Friday, December 17, 2010

हमने अपनाया दर्द जमानेवाला




निजता वहां समाप्त हो जाती है जहां उसके दायरे में आपके निजी संदर्भ समाप्त होना शुरू होते हैं।


व्यवहार का बुनियादी सिद्धांत है कि मेरी आजादी का दायरा आपकी आजादी तक है और व्यक्तिगत आजादी का दायरा लिहाजा मौहल्ले, गांव, शहर प्रदेश और देश की आजादी से तय होना ही चाहिए। मैं अगर आपका दोस्त हूं और आपके परिवार और प्रियजनों के बारे में पूछता हूं और ठीक वैसा ही आप भी करते हैं तो यह निजता के दायरे में आता है, पर अगर हम आपस में देश समाज का कोई मुद्दा ले आते हैं और तय करते हैं, अगर वैध अवैध रूप से तय करने की स्थिति में हैं तो, तो यकीनन यह निजी बात नहीं है। राडिया मोहतरमा रतन टाटा साहेब से क्या गुफ्तगू करती हैं, कितनी अंतरंगता से करती हैं यह किसी गॉसिप का विषय हो सकता है पर गंभीर चर्चा का नहीं, वह अंतरंगता अगर किसी स्तर पर देश के फैसलों पर असर डालती है तो सेवा में सविनय निवेदन यह है कि यह आपकी निजता का उल्लंघन नहीं है, कतई नहीं है।

यह ऐसे वक्त का मसअला है जब विकीलिक्स के खुलासे कहर बरपा रहे हैं, इसके प्रमुख जूलियन असांजे को झूठे-सच्चे रेप के मुकदमे में फंसाया गया है और यह पंक्तियां लिखे जाने तक उन्हें लंदन हाईकोर्ट ने सशर्त जमानत दे दी है। वहां यही सवाल सरकारें भी उठा रही हैं, कि यह हमारी निजता और गोपनीयता का हनन है। मानना पड़ेगा कि वहां तो देशों के परस्पर संबध और कूटनीतिक सवाल तथा चुनौतियां महत्वपूर्ण हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो निजता वहां समाप्त हो जाती है जहां उसके दायरे में आपके निजी संदर्भ समाप्त होना शुरू होते हैं। सिमटे तो बूंद और फैले तो समंदर, माफ कीजिए साहिब, ये तो मुमकिन नहीं है।

साहित्य और कलाओं में कहते हैं कि आपका लेखन और सृजन बडा होता है जब आपका दर्द और अनुभूतियां पूरे जहान का दर्द हो जाए, राडिया और रतन टाटा जैसे दीवानों की दीवानगी देखिए, देश के तथाकथित दर्द का अपना दर्द कहकर अपना बचाव करने की बेहद मासूम सी फिराक में हैं। इस मासूमियत पे कौन ना मर जाए ए खुदा? हां यह जरूर संभव है कि जहां से राष्टृ गौरव राडिया जी और रतन जी की अंतरंग बातें प्रारंभ होती हों उन्हें सार्वजनिक ना किया जाए। पर सब कुछ वैसा कब होता है जैसा होना चाहिए या जैसा हम चाहते हैं। राडिया रतन जो चाहते थे बहुत कुछ हुआ अब यह भी हो जाता कि सारा प्रसंग-प्र्रपंच जाहिर ना होता तो शाइर निदा फाजली की बात तो झूठ हो जाती और उन्हें जमी भी मिल जाती, आसमां भी मिल जाता और मुकम्मल जहां भी मिल जाता।

लगभग अप्रासगिक से कर दिए गए या हो गए नेता चौधरी देवीलाल का एक कथन हरियाणा के हर विधान सभा चुनाव में दीवारों पर पुतवाया जाता है कि लोकराज लोकलाज से चलता है, मुझे बेतरह इस प्रसंग में भी याद आ रहा है, दरअसल यह लडा़ई निजता की नहीं है लोकलाज की है, जिसे सत्ता और धन के मद में भुला दिया जाता है पर जब वे कर्म सामने आते है तो हमारी छवि को छिन्न-भिन्न होते हुए देखना हमारे लिए असह्य हो जाता है तो हमें निजता का आवरण याद आता है। मेरा बहुत विनम्र सा खयाल है कि हैकिंग, टैपिंग और सूचना का अधिकार कहीं करीब करीब ही हैं। संभव है ये सब मिलकर कुछ अच्छा करेगे। मंतव्य और परिणामों को साथ रखकर हर बात का मतलब निकालने की फुरसत किसके पास है साहेब। खुशवंत सिंह, अरिंदम चौधरी और कई स्तंभकार खुलकर पत्रकारों की कार्यशैली की आड़ में बरखा दत्त-वीर संाघवी को बचाने का प्रयास कर चुके हैं, पर मेरे जैसे कितनों के ही मन में उनकी नायकीय छवि कर जो हश्र हुआ है, वह नाकाबिलेभरपाई है। राडिया-रतन अपनी निजता और बरखा- वीर सांघवी अपनी पत्रकारीय शैली की दुहाई देकर क्या सब कुछ को झुठला सकते हैं? विज्ञान के ऊर्जा सरंक्षण के नियम को भी याद कर लूं कि ऊर्जा ना नष्ट होती है ना उसका जन्म होता है केवल रूप बदलता है। राडियाओं, रतनों, बरखाओं और वीरों के फैसले, उनके पाप-पुण्य,अंतरंगताएं और अतुलनीय राष्ट्रप्रेम हमारी फिजाओं में रहेगा। क्यांकि अब यह इतिहास है और इतिहास पीढियां भुगतती हैं, लम्हों की खता सदियां झेलती हैं।

