिक आजादी का यह रास्ता धीरे-धीरे उसका काम हो जाता है। बहनों को असुक्षित हॉस्टल से बाहर निकालने और अपने जीवन की बुनियादी लड़ाई लड़ते इस किशोर का एक दोस्त जॉनी है जो ईसाई कब्रिस्तान में मुर्दो को दफनाने का काम करता है और पैसे जुटाकर मॉरीशस जाने के ख्वाब देखता है। इसी ताने बाने में मुकेश के उलझने और आखिरकार कहानी के दुखद अंत तक पहुंचने की दास्तां है-बीए पास। अधेड़ नायिका के तौर पर शिल्पा शुक्ला ने जितना अच्छा काम किया है उससे अच्छा काम किशोर नायक के तौर पर शादाब कमल ने किया है चाहे वह जॉनी की भूमिका निभा रहे दिव्येंदु भट्टाचार्य की फिल्म के लिए आयोजित एक्टिंग वर्कशाप का ही कमाल हो। सारिका के पति अशोक के तौर पर राजेश शर्मा ने भी स्वाभाविक अभिनय से खुद को दर्ज कराया है। फिल्म पंजाब के कस्बाई और दिल्ली के निम्रमध्यमवर्गीय जीवन का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण है, एक वर्जित विषय में साहसिक और सांद्र-सघन संवेदना से परिपूर्ण प्रवेश है।

एफटीआईआई से सिनेमेटोग्राफी की पढ़ाई करने वाले निर्देशक अजय बहल ने कैमरा खुद संभाला है तो कैमरा भी जादू करता चलता है। हालांकि मुकेश बीए पास नहीं कर पाता पर निर्देशक अजय बहल पहली फिल्म में जोरदार पास हुए हैं। किशोरवय और कुलमिलाकर हम आयुवर्ग की ऐन्द्रिक मनोस्थितियों को खंगालती फिल्म को देखते हुए दशकों तक दुनिया भर के मेडिकल कॉलेजेज में पाठयपुस्तक के रूप में पढ़ाए जाने वाले हैवलॉक एलिस के ग्रंथ यौन मनोविज्ञान की याद आती रही। केवल सायास अनायास रूप से बहुतप्रचारित अंतरंग दृश्यों की चाहत में फिल्म देखने जाने वाले निराश नहीं होंगे पर संवेदनात्मक सिनेमा के दर्शक उन दृश्यों के कारण फिल्म देखने नहीं जाएंगे तो नुकसान में रहेंगे।

तीन स्टार

Saturday, July 27, 2013

सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला

फिल्म इल्म - बजाते रहो :


इस फिल्म की खासियत यह है कि दस विदानिया बनाने वाले सशांत शाह की बनाई फिल्म हैं, विनय पाठक भी साथ में है। कहानी यह है कि ईमानदार बैंक अधिकारी बवेजा अपने बैंक के मालिक सबरवाल यानी रविकिशन के कहने पर कम समय में ज्यादा ब्याज का प्रलोभन देकर लोगों का पंद्रह करोड इक_ा करते हैं, और मालिक मुकर जाता है, बवेजा अपनी सहकर्मी सायरा सहित जेल भेज दिए जाते हैं। बवेजा की सदमे से मौत हो जाती है, उनकी पत्नी यानी डॉली आहलूवालिया और बेटा यानी तुषार कपूर, बवेजा की सहकर्मी के पति विनय पाठक और रणवीर शौरी उन पंद्रह करोड़ के हासिल कर वह सम्मान वापिस प्राप्त करना चाहते हैं, विनय पाठक अपनी बीवी को जेल से बाहर लाना चाहते हैं।

कहानी में कई ट्विस्ट हैं, कहानी में झोल भी उतने ही हैं। दिल्ली की कहानी है। पंजाबी बैकड्रॉप है, पंजाब एक दो लोग ही ठीक बोल पा रहे हैं। बेहद प्रतिभाशाली अभिनेता ब्रजेंद्र काला और रवि किशन की पंजाबी बेहद बनावटी है। निर्देशक पर दस विदानिया और चलो दिल्ली के समय जो प्रेम और भरोसा उमड़ा था, वह यहां तक आते-आते बिखरने लगता है। विकी डोनर और लवशव ते चिकन खुराना जैसी कई फिल्मों को मिलकर उसमें इस बैंक धोखाधड़ी वाली कहानी का स्प्रे डाल दिया जाए तो जो कामचलाऊ सी फिल्म निकलेगी वह बजाते रहो होगी। लगता है सशंात किसी जल्दी में थे, वरना ऐसा हादसा वे रच दें, यकीन नहीं आता। यहां जो काम किया है उसके आधार पर नायिका के रूप में विशाखा सिंह से उम्मीद कर सकते हैं। तुषार कपूर पंजाबी नहीं बोलते तो ज्यादा ठीक लगते। मुम्बई के अलावा बनारस के साथ दिल्ली इन दिनों बॉलीवुड वालों की पसंद है, माता की चौकी वहीं ठीक से शूट हो सकती थी, उसमें विनय पाठक हिंदी फिल्मी गीत का माता के भजन के रूप पैरोडी गाना फिल्म का सबसे प्रभावी और यादगार दृश्य है। कुलमिलाकर निर्देशक के नाम से फिल्म देखने जाने का जोखिम ना ही लें। ठीकठाक सी कॉमेडी देखनी हो तो जा सकते हैं।

दो स्टार



Sunday, July 21, 2013

जहाज जो डूबता नहीं

फिल्म इल्म - Ship of Thesius :

प्रतिस्पर्धा का सबसे बेहतर तरीका है बड़ी रेखा खींचना। तो अपनी पहली ही फिल्म से निर्देशक ने भारतीय सिनेमा के लिहाज से एक बड़ी रेखा खींच दी है। आनंद गांधी इसके जरिए बताते हैं कि फिल्म ऐसे बनती है।

'शिप ऑफ थिसियस 'में निर्देशक आनंद गांधी ने तीन कहानियां महीन बुनावट में गूंथी है। पहली कहानी में एक नेत्रहीन फोटोग्राफर है। इस कथा की खूबसूरती आंख और बिना आंख के दुनिया को देखने तथा महसूस करने के भाव पर केंद्रित है। जब दो ऑपरेशन के जरिए उसकी दोनों आंखें मिल जाती हैं तो उसका संसार कैसे बदलता है। इसे देखते हुए निदा फाजली के शब्द कानों में गूंजते रहे- 'छोटा करके देखिए जीवन का विस्तार, बाहों पर आकाश है, आंखों भर संसार।' दूसरी कहानी में एक साधु कुदरत के साथ अपने रिश्ते को परिभाषित करता है, वह मानता है कि वह नास्तिक है पर आत्मा में विश्वास करता है। उसकी मजबूत आस्था है कि हमारे छोटे से कार्य का असर पूरी कायनात पर पड़ता है। इसलिए जब डॉक्टर यह बताते हैं कि उसे लिवर सिरोसिस हो गया है और इसका उपचार संभव है, डॉक्टर कहता है उपचार संभव है पर साधु का मानना है कि उसके उपचार में कितने ही जीवों की हत्या होनी है, इसलिए वैज्ञानिक तरीके से इस उपचार के लिए वह मना कर देता है। पर बाद में मौत को नजदीक पाकर जीवन की अहमियत और अपने अधूरे कामों को पूरा करने की मंशा से उपचार के लिए हां कर देता है। तीसरी कहानी में एक गुर्दे के प्रत्यारोपण की घटना है जो दरअसल एक गरीब के गुर्दे बेचने का मामला है और मुम्बई के आदमी का गुर्दा स्टॉकहोम में एक व्यक्ति को लगाया जाता है और एक धन कमाने में व्यस्त युवा उसकी खोज करता है, अंतत: पता चलता है कि एक आदमी के आठ अंग आठ व्यक्तियों को प्रत्यारोपित किए गए हैं।

फिल्म का शीर्षक एक यूनानी कथा से लिया गया है जिसके अनुसार अगर एक पानी के जहाज के सारे भाग बारी बारी से बदल दिए जाएं तो क्या वह वही जहाज बचेगा या बदल जाएगा। कहते हैं ना कि प्रतिस्पर्धा का सबसे बेहतर तरीका है बड़ी रेखा खींचना। तो अपनी पहली ही फिल्म से निर्देशक ने भारतीय सिनेमा के लिहाज से एक बड़ी रेखा खींच दी है। आनंद गांधी इसके जरिए बताते हैं कि फिल्म ऐसे बनती है। यह भी खास प्रयोग है कि चार भाषाओं हिंदी, अंग्रेजी, स्वीडिश और अरबी का कमाल संयोजन किया है।

पंकज कुमार की सिनेमेटोग्राफी यादगार है। जयपुर के लिए बोनस यह है कि जवाहर कला केंद्र अकल्पनीय और बहुत अलग तरीके से इस्तेमाल हुआ है।

फिल्म जीवन की अहमियत को स्थापित करती है इस स्तर पर कि महान दार्शनिक अल्बेर कामू याद आते हैं, जिन्होंने कहा था कि जीवन अपने दामन में हमारे लिए क्या सौगात रखे हुए हैं, यह जानने के लिए जीवन जीना ही अकेला रास्ता है। बहुत बारीकी से फिल्म कुदरत के साथ रिश्तों की व्याख्या करती है। फिल्म का कैनवस और भूगोल दोनों ही हैरान करने वाले स्तर तक व्यापक हैं। आइदा अलकासेफ ने नेत्रहीन फोटोग्राफर की भूमिका संपूर्णता में निभाई है, तो फिल्म 'बाबर' से डेब्यू करने वाले अभिनेता सोहम शाह ने अपने स्वाभाविक अभिनय से चौकाया है और नीरज कबी का काम भी अच्छा है। आखिर में कहना जरूरी है कि ऐसे विषय और इस तेवर के साथ फिल्म को बनाना बडा जोखिम है जो निर्माताओं ने लिया है, उन्हें सलाम। फिल्म को रिलीज करना किरण राव का वह योगदान है जिसे सलाम से ज्यादा कुछ कहना चाहिए।

चार स्टार

Saturday, July 20, 2013

भाई बुरा मान गया तो !

फिल्म इल्म -डी डे :

भाई से मजाक करते हो, ये ठीक नहीं है। और दर्शकों से तो मजाक कतई नहीं करना चाहिए। काश यह समझे होते निखिल आडवाणी। वे बहुत कमाल निर्देशक रहे हैं, पर उनका कमाल यहां जरा फीका है। डी कम्पनी और मुम्बइया अंडरवर्ल्ड पर यह पहली फिल्म नहीं है।

डी कम्पनी और मुम्बइया गेंगवार पर यह पहली फिल्म नहीं है। पर आखिर तक आते आते भाई को मजाकिया बना देना निखिल के ही बस की बात थी। उनका यह दुस्साहस ही है। डी डे की कहानी का सार यह है कि डी यानी भाई को भारत लाना है और उसकी एक सिनेमाई यात्रा रची है निर्देशक ने। ऐसा सोचना यकीनन एक जोखिमभरा काम है। भाई यानी इकबाल की मुख्य भूमिका में ऋषि कपूर हैं, जो सिद्ध और प्रसिद्ध रूप से दाउऊद इब्राहिम पर आधारित है। उनका चेहरा मोहरा तो भाई जैसा ठीक बन गया है पर धीरे धीरे वे ऋषि कपूर में तब्दील होते जाते हैं, इस यात्रा में इरफान, अर्जुन रामपाल, श्रुति हसन, हुमा कुरैशी जैसे सितारे उनके साथ है। इन जाने पहचाने चेहरों के अलावा आकाश दहिया की दपस्थिति शानदार है। अंत तक आते आते तो लगता है कि मंच पर कोई भाई की मिमिक्री कर रहा है। फिल्म धीरे धीरे उन अनजान और बेजुबान नायकों की हो जाती है, जो गुप्त मिशन पर पाकिस्तान भेजे जाते हैं और सरकार उनके साथ फिर कैसा सुलूक करती है। श्रुति हसन ने कराची के देह बाजार की सेक्स वर्कर की भूमिका ठीक तरह से निभाई है। फिल्म अपनी बुनावट में डॉक्यू ड्रामा की तरह चलती है। शुरूआत जिस तरह से होती है, निखिल उसे बरकरार रख पाते तो जरूर यह फिल्म डी कम्पनी पर बनी फिल्मों में कल्ट फिल्म हो जाती। इरफान अपने काम में वैसे ही हैं, जैसे हमेशा होते हैं।

कई दिनों के बाद किसी फिल्म में गजल सुनने को मिली है। प्रेम फिल्म की अनिवार्यता नहीं है, पर आंशिकता में प्रेम को प्रकट करने में इस गजल ने ठीक काम किया है। गानों में संगीत मधुर है, शास्त्रीयता की चमक में वे बेहद अच्छे बन पड़े हैं। भव्यता विषयानुकूल है। फिल्म की गति भी ठीक है। दाऊद इब्राहिम को लेकर कई फिल्में बनी हैं, अनुराग कश्यप ब्लैक फ्राइडे बना चुके हैं, उससे यह फिल्म आगे नहीं है, और कहीं बड़े बजट के बावजूद बहुत पीछे है।

दो स्टार


Saturday, July 13, 2013

भाग फरहान भाग

फिल्म इल्म - भाग मिल्खा भाग :

मिल्खा को चाहे नाम भर ही सही, हम में से प्राय: लोग जानते हैं, और बहुत सारे लोग उनको नाम और काम सहित जानते हैं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की इस बायोपिक फिल्म में दाखिल होते हुए कई छवियां होती हैं। खेल पर दो बायोपिक किस्म की फिल्में चक दे इंडिया और पान सिंह तोमर हम भूले नहीं हैं। हिंदुस्तान और पाकिस्तान की आजादी तथा विभाजन के दिनों में दंगों की गिरफ्त कहानी का वह सूत्र है जिसे पकड़कर निर्देशक चला है, आपने मां पिता का आंखों के सामने दंगाइयों के हाथों कत्ल और जीजा द्वारा घर से बेदखली के बाद भारत आना और जिंदगी की जद्दोजहद यानी अकेले बालक का स्वाभाविक जीवन संघर्ष पर्दे पर उतारने की यह चेष्टा लंबी हो गई है। उम्मीद से कमतर है। उम्मीद से बेहतर है फरहान अख्तर की अदाकारी। निर्देशक ने पूरी फिल्म में तबियत से भगाया है उनको, जैसे बॉलीवुड में खानों की दौड़ में फरहान अपनी जगह के लिए भाग रहे हैं। पिछले शुक्रवार रिलीज लुटेरा भी पीरियड ड्रामा थी, और यह भी है। अंतर यह है कि भाग मिल्खा भाग सच्ची कहानी से प्रेरित है। और किसी भी जीवनी या आत्मकथा में जो डर होता है कि वह आत्मश्लाघा बन कर ना रह जाए, यह किसी जीवित व्यक्ति पर बायोपिक बनाने में भी उतना ही होता है। इस फिल्म में इस डर से निर्देशक बहुत हद तक बच गए हैं, पर आंशिक रूप से इस मायने में कि मिल्खा का असाधारण नायकत्व ही उभरा है, मानवीय कमजोरियां नहीं। बॉलीवुडिय मसाले डाले गए है, नहीं होते या कम होते तो ज्यादा बेहतर होता। निर्देशक ने जितनी ईमानदारी से फिल्म बनाई है, काश उतनी कसावट भी फिल्म में होती यानी बेवजह फिल्म लंबी हो गई है।

