Wednesday, March 25, 2009

तू ज्योंदा रहे मेरे शहर



आज सुबह उठा तो मेरे शहर -जो है भी और नहीं भी यानी श्री गंगानगर से एक एसएमएस ने बेहतर दिन की दुआ दी. ये आज खास इसलिए कि शहर बहुत याद आया ..हालाँकि वो दिन शायद ही हो जब मुझे उस शहर की याद न आती हो .. यूँ मेरे बचपन की स्म्रतियों में हनुमानगढ़ जिले का पीलीबंगा इलाका जो उस वक्त श्रीगंगानगर जिले का ही भाग था ..है तो किशोरपन की यादें भी उसके आसपास से ही है पर सिर्फ पॉँच साल की गंगानगर की रिहायश ने मुझे उस शहर का बना दिया है जितना पंद्रह साल की रिहायश ने जयपुर को नहीं बनाया खैर वो सुबह वाला सन्देश बाँटते हुए उस शहर को याद कर रहा हूँ -


रेलवे रोड दे नजारे ना हुँदै


मटका चौक दे इशारे ना हुँदै


जे गोदारा कोलेज दियां कुडियां ते सारे गंगानगर दे मुंडे आवारा ना हुँदै


रोनक लगदी ना दुर्गा मंदिर रोड ते गुरुनानक स्कूल विच हुस्न दे पवाडे ना


हुँदै खालसा कोलेज रोड वी सोणा ना होंदा


जे जीन टॉप ते लक दे हुलारे ना हुँदै



पंजाबी ना समझ पाने वाले मित्रों से क्षमा सहित

Sunday, March 15, 2009

तिब्बत का दर्द अपना भी है...



बचपन से हम तिब्बत को संसार की छत के रूप में पढ़ते हैं फिर वो भूगोल से हमारे इतिहास के अध्ययन में शामिल होता है तो कभी दयानंद सरस्वती उसे आर्यों का मूल निवास स्थान बताते हैं तो कभी उसे बोद्धों के एक प्रमुख केंद्र के रूप में जानते हैं और राहुल संकृत्यायन की चार तिब्बती यात्रायें भी हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं ,ये हमारी नियति या तिब्बत की दुर्गति कहें या समय का फरेब कि वो हमारे वर्तमान में भी है दुखद कारणों से है अशांत है, ये अफ़सोस की बात है ।
भारतवर्ष के इतिहास और संस्कृति का ये अमर पात्र इन दिनों अपने इतिहास की एक घटना के पचास साल पूरे कर रहा है ,वो घटना है क्रांति की जो 1959 में 10 मार्च को हुई थी इतिहास से वर्तमान में आके बात करें तो दलाई लामा भारत में शरणार्थी हैं ..हिमाचल के धर्मशाला में उनकी तथाकथित सरकार का कार्यालय भी है और ये आज से नहीं है इसे भी पचास साल हो गए हैं
जग जाहिर है कि भारत तिब्बत की इस सरकार को कूटनीतिक मान्यता देता है और चीन से भी उसके सम्बन्ध ठीक ठाक से हैं और तिब्बत का संघर्ष चीन से है हम ज्यादा कूटनीतिक पेचीदगियों में न जाएँ तो भी तिब्बतियों के हक की पैरवी करते भारत के बाशिंदों के लिहाज से उस दिन को इस रूप में देखना ज़रूरी लगता है कि 86 हज़ार तिब्बतियों के बलिदान के बाद भी तिब्बतियों को वो हक नहीं मिले थे जो वो मांग रहे थे चाह रहे थे इस लिहाज से ये उनका 1857 है हमारी सांस्कृतिक जड़ें उस देश में है ,
पाकिस्तान में लोकतंत्र खतरे में है बांग्लादेश में एक विद्रोह हुआ ही है श्री लंका और नेपाल भी कोई बहुत बेहतर स्थितियों में नहीं है पूरा भारतीय उपमहाद्वीप जिस तरह के दौर से गुजर रहा है उस दौर के बीच उस के सबसे बड़े देश और महा लोकतंत्र में आम चुनाव का बिगुल बजा है ! क्या हमें अपने आस पास देखना नहीं चाहिए..ताज़ा खबर ये है कितिब्बती संगठनों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के जेनेवा स्थित मानवाधिकार आयुक्त को गुहार लगाईं है कि चीन उस असफल क्रांति की पचासवीं सालगिरह के आयोजनों में भी भय दिखा रहा है और हमारे मानवाधिकारों का हनन दशकों से बदस्तूर जारी है... तिब्बत की भी कोई सुनेगा क्या?

Thursday, March 5, 2009

प्रभु जोशी - तुम चन्दन हम पानी

कलम पर पढ़ें

जाने माने चित्रकार और कथाकार प्रभु जोशी के काम और शख्सियत पर मेरी एक टिप्पणी -जो कल पत्रिका के इंदौर संस्करण में प्रकाशित हुई है


रंगों और शब्दों के बीच की आवाजाही का पड़ाव जयपुर

Sunday, March 1, 2009

रही परदे में न अब वो पर्दानशीं .....