Saturday, November 20, 2010

शाही शादी में अब्दुल्ला और दीवाने कितने?


एक सरकार आई थी जिसके लिए परंपरा और हैरिटेज का अर्थ केवल पर्यटन का बाजार था और अब अनेक बुद्धिजीवियों और मीडिया के दोस्तों के लिए हैरिटेज और राजस्थानी संस्कृति का अर्थ केवल सामंती परपराओं और प्रतीकों की निरंतरता है...
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शादी की तैयारियां जोरों पर थी, और पर्यटन व्यवसाय से वाबस्ता एक दोस्त चैट पर मुखातिब थे, उन्होंने पूछा कि क्या मैं उसमें शामिल हो रहा हूं, तो मैं ने कहा कि मन नहीं है और मन होता भी तो न्यौता नहीं हैं। मैंने प्रतिप्रश्र कर दिया आप तो जा ही रहे होगे पेशेवर कारणों से? तो उन्होंने कहा कि कहां राजाओं के घर मैं सुदामा? मेरा जवाब अनायास था बंधु, माफ कीजिए, ना तो वो राजा हैं और ना आप सुदामा ही। तो मेरे दोस्त मेरी इस बात पर मुग्ध भाव से मुस्कुराए, जैसी भी मुस्कुराहट चैट बॉक्स में संभव थी। पर मेरी यह छोटी बात या छोटे मुह और छोटी बात कि वे अब राजा नहीं रहे, सबको पता है और नहीं भी, या बहुत से लोग पता होकर भी अनजान बने रहते हैं, संभव है इससे उनके कोई हित जुड़े हों, माफ कीजिए साहिब, अगर पत्रकार के लहजे में कुछ कह रहा हूं तो। पर देखिए ना, मीडिया का एक बड़ा तबका अब भी यह मान रहा है कि किसी राजकुमार की शादी है, कई राजे-राजकुमार शादी में शामिल हैं। संविधान में हम सब बराबर हैं, सारी शाही पदवियां समाप्त की जा चुकी हैं।

अब जब कि शादी हो गई है, मुहावरे में कहें तो सब कुछ राजी खुशी, सांई सेंती निपट गया है, मेरी यह अब्दुल्लानुमा दीवानगी ही मानिए कि अशुभ बातें कह रहा हूं, गौरवान्वित शहर का मजा किरकिरा कर रहा हूं, पर क्या किया जाए। एक सरकार आई थी जिसके लिए परंपरा और हैरिटेज का अर्थ केवल पर्यटन का बाजार था और अब अनेक बुद्धिजीवियों और मीडिया के दोस्तों के लिए हैरिटेज और राजस्थानी संस्कृति का अर्थ केवल सामंती परपराओं, प्रतीकों की निरंतरता है तो तकलीफ का ईमानदारी से बयान दीवानगी कहा जाए, वाजिब ही है। इस शहर में ऐसी दीवानगी वाले लोग कम नहीं होगे, यह भी मुझे यकीन है, अकेले होने का कोई मुगालता नहीं है मुझेे।

खैर, हम सब आजाद हैं, अपनी राय बनाने के लिए, अपनी जिंदगियां और उसे जीने के तौर तरीके चुनने के लिए, संविधान को भूलने के लिए भी। पर राजस्थानी की एक कहावत हमें अपने आसपास टांग या चस्सा करके रख लेनी चाहिए- आप कमाया कामड़ा कीनै दीजे दोस।

Saturday, October 2, 2010

मेरी जात क्या पूछते हैं साहिब ?