फिल्म में क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह जो पंजाबी सिनेमा के जाने पहचाने चेहरे हैं, ने मिल्खा के कोच की भूमिका में कमाल काम किया है, वहीं मिल्खा की बहन की भूमिका में दिव्या दत्ता ने, अगर बॉलीवुड की इस धारण को अलग कर दें कि नायिका यानी जो नायक की प्रेमिका, तो बहन होते हुए अदाकारी और उसस्थिति के लिहाज से फिल्म की नायिका है जिसने ऑस्कर के लिए नामित पंजाबी फिल्म वारिस शाह के बाद पहली बार इतना शानदार अभिनय किया है। सोनम कपूर छोटी सी भूमिका में भली लगती है।

पहली बार पटकथा लिखने उतरे प्रसून जोशी ने अपने स्तर का काम तो नहीं दिया है, हां गीत बेशक अच्छे हैं। 'हवन कुंड, मस्तों का झुंड' तथा 'कोयला है काला है, चट्टानों ने पाला है' जुबान पर आने वाले हैं। हालांकि समझ नहीं आया कि अगर कोयला मिल्खा के लिए प्रतीकात्मक है तो कोई अंदर से काला होते हुए कैसे सच्चा हो सकता है, जब वे लिखते हैं- 'अंदर काला, बाहर काला पर सच्चा है साला रे।' खैर, इतने मतलब आजकल की फिल्मों में कौन देखता है, पर क्या करें प्रसून जोशी से तो यह उम्मीद रहती ही है। आखिर में छोटी सी बात, दो नायिकाओं से प्रेम करता हुआ और तीसरी को मना करते हुए जीवन में प्रेम को लगभग खारिज करता नायक नई पीढ़ी को कैसा लगेगा, संशय है।

तीन स्टार



Saturday, July 6, 2013

दिल लूट लेती है लुटेरा

फिल्म इल्म -लुटेरा

आप जब देखना शुरू करते हैं और देखते रहते हैं। लुटेरा के साथ लगभग ऐसा ही है। इतनी सुंदरता से विक्रमादित्य मोटवानी ने यह फिल्म रची है कि उनपे प्यार आता है। 142 मिनट की अवधि हमें इतिहास में रहने का प्रामाणिक अवसर देती है। आजादी के बाद साठ का दशक हैं जमींदारी व्यवस्था का अंत करने की प्रक्रिया चल रही है और बंगाल में मानिकपुर के जमींदार सौमित्र रॉयचौयारी को अब भी यकीन नहीं है कि ऐसा हो जाएगा, उनको यकीन बहुत देर में होता है कि जमाना बदल गया है। उनकी सुंदर बिटिया है पाखी यानी सोनाक्षी सिन्हा और इस किरदार में लगता है कि सोनाक्षी पहली बार अभिनय कर रही हैं। पुरातत्व विभाग का एक कर्मचारी वरूण यानी रनवीर सिंह आता है और कहता है कि इनके मंदिर के नीचे कोई पुरानी सभ्यता है जिसकी खुदाई करनी है। यहां रनवीर और सोनाक्षी का प्रेम तथा सौमित्र बाबू की जमींदारी का ध्वस्त होना साथ साथ रचा है निर्देंशक ने। पुरूलिया में प्राय फिल्म की शुटिंग हुई है, और डलहौजी अपनी स्वाभाविकता में आए हैं। बंगाल का आभिजात्यपन और पूरी ठसक जहां पूरी सौम्यता से आए हैं वहीं डलहौजी अपनी कालनिरपेक्ष सुंदरता के साथ। कुलमिलाकर डलहौजी यूरोपीय आभास देता है।
ओ हेनरी की कहानी द लास्ट लीफ कर छाया और बाबा नागार्लुन की कविता कई दिनें तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास का वाचन करते नायक नायिका फिल्म को को एक खास उचाई तक पहुंचाते हैं। एकता कपूर ने इस फिल्म में पैसा लगाया है जानना सुखद हैरानी वाली बात है। या ये कहें कि खराब काम करके पैसा कमाया जाए और प्रयोग करते हुए अच्छा सिनेमा में निवेश किया जाए, अगर ऐसा है तो वाकई काबिलेतारीपफ है और इस एक फिल्म से एकता कपूर के वैसे कई गुनाह माफ किए जा सकते हैं। और ऐसी फिल्म में निवेश के लिए उनको राजी कर लेना अनुराग कश्यप के लिए आसान नहीं रहा होगा।
अगर यहां यह नहीं कहा सिनेमेटोग्राफर ने कमाल किया है तो बेईमानी होगी। दिव्या दत्ता का होना हाजरी भर है, आदिल हुसैन जितने हैं, अच्छे हैं। आरिफ जकारिया भी उम्दा। अमिताभ भटटाचार्य के गाने यहां भी क्लास वाले हैं। दर्शन से भरपूर, कई बार सिर के उपर से निकल जाते हैं। उडान के बाद विक्रमादित्य मोटवानी ने इस फिल्म के जरिए जोरदार तरीके से खुद को जताया है। क्योंकि एक पीरियड फिल्म के साथ इतना न्याय करना हिंदी सिनेमा में फिलहाल दो चार लोगों के ही बस का है।
चार स्टार

Saturday, January 12, 2013

25 जनवरी



तारीख ही थी कैलेंडर की
मानवता के सुदीर्घ इतिहास में

कभी पूर्व संध्‍या भारतीय गणतंत्र की
कुछ खास नहीं किसी व्‍यक्तिगत इतिहास में
लिखा जाना था कोई मौखिक शपथ पत्र
आयु जिसकी मानकर अनंत

संधिकाल था वह दो दिवसों का
और हो गई संधि, कोई संबंध नहीं द्विपक्षीय !

और तदंतर पर्चियां उडनी थी, उडने थे परखच्‍चे
उस अस्‍थाई भावनात्‍मक जुडाव की
क्‍योंकि 'भावनाएं स्‍थाई नहीं होती' पूर्व कथन था यही तो !

व्‍यर्थ इस भाव को तदापि
स्‍वीकार लेना स्‍थाई
और जोड लेना कोई स्‍थाई साथ।

विश्‍वास और प्रतिबद्धता का आदर्श और यथेष्‍टतम रूप भी निष्‍फल होना था क्‍या ?

मूर्खता चरम
नासमझी परम
और लहजा नरम नरम !

Friday, November 23, 2012

उम्मीद यानी पाई की कहानी

फिल्म इल्म- लाइफ ऑफ पाई

दबंगो और सरदारों के सिनेमा के बीच कुदरत से इतने करीबी रिश्ते की फिल्म में धरती उतनी ही है जितने इस पूरी कायनात में इंसान। यानी निर्देशक स्थापित करता है कि कायनात में हमारा वुजूद कोई बहुत बडा नहीं है, और जीवन और मौत के बीच जिंदगी से प्रेम कैसे होता है..



आंग ली की यह फिल्म भारत से और दक्षिण भारतीय धुनों में रचे गए संगीत में तमिल शब्दों के साथ शुरू होती है तो हॉलीवुड की फिल्म अपनी सी लगते हुए जोडती चली जाती है, समंदर की लहरों पर आगे बढती है। पूरी फिल्म कायनात के साथ इनसानी रिश्तों का ही तानाबाना है। पांडिचेरी में रहने वाले एक परिवार में पिता फैसला करते हैं कि अब वे कनाडा जाकर रहेंगे, पांडिचेरी में रेस्त्रां के साथ जू भी चलाने वाले मुखिया का परिवार जू के कुछ जानवरों के साथ समंदर के सफर पर निकलता है और समंदर के बीच उनका जहाज समुद्री दुर्घटना का शिकार हो जाता है और उसमें केवल लगभग पंद्रह साल का लडका पाई बचता है, समंदर में लाइफ बोट पर उसके रोमांचक सफर की जादुई दास्तान है- 'लाइफ ऑफ पाई' जिसे ऑस्कर विजेता निदेंशक आंग ली शानदार तरीके से रचा है।


पाई बचपन से ही ईश्वरीय खोज(सब धर्मो को जानने का उत्सुक और एक साथ स्वीकार तथा व्यवहार करने का अभिलाषी ) और रूचि का व्यक्ति था, और समंदर के इस सफर में वह लगातार ईश्वर से बात करता चलता है, उसे महसूस करता चलता है। इरफान व्यस्क पाई की भूमिका में है जो लेखक को कहानी सुना रहे हैं, तो एक सूत्रधार की तरह ही पर्दे पर अवतरित हुए हैं, बालक पाई की मां की भूमिका में छोटी सी भूमिका तब्बू की है और पिता के रूप में अदिल हुसैन और दोनों ने ही छोटी भूमिकाओं में खुद का दर्शक के जेहन में संजोकर ले जाने लायक काम कर दिया है। समंदर में तीन जानवरों जिनमें दो जल्दी ही मारे जाते हैं, के साथ लंबे समय तक बंगाली टाइगर के साथ जीवन जीना सीखने और कुदरत के बीच बिना किसी मानवीय साथ के जी लेने की जददोजहद करते दिखाया है। बीच में वह एक अनदेखे और अविश्वसनीय द्वीप पर भी पहुंच जाता है जो दरअसल एक आदमखोर द्वीप है, और जहां नेवले बहुतायत में है।

बुकर पुरस्कार से सम्मानित यान मर्टेल की किताब का यह सिनेमाई रूपांतरण देखते हुए लगातार डेनियल डिफो का पात्र रॉबिंसन क्रूसो याद आता है, जिसमें एक किशोर घर से जिद करके समंदर के लिए निकल पडता है और भटक जाता है और 28 साल एक निर्जन टापू पर गुजारता है। दबंगो और सरदारों के सिनेमा के बीच कुदरत से इतने करीबी रिश्ते की फिल्म में धरती उतनी ही है जितने इस पूरी कायनात में इंसान। यानी निर्देशक स्थापित करता है कि कायनात में हमारा वुजूद कोई बहुत बडा नहीं है, और जीवन और मौत के बीच जिंदगी से प्रेम कैसे होता है, इसकी झलक पूरी फिल्म में है। समंदर में जिस सूत्र के सहारे पाई जिंदा रहता है वह है कि 'उम्मीद कभी मत छोडो', समंदर से बाहर धरती पर भी बेहतर जिंदगी का रास्ता भी यह उम्मीद ही देती है।

Thursday, October 25, 2012

लाल सलाम तो बनता है प्रकाश झा के लिए

फिल्म इल्म -चक्रव्यूह :

फिल्म अपने पूरे मिजाज और तेवर में प्रकाश झा की फिल्म है। राजनीति की कई परतें वे राजनीति और आरक्षण में जाहिर कर चुके हैं, यहां उन्होंने माओवाद, नक्सलवाद, के साथ अप्रत्यक्ष रूप से मार्क्स, लेनिन को जेरेबहस रखा है।

अपने प्रिय अजय देवगन की जगह अर्जुन रामपाल के साथ 'चक्रव्यूह'लेकर आए प्रकाश झा को इसलिए धन्यवाद कहना चाहिए कि वे नक्सलवाद को लेकर बडी चतुरता से अपनी बात कहते हैं। सरकार और देश की बात कहते हुए आदिवासियों का पक्ष भी उसी बेबाकी से कह जाना इस फिल्म को पॉलिटिकली करेक्ट बनाता है। पूरी भव्यता के साथ उन्होंने फिल्म रची है और कहना चाहिए कि दर्शकों के लिए भरपूर मनोरंजन के साथ सार्थक सिनेमा की अपनी इमेज के मुताबिक काम को अंजाम दिया है।

बदलते आर्थिक माहौल में महान्ता नामक मल्टीनेशनल कंपनी के आगमन और पुराने कॉमरेड बाबा यानी ओमपुरी के साथ फिल्म सीन दर सीन दर्शकों के सामने उदघाटित होती है। नक्सलवाद से लडने वाले पुलिस अफसर के रूप में रामपाल से जो काम प्रकाश झा ने करवा लिया है, वह इस फिल्म को प्रामाणिकता देता है। एक्शन सीन तो अपने पेस और संपादन के कारण शानदार बन ही गए है। पुलिस अफसर के दोस्त और आंदोलनकारी युवती के रूप में अभय दयोल तथा अंजली पाटिल की भूमिकाएं और उनके बीच बनता भावनात्मक रसायन पर्दे पर एक खूबसूरत पेंटिग सा लगता है। कहानी में गुंथा हुआ कैलाश खैर की आवाज में महंगाई वाला गीत-'भैया देख लिया है बहुत तेरी सरदारी रे' अपनी लोकसंगीतीय बुनावट के कारण सिनेमा से बाहर निकलकर भी याद रहता है। नक्सली नेता राजन के रूप में मनोज वाजपेयी वैसे ही है जैसे हम उनसे और उनसे काम करवाने के लिहाज से प्रकाश झा से उम्मीद करते है।


फिल्म अपने पूरे मिजाज और तेवर में प्रकाश झा की फिल्म है। राजनीति की कई परतें वे राजनीति और आरक्षण में जाहिर कर चुके हैं, यहां उन्होंने माओवाद, नक्सलवाद, के साथ अप्रत्यक्ष रूप से मार्क्स, लेनिन को जेरेबहस रखा है। कितना कलेजा इस माध्यम में उन्होंने पुरजोर तरीके से यह बात कहने को जुटाया होगा कि भारत का विकास आजादी के बाद असमान रूप से हुआ है और विकास की रोशनी जहां नहीं पहुंची, वहां रोशनी के मीठे पोपले ख्वाब वहां पहुंचे है। अगर आप जाएंगे तो आपको भी लगेगा कि इन सालों में आदिवासी जीवन इस तरह से सिनेमा में शायद ही आया हो। यानी पूरे दस्तावेजी तरीके से पर बेशक मनोरंजन को सिनेमा की कसौटी मानते हुए। यह फिल्म संतुलित तरीके से दोनों पक्षों की बात रखते हुए सच को सच की तरह देखने का नजरिया देती है। और खास बात कि दोनों यानी सरकार और नक्सलवादियों में किसी एक का पक्ष लेते हुए कतई जजमेंटल नहीं होती। और शायद चुपके से यह बात भी कहती है कि सच दोनों के बीच में कहीं है। वैचारिक सिनेमा का पूरे कॉमर्शियल और मजेदार तरीके से आनंद लेना हो तो 'दामुल' और 'परिणति' वाले प्रकाश झा की यह फिल्म आपके लिए है।

Wednesday, October 10, 2012

'सर्वकाले सर्वदेशे'

एक वेब पत्रिका के संपादक मित्र को कविता भेजी थी, उन्होंने इसे अपने यहां प्रकाशित करने लायक नहीं माना, उनके निर्णय का सम्मान करता हूं, लिहाजा बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर एक कविता जारी की है, मुलाहिजा फरमाएं -



प्रेम को बचा लेना साधना है
अन्यथा उड जाएगा कपूर की तरह
प्रेम को सहेजना एक कला है- जीवन की जरूरी कलाओं में से एक !
वरना बेनूर हो जाएगा सारा का सारा वजूद
और अखिल चराचर जगत में विचरण भूत योनि में जैसे कई धर्मशास्त्र कहते हैं!

