Monday, May 23, 2011

''दूसरों के अंतस से जोड़ती है कविता''




इंग्रिड स्टोरहॉमेन भारत दूसरी बार आई हैं, उन्होंने तुलनात्मक साहित्य की पढ़ाई की है, दो कविता संग्रह आ चुके हैं। एक कथात्मक रिपोर्ताज लिखा है चेर्नोबिल पर, जिस पर उन्हेंं नार्वे का प्रतिष्ठित सुल्ट सम्मान प्राप्त हुआ है..
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काफी हाउस की आखिरी टेबल, जहां से स्मोकिंग जोन शुरू होता है, अपने लैपटॉप पर तेजी ग्रोवर की कविताओं का अनुवाद करते हुए थमी इंग्रिड स्टोरहॉमेन को एक सिगरेट ब्रेक की जरूरत थी। मुझे ऑफर किया तो मैंने जवाब दिया कि मैं खुशकिस्मत नहीं हूं। मेरी बात के जवाब में उनका ठहाका धुएं के छल्लों में घुल-मिलकर उस टेबल पर बिखर गया और गंध ने मुझे भी अपने आगोश में ले लिया। पड़ोस की टेबल पर कुछ किशोरों का समूह अठखेलियों, शरारतों में मुब्तिला है और अगली टेबल पर एक युवा जोड़ा जेरेबहस है। उस हंसी में शामिल था बहुत कुछ।

वह इंग्रिड हैं, भारत दूसरी बार आई हैं, उन्होंने तुलनात्मक साहित्य की पढ़ाई की है। दो कविता संग्रह आ चुके हैं, एक कथात्मक रिपोर्ताज लिखा है चेर्नोबिल पर, जिस पर उन्हें नार्वे का प्रतिष्ठित सुल्ट सम्मान दिया गया है। सुल्ट का अर्थ है- भूख। सुल्ट दरअसल नार्वे के नोबेल विजेता लेखक हाम्सुन का चर्चित उपन्यास है, जिसके नाम पर ये सम्मान दिया जाता है। वो अपने बारे में बताती हैं कि ओस्लो में छ: साल तक कॉलेज की पढ़ाई की, अब पूर्णकालिक लेखक हैं, पिछले दस साल से, चार किताबें और फिलहाल एक उपन्यास कुछ अनुवाद और कुछ छिटपुट काम में लगी हैं। नार्वे सरकार की एक राइटर फैलोशिप पर भारत आई हैं और इसके तहत एक किताब लिख रही हैं। भोपाल में कई भारतीय कवियों को वह सुन आई हैं, कोलकाता घूम लिया है, ईसाई मिशनरियों के काम, उनकी कार्य शैली और विरासत से प्रभावित हुई हैं।

वे बताती हैं कि उनका दूसरा कविता संग्रह फॉर्म आधारित कविताओं का संग्रह है अब उन्होंने भारतीय कवियों का अनुवाद भी शुरू किया है उनमें पहला नाम तेजी ग्रोवर का है। मैं उनसे पूछ बैठता हूं कि भारतीय और नार्वेजियन कविताओं में क्या अंतर पाया है तो वे सोच में पड़ गईं। मुझे लगा कि मैंने जल्दबाजी की है, जबकि इंग्रिड ने अभी भारतीय कविताओं से साक्षात्कार किया ही है, पर उसने जो जवाब दिया वह यह था -'' मुझे लगता है कि नार्वे की कविताएं ज्यादा अंतर्मुखी और राजनीतिक है। मुझे लगा कि भारतीय कवि फिजिकल कविता को ज्यादा पसंद करते हैं। हालांकि इसे मेरा शुरुआती निर्णय भी कहा जा सकता है और संभव है कि कुछ और कवियों को पढऩे के बाद मेरी धारणा पूरी तरह बदल जाए।''

इस समय मुझे महसूस होता है कि सही समय है, जब मुझे इंग्रिड से उनके पसंदीदा कवियों के बारे में और उनकी पसंदीदा कविता के बारे में पूछ लेना चाहिए, मैं पूछ लेता हूं तो वे कहती हैं -'' ग्रीक माइथोलॉजिकल कविताएं मुझे प्रिय हैं वहीं रिल्के और मारिना स्वेतायेवा भी मेरी पसंद में शामिल हैं।'' थोड़ा रुककर वह कहने लगती हैं कि दरअसल मुझे लगता है कि कविता मेरे अंतस को दूसरों के अंतस से जोड़ देती है। जब इसके बाद उन्होंने यह कहा कि उसे बौद्धिक तत्वमीमांसीय कविताएं पसंद हैं, तब मुझे लगा कि जरूर वह दर्शन की छात्रा रही हैं तो उसने कहा -'' कुछ औपचारिक, कुछ अनौपचारिक। कविता और भाषा उसे जीने के लिए जगह उपलब्ध कराते हैं, शायद मन का सा जीवन, जो अन्यथा असंभव सा हो।'' शायद सब लेखक और कवि ऐसा ही चाहते हैं, इंग्रिड फिर कहां अलग हैं। वह भी सच्ची और पक्की कवयित्री हैं।

उनकी पहली सिगरेट कब की खत्म हो चुकी थी, मुझे पता ही नहीं चला, अब इंग्रिड दूसरी के लिए व्याकुल थीं।

Saturday, May 21, 2011

2050 तक भारत का विभाजन जातीय आधार पर हो जाएगा! / बेहतर दुनिया एक असंभव ख्वाब है !