महानगरों में डेढ़ दशक की रहनवारी के बाद मैं नाउम्मीद सा हूं कि भारत में कभी ऐसा होगाकि जब लोग आपकी जातीय पहचान जानने को लालायित नहीं होंगे। मेरा जाती खयाल है कि यह लालायित तबका हमेशा ही बड़ा रहा है और रहेगा भी।


लेखक और जाने माने स्तंभकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक पिछले दिनों मेरे लिए अतिरिक्त सम्माननीय इसलिए हो गए कि उन्होंने जनगणना में जातीय आधार और फिर जातिवाद के खिलाफ एक अभियान की जोरदार कोशिश की, मैं जाती तौर पर इस खयाल का रहा हूं, थोड़ा व्यक्तिगत बात कहने की छूट लेते हुए कहूं तो इसीलिए अपने नाम को किसी जातिमूलक प्रत्यय से बचा के रखता हूं। मेरा मानना है कि अगर मैं अपने काम में बुरा हूं तो गाली देने के लिए और अच्छा हूं तो भी श्रेय के लिए किसी जातिसूचक शब्द तक जाने की जरूरत क्या है। वैसे यह भी पूरी तरह जाती मामला है कि आप अपनी पहचान किस रूप में मानते हैं और किस रूप में लोगों के सामने पेश होना चाहते हैं, यकीन मानिए मुझे जरा भी अफसोस नहीं है कि इस घोर गैरजातिवादी सोच के कारण जिंदगी में कितने दोस्त खोए हैं जिनके लिए किसी की पहचान उसकी जात से शुरू होती है। इतिहास के थोड़े बहुत जानकार तो कम से कम मेरे साथ खड़े ही होंगे कि इनसान तो दुनिया में तब भी था जब किसी काल विशेष में जातियों का विभाजन नहीं हुआ था, और तार्किक रूप से जब कर्म के आधार पर, अगर केवल भारतीय संदर्भों की बात करें तो, पहले वर्ण बनें और तदंतर वे जाति के रूप में प्रतिस्थापित, प्रचलित और मान्य हो गए, सेवा में, सविनय निवेदन है कि, तो फिर क्या इस मूलत: कर्म आधारित व्यवस्था को पूरे जीवन का आधार बनाना वाजिब है?
मुझे अपने विद्यार्थी जीवन का एक किस्सा याद आता है, मुझसे एक बहुत मेधावी लड़की, जो एक दर्जा आगे थी पर उम्र में मुझसे छोटी थी, तथाकथित रेगिंग के दौरान, उसने मेरे नाम को अधूरा पाकर पूछा- आगे? तो इस अप्रत्याशित सवाल पर मेरा जवाब भी अनायास था कि अगर मैं जिस जाति से हूं जिससे आप, तो क्या आप मुझसे शादी कर लेंगी और नहीं तो क्या मुझे गोली मार देंगी? मेरे जवाब में तल्खी थी और अब उसके पास कोई जवाब नहीं था, जाहिरन उसका मूड खराब हुआ और मेरा भी। और फिर जब तक हम उस संस्थान में रहे, हमारा छत्तीस का आंकड़ा रहा। इससे इतर भी जिंदगी में जाति ना जाहिर करने की वजह से बहुत अजीबोगरीब वाकए मेरे साथ हुए हैं, कई बार लोग यह मानते हैं कि दलित होकर किसी हीनताबोध में जाति छुपाता हूं, या कई बार तथाकथित वर्णसंकर होने के किस्से अपने बारे में सुनने को मिलते हैं, जो मानना चाहें लोग मान सकते हैं। काबिले गौर है कि ऐसे वाकए तथाकथित सभ्य-पढ़े लिखे तबकों की ओर से होते हैं, महानगरों में डेढ़ दशक की रहनवारी के बाद मैं नाउम्मीद सा हूं कि भारत में कभी ऐसा होगाकि जब लोग आपकी जातीय पहचान जानने को लालायित नहीं होंगे। मेरा जाती खयाल है कि यह लालायित तबका हमेशा ही बड़ा रहा है और रहेगा भी।
अपने निजी उदाहरण से ही एक बात और कहूं तो अपनी नौकरियों के दौरान भी एचआर विभागों के लोगों से हर जगह मेरी झड़प हुई है, वे कोई तर्क आसानी से नहीं मानते कि मैं क्यों अपनी पहचान में जाति इस्तेमाल नहीं करता, और वे मेरे पिता के नाम से उठा के जातिवाचक शब्द मेरे नाम से जोड़ देते हैं, और मैं अकसर उग्र हो जाता हूं, पर फिर मुझे उन पर रहम आता है, और फिर खुद पर भी। दुआ ही कर सकते हैं कि जातियां हमारी बुनियादी पहचान ना बनें, और जातियों के आधार पर हम दोस्तियां या रिश्ते या दुश्मनियां ना बनाएं। ऐसे जातिनिरपेक्ष लोग अभी तो बहुत कम हैं, वैसे भी हमें जातियों में बांटकर अपनी जीत को पक्का करना सियासत की मजबूरी और बेशर्मी हो सकती है, पर हमारी क्यों हो?