प्रेम की जरूरत कब होती है दैहिक फकत
प्रेम होता है जीना साथ - कभी खयालों में, कभी हकीकत में !

जीवन के अरण्य में प्रेम के पुष्प सायास नहीं उगते
वे खरपतवार की तरह होते हैं
और ऐसी खरपतवार जो सिखाती है - रंगों की पहचान और मौसमों की अहमियत !

प्रेम का कोई अर्थशास्त्र नहीं होता, सामाजिकी भी कोई नहीं
प्रेम की राजनीति सबसे विचित्र ज्ञान !

दो जिस्मों की आदिम अकुलाहट भर नहीं होता प्रेम!

प्रेम रहता है फिर भी अपरिभाषेय सर्वकाले सर्वदेशे !

प्रेम रहता है हमेशा केवल जीने के लिए
प्रेम को पाना और जी लेना कुदरत की वह नियामत है जो कुदरत अपने बहुत प्रिय प्राणियों को उपहार में देती है।

किसी नदी में बहते हुए आ जाता है पुष्पसमूह के मध्य कोई दीप
जुगनू भर आभा से चमकता है नदी का वह छोर- आत्म मुग्ध और आत्म संतुष्ट !
वायुवेगों की चंचलताओं के बीच बचा लेना उस दीप की वो अस्मिता
चुनौती स्वरूप उपस्थित होती है
कोई निर्धन माझी लगा सकता है अपना जीवन दांव पर उसके लिए
जिसके पास नहीं होता जीवन के सिवा कुछ भी दांव पर लगाने के लिए।

जीवन में अनंत दुसाध्य कष्टों के बावजूद

प्रेम को संभव बना लेना
रहेगा सबसे बडा कौशल और सबसे बडी विजय भी, तमाम पराजयों के साथ।

प्रेम किसी निर्जन मरूस्थल का वह छोर भी हो सकता है
जहां से आगे जीवन संभव ही नहीं होता।

किसी किसान के खेत में साप्ताहिक सिंचाई के ऐसे अवसर सा हो सकता है प्रेम
जो क्षण भर की किसी चूक से किसी और के खेत को सींच दे संपूर्ण !

प्रेम रहेगा जी लेने के लिए
फिर भी हर सदी, हर देश।

Wednesday, July 25, 2012

साधारणता के नायकत्व का दुर्लभ प्रतिमान

ऐसी किस्मत कितने लोगों को मिलती है कि उनकी पहली ही फिल्म ”आखिरी खत” ऑस्कर के लिए नामांकित की गयी थी। क्या हमें नहीं मान लेना चाहिए कि अमिताभ का उदय राजेश खन्ना का अंत था और अब उनकी देह का अंत हुआ है। देह का अंत ज्यादा मायने नहीं रखता … कलाकार का जिंदा होना या मरना उसके काम से ही होता है। उनके किरदार और सिनेमा जिंदा रहेंगे, जैसे उनके सुपरस्टारडम के अंत के बाद भी अब तक जिंदा रहा है!!



पर्दे पर मोहक दिखता यह नायक कितने ही कथानकों में गुलशन नंदा (जिनके बेटे राहुल नंदा पब्लिसिटी डिजाइनर के तौर पर आज के नायकों की छवियों रचते हैं) के उपन्यासों से रचा गया था (जैसे कटी पतंग और दाग)। दबे छुपे जो बाहर आया है, उसके आधार पर कहना जरूरी है कि अराजक जीवन ने लाखों दिलों में रहने वाले नायक को केवल 69 साल की उम्र में छीन लिया … ऐसे नायक को क्या ये हक होता है कि कुछ फिल्मों की असफलता से टूटकर अपने चाहने वालों को भूलकर जीवन को अराजक बना दे? मेरी जिज्ञासा है कि वे पुरुष केंद्रित उद्योग में सितारों के चरम अराजक व्यवहार की परंपरा के सूत्रधार नहीं कहे जाने चाहिए क्या?

मुझ जैसे कितने ही लोगों की परवरिश दूरदर्शन पर शनिवार और रविवार को राजेश खन्ना की फिल्में देखकर हुई होगी और बेशक हमें उन फिल्मों का रिलीज होना और पर्दे पर देखना नसीब नहीं हुआ, पर मैंने उनकी जो एक मात्र फिल्म पर्दे पर देखी, वह थी – ”नजराना” (वो भी गुलशन नंदा की कहानी पर आधारित थी) और उसका एक गाना बहुत मशहूर हुआ था – ”मैं तेरा शहर छोड़ जाऊंगा” … वो अब जब ये दुनिया छोड़ गये हैं, याद तो वे आएंगे, बहुत आएंगे।

बेशक राजेश खन्ना ने लोकप्रियता का चरम देखा, पर मेरी राय है कि अभिनय के क्लासिक मापदंडों पर वे बहुत साधारण थे। महान उन्हें शायद ही कहा जा सकता है। इस लिहाज से साधारणता के नायकत्व का दुर्लभ प्रतिमान हैं राजेश खन्ना!

बार-बार कहा जाता है कि सिनेमा एक सामूहिक कला है। कौन असहमत होगा कि किशोर कुमार और आरडी बर्मन के बिना इस सुपर स्टार का आकार लेना मुमकिन ही नहीं था!! यानी जिन लोगों का साथ उन्हें मिला, उस लिहाज से भी वो किस्मत के शेर थे! और यह भी पुरजोर पुन: स्थापित होता है कि च्युत नायकत्व को भी सम्मान देना भारतीय परंपरा है।

जरूरी नहीं कि जीवन मूल्य किसी धर्म या परंपरा से आएं, पर वो किसी इनसान के जीवन में होने चाहिए। राजेश खन्ना के जीवन में एक ही मूल्य था – आभासी नायकत्व और उसे कायम रखना। यह ज्ञात और कुख्यात है कि घोर अराजक और विलासी जीवन राजेश खन्ना ने जिया है। क्या यह काला सच नहीं है कि वो अपने अहम और स्टारडम की कंदराओं से ताउम्र बाहर नहीं निकले। बाबू मोशाय को लेकर दिये बयान बताते हैं कि वे किस कदर आत्ममुग्ध थे, ईष्यालु थे, असहिष्णु थे। चाहे इसे गॉसिप और संघर्षशील अभिनेत्री का स्टंट कहकर खारिज कर दें, पर याद करना जरूरी है कि उन पर भी बलात्कार का आरोप लगा था और जिसे एक स्टार के मीडिया प्रबंधन के उदाहरण के तौर पर दबाने के किस्से मशहूर हैं।

ये सवाल प्राय: हमारा आधुनिक समाज व्यक्तिगत कहकर नहीं पूछेगा कि अंजू महेंद्रू से ब्रेकअप क्यों हुआ? क्यों डिंपल अलग हो गयीं? क्यों जीवन संध्या में उनकी अंतरग हुई महिला ने उनसे शादी नहीं की? पर्दे पर आदर्श रोमांटिक नायक जीवन में आदर्श प्रेमी नहीं बना, क्या समाजशास्त्रियों को नहीं सोचना चाहिए!!! ऐसे प्रेमिल परदाई नायक के लिए आहें भरने वाली, खून से खत लिखनेवाली, निर्जन स्थान पर खड़ी नायक की कार पर चुंबनों से प्रेम-कविता रचने वाली, डिंपल से विवाह पर आत्महत्या करने वाली लड़कियां अपने जीवन की प्रौढ़ अवस्था में अपनी आंखों की भीगती कौर के साथ सोचती होंगी – ”क्या वो ऐसे आभासी – कागजी नायक से प्रेम करती थी! कितना बेवकूफाना था – वो प्रेम या आकर्षण !!” यानी वास्तविक जीवन में राजेश खन्ना नहीं जानते थे कि सच्चा प्रेम रोमांस, जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता का समेकित रूप है … या कहा जाए कि उनके लिए प्रेम रोमांस भर था!!

जब पूरा मीडिया एक फैन का सा व्यवहार कर रहा है, मेरी आपसे इल्तिजा है, मेरी टिप्पणी को मौत के बाद की गयी आलोचना नहीं, निष्पक्ष मूल्यांकन की एक कोशिश माना जाना चाहिए।

Monday, May 21, 2012

गुजरा हुआ जमाना, आता नहीं दुबारा


हर आदमी का अपना इतिहास होता है, कभी गौरवपूर्ण कि हम बार-बार चिल्लाके बताना चाहें तो कभी छुपानेलायक कि बचते रहें। यही देशों और सभ्यताओं के साथ होता है। यह परिपक्वता और सहनशीलता पर है कि हम समय के साथ हर चीज को जैसी वह थी, बिना भावुक हुए अपने स्वरूप में स्वीकारना सीख जाएं।

अतीत यूं भी सताता है, अतीत आपको कभी नहीं छोड़ता, अतीत खुद को दोहराता है, अतीत यानी इतिहास को लेकर कितने ही मुहावरे हम में से हर किसी की जुबान पर रहते हैं। मसलन, इतिहास दोहराने की बात ही सच होती तो इब्ने इंशा साहब को क्यों कहना पड़ता कि झूठ है सब तारीख हमेशा अपने को दोहराती है, अच्छा मेरा ख्वाबेजवानी थोड़ा सा दोहराए तो। कोई साठ साल पहले छपा कार्टून फिर जिंदा हो गया, यह किसी कलात्मक चीज का कालजयी होना था क्या? यकीनन नहीं, यह दरअसल परीक्षा थी, कई मायनों में परीक्षा और इसमें हम सब फेल हुए या पास यह तय करने का फैसला आप पर ही छोड़ता हूं। साधारण अर्थों में अतीत की जकडऩ में वर्तमान का आ जाना ही कह सकते हैं इसे ...पर बात इतनी सी नहीं है, बजाहिर बात इतनी सी होती तो कोई खास बात थी भी नहीं। इसके मायने और सरोकार कहीं बड़े हैं।

हमारे आसपास बहुत कुछ घटता है, सब कुछ क्या इतिहास में दर्ज होने लायक होता है, कौन दर्ज करेगा? दर्ज करनेवाला क्या वस्तुनिष्ठ रहेगा? उसके खुद के आग्रह क्या बीच में नहीं आएंगे? वह भी तो इनसान है, उसके सुख, दुख, दोस्तियां, दुश्मनियां भी तो उसके साथ ही रहेंगी। समय के साथ उसमें चाटूकारितांए और राजनीतिक जरूरतें भी शामिल हो जाती हैं और तब इतिहास इतिहास नहीं रहता, जरूरत के मुताबिक अतीत का पक्षविशेष तक सीमित कोई दस्तावेज भर ही तो रह जाता है।


इसे हम क्या कहेंगे कि जिनको कार्टून का पात्र बनाया गया था, उनकी भावनाएं तो उस वक्त आहत नहीं हुईं, अब उनके झंडाबरदारों की भावनाएं इतनी नाजुक हैं कि पूछिए मत।अगर कोई इस संसार से परे का संसार होता है तो उसमें बैठे नेहरू, अंबेडकर सोच रहे होंगे कि यार हमने तो सोचा ही नहीं, हम क्या मूर्ख ही थे। क्या इसे अतीत और प्रकारांतर से हमारे व्यवहार में सहनशीलता की घटती प्रवृति को नहीं देखना चाहिए। या तो हम यही मान लें कि अतीत को चिकना चुपड़ा धो-पोंछकर ही सामने लाया जाएगा, तो फिर वह अतीत की परिभाषा कि इतिहास यानी जैसा था से तो कहीं परे हो ही जाएगा। हालांकि हर समय में प्रायोजित इतिहास के बरक्स छोटी छोटी कोशिशें होती हैं जो झूठे इतिहासों को कठघरे में खड़ा कर देती हैं, और शायद यही डर झूठा इतिहास लिखने वालों को भी रहता है कि कहीं कोई खब्ती लेखक, कवि, पत्रकार अपने समय का सच्चा दस्तावेजीकरण कर रहा होगा, बकौल हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स -झूठ को सौ बार दोहराओ कि वह सच बन जाए, झूठा इतिहास रचने वाले बार-बार अपने तथाकथित इतिहास को अलग-अलग रूपों में रच और पेश करके उसे स्थापित करते रहते हैं।


यहां हम आपको याद दिला दें कि इतिहासकार ई एच कार ने कहा था -इतिहास अपने आप में उसके तथ्यों और उसके बीच की अंतक्रिया है, इसलिए इतिहासकार को इस बात की इजाजत दी जानी चाहिए कि वह अपने समय और पूर्वाग्रहों से सर्वथा मुक्त ना हो पाए ...और ईएच कार के इस खयाल की वजह शायद यह रही होगी कि इतिहासकार अपने वक्त की जमीन पर खड़ा होके ही अपनी आंख से अतीत को देखता-परखता है, वह उससे मुक्त कैसे हो सकता है? पर केवल भावानाएं आहत होने से वोटबैंक पर मंडराते खतरों से घबराए लोग तो इतिहासकार नहीं है और इतिहास की बुनियादी समझ भी उनमें से बमुश्किल पांच-सात लोग ही रखते होंगे।

आप सहमत होंगे कि हर आदमी का अपना इतिहास होता है, कभी गौरवपूर्ण कि हम बार-बार चिल्लाके बताना चाहें तो कभी छुपानेलायक कि बचते रहें। यही देशों और सभ्यताओं के साथ होता है। यह परिपक्वता और सहनशीलता पर है कि हम समय के साथ हर चीज को जैसी वह थी, बिना भावुक हुए अपने स्वरूप में स्वीकारना सीख जाएं। उदाहरण के तौर पर हमारे हमजाद और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में इतिहास पढ़ाते समय शायद यह भावना प्रबल रहती है कि वह पांच हजार साल की परंपरा के इतिहास से खुद को अलग ही दिखाए, साथ दिखाना कई राजनीतिक परेशानियों में डालता होगा। ये सहनशीनता उधर कभी आ पाएगी, दुआ तो करते हैं, पर उम्मीद जरा कम है।


इसी तरह, गांधी को लेकर समय-समय पर तथाकथित नई-नई चीजें सनसनी के रूप में पेश करने का फैशन भी रहा ही है, वह भी इतिहास को देखना है ...मैं इसे बुरा नहीं मानता, ज्ञात तथ्यों की नई व्याख्या और अज्ञात या कम ज्ञात तथ्यों को खोजना और पेश करना ही इतिहास का पुनर्लेखन होता है। किसी व्याख्या से आहत होकर यहां भी सत्य तक नहीं पहुंच सकते। यहां कहना जरूरी है कि जिन दिनों में भारतीय लोकतंत्र की प्रतीक संसद क ी पहली बैठक के साठ साल पूरे हुए हैं, लगभग उन्हीं दिनों में ऐसा वाकया होना कमाल ही नहीं उन लोगों के सठियाने का आभास देता है जिनके कांधों पर देश की लोकतांत्रिक परंपरा और करोड़ों के जनविश्वास की बड़ी जिम्मेदारी है। हमारे राष्ट्रीय नायकों के प्रति अंधमोह के स्थान पर उन्हें मानव और मानवीय कमजोरियों से युक्त प्राणी मानकर देखने की आदत और प्रवृति की अहमियत को कतई खारिज नहीं कर सकते। आखिर में शाइर निदा फाजली के शब्दों में एक गुजारिश- गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो, जिसमें खिले है फूल वो डाली हरी रहे।
आमीन।

Wednesday, April 11, 2012

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात..