जातीय गणना की परिणति जो मुझे नजर आती है वह यह है कि किसी भी विधानसभा या संसदीय क्षेत्र में आनुपातिक रूप से कम जनसंख्या वाली जाति के लोग कभी प्रतिनिधि नहीं हो पाएंगे क्योंकि कोई राजनीतिक दल उन्हें टिकट ही नहीं देगा...
इन हालात में 2050 तक भारत को कई विभाजनों के लिए तैयार रहना चाहिए, और तब विभाजन के आधार धर्म नहीं, जातियां होंगी!



अब साधु भी जाति वाले होते हैं, हमारे समय के एक लोकप्रिय संत कैंसर का इलाज करते हैं, मगर जाति उनके नाम के साथ संत होने के बावजूद जुड़ी है, जो जातीय बोध से मुक्त नहीं हो पाए, मुझे माफ करें वे कितने संत हुए हैं, मेरी चिंता और जिज्ञासा है! यह अब सिद्ध और प्रसिद्ध है कि राजनीति की अस्तित्वमूलक जरूरत है जाति, पर दुख तब होता है जब बौद्धिक लोग आर्थिक स्थितियों के अंदाजे के लिए सामाजिक आधार की गणना को सही ठहराते हैं। मुझे क्षमा कीजिए, इतिहास का छात्र होने ने यह समझ दी है कि धर्म ने आर्थिक आधार पर समाज का बंटवारा किया और उसका आधार कर्म था और समय के साथ उसका आधार जन्म हो गया। अब अगर आर्थिक जरूरत से गणना करनी है तो आर्थिक गणना ही कर लीजिए साहेब! दूसरा यह कि मुझे समतामूलक समाजवादी समाज की कल्पना में जाति की यह निरंतरता बाधा नजर आती है, भारत के लिहाज से कहा जाए तो पूर्व वैदिक युग जिसे ऋग्वैदिक युग भी कहा जाता है, केवल कर्म आधारित वर्ण थे जो उत्तरवैदिक युग में जन्म आधारित हो गए। कहना जरूरी है कि ऋग्वैद के पुरुष सूक्त में आदि पुरुष के अंगो से वर्ण उत्पत्ति को भास शास्त्रीय आधार पर बाद में जोड़ा गया स्वीकार किया गया है।

अगर जातीय गणना को स्वीकार करने का कारण हम यह मानते हैं कि यह भारतीय समाज की कड़वी सचाई है, तो धर्म इससे पहले का सच है और धर्म के अन्यायों को भी हमें कड़वा सच मानकर स्वीकार लेना चाहिए और सामाजिक विभेद को भी मान लेना चाहिए, और उसकी निरंतरता में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मुझे हैरानी के साथ दुख है कि हमखयाल वामपंथी दोस्त भी इसके समर्थन में दिख रहे हैं, ऐसी संस्थागत पैदाइश जिसका जनक धर्म है, उसे कैसे स्वीकार पा रहे हैं, फिर धर्म को भी स्वीकार करना चाहिए, क्या यह धार्मिक स्वीकार बाबा माक्र्स की सोच से विरोधाभासी नहीं है!

मुझे यह भी प्रकारांतर से लगता है कि सामाजिक सुधार की एनजीओवादी एजेंडे की जरूरत भी जातीय निरंतरता है। संभव है कि गांधी द्वारा जन्म आधारित जाति व्यवस्था का समर्थन करना उनकी भी राजनीतिक मजबूरी हो, जिसका अंबेडकर ने विरोध किया था, यह एक ऐतिहासिक सच और तथ्य है। इस जातीय गणना की परिणति जो मुझे नजर आती है वह यह है कि किसी भी विधानसभा या संसदीय क्षेत्र में आनुपातिक रूप से कम जनसंख्या वाली जाति के लोग कभी प्रतिनिधि नहीं हो पाएंगे क्योंकि कोई राजनीतिक दल उन्हें टिकट ही नहीं देगा, और फिर मतदान व्यवहार भी उत्तरोत्तर इसे प्रगाढ़ करेगा, कहिए कि क्या मैं गलत सोचता हू!

जिन लोगों की आंखों में बेहतर दुनिया का सपना अब भी झिलमिलाता है, बेहतर दुनिया का मतलब बिना हमारी रेशियल, एथ्नीकल पहचान के, समान वजूद और व्यवहार के साथ जी पाना है, उनके लिए भारत एक भौगोलिक संभावना बचा है, सेवा में सविनय निवेदन है कि अब मुझे नहीं लगता। अब भारत में जाति छोड़ो, भारत जोड़ो के नारे शायद ही कभी सुनाई दें। खुदा न करे, पर इन हालात में 2050 तक भारत को कई विभाजनों के लिए तैयार रहना चाहिए, और तब विभाजन के आधार धर्म नहीं, जातियां होंगी!