Monday, June 21, 2010

लेखक भी तो बाजार का हिस्सा हैं




क्या आप यकीन कर सकते हैं कि आजादी के बाद के साठ सालों के बारे में कोई इतिहास निर्विवादित रूप से लिखा जा सकता है जिस पर कोई ना कोई ‘आहत’ ना हो।


कोई लेखक क्यों लिखता है, सवाल बहुत बड़ा है और इसके जवाब कई हो सकते हैं। इस एक सवाल पर सैंकड़ों शोध हो सकते हैं, हुए भी होंगे, कई किताबें लिखी जा सकती हैं, लिखी भी गई होंगी। इस विषय पर लिखने के बारे में सोचने से पहले लेखक रसेल बेकर का एक कथन कहीं से मेरे सामने आया और जेहन पर तारी रहा है। वह कथन यह है- ‘मैं केवल लेखक होने के लिए ही उपयुक्त था, मुझे संदेह था कि क्या मैं वास्तव में कोई भी कर सकता हूं, लेखन के लिए किसी काम को करने की जरूरत ही कहां होती है।’ आंशिक रूप से सहमत होते हुए भी मैं रसेल के इस कथन से पूरी तरह सहमत तो नहीं हो सकता।

इतिहास का विद्यार्थी हूं और हाल के कुछ सालों में इत्तेफाकन इतिहास पर लिखी किताबों ने ही ज्यादा कहर बरपाया है, कई चूलें हिलाई हैं, सत्ताएं उखड़ती-उखड़ती बची हैं। कभी नेहरू को लेकर, कभी गांधी को लेकर, कभी जिन्ना को लेकर कभी इंदिरा को लेकर। मैं अक्सर ये सोचता हूं कि आजादी के बाद के भारत को लेकर सबसे महत्वपूर्ण किताब रामचंद्र गुहा ने लिखी- इंडिया आफ्टर गांधी। शुक्र है कि उस पर कोई विवाद नहीं हुआ, मुझे यकीन है कि विवाद पैदा करने वाले इसका वृहदाकार देखकर खोलने की हिम्मत नहीं करते होंगे, खोजकर विवादास्पद पंक्ति या विचार खोजना तो बाद की बात है। क्या आप यकीन कर सकते हैं कि आजादी के बाद के साठ सालों के बारे में कोई इतिहास निर्विवादित रूप से लिखा जा सकता है जिस पर कोई ना कोई ‘आहत’ ना हो। इसलिए मेरे प्रिय इतिहासकार गुहा पर निस्संदेह ईश्वर मेहरबान है, शुक्र है।

जिन्ना पर जसवंत सिंह ने लिखा, बवाल मचा, गांधी पर जेड एडम्स की किताब आई -नेक्ड एम्बिशन, बवाल ना हो, ऐसा हो नहीं सकता था, तो हुआ। अब तो कई बार यह भी लगता है कि इन ऐतिहासिक पात्रों पर कुछ भी लिख दीजिए, चर्चा और विवाद तय है। और यही बात इस बहस की मूल बात है जिसे दूसरे तरीके से कान पकडऩे के रूप में लेना चाहिए यानी लेखक विवादित होकर चर्चा मे आकर लिखता है या इन विषयों पर कुछ भी लिख दे तो चर्चा में आना, विवाद में आना लाजिम है। मेरी राय है कि नई किताब आए तो ज्यदा महत्वपूर्ण उसका तथ्यसम्मत होना है, संभव है लेखक ने अब तक अज्ञात या लगभग अज्ञात तथ्यों और स्रोतों को खेजा हो या पूर्व उपलब्ध तथ्यों और स्रोतों की पुनव्र्याख्या की हो। जेड एडम्स जो एक काबिल और समझदार इतिहासकार माने जाते रहे हैं, ने भी यही किया, विवाद होना लाजिम था क्योंकि इसमें एक महान इनसान की सहज मानवीय कमजोरियों की ओर इशारा था, यह कौन पूछे कि वो तथ्यसम्मत है या नहीं, हम उनके नाम पर राजनीति की रोटी सेंकते हैं, तो उनकी छवि को बेदाग रहना चाहिए तथ्य जाए भाड़ में, व्याख्या जाए जहन्नुम में। और यही बात बहुत संभव है कि जेवियर मोरो की लाल साड़ी को लेकर हो।