पुरानी दिल्ली में बल्लीमारां की उन पोशीदा सी गलियों से तकरीबन पंद्रह सौ किलोमीटर की दूरी पर महाराष्‍ट्र में एक जगह है शोलापुर, वहां कुछ वर्दीधारी लोगों को यह इलहाम हुआ है कि चाचा का एक शेर तो इन्कलाबी है- ''मौज- ए- खूं सर से गुजर ही क्यों न जाए , आस्तान-ए-यार से उठ जाएं क्या! '', इसमें साफ- साफ तौर पर बगावत की बू आती है, बगावत भी क्या हुजूर, दहशतगर्दी की !



गालिब का एक मशहूर शेर है कि ''पूछते हैं वह कि गालिब कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या!'' आज फिर गालिब की पहचान जेरेबहस है और रात गालिब ख्वाब में आए और बोले -'मियां, मैं गालिब हूं, मेरा यकीन करो मैं आतंकवादी नहीं हूं।' माजरा आपकी निगाह में आ गया होगा, फिर भी सहाफत का तकाजा है, जरा संक्षेप में अर्ज कर दूं कि चचा गालिब के एक शेर की बिना पर किसी को आतंकवादी ठहराने का करिश्मा अंजाम दिया जा रहा है। इस शेर के आधार पर सिमी के एक कार्यकर्ता पर यह आरोप लगाया है। वह आतंकवादी है या नहीं और सिमी की गतिविधियां ठीक हैं या नहीं, यह हमारी बहस का सवाल नहीं है, उन्हें कुसूरवार या निर्दोष तो कानून साबित करेगा। पुरानी दिल्ली में बल्लीमारां की उन पोशीदा सी गलियों से तकरीबन पंद्रह सौ किलोमीटर की दूरी पर महाराष्‍ट्र में एक जगह है शोलापुर, वहां कुछ वर्दीधारी लोगों को यह इलहाम हुआ है कि चाचा का एक शेर तो इन्कलाबी है- ''मौज- ए- खूं सर से गुजर ही क्यों न जाए , आस्तान-ए-यार से उठ जाएं क्या! '', इसमें साफ- साफ तौर पर बगावत की बू आती है, बगावत भी क्या हुजूर, दहशतगर्दी की ! तो साहिब जिस शेर के मानी यह हैं कि चाहे खून की लहर ही हमारे सिर के उपर से गुजर जाए, हम तो अब ये दर, महबूब का दरवाजा नहीं छोडेंगे यानी चाहे सर कलम हो जाए ...के उन आलिमों फाजिलों ने क्या- क्या मानी निकाल लिए हैं। अरे, प्रो. सादिक साहब, गोपीचंद नारंग साहब और हिंदुस्तान के तमाम उर्दू शाइरी के तनकीदनिगारो ! आप सुन रहे हैं क्या ! इन नए वर्दीवाले आलोचकों का स्वागत कीजिए, हमारे साहित्य की नई व्याख्याएं हो रही हैं।


उर्दू और फिर पूरी दुनिया की शाइरी को इशारे का आर्ट या फन माना जाता है। इशारे में कही गई बात के मानी कई कई खुलें, यह शाइरी की ताकत मानी जाती है। पहली बात तो यह कि इस शेर के बहुत सारे मानी है नहीं.. और जो है वह बलिदान के तो हैं (चाहे प्रेमिका के लिए, देश के लिए या कौम के लिए), मारने के नहीं। यानी ठीक वैसे ही जैसे महात्मा गांधी भारत छोडो आंदोलन के समय इसी महाराष्‍ट्र में मुम्बई के अगस्त क्रांति मैदान में (जो नाम इस घटना के बाद दिया गया था) कहते हैं- 'करो या मरो '। उसमें 'मारो' शामिल नहीं था, इसका अर्थ था -आजादी की राह में आगे बढें और करना पडें तो जान दें दे।


इत्तेफाक देखिए कि हमने जहां से बात शुरू की वह शेर- ''पूछते हैं वह..'' भी इसी गजल का है। बहरहाल शाइरी की बात ना करें सियासत की कर लें, कहना चाहिए कि यह जल्दी का बयान है, कुछ वक्त बाद बयान बदल जाएंगे, फिलवक्त तो यही है। वैसे गौर करें तो चाचा गालिब का दौरे सुखन अंग्रेजों का दौर था जैसे भगतसिंह का दौर था, नजरूल इस्लाम का दौर था। हालांकि ये बात ओर है कि बहुत खुल के चाचा गालिब ने अंग्रेजों की मुखालफत कम ही की या कहें ना के बराबर ही की तो चाचा किस के खिलाफ दहशतगर्दी करते, प्रेम में प्रेमिका के लिए करते या जमाने के खिलाफ एक आम लेखक के तरह से जैसे हर लेखक बुनियादी तौर पर एंटीएस्टाब्लिशमेंट का एटीटयूड रखता है।


उन्होंने फारसी में कहा है कि ''आराइश-ए-जमाना जि बेदाद करद: अंद, हर खूं कि रेख्त गाज-ए- रू-ए-जमीं शनास'' यानी जमाने का सिंगार अत्याचार से किया गया है और जो भी खून बहाया गया है, यह धरती का अंगराग बन गया है। अफसोस भरे लहजे में ऐसा लिखनेवाला शाइर दहशतगर्दी की परस्ती कर सकता है क्या? उनके कितने ही शेर इनसान को दुनिया या कायनात का मर्कज यानी केंद्र घोषित करते हैं। कभी कभी हमें यह सोच लेना चाहिए, वैसे भी महंगाई के जमाने में यही काम बचा है जो अब भी निशुल्क संभव है, सोच की कोई इंतिहा भी नहीं होती.. तो सोचना का नुक्त- ए- नजर यह है कि चाचा गालिब को फिरकापरस्त भी नहीं कह सकते, दहशतगर्द कहना तो बहुत दूर की बात है, मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरी बात से इत्तेफाक रखेंगे।


वैसे मैं यह भी मान लेता हूं कि अदब यानी साहित्य के मरहले ऐसे हैं कि 'या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात'...यह भी चचा ने कहा था तो उनकी बातों को कौन समझता है, कौन समझेगा! चाचा को भी पता था, है ना! जाहिर सी बात है कि कहने और समझने का फासला हमारे समय में बढ रहा है यह मान लेना चाहिए पर यह हमारे वक्त की पैदाइश है, ऐसा तो हरगिज नहीं कहा जा सकता। कहने और समझने के बीच इत्मीनान से सुनने अदब और एहतराम से सुनने का बडा जरूरी मकाम है, और जीवन की आपाधापी तथा अहम के पहाड जब इतने उतिष्ठ हो जाते हैं तो चिल्लाना भी बेमानी हो जाता है, धीरे से कान में की गई फुसफुसाहट सुन जाए तो करिश्मा होगा। शेरों और कविताओं मे अपनी बात कहना उसी फुसफुसाहट जैसा है, ये सरगोशियां बेमानी ना हों आओ कुछ ऐसा करें। गालिब के ही हमशहरी दाग देहलवी के शब्दों में कहें तो 'चल तो पडे हो राह को हमवार देखकर, यह राहे शौक है सरकार देखकर।


अकसर यह भी होता है कि किसी अदीब को उसके गुजरने के बाद जाना- समझा जाता है इज्जत दी जाती है। गालिब को तो गुजरे भी जमाना हो गया, अब तो उसे हम कायदे से समझ लें पर साहिब जिस दौर से गुजर रहे हैं, वहां अपनी तहजीबो रवायत के कर्णधारों - विचारकों, चिंतकों, कवियों, लेखकों को सबसे गैरजरूरी मान लिया गया है तो बाकी सब रास्ते और मंजिलें भी तो वैसी ही होंगी। इस बात पे अगर आज फिर चचा गालिब अगर मेरे ख्वाब में आए तो माफी मांगते हुए उन्हीं के शब्दों में कहूंगा कि '' हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है, वो हर एक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता'' ।

Tuesday, January 24, 2012

विदाई का गीत





ए जाते हुए लम्हों जरा ठहरो...जरा ठहरो


सिगरेट के धुएं के छल्ले, कुछ खुशबूएं, कुछ मादक गंध, कुछ प्यारे से- चिकने- चुपड़े चेहरे याद रह जाएंगे, कुछ सितारे यादों में बसे रह जाएंगे, कुछ शब्द जेहन में चिपक के कुछ दिन हमसफर रहेंगे।


बेशक ये दोपहर थी, पर सांझ के कुछ बदमिजाज और जिददी साए जनवरी की धूप में शामिल होकर इतरा रहे थे, लहरा रहे थे। ये आखिरी लंच था इस साल के फेस्ट का, देख पा रहे हैं कि गोविंद निहलानी अकेले अपनी साफ शफाफ सी प्लेट में करीने से छोला- पुलाव डाल रहे हैं, उनके चेहरे के भाव उनकी फिल्मों की तरह हैं। राजस्थान में उनका बचपन गुजरा है, उत्सव के बहाने यहां होना और इन लम्हों को सहेज लेना उनके लिए मुश्किल नहीं है, सीन दर सीन एक निर्देशक की आंखों में दर्ज हो रहे हैं। मैं पूछता हूं-' आखिरी दिन है, कैसा लग रहा है?', मुस्कुराहट के सिवा कुछ नहीं कहते। बीतते लम्हों की कसक का बयान या तो आंसू करते हैं या मुस्कुराहट।

माहौल में अभिजात्यता है, गंध में कितनी देशी- विदेशी गंध शुमार हैं, इसकी गिनती बहुत मुश्किल है, गंध में एक गंध शब्दों की है, बातों की है, जो बीत गया है उसकी है, जो ठहर गया है, उसकी है। आखिरी दिन से पहले की शाम की संगीत लहरियों में पार्वती बारूआ के बाद राजस्थानी यूजन की याद नीलाभ अश्क की बातों में अब भी घुली हुई है। उनके साथ बैठे ऑस्टे्रलियन पेंटर डेनियल कॉनेल के मुंह से हिंदी में निकला- 'जयपुर चमक रहा है।' यह चमक- दमक है, इसमें महक भी है, यह वह जयपुर अब नहीं है, दिल्ली से आए छात्राओं के समूह में से एक छात्रा से बात करता हूं, पता चलता है कि उनके मन में क्या है, उनका मन है-''इसे महीने भर का होना चाहिए।'' यह इनसानी मन है, जो भरता नहीं है, भरने की कोशिश में और रीतता जाता है, प्यास बढती जाती है।

किताबों की दुकान पर मेला है, किताबें देख रहे है, खरीद रहे हैं, लगता है दुनिया बस किताबों सी सुंदर हो जाने वाली है, एक लेखक प्रकाशक गेट पर जाते हुए मिल गए, जावेद अख्तर की किताब 'लावा' के विमोचन की बेला की चमक उनकी आंखों में जिंदा है, जाते हुए उनके कदम ठिठक रहे हैं, शायद गुलजार के लफजों में 'रुके रुके से कदम, रुक के बार- बार चले'।

रूश्दी नहीं आए, नहीं बोल पाए, उनके विचार गूंजते रहे जैसे किसी भी कलमकार के होते हैं। सिगरेट के धुएं के छल्ले, कुछ खुशबूएं, कुछ मादक गंध, कुछ प्यारे से- चिकने चुपड़े चेहरे याद रह जाएंगे, कुछ सितारे यादों में बसे रह जाएंगे, कुछ शब्द जेहन में चिपक के कुछ दिन हमसफर रहेंगे। अगले साल इन्हीं दिनों तक, नए मजमें के सजने तक ये लम्हे यादों के एलबम में रह जाएंगे। सबके लबों की दुआ लौट-लौट कर आते कदमों की आहट में घुली हुई सी है कि वक्त ठहर जाए, यहीं कहीं।

Saturday, January 14, 2012

कविता जैसा कुछ


जिंदा लाशें जश्न मनाती हैं


किसी के साथ ना होने से कोई नहीं मरता
ऐसी बातें अच्छी लगती हैं पर सच्ची नहीं होतीं कि -
''जैसे मर जाएंगे हम एक दूसरे के बिना या जिंदा लाश ही हो जाएंगे हम ''
जिंदा रहते हुए मर जाना भी कोई खयाल होता है किताबों में
मर कर जिंदा रहने का जैसे
मरते हुए जिंदा रहते हुए मौत को याद करता भी एक शाइराना खयाल हो सकता है देवदास सा
देवदास का खयाल भी तो किताबी सा है !
प्रेम में जिंदा हो जाने या नई जिंदगी भर देने जैसे महान खयाल भी तो देते हैं शाइर- कवि लोग
भूल जाते है वे खुद भी कि साथ बनाता है जिंदगी को जिंदगी सा
और साथ छूटना भी जिंदगी को संभव अगर किसी तरह तो हम क्यों झूठ बोलते हैं खुद से ही कि नहीं रह पाएंगे तुम्हारे बगैर!
रह लेते हैं, जी लेते हैं, सह लेते हैं खुश भी ...और खुश भी इतने कि कभी कभी लगता है कि ये हंसी ये खिलखिलाहट तो तब भी नहीं थी जब खुश थे, साथ के अहसास के साथ दोनों !
जीना हर हाल में संभव हो जाता है, जिंदा लाशें जश्न मनाती हैं !!