स्लमडॉग मिलिनेयर और ऑस्कर पर अमिताभ बच्चन तक की राय इस तरह बदली कि दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है। मैं न तो डॉग शब्द की मीमांसा करने जा रहा हूँ ना भारत की छवि पर कोई स्यापा कर रहा हूँ कि भारत की बुराई से ही पुरस्कार मिलते हैं॥चाहे साहित्य हो या सिनेमा .पहली बात तो यह कि क्या कहानी,उसका लेखक और परिवेश,अभिनेता,गीत संगीत और तकनीकी स्तर पर ढेर सारे लोगों के जुड़ जाने के बाद भी सिर्फ इस आधार पर इसे भारतीय फिल्म होने से खारिज कर देना ठीक है कि इसके निर्माता निर्देशक भारतीय नहीं हैं.देखिये , बेशक साहित्य और सिनेमा जिन्दगी से बनते हैं और जिन्दगी इनसे मुतासिर होती है पर यकीनन धागे सी दूरी है इनकी जिन्दगी से...दोनों बिम्ब के माध्यम हैं सौ फीसदी सच दिखाना न साहित्य का काम है न सिनेमा का ...जैसे अतीत का सच इतिहास की विषय वास्तु है न कि ऐतिहासिक फिक्शन की ...एक बार हम मान लें स्लम डॉग में अतिरेक में भारत की बुराई को दिखाकर महान बनने की चेष्टा की गयी है तो कहूंगा कि जौहरों, चोपडाओं बडजात्यों के बौलीवुड में जो कुछ दिखाया जाता है क्या वो सच होता है पंजाब से बचपन से जुडाव रहा है ... वहाँ की नदियों का पानी पीकर और उससे सींचे खेतों का अन्न खाकर बड़ा हुआ हूँ . लोकप्रिय सिनेमा का पंजाब मुझे कहीं भी असली पंजाब नहीं लगता ..गुलज़ारनुमा कोशिश अपवाद स्वरुप ही होती हैं और जो दिखता है उसे मैं पंजाब में ढूंढता रहता हूँ . एक दिन मित्र फिल्मकार दीपक महान कह रहे थे कि भला हो भारतीय दम्पतियों की सूझबूझ का वरना कश्मीर में बर्फ पर नाचते गाते जोडों को देखकर फिर वास्तविक जिन्दगी में न पाकर तलाक़ देते देर न लगे कि मेरी पत्नी या पति वैसा नहीं लग रहा है ये है हमारा सिनेमा ,मेरा निवेदन ये है कि साहित्य और सिनेमा में जिन्दगी को यथारूप में न तो तलाश करना चाहिए न ये मुमकिन है . कहना चाहिए कि लोकप्रिय सिनेमा और डॉक्यूमेंट्री के बीच में यथार्थ के करीब का है सार्थक या समांतर सिनेमा..हाँ कभी भी इस हाशिये की सिनेमाई दुनिया का कोई उत्पाद भी लोकप्रिय हो जाता है या कभी इसका उलटा भी ..वो विरले हैं जो लोकप्रिय सिनेमा या साहित्य रचते हुए सार्थक बना जाएँ जिन्दगी के कड़वे सच से रूबरू करवादें
हाल में आई देव डी मुझे ब्रिलिएंट फिल्म लगी अनेक लोगों को फिल्म की भाषा को लेकर आपत्ति थी ..वो अपनी जगह गलत नहीं है पर जिस युवा वर्ग की वो फिल्म है ये उनकी भाषा है उनका जीवन है उनके समय का जीवन है , उन इत्रों से कहूंगा यकीन न आये तो २० से पचीस की उम्र के अपने भाई बहनों भतीजों के एसएमएस, ई मेल, चेट की भाषा एक दिन चोरी से पढने का नैतिक अपराध कर लें और ये भी कि जो कहे वो करें और जो करें वो ही जाहिर करें ये साहस भी उस पीढी में मिलेगा..हम भारतीय प्रतिकार की बजाय कड़वा घूँट पीने को महान मानते हैं ..बुरे के खिलाफ बोलने की बजाय चुप रहना...ये लगभग वैसे ही है जैसे सडांध मारते रिश्तों को जीना जीते रहना और मरने की हद तक जीनाखैर सिनेमा और साहित्य के वो बिम्ब जो यकीनन जिन्दगी से उठते हैं फिल्मकार या साहित्यकार की आंख ही जिन्हें देखती है और हम वाह कह उठते हैं इसकी वजह शायद ये होती है कि हम उसे उस तरह से नहीं देख पाते हैं...जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पात्र मैं हर बंगाली में ढूंढता हूँ पर निराश होता हूँ वो अच्छे प्यार होते होते हैं हो सकते हैं पर रबीन्द्रनाथ के पात्रों से नहीं लगते...दोष न रबीन्द्रनाथ का है न इन बंगाली मित्रों का .फर्क माध्यम का है और उसके क्राफ्ट का है और गरज ये कि हम सिनेमा और साहित्य को और कलाओं के लिए ये मान लें कि यकीनन ये जिन्दगी से है पर जिन्दगी की छायाप्रति न है और न ही हम में से कोई चाहेगा कि ये हो जाये फिर उनकी खूबसूरती रह जायेगी क्या?
आखिर में सूफियत के दो मिसरे-
रही परदे में न अब वो पर्दानशीं,
एक पर्दा सा बीच में था सो न रहा ...