अब जरा इस बात पर आएं कि लेखक क्या ऐसे विषयों पर जानबूझ कर लिखता है, इस तरह से जानबूझकर लिखता है कि वह विवाद में आ जाए, पहली बात तो यह कि विवदित विषय पर लिखने में कोई बुराई नहीं है, पर शर्त इतनी सी है कि तथ्यों के साथ लिखा जाए। ओमपुरी की जीवनी लिखी नंदिता पुरी ने, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान एक डिनर पर वे साथ थीं तो पत्रकारीय मित्रता भाव से पूछ बैठा, उनका जवाब विश्वसनीय था, जिसे बाद में उन्होंने मंच से भी स्वीकारा कि उस किताब के विवादित अंश बिना उनकी जानकारी के संभवत: प्रकाशक ने जारी कर दिए। तो दूसरी बात यह कि मुझे यह लगता है कि विवाद और उसके बाद बेस्टसेलर होने के गणित में लेखक से ज्यादा भूमिका प्रकाशक की होती है, किताब लिखना और छपना दोनों अलग बाते हैं और छपकर बिकना इससे भी अलग और आगे की बात। लेखक चाहे- अनचाहे इस बाजार के गणित का हिस्सा ना हो, ऐसा दावे के साथ हम नहीं कह सकते, पर लेखक लिखता क्यों है और विवादित लेखन सायास करता है क्या? इस सवाल के लिए हमें यह और साफ तौर पर देखने की जरूरत है कि यश की इच्छा तो सृजन में छुपी होती ही है, और सृजन के पाठक या दर्शक या श्रोता की दरकार भी सहज है, इसके साथ अर्थ का जुडऩा भी स्वाभाविक है, अखबार तात्कालिक और विवादित विषयों को उठाते ही है, यह पठनीयता के लिहाज से किया जाता है, और यह पठनीयता बाजार से भी कई बार संचालित होती है, पर पुस्तक लेखन हो या अखबार, इसका विस्तार अतिरेक में किसी भी हद तक जाने का हो जाए, यह असंभव नहीं है तो सही तो इसे कोई शायद ही कहेगा, पर अंतत: अगर बाजार का दोष है तो गालियां सिर्फ लेखक को क्यों दी जाए? यानी उसे बेचारा मान कर उसी को बलि का बकरा मत बनाइए।

Saturday, May 1, 2010

समय जब लिखता है इतिहास



हाल ही एक किताब आई है- गांधी: नेक्ड एम्बिशन, जो ब्रिटिश लेखक जेड एडम्स ने लिखी है, इसमें गांधी के यौन व्यवहार पर खुलकर बात की गई है।


ऑस्टे्रलिया के गांधीवादी दोस्त अब्बास रजा अल्वी का ई-मेल आया, उनकी चिंता वाजिब है। दरअसल एक किताब आई है जो ब्रिटिश लेखक जेड एडम्स ने लिखी है- गांधी: नेक्ड एम्बिशन। जेड एडम्स फिलहाल लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एडवांस स्टडी के अंग्रेजी अध्ययन विभाग में रिसर्च फेलो हैं, उन्हें हम द डायनेस्टी- गांधी नेहरू स्टोरी, टोनी बेन जैसी किताबों के लिए जानते हैं। कहा जा रहा है कि इस नई किताब में गांधी के यौन व्यवहार पर खुलकर बात की गई है, अल्वी को यह खबर वहां के एक अखबार में मिली, वे इसलिए भावुक हुए कि कुछ लेखक सस्ती लोकप्रियता के लिए गांधी पर कीचड़ उछाल रहे हैं। फिर तो कई ईमेल के जरिए यह लिंक देश भर से जाने अनजाने लोगों से बार-बार आया, सभी राष्ट्रपिता की छवि को लेकर बहुत चिंतित प्रतीत हुए। दरअसल, गांधी पर इस तरह की यह पहली किताब नहीं है, जैसे हंसराज रहबर ने भी कभी गांधी बेनकाब लिखी थी। इतिहास के विद्यार्थी के तौर पर मेरा मानना है कि भावुकता से ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य या वह स्रोत हैं जिन के आधार पर निष्कर्ष निकाले गए हंै। और व्यक्ति कोई भी हो, कोई भी ऐतिहासिक निर्णय तो आखिरकार व्यक्ति की बजाय तथ्य से तय होगा और ऐसा होना भी चाहिए। एक बात और मेरी समझ से बाहर है कि क्या महान लोगों को हमें सामान्य मानवीय कमजोरियों से ऊपर मान लेना चाहिए? क्या यह सच नहीं है कि स्थूल भावुकता हमें कहीं नहीं ले जाती, तर्क और तथ्यों के आलोक में निपजी भावुकता यकीनन स्थाई और सहज हो सकती है। मान लीजिए, अतीत में मेरे बुजर्गो ने कुछ मानवीय कमजोरियों के वशीभूत कुछ बुरा काम किया तो मुझे उसे उसी सहजता से क्यों नहीं स्वीकार करना चाहिए जितना अच्छे कामों को स्वीकारते हुए गौरवान्वित होता हूं। इसी तरह, गांधी मेरे प्रिय व्यक्तित्वों में से हैं और अगर कोई ऐतिहासिक तथ्य गांधी में कुछ मानवीय कमजोरियों को सिद्ध भी कर दें तो उनके पिछली सदी में हमारे सबसे महत्वपूर्ण और सर्वकालिक महान व्यक्ति होने का तथ्य और उनका महान काम कमतर तो नहीं हो जाएंगे?