Tuesday, December 6, 2011

उत्तर और दक्षिण के बीच पुल




'' वाय दिस कोलावैरी डी '' ....सामान्य अर्थो में यह एक प्रेम गीत है प्रेमिका के अस्वीकार को जानलेवा स्तर पर भोगने की अभिव्यक्ति का गीतात्मक रूप - प्रेम में रिजेक्शन या अस्वीकार का भाव देवदास में भी है, पर यहां उसका आवेग कुछ अलग है।


संभव है आप में से बहुत से लोगों ने ना सुना हो -  '' वाय दिस कोलावैरी डी '' पर यह हमारे समय की एक आवाज है जिसकी गूंज भौगोलिक विस्तार में इतनी व्यापक हो जाएगी। इसके पीछे के लोगों ने भी नहीं सोचा होगा। यह कल्पनातीत सा है कि कोई इतनी तेजी से भारतप्रसिद्ध हो जाए, इतने कम समय में पर यह हुआ है और हम इसके घटित होने के गवाह बने हैं.। तथ्यों के रूप में कहूं तो यह गीत 16 नवंबर को यूट्यूब पर जारी हुआ था और अब तक इसे एक करोड़ पांच लाख 59 हजार 994 मर्तबा सुना गया है। भाषा के बंधन तोडते हुए गाना उत्तरी भारत में भी उतना ही सुना जा रहा है, युवाओं ने उसे रिंग टोन और हैलो टयून के रूप में हाथों हाथ लिया है। इसे गाया है धनुष ने, धनुष रजनीकांत के दामाद हैं, फिल्म है तीन और फिल्म का लेखन निर्देशन धनुष की पत्नी और रजनीकांत की बेटी ऐश्वर्या आर ने किया है. यह निर्देशक के तौर पर उनकी पहली फिल्म है,  संगीतकार है - इक्कीस साल के अनिरूद्ध रविचंद्रन, गीत लिखा भी धनुष ने ही है।

सामान्य अर्थो में यह एक प्रेम गीत है प्रेमिका के अस्वीकार को जानलेवा स्तर पर भोगने की अभिव्यक्ति का गीतात्मक रूप - प्रेम में रिजेक्शन या अस्वीकार का भाव देवदास में भी है, पर यहां उसका आवेग कुछ अलग है। सामान्यतः नायक किसी भी फिल्म या नाटक में नायिका को पा ही लेता है, अस्वीकार को स्वीकार में बदलना पटकथा में नीहित होता है। इस लिहाज से कोलावैरी डी हमारे समय के स्त्री विमर्श का वह सशक्त रूप है कि अस्वीकार उसका भी अधिकार है और जबरन उसका साथ हासिल नहीं किया जा सकता, चाहे आपका प्रेम कितना भी तीव्र और प्रगाढ क्यों ना हो। उसे करूणा और तात्कालिक किसी और भाव से भी नहीं जीता जा सकता, अगर उसमें स्वतः ही प्रेम का भाव नहीं है तो कुछ नहीं हो सकता। कहने को कहा जा सकता है कि स्त्री हमेशा से इतनी आजाद तो रही ही है पर साहेब फिल्म या कथा में इतनी आजादी उसे अपवाद स्वरूप ही मिली है …. इसे इस रूप में लेना चाहिए।

महानता के खयाल को अलग रखकर एक बार जरा हम लोकप्रियता और भौगोलिक विस्तार के लिहाज से देखें तो अखिल भारतीय स्तर पर ऐसी स्वीकार्यता के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। सबसे बडा अर्थ क्या यह नहीं है कि शताब्दियों से अलग अलग रूप में परिभाषित किए गए उत्तर दक्षिण के भेद को एक बार फिर बहुत मजबूती से एक सांस्कमिक पहचान ने पाट दिया है, वह है संगीत। बार बार कहा गया है कि संगीत की कोई जुबान नहीं होती पर उत्तर और दक्षिण के संगीत के अंतर को हम जानते पहचानते समझते रहे हैं। लोकप्रिय संगीत के रूप में एआर रहमान हमारे पास हैं पर वे जब बॉलीवुड में होते हैं तो पूरी तरह बॉलीवुड के ही होते हैं, प्रकटतया इस प्रकार का पुल उन्होंने शायद ही बनाया हो या यह कह दिया जाए कि ऐसे पुल सायास नहीं बनते है।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले फिल्मों में उत्तर दक्षिण के बीच पुल जैसा काम नहीं हुआ, कमला हसन की फिल्म एक दूजे के लिए आपको याद ही होगी। फिर तो ''आपडिया'' और उसके जवाब में ''जैसे सब समझ गया'' संवाद भी याद होगा! यूं सामान्यत दक्षिण भारतीय पात्र बॉलीवुड की फिल्मों में मसखरे से ही आते हुए लगते हैं।

राजनीतिक इकाई के तौर पर हम देश हैं और धीरे धीरे एक देश का भाव हम में विकसित भी हुआ है, और इसमें ऐतिहासिक रूप से भारत की विरासत का भी योगदान है कि हम देश के रूप में मानते और स्वीकार करते हैं, दक्षिण भारत सामान्यतः इडली डोसा के रूप में याद आए या हर दक्षिण भारतीय कमोबेश पहली नजर में मद्रासी लगे, यही तो सामान्यीकरण है, जो दशकों से उत्तर भारतीयों में व्याप्त है।

ये उत्तर और दक्षिण के मिलन का समय है, घोटालों के जरिए डी राजा, कनिमोझी जैसे कुछ नेता लोग उत्तर भारतीयों में जाने जाते हैं । रजनीकांत के जोक हम सब के मोबाइलों में आते-जाते हैं, सिल्क स्मिता की कहानी ''द डर्टी चिक्चर'' हमें हमारे आसपास की कहानी लग रही है, और उत्तर दक्षिण के मेल के रूप में कोलावरी का नवीन निगम का गाया वर्जन भी लोकप्रिय हो रहा है।

संदर्भ आ ही गया है तो बता दें, चेतन भगत का उपन्यास ''टू स्टेटस'' दिल्ली और तमिलनाडु के लेखक दपत्ति की कथा से प्रेरित है, चाहे उसे हम लेखकीय मानको पर खारिज ही क्यों न कर दें, इस पर विशाल भारद्वाज फिल्म भी बना रहे हैं, खुदा खैर करे!! राजस्थानी होने के नाते हम जानते हैं कि कितने ही राजस्थानी दशकों से दक्षिण में व्यवसाय कर रहे हैं, इस समय यह बढ गया है लोग नौकरी के लिए वहां जा रहे हैं... हम आपके पारिवारिक करीबी कितने ही युवा बैगलोर से लेकर चेन्नई तक हैदराबाद से लेकर दूसरे शहरों में खुशी से जीवन जी रहे हैं, सरकारी नौकरियों के अलावा ऐसा ऐच्छिक पलायन सभी संतुष्टियों नहीं तो कम से कम अधिकांश के साथ ही हो सकता है.. यह तो आप भी मानेंगे ही! हमें खुश होना चाहिए कि देश के बीच की दूरियां मल्टीपल लेवल पर कम हो रही है, समाप्त प्राय हो रही हैं, पिछली पीढी में नौकरी के नाम पर कम से कम कहा ही जाता था कि खाने से लेकर भाषा तक की दूरियां कहां जीवन को सरल सुगम होने देंगी!

भारत जैसे महादेश के लिए यह स्वाभाविक है कि हम इतने तहजीबी और भाषाई अंतरों के साथ एक ही देश में सांस लेते हैं …... विध्य के पार का भारत भी अपना ही है। आर्यो और द्रविडों का भेद अब उतना नहीं रह गया है, यह भेद अभी और कम होगा, ये संपर्क अभी और बढेगा। यकीन मानिए! आने वाले समय में बहुत प्रेम होगे और बहुत प्रेमविवाह भी, हमारे घरों में उत्तर दक्षिण का यह मेल सुबह शाम, आठो पहर महसूस होगा।

Tuesday, November 29, 2011

भला, ऐसे भी कोई जाता है !




छिन्नमस्ता नामक उपन्यास के साथ उनके पहला परिचय लेखिका के रूप में हुआ था, फिर उनकी बहुत सी कहानियां और उपन्यास पढ़े, सब हिंदी मे ही, ज्यादातर के अनुवाद पापोरी गोस्वामी के रहे है। उन्हें मैंने बताया था कि इत्तेफाक है कि हिंदी में छिन्नमस्ता जिसे प्रभा खेतान ने लिखा था, और असमी में छिन्नमस्ता लिखने वाली दोनों लेखिकाओं का स्नेहपात्र हो गया हूं तो बोलीं - किसके ज्यादा हो ? मैंने कहा -सामने कह रहा हूं पर सच है कि आप ही।


इंदिरा गोस्वामी ने कविताएं शायद ही कभी लिखी जैसे भूपेन हजारिका के लिए- ''मैं अपनी मातृभूमि की तस्वीर नहीं बना सकती तुम्हारी आवाज के बिना। ''



इंदिरा गोस्वामी यानी डॉ मामोनी रायसम गोस्वामी ऐसा नाम है जिसे भारतीय साहित्य के पाठकों के साथ उससे इतर भी बहुत बड़े वर्ग में जाना जाता रहा है, उल्फा के साथ शांति वार्ता में केंद्रीय सरकार की प्रतिनिधि के रूप में उनका नाम भारत और दुनिया भर तक पहुंचा है। उनके निधन के साथ असम से सांस्कृतिक राजदूत के तौर पर केवल कुछ दिनों के अंतराल में यह दूसरा प्रस्थान है, भूपेन हजारिका के जाने का दर्द अभी कम कहां हुआ था! एक खास बात बताएं कि इंदिरा गोस्वामी ने कविताएं शायद ही कभी लिखी जैसे भूपेन हजारिका के लिए- ''मैं अपनी मातृभूमि की तस्वीर नहीं बना सकती तुम्हारी आवाज के बिना। ''

उनसे पहली मुलाकात दिल्ली के नेहरू मैमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी की है जो कोई दस बरस पुरानी है, जहां वे अपनी भतीजी के साथ किसी शोध सामग्री की तलाश में आ रही थीं और मैं भी। माथे पे बड़ी सी बिंदी वाला चेहरा जाना पहचाना लगा और तीसरे दिन कैंटीन में हिम्मत करके बात की, और फिर इतना स्नेह पाया कि उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं है। उसके बाद क्योंकि तब तक वे दिल्ली विश्वविद्यालय के आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में प्रोफेसर थी हीं, छात्रा मार्ग स्थित उनके आवास पर कई शामों को उनके सान्निध्य में यादगार बनाया, फिर जीवन ने वैसा अवसर नहीं दिया। असम और असम के साहित्य के साथ मेरा यही परिचय आज तक मेरे साथ है, उन शामों में मेरी कुछ कच्ची-सच्ची कविताओं को भी सरंक्षक भाव में हठ के साथ उनका सुनना और सराहना मुझे एक नए कवि की प्रोत्साहन के निमित्त प्रशंसा ही लगती है। फिर जब 2005 में मेरी पहली किताब यानी कविताओं का पहला संग्रह आने को हुआ, तो उन्होने स्नेह में जो लिखा उसे मैंने फ्लैप पर बड़े गर्व से अंकित किया। मैंने उनको कहा कि इतना अतिशयोक्तिपूर्ण क्यों लिखा है आपने मेरे बारे में! तो उनका जवाब था- इसे चुनौती के रूप में लो कि तुम्हें मेरे शब्दों को सच साबित करना है। और मुझे यकीन है कि कोई अतिशयोक्ति नहीं कर रही हूं। दिल्ली विवि से रिटायर हुईं तो फिर उनसे मिलना नहीं हुआ क्योंकि वे गुवाहाटी रहने लगीं।

छिन्नमस्ता नामक उपन्यास के साथ उनके पहला परिचय लेखिका के रूप में हुआ था, फिर उनकी बहुत सी कहानियां और उपन्यास पढ़े, सब हिंदी मे ही, ज्यादातर के अनुवाद पापोरी गोस्वामी के रहे है। उन्हें मैंने बताया था कि इत्तेफाक है कि हिंदी में छिन्नमस्ता जिसे प्रभा खेतान ने लिखा था, और असमी में छिन्नमस्ता लिखने वाली दोनों लेखिकाओं का स्नेहपात्र हो गया हूं तो बोलीं - किसके ज्यादा हो ? मैंने कहा -सामने कह रहा हूं पर सच है कि आप ही।

अखिल भारतीय स्तर पर लेखक के तौर पर जिनको प्रतिष्ठा मिली है, उनमें उनका नाम शामिल है, मसनल याद कीजिए अमृता प्रीतम को, महाश्वेता देवी को। भारत में ऐसी लोकप्रियता कम ही लेखकों को मिली है, यह पैन इडियन रिकग्रिशन उन्हें महत्वपूर्ण सिद्ध करता है। बहुत कम लोगों को पॄता होगा कि उन्होंने विविध भारतीय भाषओं में लिखी रामायणों की असमी में लिखी रामायण के साथ तुलना के विषय पर पीएच.डी. की थी।

इशारा भर कर देना काफी होगा कि जीवन के शुरूआती साल बहुत या कहूं कि कल्पनातीत और अविश्वसनीय रूप से कष्ट मे गुजारे पर उनसे ऊपर उठकर लगभग जैसे अल्बेयर कामू के कथन को सही साबित करते हुए कि इनसान निराशा से निकल कर फिर एक नई दुनिया का सृजन करता है। वही उनमें आध्यात्मिकता के बीज का अंकुरण भी था। असम के विख्यात संत शंकरदेव की उपासक थीं वे।

जीवन के लिए रचना और रचना के लिए जीवन के साथ दूसरों के जीवन में रचनात्मक ऊर्जा भरने का काम अद्भुत तरीके से करना उनका ऐसा गुण है जिसकी बार बार यत्र-तत्र मैंने चर्चा की है। एक सप्ताह पहले दिल्ली की यात्रा में असमी फिल्मकार दोस्त रजनी बसुमतरी ने मुझसे कहा कि वे तो मेरी मेंटर हैं, उनका मुझसे वादा किया है कि 'ठीक होकर मैं एक खास कहानी तुम्हारे लिए फिल्म के लिए लिखूंगी।' रजनी से किया उनका वादा अब अधूरा रह गया है। भारतीय साहित्य की जीवन ऊर्जा से भरपूर विरली लेखिका का जाना देश भर के लिए बड़ा सांस्कृतिक नुकसान है।

Monday, October 10, 2011

वो गंगा की नगरी, वो डिग्गियों का पानी


- एक हमशहरी

मेरी पीढी के बहुत से लोग होंगे मेरी तरह जिनके घरों में जगजीत को सुनने की जिद के कारण टू-इन-वन खरीदा गया होगा, गजल और शाइरी की ओर झुकाव पैदा किया होगा, गजल सुनने समझने और लिखने वाली एक पीढ़ी जगजीत तैयार ने की है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता।


जगजीत ने जग जीत लिया था, हमारे वक्त में गजलें उनसे जवान हुईं, गजल और जगजीत एक दूसरे के नाम से जाने जाते है, ये मर्तबा सदियों में किसी को हासिल होता है। उनके हमशहरी होने का कितना फख्र करता रहा हूं, यह बताना मुश्किल है, देश भर में जहां भी बैठा हूं बताते ही कि गंगानगर का हूं, जगजीत साहब के नाम से पहचाना जाता रहा हूं। बचपन से सुना कि मेरे शहर का सबसे मशहूर आदमी अगर है तो वह यही नाम था। इत्तेफाक देखिए कि उनसे अंतरंग मुलाकात भी उसी शहर की है, जहां वे बरसों बाद आए थे, कोई दसेक साल पहले, जब उस कंसर्ट को सुनने ही अपने शहर गया था, पांच सौ किमी का सफर तय करके, खयाल था कि जिंदगी कहां ले के जाएगी, पता नहीं उन्हें अपने शहर में सुनने का अवसर शायद ही कभी फिर नसीब हो, ऐसा हुआ भी। कुदरत की पटकथा ऐसी ही होती है। उन कंसर्ट में उन्होंने अपनी मशहूर गजल 'वो कागज की कश्ती' गाने के बीच मे कहा -' भुलाए नहीं भूल सकता है कोई वो गंगा की नगरी, वो डिग्गियों का पानी', तो लोगों के साथ उनकी भी आंखें नम थी अपने शहर को इस रूप में याद करते हुए।