Monday, April 26, 2010

ऑरकुट भर आकाश है, ट्विटर भर संसार




इस नई चौपाल ने नई बहस, नई आजादी, नई चुनौतियों को जन्म दिया है, कोई भी नया संचार माध्यम अच्छे के साथ बुरी संभावनाओं को भी अपने भीतर लिए हुए होता है, तो यह चौपाल भी इसका कतई अपवाद नहीं है और इसमें कुछ नया भी नहीं है। अब यह तो यकीनन इस्तेमाल करने वाले पर ही है कि वह किसी माध्यम को कैसे अपनाता है जैसे विषयांतर होने की आजादी लेते हुए कहूं तो, लगभग सवा सदी से गांव के अकेले मेरे ब्राह्मण परिवार और पढे लिखे भी यानी ज्ञानपिशाच परिवार ने धर्म का इस्तेमाल रचनात्मक कम और अपने स्वार्थवश ज्यादा किया तो इसमें धर्म का क्या दोष?


मार्च के आखिरी दिन की शाम ढल गई थी, मेरे विवाह की अफवाह से ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर और बज पर हंगामा था, थोड़ी सी देर के वक्फे में आश्चर्यजनक रूप से तकरीबन डेढ़ सौ लोगों तक अफवाह पहुंच गई और सुबह तक एसएमएस, फोन, ईमेल से और व्यक्तिश: शुभकामना, बधाई, आश्चर्य और तानों का मिश्रित सिलसिला रहा, मेरी हालत जिंदगी में कभी इतनी एम्बे्रसिंग नहीं हुई, ये दरअसल पहली अप्रेल की पूर्व संध्या पर एक मित्र का मजाक था पर इस प्रकरण से जाती तौर पर सोशल नेटवर्किंग की ताकत का एहसास मुझे गहरे तक हो गया। अब इसे जरा व्यापक स्तर पर देखने की कोशिश करें तो शशि थरूर और ललित मोदी की ट्विटरिंग से दुनिया में भूचाल अभी थमा नहीं है, थरूर की महिला मित्र सुनंदा पुष्कर के तथाकथित फेसबुक अकाउंट पर की गई टिप्पणियां भी चर्चा में रही हैं, कुलमिलाकर नतीजा यह है कि ऑरकुट, फेसबुक ट्विटर के नाम तद्भव रूप में गांव की चौपाल पर बैठे लोगों यानी सोशल नेटवर्किंग से लगभग नावाकिफ लोगों की जुबान पर आ गए हैं और गोया इस कदर कि पड़ौसी की बात हो रही हो। और कम्प्यूटर से जुड़ा शायद ही कोई शख्स होगा जो किसी ना किसी सोशल नेटवर्किंग पर ना होगा, मेरी जानकारी में तो नहीं ही है, आप भी याद करके देखिए क्या आपके परिचय में कोई ऐसा है।

सैद्धांतिकी की स्तर पर दो समाजशास्त्रीय शब्दों से मेरा नजदीक का संबंध रहा है, वे हैं- समाजीकरण और सामाजिक अंतर्कि्रया। आज इस वेबजालीय उठापटक की बात करते हुए इन दोनों शब्दों की अनुगूंज हमारे पास महसूस हो रही है। मूल वजह ये है कि किसी भी जीव का अपना समाज होता है और उसकी अपनी समाजीकरण की एक खास प्रक्रिया भी होती है, साथ ही पारस्परिक अंतर्कि्रया उसका बुनियादी स्वभाव होता है, हां ये जरूर है कि अंतक्र्रिया किस स्तर पर और किस जरिए से हो, प्राय: सामाजिक अंतक्र्रिया समान रुचि या किसी अन्य सामान्य आधार जैसे कि लिंग, पेशा, जाति, धर्म या क्षेत्रीय पहचान के इर्दगिर्द होती है, मुझे यह कह देना चाहिए कि सोशल नेटवर्किंग से ये तमाम दायरे छोटे या गौण हो गए हैं यानी क्या समाजविज्ञानियों के लिए यह चिंतनीय आहट नहीं है कि इससे सदियों पुराने समाजशास्त्रीय मिथक टूट रहे हैं या गड्डमड्ड हो रहे हैं। आप अपने या किसी दोस्त के सोशल नेटवर्किंग साइट के प्रोफाइल में फे्रंड्स नेटवर्क को खंगालिए, तो पता चलेगा कि सोशल नेटवर्किंग ने हमारी मित्रताओं या परिचय को विविधता का असीम विस्तार दिया है, यही कारण है कि मीडिया से जुड़े होने के कारण मैं सोशल नेटवर्किंग को पत्रकारों के लिए तो स्वर्ग ही मानता हूं, लिहाजा जनसंपर्क की अथाह संभावना और विविध जीवन स्थितियों तथा कार्यक्षेत्रों ने जो वर्चुअल अनुभव का संसार रचा है, उसे गूंगे का गुड़ ही कहना चाहिए। एकांत और अकेलेपन के संत्रास से गुजरती दुनिया को सोशल नेटवर्किंग ने जुडऩे का, खुद को जाहिर करने का जो व्यापक अवसर और विकल्प दिया है, उससे जाहिर होता है कि मनुष्य स्वभावत: जुडऩा चाहता है, पर उसके जुडऩे की सीमा और स्वरूप वह खुद तय करना चाहता है, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है। व्यक्तिश: या आवाज के जरिए मोबाइल की संचार क्रांति ने आजादी तो दी थी पर यह अतिवादी आजादी कि सीमा वह खुद तय करे, यह मुमकिन नहीं हो पाया था जो कि सोशल नेटवर्किंग ने संभव कर दिया। सोचकर देखिए कि ऑरकुट पर स्के्रप छोडऩे, फेसबुक की वॉल पर या बज पर कुछ विचार बांटने, ट्विटर पर 140 शब्द लिखने, या किसी भी सोशल नेटवर्किंग साइट पर फोटो शेयर करने के बाद किसी दोस्त की अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया पर यह जरूरी नहीं कि आप जवाब दें और फिर यहां सब इतनी तेजी से भी घटता है कि ठहराव की कोई गुंजाइश नहीं होती।