मेरी पीढी के बहुत से लोग होंगे मेरी तरह जिनके घरों में जगजीत को सुनने की जिद के कारण टू-इन-वन खरीदा गया होगा, गजल और शाइरी की ओर झुकाव पैदा किया होगा, गजल सुनने समझने और लिखने वाली एक पीढ़ी जगजीत तैयार ने की है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। जगजीत को जानने के कई नजरिए हो सकते हैं, एक घुड़दौड़ का शौकीन जगजीत थे, गंगानगर की और राजस्थान की रजवाड़ी शराब के शौकीन जगजीत थे, और बतौर गायक तो गजल,भजन, फिल्मी गीत और शास्त्रीय गायन के तमाम रूपों में उनकी याद हम सब के दिलों में पैबस्त है ही।

उन तक किसी ने पहुंचाया दिया था कि मैंने कोई अच्छा शेर कह दिया है, उसके हवाले से जयपुर में हुई आखिरी मुलाकात में बोले-' सुनाओ, तुम्हारे मुंह से सुनना है, और पूरी गजल भी दे दो, तुमसे पहली मुलाकात में कहा था कि तुम्हारी गजल गाऊँगा कभी, पर तुम्हें अपने नाम के आगे गंगानगरी लिखना होगा।' मैंने कहा- 'पा'जी शेर हाजिर है पर ऐसी गजल अभी नहीं हुई जिसे आप गाएं।' उन्होंने पंजाबी में प्यार से गाली दी, मैं मुस्कुराकर रह गया। उनके गाने लायक गजल मुझसे आज तक नहीं हुई और अब तो कभी नहीं होगी। पिछले दिनों दोस्त आशुतोष दुबे ने कहा कि जगजीत साहब पर डॉक्यूमेंट्री बना रहे हैं, उनके शहर से हो इसलिए कुछ मदद करनी होगी, जाहिर है कि मेरी ओर से मना करने का कोई कारण नहीं था, आशुतोष जगजीत के कई एलबम के वीडियो के निर्देशक रहे है।

कह देना चाहिए कि मेरे शहर का सबसे बड़ा नाम अब सिर्फ किस्सों में है, या अपनी आवाज में अमर है, कि उनके होठों से छू के अमर हो गए है जो लफ्ज, जो गजलें, जो नज्में, जो गीत।

Friday, October 7, 2011

'बिज्जी' को नोबेल ना मिलना


राजस्थान जिस वाचिक परंपरा की साहित्यिक विरासत के लिए जाना जाता है, 'बिज्जी' उसके जीवंत और स्वाभाविक प्रतिनिधि हैं। अब वैश्विक रूप से यह सिद्ध और प्रसिद्ध हो गया है कि उनकी कथाएं लोक का पुनराख्यान भर नहीं हैं, वे बिना ज्योतिषी हुए अतीत और वर्तमान के बीच पुल बनाते हुए हमें भविष्य दिखाते हैं, उस और जाने का रास्ता बताते हैं, और साथ ही हमारी वैचारिक और कथा विरासत को उस भविष्य की चुनौतियों से लडने के हथियार के तौर पर हमें सौंपते हैं।


दस साल में सातवी बार नामांकित कवि को नोबेल मिला, कोई दो राय नहीं कि वे स्वीडिश भाषा के बडे कवि हैं, और खुशी की बात यह भी है कि पोलेंड की विस्साव शिंबोस्र्का के बाद 15 साल बाद किसी कवि को नोबेल मिला है, पर हम उम्मीद में थे कि पहली बार नामांकित हमारे विजयदान देथा 'बिज्जी' को इस बार ही नोबेल मिल जाएगा, क्योंकि ऐसा कोई नियम या परंपरा नहीं है कि कोई एकाधिक बार नामांकित हो तभी उसे मिलेगा। खैर, यकीनन नोबेल के लिए नामांकित होना बडी बात है, तो हमारे गौरव का विषय भी, और बिज्जी का लेखकीय कद हमारी नजर में इससे कम भी नहीं होता कि उन्हें नोबेल नहीं मिला।

पर इस बहाने से हमें कुछ बातें करनी ही चाहिए, जो सामान्यतः या तो होती नहीं है या बहुत दबे स्वर में होती हैं। एक बडा प्यारा सा, मासूम सा तथ्य है कि पिछले दस में से सात नोबेल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित लेखक यूरोपीय हैं। इतनी ही प्यारी सी बात यह भी है कि इस बार स्वीडन ने नोबेल अपने ही घर में रख लिया है, यानी स्वदेशी को दिया है, इससे पहले 1974 में ऐसा हुआ था, उस वक्त तो विवाद भी हुआ था क्योंकि वे दोनों लेखक उस स्वीडिश समिति के 18 सदस्यों में से थे, जो नोबेल देती है। बहरहाल, स्वीडिश समिति के बारे में अक्सर कहा जाता है कि वह बहुत आगाह रहती है कि कोई इल्जाम उनपर ना आए, शायद यही वजह थी कि स्वीडन के लोग मानने लगे थे कि टाॅमस को शायद इसीलिए नोबेल नहीं मिल रहा कि वे स्वीडन के हैं।

बिज्जी की बात करें तो पहले व्यक्तिगत होने की इजाजत लेते हुए कहूं तो भारत में जम्मू से लेकर चेन्नई और मुम्बई से लेकर बंगाल, असम सहित सुदूर इलाकों में जब भी किसी भी भारतीय भाषा के किसी भी लेखक से मिलना हुआ है, हरेक ने अलग अलग शब्दों में यही कहा - ''अच्छा राजस्थान से हो! अगली बार जब बिज्जी से मिलना हो तो तो मेरा प्रणाम जरूर कहिएगा।'' ऐसे ही एक लेखक ने कहा था- ''आपकी भाषा राजस्थानी है !'' मेरे 'जी' कहने पर वे मेरे गले लग गए - ''तो आप उसी भाषा को बोलते है, जिसमें बिज्जी लिखते हैं।'' सच कहूं तो बिज्जी के प्रति मेरा सम्मान उनके इस सम्मान से सौ गुना बढा है, बार बार छाती चैडी हुई है। जैसा कहा जाता है कि देश में बहुत लोगों ने रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' पढने के लिए लोगों ने बांग्ला सीखी तो जरूर एक वर्ग है जो बिज्जी को पढने को राजस्थानी सीखने की मंशा रखता है। रेगिस्तान के आखिरी कोने पर एक बरसाती नदी के इलाके में लगभग ढाई दशक पहले जहां अकेला अखबार राजस्थान पत्रिका अपने छपने के दिन बमुश्किल ही पहुंचता था, वहां बचपन गुजारते हुए लेखक के तौर पर पहला नाम जो सुना था, वह बिज्जी का ही था।

राजस्थान जिस वाचिक परंपरा की साहित्यिक विरासत के लिए जाना जाता है, बिज्जी उसके जीवंत और स्वाभाविक प्रतिनिधि हैं। अब वैश्विक रूप से यह सिद्ध और प्रसिद्ध हो गया है कि उनकी कथाएं लोक का पुनराख्यान भर नहीं हैं, वे बिना ज्योतिषी हुए अतीत और वर्तमान के बीच पुल बनाते हुए हमें भविष्य दिखाते हैं, उस और जाने का रास्ता बताते हैं, और साथ ही हमारी वैचारिक और कथा विरासत को उस भविष्य की चुनौतियों से लडने के हथियार के तौर पर हमें सौंपते हैं। यह भी बहुत अस्वाभाविक नहीं है कि कोई उन्हें बातां री फुलवारी के कारण प्यार करता है कोई सपनप्रिया या महामिलन के लिए, कोई चैधरण की चतुराई के कारण, कोई उनकी कहानियों पर हबीब तनवीर के किए नाटकों के कारण, कोई मणिकौल और अमोल पालेकर की बनाई फिल्मों के कारण। कई अकादमिक लोग उन्हें हिंदी राजस्थानी कहावत कोश के कारण बहुत इज्जत से देखते हैं, तो बहुत से लोगकोमल कोठारी के साथ रूपायन में किए अतुलनीय लोक विरासत सहेजने के काम के लिए। मुझे एक लेखक के तौर पर कहना और मानना चाहिए कि मुझ जैसे बहुतेरे लेखकों को उनकी भाषा और कथा शिल्प ईष्र्या और प्रेरणा दोनों देते हैं, फिर मैं तो कम से कम उन्हें अपनी शानदार विरासत के रूप में ग्रहण करते हुए नतमस्तक हो जाता हूं।

पर क्या इसे दुर्योग नही कहना चाहिए कि वे उस भाषा के कथाकार हैं जिसे संवैधानिक मान्यता नहीं है, बहुत संभव है कि इसीलिए उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान माना जाने वाला ज्ञानपीठ नहीं मिला है, पर वे इसके बावजूद देश के चोटी के साहित्यकारों में गिने जाते रहे हैं। उनका काम हाल ही के सालों में कायदे से अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है, कथा और पेंगुइन से प्रकाशित हुआ है, मिशिगन विवि में दक्षिण एशिया अध्ययन विभाग की क्रिस्टी मेरिल के अनुवाद को ही माना जा रहा है कि बिज्जी को नोबेल के नामांकन तक पहुंचाया है। इस अनुवाद के काम में कैलाश कबीर उनके साथी रहे हैं। हालांकि यह तय बात है कि कोई पुरस्कार किसी के काम और अहमियत का पैमाना नहीं होता पर जब ऐसा कोई बडा इनाम किसी को मिलता है तो इनाम और उस व्यक्ति दोनों की गरिमा में इजाफा जरूर होता है, उस व्यक्ति के काम को और ज्यादा लोगों तक पहुंचने का बहाना और जरिया मिलता है, और हस्बेमामूल यहां अनुवाद की अहमियत फिर से साबित होती है, जिसे प्रायः हमारे लेखक हीन भाव से देखते हैं, जबकि परस्पर अनुवाद की खिडकियां खुली सांस के लिए हवाओं की तरह हैं। क्या हमें भूल जाना चाहिए कि अमता प्रीतम हिंदी और पंजाबी दोनों में उनती ही बराबर मुहब्बत से पढी और सराही गई हैं और उनका अदबी कद इसी वज्ह से अखिल भारतीय स्तर का बना है।

बिज्जी को नोबेल साहित्य ना मिलने से बिज्जी निराश नहीं हुए, दुखी भी नहीं हुए, हमें यानी विशेषकर राजस्थान और वैसे पूरे भारत के लोगों, दुनिया भर में फैले उनके पाठकों, प्रशंसकों को दुख जरूर हुआ, पर हम नाउम्मीद नहीं है ना ही इससे उनके कद और उनके प्रति हमारी नजर में सम्मान में कोई कमी ही आई है, उनका लिखा जब जब भी पढते हैं, पढंेगे, उनके प्रति सम्मान बढता जाता है, दुआ कीजिए कि वे स्वस्थ हो जाएं, दो सप्ताह पहले फोन पर उनसे बात हुई थी, उन्हें सुनने बोलने में हो रही तकलीफ साफ महसूस हो रही थी, इस नामांकन की खबर के साथ कितने हमपेशा दोस्तों ने उन्हें फोन किया, मेरी हिम्मत नहीं हुई कि उन्हें तकलीफ दूं, मिलकर दुआ करें कि वे मन का पढ-लिख पाएं, क्योंकि लेखक की सबसे बडी यातना ना लिख पाना होता है, और यह यातना वे झेल रहे हैं। संभव है उन्हें अगले किसी साल में नोबेल साहित्य मिल जाए, या अन्य कोई भारतीय लेखक ले आए, राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया जाए, पर इसमें किसी को भी संदेह नहीं हो सकता, और ना ही होना चाहिए कि बिज्जी भारतीय साहित्य में अपनी तरह के विरले और अदभुत लेखक हैं, नामुमकिन नहीं तो बेहद मुश्किल जरूर।

Tuesday, September 6, 2011

जगमोहन ने जिंदगी का साथ निभाया पर जिंदगी ने ?



जगमोहन मूंदडा 62 के थे उनके गुजरने की खबर नाकाबिलेयकीन थी, अभी उम्र ही नहीं थी और ऐसी कोई बीमारी भी नहीं थी, वे यूं शराबी भी नहीं थे, कई सालों से उनके मोबाइल पर एक ही हैलो टयून थी- ''हर फिक्र को धुंए में उडाता चला गया मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया'' उन्होनें जिंदगी का साथ भरपूर निभाया पर कम्बख्त जिंदगी ही बेवफा निकली...

उनसे किया एक पुराना साक्षात्कार बांट रहा हूं(उन्हें यही मेरी श्रद्धांजलि है) जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी के वरक खोलके मेरे सामने रख दिए थे
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खुशी की खोज नहीं करता, खोज में खुशी मिलती है - जगमोहन मूंदड़ा


बचपन और पढ़ाई
मेरा बचपन कलकत्ते में बीता। वहां बड़ा बाजार के ाालिस मारवाड़ी माहौल में। पहले मां और पिताजी वहीं रहते थे पर बाद में वे उस वक्त की बंबई और आज की मुंबई चले गए तो मैं अपने बड़े भाई के साथ दादा दादी के पास रहा। हम जिस बिल्डिंग में रहते थे, वहां निजी बाथरूम जैसी चीज नहीं थी,वो मुबई की चॉल जैसी जगह थी। वहां म्यूनिसिपल नल से पानी आता था हमारे नहाने और पीने के लिए। हमारे घर में कार नहीं थी, हम पब्लिक परिवहन ही इस्तेमाल करते थे हमारे रिश्तेदार पैसेवाले थे, इनकी जिंदगी देखते थे। पर हमें सिखाया गया था कि किसी से मांगना नहीं है, ईष्र्या नहीं करनी है। हमें फिल्म देखना मना था, दादी साल में एक बार कोई फिल्म दिखाती थीं। घर में कैरम खेलते थे, पर हमें जिंदगी में किफायत का पाठ पढ़ा दिया गया और पर वो वंचित किस्म के नहीं, बहुत खुशनुमा बचपन के दिन थे क्योकि हमारी जरूरतें सीमित थीं। हम खुश थे पर महत्वाकांक्षाएं तो थीं।
मारवाड़ी इलाके के सबसे बेहतरीन हिंदी स्कूल में पढ़े थे हम, फिर नवीं क्लास से अंग्रेजी मीडियम में आए। मेरे दादाजी ने बचपन से एक बात मन में डाल दी कि जिंदगी में पढ़ाई बहुत जरूरी है। इसका नतीजा था कि हम दोनों भाईयों ने पढ़ाई पर ध्यान दिया। मैं हमेशा अपनी क्लास और स्कूल में अव्वल आता था। हायर सैकण्डरी में पूरे पं.बंगाल की मेरिट में मेरा नवां स्थान था, गणित में सबसे ज्यादा नंबर आए। हमारे पिताजी चाहते थे हम दोनों भाई आईआईटी में जाएं, भाई एक साल आगे थे तो पहले परीक्षा पास करके आईआईटी मुंबई पहुचे। पहले हम लोग छुट्टियों में ननिहाल नागपुर जाते थे फिर मां पिताजी के पास तत्कालीन बंबई जाने लगे। और अगले साल मैं भी परीक्षा पास करके आईआईटी मुंबई पहुंच गया। कम से कम उम्र से भी छोटा था तो एफिडेविड देकर उम्र बढवाकर दाािला लिया, क्लास में सबसे कम उम्र का था मैं। आईआईटी में सोशल एक्सपेंशन हुआ। मिलना जुलना हुआ। अमेरिका में और ज्यादा हुआ। वैसे मुझे लगता है कि अभाव में कल्पना बहुत व्यापक होती है,इसी मेरे कल्पना के संसार में एहसास हुआ कि फेंटेसी तो होनी ही चाहिए। पर मानसिक तस्वीर साफ होनी चाहिए। फिर तेईस साल की उम्र आते आते अमेरिका से दो मास्टर्स डिग्री और पच्चीस साल की उम्र में पीएचडी कर चुका था।

पहला क्रश, प्रेम और विवाह
मेरा पहला क्रश कलकत्ता में मेरी एक बंगाली स्कूल टीचर के लिए था। उस वक्त 10-11 साल का रहा होउंगा, वैसे उस वक्त केवल घर की महिलाओं को ही जानते थे जो सब उम्र में बड़ी थीं। इस समय सामाजिक विस्तार के अवसर नहीं थे ,पैसे भी नहीं थे तो डेटिंग जैसा कुछ नहीं था। दूर के कजिंस से ही संपर्क होता था। दसवीं ग्यारहवीं क्लास की छुट्टियों में मुंबई आना होता था, तब पिताजी के मित्र की एक लड़की से मिलना होता था जो मुझे अंकल कहकर पुकारती थी, मेरी छोटी बहन की दोस्त थी, जब 1973 में अमेरिका गया वो बारह साल की थी और मैं उन्नीस-बीस का। उसके पिताजी को तब से लेकर आज तक काको जी ही कहता हूं। सब कजंस के साथ बॉबे की इस कॉनवैंट पढ़ी लड़की के लिए भी अमेरिका से चॉकलेट्स लाता था,जब भाई की शादी में आया तो देखा कि उसने अंकल कहना बंद कर दिया है, पता चला कि परिवार में साजिश,षड्यंत्र,सांठ-गांठ हो चुकी है और इस तरह छब्बीस जनवरी 1974 को हमारी शादी हो गई।

आईआईटियन बना फिल्ममेकर
मेरा मानना है कि हर इनसान को मन का काम करना चाहिए, दृष्टि में स्पष्टता हो तो देर सबेर हम वहां जरूर पहुचते हैं, मेरे दादा कहते थे कि जिंदगी में इनसान कहीं भी पहुंच सकता है और ये तालीम से संभव होता है। छुटपन में लगा ही नहीं कि फिल्म डायरेक्टर भी हो सकता हूं। 12 साल की उम्र में 'कागज के फूलÓ छुप के देखी और फिल्म की बीमारी लग गई। मन में इच्छा तो हुई पर किसी को बोला नहीं। स्कॉलरशिप से आईआईटी और अमेरिका में पढ़ाई की तो स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने का बोध था। पीएचडी करने के बाद कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में पढाना शुरू कर दिया जहां हते में 12 घंटे पढ़ाना होता था। लगा कि फिल्म बनाना सीखना चाहिए और 12 घंटे पढ़ाने के अलावा यूनिवर्सिटी के सिनेमा डिपार्टमेंट के सहकर्मियों से फिल्म मेकिंग सीखना शुरू कर दिया। फिर एक दिन लगा अब फिल्म बनानी चाहिए और काम के लिए लॉस एंजेलिस के स्टुडियो जा पहुंचा। पर मुझे ब्रेक नहीं मिला। अजीब सा जवाब मिला -'पीएचडी हो हमारी रिसर्च यूनिट से जुड़ जाओÓ या 'हिंदुस्तानी होकर अंग्रेजी फिल्म बनाओगे!Ó यूनिवर्सिटी की बेहतरीन नौकरी के बावजूद मेरे भीतर कुंठा सी थी। इस बीच पत्नी ने वहां से बैचलर, मास्टर्स किया। 1980 में बेटी स्मृति पैदा हुई और मैंने नौकरी छोड़ के 'सुरागÓ फिल्म शुरू कर दी-शबाना आजमी और संजीव कुमार के साथ। इसकी रिलीज पर 1982 में भारत आए फिर 'कमलाÓ शुरू की-दीप्ति नवल, शबाना और मार्क जुबेर आदि के साथ। फिल्म सेंसर ने रोक दी, इससे बड़ा आर्थिक झटका लगा था। 1983 में रिलीज के बाद वापिस अमेरिका चले गए। मैंने फिर से पढ़ाना शुरू कर दिया। फिर अमेरिका में फिल्म तकनीक बदली, वीडियोज की डिमांड पैदा हुई, सस्ती फिल्में बनानी थीं, कई स्वतंत्र निर्माता जुड़े, दो हिंदी फिल्मों के अनुभव के आधार पर अंग्रेजी फिल्में मिलनी शुरू हो गईं। अशोक अमृतराज की कंपनी के लिए एक मिलियन डॉलर में बनाई फिल्म 'नाइट आइजÓ ने तीस मिलियन से ज्यादा कमाए। और फिर पंद्रह सालों में हर साल लगभग दो फिल्में बनाईं,अमेरिका में अपना घर खरीदा, बेटी की पढाई हुई। बीच में हिंदी की एक फिल्म पूजा बेदी को लेकर बनाई विषकन्या, उसका अनुभव अच्छा नहीं रहा तो हिंदी फिल्मों का विचार ही छोड़ दिया।
1999 में राजस्थान आया, फिल्म 'थर्ड आईÓ के लिए शूटिंग लोकेशन देखने-खोजने। हालांकि मेरे पुरखे राजस्थान से ही कोलकाता गए थे पर मैं इससे पहले राजस्थान नहीं आया था,उन दिनों अखबार में खबर पढ़ी-भंवरी देवी के बलात्कार की। मैं विषय की संवेदना से जुड़ा, अपनी जड़ों से जुड़ा, बेटी बड़ी हो गई थी, मेरे विचार भी बदल गए थे और भारतीय मीडिया में जो मेरी सॉफ्ट पोर्नफिल्ममेकर की बेबुनियाद छवि थी, उसे तोडऩे के बेहतरीन अवसर के तौर पर मैंने 'थर्ड आईÓ के लिए मना करते हुए 'बवंडरÓ के लिए खुद पैसा जुटाया, जोखिम लिया, फिल्म बनाई और फिल्म दुनिया के 35 फेस्टिवल्स में दिखाई गई।

मेरा सिनेमा
मैं खुद को स्टोरी टेलर मानता हूं, ये मेरा पैशन है, मुझे फिल्में बनाने में मज़ा आता है और किसे भी माध्यम की बजाय इसमें सहज महसूस करता हूं। कई लोगों ने मेरी फिल्मों की आलोचना की उन्हें पसंद नहीं किया खालिद मोहम्मद ने 'कमलाÓ की उस साल की दस बुरी फिल्मों में गिना, फिर हमने उनकी बनायी फिल्में भी देखी। अब लोगों के ओपिनियन से जिन्दगी तय नहीं करता हूं और अपनी कमियों को अपने अन्दर स्वीकारते हुए सुधारता हूं और ऐसा ही करना चाहिए
फिल्मों को मैं टाइम पास नहीं मानता हूं, इनसे टाइम पास होता है ये सच है एक फिल्ममेकर के तौर पर मैं दर्शकों को टाइम पास के साथ सोचने का अवसर देना चाहता हूं और मेरे लिए मनोरंजन का मतलब है - दर्शकों का कहानी में शामिल हो जाना डूबना। मेरा ये भी मानना है कि केवल इंटेंशन से ही अच्छी फिल्म नहीं बनती, दर्शकों को कहानी के साथ एंगेज करना ज़रूरी निर्देशकीय खूबी मानता हूं । मेरी पसंद होती है मजबूत कथानक जिसमें से दर्शक को कुछ हासिल हो ऐसा सीखने को मिले जो पहले से पता न हो।

खाली वक्त में
फुरसत में पढता हूं। साहस पूर्ण कहानियां तो बचपन से पढता रहा हूं। वाइल्ड लाईफ के बारे में पढना पसंद रहा है, रोमांटिक किताबें भी पढता हूं । इन दिनों अनिता जैन की 'मेरिंग अनीताÓ और अद्वैत काला की 'अलमोस्ट सिंगलÓ पढ़ रहा हूं। इधर कुछ सालों से भारतीय ही अधिक पढ़ रहा हूं वैसे नॉन फिक्शन, फिल्म क्राफ्ट, जीवनियां आदि पसंद करता हूं । देव आनंद साहब की जीवनी अभी लाया हूं। इसके अलावा खाली वक्त में सुडोकू खेलता हूं । दोस्तों के बीच बैठता हूं, संगीत सुनता हूं, फिल्में देखता हूं, मारवाड़ी खाना बहुत पसंद है, घूमना बहुत पसंद है।

जिंदगी का फलसफा
जिन्दगी के हर पल को जीना ज़रूरी मानता हूं, छोटी छोटी खुशियों को सहेजता हूं .. जिन्दगी में बहुत आशावादी हूं। मुझे लगता है कि मज़ा सफऱ में है मंजिल में नहीं ..सफऱ का अंत तो सबका एक ही है । इसीलिए स्वर्ग नरक को मैं महत्वपूर्ण नहीं मानता हूं। एक चीनी कहावत जर्नी इज रिवार्ड कभी नहीं भूलता हूं। आज के हरेक पल को सकारात्मकता, अपने काम, व्यवहार, खुशी से जीना ही मेरे लिए सबसे अहम् है।
हर इंसान की तरह मेरी जिन्दगी में अच्छे बुरे दिन आये हैं, अच्छे दिनों में खुशी के पलों में बहुत्त सारे हैं जैसे मेरा आईआईटी में चयन, बेटी का जन्म, पहली फिल्म का मुहूर्त और रिलीज आदि। बुरे क्षणों में कमला का सेंसर में रुक जाना, एक साल की लड़ाई, प्रोवोक्ड को किसी राष्ट्रीय पुरस्कार और चैनल आदि के अवार्ड के लिए नोमिनेशन तक न मिलना, बवंडर को देश के बाहर बहुत अवार्ड मिले पर भारत में कोई नहीं मिला, भारत में अब तक कोई ब्लॉकबस्टर नहीं दे पाया
पर निराशा के क्षणों में कम भाग्य वाले लोगों को देखता हूं। मेरे संस्कार ऐसे हैं कि जो अपने पास है उसकी अहमियत समझो। मैं खुशी की खोज नहीं, खोज में खुशी प्राप्त करता हूं, बचपन में सुना गाना आज भी मुझे ताकत देता है और मुश्किल वक्त में रास्ता दिखाता है -' मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया।'

Friday, August 12, 2011

ठेस और ठोस के बीच




फिल्म से मेरी भी असहमतियां हैं पर वे असहमतियां यह इजाजत मुझे नहीं देती कि कहूं भई फिल्म नहीं चलनी चाहिए। दूसरे, यह कोई महान फिल्म नहीं है, एक व्यवसायिक फिल्म है, कभी मेरे प्रिय निर्देशक रहे प्रकाश झा की परंपरा की भी नहीं है, कह देना चाहिए कि मैं उनसे निराश हुआ हूं, पर इस निराशा में भी उनकी फिल्म के प्रदर्शन को रोकने का पक्षधर नहीं हो सकता



पहले संक्षेप में घटनाक्रम बता दें, फिल्म के रिलीज होते होते तीन राज्य आंध्र पदेश, उत्तरप्रदेश और पंजाब 'आरक्षण' के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा चुके हैं, राजस्थान में आरक्षण के लिए संघर्षरत राजपूत करणी सेना और राजस्थान सर्वब्राहमण महासभा के पदाधिकारियों का विरोध कुछ संवाद हटाकर समाप्त किया गया है और प्रकाश झा कुछ और दृश्यों को हटाने को राजी हो गए हैं, पर इधर उधर विरोध जारी है और प्रकाश झा अपने पक्ष के लिए सुप्रीम कोर्ट जा रहे हैं।

इस फिल्म को देखने के बाद मेरा यह कहना वाजिब मान लिया जाना चाहिए कि फिल्म आरक्षण को लेकर बहस छेडती है। वैसे तो, आरक्षण का मुददा ही अपने आप में इतना संवेदनशील है कि कुछ भी कहना विवाद को विषय बन सकता है, चाहे पक्ष में होइए, विपक्ष में या चुप रहिए तो भी। फिल्म में आरक्षण से जुडे सभी पहलूओं को गोया इस तरह से छू लिया गया है कि फिल्म किसी एक पक्ष को तो कतई संतुष्ट नहीं करती है..और सभी पक्ष क्या करें। इसमें प्रकाश झा की चालाकी और समझ को सलाम करना चाहिए या दूसरे शब्दों में कहें तो व्यवसायिक जरूरतों के बरक्स प्रकाश झा मजबूर थे कि इस संवेदनशील विषय पर ऐसी ही फिल्म बना पाते और धीरे-धीरे चतुराई से फिल्म को आरक्षण से हटाकर शिक्षा व्यवस्था पर चोट करती सवाल खडे करती फिल्म के रूप में याद करने लायक ही बनाते। फिल्म का मीडियम यही इजाजत देता है, ऐसा कहना शायद जल्दबाजी होगी हो, पर माफ कीजिए, यह बेशक कहा जा सकता है कि व्यवसायिक सिनेमा इसी की इजाजत देता है, किसी हद तक यह कहना ठीक हो सकता है। वैसे हमारे लोकतंत्र का बडा सच यह है कि जब कोई मसला राजनीतिक रंग अख्तियार कर ले तो इस बात की गुजाइश क्या बहुत कम नहीं हो जाती कि उसका समाधान कम वक्त में निकल जाए... ऐसा सोचना खाम खयाली भी माना जा सकता है।  यही बात आरक्षण को लेकर भी है अब जब कि प्रायः लोग मान चुके हैं कि आरक्षण सामाजिक न्याय की जरूरत है और चाहे कुछ तबकों के बेमन से ही सही इसे व्यवस्था में लागू करना तो भारतीय समाज से बढकर अब भारतीय राजनीति की बडी अपरिहार्यता है।

थोडा व्यक्तिगत होने की मोहलत लेते हुए कहूं कि मैं उस पीढी में हूं जिसने मंडल के बाद देश को बदलते और खुद को उस  बदलाव का हिस्सा बनते हुए देखा है, यह समय के साथ देखा है कि जो तबके विरोध में थे वे भी उसी पंक्ति में आकर खडे हो गए हैं  बेशक इनमें भी कुछ लोग हैं जो आर्थिक आधार पर सरकारी सुविधाओं के हकदार हैं, और बहुत हद तक शायद आरक्षण के भी।