बेशक, इस नई चौपाल ने नई बहस, नई आजादी, नई चुनौतियों को जन्म दिया है, कोई भी नया संचार माध्यम अच्छे के साथ बुरी संभावनाओं को भी अपने भीतर लिए हुए होता है, तो यह चौपाल भी इसका कतई अपवाद नहीं है और इसमें कुछ नया भी नहीं है। अब यह तो यकीनन इस्तेमाल करने वाले पर ही है कि वह किसी माध्यम को कैसे अपनाता है जैसे विषयांतर होने की आजादी लेते हुए कहूं तो, लगभग सवा सदी से गांव के अकेले मेरे ब्राह्मण परिवार और पढे लिखे भी यानी ज्ञानपिशाच परिवार ने धर्म का इस्तेमाल रचनात्मक कम और अपने स्वार्थवश ज्यादा किया तो इसमें धर्म का क्या दोष? और इसी तरह जैसे, मेरे कितने ही परिचित मुस्लिम परिवार दो वक्त की हक की रोटी और खौफेखुदा और नेकनीयत के साथ जिंदगी बसर कर रहे हैं तो उसी मजहब के कुछ सरफिरे लोग जेहाद का खूनी खेल खेलते हैं, तो यही बात सौ फीसदी सोशल नेटवर्किंग पर भी लागू होती है, यहां भी सरफिरे हैं, यहां भी स्वार्थी लोग हैं।

बहरहाल, हमारे समय का कमाल यह है कि दुनिया सिमट गई है, सिमटी भी इतनी कि खुद सिमटने की क्रिया भी शरमा जाए, निदा फाजली के दोहे को तोड़ मरोडऩे को दिल कर रहा है, निदा से माफी चाहता हूं- छोटा करके देखिए जीवन का विस्तार, ऑरकुट भर आकाश है, ट्विटर भर संसार। आप इससे असहत हो सकते हैं क्या? अगर ऐसा है तो जरा खोलकर बताने की इजाजत दीजिए, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जितना लोग खुद को, अपने विचार और इच्छाओं को बांट रहे है, उसे देखकर हैरानी होती है, इतना कुछ इस धरती के इनसानों के सीनों में घुट रहा था, जो जाहिर हो रहा है, गुस्सा, प्यार, नफरत, तारीफें, या अपनी पसंद के गाने वेबसाइट्स के लिंक्स, क्या- क्या कुछ नहीं है जो लोग बांट रहे हैं, बांटने की खुशी के समंदर ठाठें मार रहे हैं, नफरतें जाहिर हो रही है तो मन का गुबार निकल रहा है, यह दबा रहता तो कितनी आत्महत्याएं हो सकती थीं, तनाव और कुंठा के मारे लोग कितने और हो सकते थे? इतना ही नहीं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर चंद लफ्जों में लोगों का सेंस आफ ह्यूमर देखिए, जनाब हमें तो हैरानी होती है।