वापिस फिल्म पर लौटें तो कहना चाहिए कि सिनेमा कथा कहने का जीवंत विजुअल माध्यम है यानी फिक्शन का । और उसे समस्त कला माध्यमों से विकसित और उन्नत कला माध्यम माना जाता है क्योंकि उसमें पेंटिंग,  साहित्य- (कहानी और कविता दोनों),  संगीत, फोटोग्राफी आदि का समावेश है। फीचर फिल्में जैसा हम सब जानते हैं कथा फिल्में होती हैं कथा में सच कितना हो यह बहस का विषय हो सकता है । वैसे भी भारत में कितने निर्देशक रियलीस्टिक सिनेमा बनाते हैं, उसमें भी राजनीतिक सिनेमा तो और भी कम। यही वजह है कि भरत में बायोपिक सिनेमा नहीं बनता है मुददों पर ही फिल्म नहीं बना सकते तो व्यक्तियों पर कैसे बना के दिखा पाएंगें... शायद यही वजहें है कि बवंडर बनाने वाले फिल्मकार दोस्त जगमोहन मूंदडा की एक राजनीतिक फिल्म रिलीज के इंतजार में हैं ...देखना होगा कि संजय पूरणसिंह चौहान जिन्होनें पिछले दिनों संजय गांधी पर फिल्म बनाने की घोषणा की है बना के प्रदर्शित कर पाते हैं कि नहीं। बहरहाल, यहां हमें प्रकाश झा को सलाम करना चाहिए उनके साहस के लिए कि वे राजनीतिक सिनेमा बना रहे हैं और लोगों तक पहुचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, आप उनसे सहमत है कि असहमत हैं यह बाद की बात है।

सवर्ण पात्र की आर्थिक हालत दिखाते हुए सहानुभूति पैदा करना फिल्म का वह प्रसंग है जो सवर्ण आरक्षण की मांग का परोक्ष समर्थन करता लगता है। दलित नायक सैफ के तर्क पूरी फिल्म की वह थिसिस है जो सवर्ण पात्र की पूरक थिसिस के साथ मिलकर एक मुकम्मल तस्वीर बनाते हैं। यह भी कहना जरूरी लगता है कि अमिताभ की स्थिति तो पक्ष विपक्ष के बीच फंसी सरकार की सी दिखाकर निर्देशक फेंटेसी में जैसे कई सच परोक्ष में जाहिर कर देना चाहता है।

इस लिहाज से सवाल अभिव्यक्ति का भी है पर उसका अपवाद किसी को ठेस पहुचाने की आजादी कतई नहीं होता है, इस लिहाज से मुझे नहीं लगता कि प्रकाश  झा किसी को ठेस पहुचाने का काम कर रहे हैं, राजनीतिक हितों को ठेस पहुचती है तो वह तो साहेब अभिव्यक्ति के दायरे से बाहर की बात ही कही जाएगी ना! फिल्म से मेरी भी असहमतियां हैं पर वे असहमतियां यह इजाजत मुझे नहीं देती कि कहूं भई फिल्म नहीं चलनी चाहिए।  दूसरे, यह कोई महान फिल्म नहीं है, एक व्यवसायिक फिल्म है, कभी मेरे प्रिय निर्देशक रहे प्रकाश झा की परंपरा की भी नहीं है, कह देना चाहिए कि मैं उनसे निराश हुआ हूं, पर इस निराशा में भी उनकी फिल्म के प्रदर्शन को रोकने का पक्षधर नहीं हो सकता।

आपको याद ही होगा कि हाल ही में हरियाणा व उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में 'खाप' फ़िल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी और कई सिनेमा हॉल वालों ने उनके दबाव में आकर यह फ़िल्म अपने यहाँ नहीं लगाई थी। इससे पहले मधुर भंडारकर की 'ट्रैफिक सिग्नल' को हिमाचल प्रदेश में, आमिर खान की 'फ़ना' और राहुल ढोलकिया की फ़िल्म 'परज़ानिया' को तो गुजरात में प्रदेश सरकारों ने प्रतिबंधित कर ही दिया था। वैसे सोचने की बात तो यह भी है कि किताबों, चित्रों, फिल्मों पर प्रतिबंध की परंपरा से ज्यादा जरूरी क्या बहस की परंपरा नहीं होती! दरअसल हम लोग यह मान लेते हैं कि जिसके साथ खडे नहीं हो सकते, उसे जीने का अधिकार तक नहीं है, उसके साथ जीना तो मासूम सा ख्वाब है। यहां सवाल खडा हो जाता है कि तो हम विरोधियों को दुश्मन कब तक मानते रहेगे! इतना ही नहीं यह सवाल भी खडा होता ही है कि क्या हमें नहीं मान लेना चाहिए कि सेंसर बोर्ड के बेमानी होते देखने का दौर है ये ! ''आरक्षण'' चल पाती है या नहीं पर फिलहाल इतना तय है कि सेंसर का होना और चलना संदेह के घेरे में आ गया है।

Thursday, July 21, 2011

सियाह से सफ़ेद हो गयी ज़िन्दगी


हमारे समय के मशहूरोमारूफ फिल्मी गीतकार और इल्मी शाइर इरशाद कामिल से हम रूबरू हुए तो उन्होंने दिल से जो कहा, आपके सामने हाजिर है....



अपने बचपन के बारे में बताइए .

बचपन, पंजाब के एक कसबे मलेरकोटला में, दिहाड़ीदार मजदूरों के बच्चों के साथ बीता. उन्ही के साथ मिटटी भी खाई और मार भी, गुल्ली डंडे से लेकर गली क्रिकेट तक खेला. उनमें और मुझमें सिर्फ इतना सा अंतर था कि वो हर सुबह काम पे जाते थे और मैं स्कूल. उस समय यकीनन मुझे अपना काम स्कूल जाना उनसे कहीं ज़्यादा मुश्किल लगता था.


शाइराना तरबियत कैसे हुई ?


मेरा भाई जावेद जो मुझसे ५ साल बड़ा है और उससे भी ३ साल बड़ा भाई जब नए नए जवानी में कदम रख रहे थे तो अचानक उनका रुझान रूमानी शायरी की तरफ होने लगा. हालाँकि मेरे सबसे बड़े भाई सलीम को बाकायदा गीत और फ़िल्मी किस्म की कहाह्नियाँ लिखने का शौक़ था क्योंकि वो फिल्म जगत में आना चाहता था लेकिन घरेलु जिम्मेदारियों के कारण और पिता जी का सहयोग न मिलने के कारण वो आ नहीं पाया. जवान होते भाइयों के रूमानी शायरी के शौक़ ने मुझे शायरी जैसी चीज़ के प्रति थोडा उत्सुक कर दिया. उनका शौक़ तो आल इंडिया रेडियो पर 'आबशार' प्रोग्राम सुनकर ख़त्म हो गया लेकिन मुझे ये लत लग गयी.



शाइर पहले खबरनवीस हुआ और फिर फिल्मी गीतकार ये सफर कैसे मुमकिन हुआ? कब लगने लगा कि आप फिल्मी गीत लिखने के लिए पैदा हुए हैं ?


मुझे बहुत पहले एहसास हो गया था कि घडी के काँटों से बंधी ज़िन्दगी मेरे लिए नहीं है. मतलब किसी दफ्तर में ९ से ५ तक बध पाना मेरी फितरत में नहीं. इसलिए खबरनवीसी पकड़ ली क्योंकि इस काम में सारा दिन दफ्तर में नहीं बैठना पड़ता, पत्रकारिता का डिप्लोमा मेरे पास था ही. उसके अलावा समाज भी पत्रकारों को थोडा भय से देखता था/है. सारा दिन अपनी खटारा मोटर सायकल पर सड़कों से दोस्ती और शाम को एक डबल कालम रिपोर्ट, बस यही थी ज़िन्दगी. लेकिन इसके साथ साथ जो चीज़ मेरे हमकदम थी वो थी मेरी कलम जो उन दिनों बहुत कवितायेँ लिखती थी. और कभी कभार एल्बम के लिए १००-२०० में कोई गीत भी लिख दिया करती थी. हालांकि मैं अपने आप को न कभी गीतकार लगा हूँ, न कहानीकार, न नाटककार सिर्फ कलमकार लगा हूँ जो ये सभी कुछ बहुत आसानी से लिख सकता है. जो उन विधाओं में भी लिख सकता है जिनको अभी कोई नाम नहीं दिया गया.



पहली फिल्म कैसे मिली जिसके गाने आपने लिखे ? इस सफर की शुरूआत में बहुत मुश्किलें पेश आई होगी!


किसी दोस्त ने जोर डालकर संगीतकार सन्देश शांडिल्य के पास भेज दिया था, हालांकि किसी के पास काम मांगने जाना या काम करने के बाद पैसे के तकाज़े के लिए जाना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा. उस दोस्त ने काम मांगने नहीं सिर्फ मिलने भेजा था. मैं सन्देश से मिला, सन्देश ने पूछा क्या करते हो? मैंने कहा लिखता हूँ. उसने पूछा क्या लिखते हो? मैंने कहा सब कुछ लिखता हूँ. उसने पूछा गीत लिखते हो? मैंने कहा गीत अगर कोई कहे तो वैसे ज़्यादातर ग़ज़ल लिखता हूँ. उसने कहा कुछ सुनाओ. सन्देश का इतना कहना था कि मैंने एक के बाद एक उसे अपनी २०-२५ ग़ज़लें सुना दीं. सन्देश शायद काफी प्रभावित हो गया था इसीलिए शायद उसने मुझे इम्तिआज़ अली से मिलवा दिया जो उस समय 'सोचा न था' बना रहा था. मैं और इम्तिआज़ जब मिले तो लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिल रहे हैं. 'सोचा न था' कि मेरी पहली फिल्म मुझे इतनी आसानी से मिल जाएगी.


जिंदगी कितनी बदली फिल्मी गीतकार होने के बाद ?


सियाह से सफ़ेद हो गयी ज़िन्दगी, आम रिसाले से पुराण-वेद हो गयी ज़िन्दगी, खुली किताब से छुपा हुआ भेद हो गयी ज़िन्दगी, बहुत सी ख़ुशी और थोडा खेद हो गयी ज़िन्दगी...क्योंकि ज़िन्दगी के साथ थोडा खेद थोडा अफ़सोस थोडा गिला हमेशा रहता है इंसान को.



पंजाबी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी जुबानों का इस्तेमाल रामकथानुमा गीत.. इतनी विविधता को कैसे साध लिया आपने ?

पंजाबी मेरी माँ बोली है, हिंदी स्कूल, कालेज, यूनीवर्सिटी में पी एच डी तक पढ़ी है, उर्दू मेरी दीनी जुबान है और अंग्रेजी आज के समाज में रहने की मजबूरी ने सिखा दी. हिंदी साहित्य पढने के कारण या यूँ कहिये तुलसी, सूरदास, मीरा, कबीर और छायाबाद ने सब कुछ आसन कर दिया मेरे लिए.



दूसरों के लिखे ऐसे गीत जिनको सुनकर लगता हो कि काश मैंने लिखा होता ?

वो सभी गीत जो अच्छे है और दूसरों ने लिखे हैं काश उन्हें मैंने लिखा होता.



अब इस गीतकार की दिनचर्या क्या रहती है?

सुबह मर्ज़ी से उठना, फिर बहुत देर चुपचाप बैठे रहना, फिर तैयार होकर मीटिंग्स और सिटिंग्स के लिए निकल जाना, रात को देर तक कभी काम होने के कारण और कभी नाकाम होने के कारण जागना, शब्दों और विचारों के जंगल में भटकना, कुछ लिखने की कोशिश करना फिर इस अफ़सोस के साथ सो जाना कि आज कुछ अच्छा नहीं लिख पाया और अगली सुबह फिर इस उम्मीद से जागना कि आज ज़रूर कुछ अच्छा लिखूंगा.



पुराने दोस्तों से राब्ता कायम है अभी ?

पुराने "सच के" सभी दोस्तों से वैसा ही राबता बरकरार है. न वो बदले हैं न मैं ही बदल पाया हूँ. न वो अपने पुरानेपन से बाज़ आते हैं न मैं.



अदबी शाइरी से रिश्ता बना हुआ है क्या अभी भी? उम्मीद करें कि शाइर इरशाद कामिल का कोई शेरी मजमुआ मंजरेआम पर आने वाला है ?

फ़िल्मी शायरी के साथ इल्मी शायरी बाकायदगी से जिंदा है. उर्दू मुशायरों में अक्सर शिरकत करता हूँ दो हफ्ता पहले ही हैदराबाद गया था. हिंदी कवि सम्मलेन वाले नहीं बुलाते शायद इसलिए क्योंकि मेरी हिंदी कवितायेँ समझ आ जाती हैं लोगों को इसीलिए शायद वो उन्हें मयारी नहीं समझते.



लिखने के अलावा क्या करने की ख्वाहिशें हैं?
हज़ारों खवाहिशें ऐसी कि हर खवाहिश पे दम निकले.



दस साल बाद इरशाद कामिल को किस रूप में तसव्वुर करते हैं?
दस साल बाद अगर इरशाद कामिल रहा तो इंशा अल्लाह दस कदम आगे होगा और दस गुना बेहतर इंसान होगा.



जिंदगी को कैसे देखते हैं?

ज़िन्दगी हरहाल में खूबसूरत है अगर आपको देखना आता है.



आस्तिक हैं ? क्या कभी लगा नहीं कि ''कैसा खुदा है तू ,बस नाम का है तू'' लिखने से फतवा झेलना पड सकता है ?

बेहद आस्तिक हूँ. एक मुस्लिम जमात ने इस बात पर बवाल किया भी था. लेकिन ये वो मुस्लिम जमात थी जिसने न मुस्लिम धरम को अच्छी तरह समझा था न मेरे गीत के इस बंद को, ख़ैर जिन्हें बन्दगी समझ नहीं आई उन्हें बंद क्या समझ में आएगा. मैंने लिखा था…



माँगा जो मेरा है जाता क्या तेरा है

मैंने कौन सी तुझ से जन्नत मांग ली

कैसा खुदा है तू बस नाम का है तू

रब्बा जो तेरी इतनी सी भी न चली


यानि मैंने वो चीज़ मांगी है जो मेरी है...मतलब मोहब्बत. मैंने वो चीज़ नहीं मांगी जो तेरी है...यानि जन्नत. हर इंसान अपनी मोहब्बत का मालिक है वो किसी को दे न दे, खुदा जन्नत का मालिक है वो किसी को दे न दे. अपनी चीज़ मांगने पर भी अगर न मिले तो बन्दगी का क्या मतलब?


''मिल जा कहीं समय से परे...'' जैसा दर्शन इरशाद कामिल इक्कीसवी सदी के फिल्मी गीतों में कैसे ले आते हैं?

मुश्किल बात अगर आसान भाषा में कही जाये तो आसान हो जाती है. मेरे लिए फ़िल्मी गीत आटा हैं, आटा जो पेट भरता है. साहित्य नमक है, नमक जो स्वाद बनाता है. मैं आटे में नमक बराबर साहित्य डालता हूँ फ़िल्मी गीतों में. साहित्य में दर्शन भी है और आकर्षण भी.



कोई क्यों ना प्यार करे इस मानीखेज, फलसफे से भरपूर शाइरी करने वाले शाइर को और जो उसे फिल्मों में मुमकिन बना लेता है, कोई हल्का और चलताऊ गीत आज तक उसने नहीं दिया है ??

फिल्मों में आने के बावजूद मैं समाज के प्रति लेखक की ज़िम्मेदारी को भूल नहीं पाया. मैं सिर्फ वही काम करता हूँ जिसकी वजह से मेरी नज़र नीची न हो. चलताऊ या खोखले गीत आपको शोहरत और पैसा दिलवा सकते हैं इज्ज़त और सकून नहीं.