और एक बात देखने लायक है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स अब सिर्फ दोस्ती का जरिया नही हैं, केवल मन के गुबार निकालने का वाइज नहीं है, प्रमोशन का बड़ा जरिया भी है, हमारे फिल्मी दुनिया से जुड़े दोस्त फिल्म का ग्रुप बनाकर भावी फिल्म के लिए माहौल बना रहे हैं, लिटरेरी एजेंसी अपनी गतिविधियों की जानकारी दे रही है, एक गायक दोस्त प्रचार में लगा है, प्रकाशक अपनी किताबों का प्रचार कर रहे हैं, और मुझे कम से कम इन सब में कोई बुराई भी नजर नहीं आती है और इससे यह तो जाहिर है ही कि यह हम पर है, इसे किस तरह लेते हैं, किस तरह इसका इस्तेमाल करते हैं, हमारी सोच अगर सकारात्मक है तो हमें उसकी उड़ान के लिए यह अनंत आकाश देता ही है। जाहिर सी बात है कि यह खुला मंच है, सबके लिए है, और अपने स्वरूप में बेहद लोकतांत्रिक भी है। हर माध्यम की अपनी चुनौतियां होती है, इसकी चुनौतियों पर विजय पाने के तरीके और रास्ते खोज लें, अभीष्ट तो यही है, इसकी आलोचना से कुछ हासिल होना नहीं है और इससे वापसी का रास्ता तो अब बंद ही मानिए।

Wednesday, April 21, 2010

एक कविता सा कुछ



कविता लिखना इतना अनायास होता है कि खुद मैं बहुत बार हैरानी करता हूं और फिर यह यकीन भी पुख्ता हो जाता है कि कविता दरअसल इलहाम होती है ऐसी ही एक ताजा इलहामी कविता पेशे नजर है
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बुझे से दिन और उदास शामें
बिखरे सपने हैं
उजाड से आशियाने में
जैसे टूटी हांडी में दबा रखती थी कुछ बीज मेरी दादी
दस घडों वाले परिंडे के कोने में

मुझे सहानुभूति की जरूरत नहीं है
पर छुपाना भी तो नहीं आता है मुझे

सच कह रहा हूं
छुपाने की नाकामयाब कोशिशों में
बहुत खत्म हुआ हूं मैं, मेरे दोस्त

शाम ढल ही जाती है
सुबह हो ही जाती है
उम्र बीत ही जाती है

छूटे हुए रिश्ते और बिछडा हुआ प्रेम
तात्कालिक याद से हट जाते हैं कुछ वक्त बाद
जीना संभव बनाने के लिए
या
जीना संभव हो ही जाता है

हांडियां कई बंधी है
बीज जिनके बेकार हो गए हैं
दिन मेरे बुझ गए हैं
और शामें बेतरह उदास
क्या किसी हांडी में छुपाके मिटटी में दबा दिया गया है
उनका कुछ हिस्सा हमेशा के लिए।

Painting by Tim Parish

Tuesday, March 9, 2010

कच्ची रेखाएं और जाहिद अबरोल साहब की एक नज्म

अपने बनाए एक कच्चे से पर सच्चे से रेखाचित्र को बांट रहा हूं
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लगे हाथ, पंजाब के मशहूर शाइर जाहिद अबरोल साहब की नज्म भी मुलाहिजा फरमाइए जो अंबाला में रहने वाले मेरे दोस्त शिवनंदन बाली ने साढे तीन साल पहले, मेरे ब्रेक-अप के बाद सुनाई थी-


जब मैं नन्हा सा बच्चा था
मेरी मां ने इक दिन मुझसे
एक पहेली पूछी थी-

एक डाल पे पांच कबूतर
एक शिकारी ने गोली से
एक कबूतर मार गिराया
बोलो कितने बचे कबूतर!

मैंने नन्हीं सी उंगली पर
गिनकर चार कहा था लेकिन
मो ने मुझको समझाया था
एक कबूतर के मरने से
बाकी के सब भाग गए हैं

आज तुम जीवन के वीराने पथ पर
मुझे अकेला छोड चले हो,
एक खुशी दम तोड रही है
बाकी खुशियों का क्या होगा!
वही पहेली आज मैं तुमसे पूछ रहा हूं -
जो मेरी मां ने मुझसे पूछी थी,

एक डाल पे पांच कबूतर
एक शिकारी ने गोली से
एक कबूतर मार गिराया,
एक खुशी दम तोड रही है
बाकी खुशियों का क्या होगा!

Sunday, March 7, 2010

मित्थल मौसी का परिवार पुराण यानी जब समय हमारा बोलता है...



इससे गुजरना अनायास अपने अतीत और एक अनुशासन के तौर पर इतिहास से गुजरना है, मुकम्मल तरीके से, अंदर गहरे तक उतरते, डूबते हुए, कभी हंसते हुए, कभी मुस्कुराते हुए तो कभी रोते हुए। हार्पर हिंदी ने इसे छापा है, उनके साहस को सलाम करना पड़ेगा क्योकि यह किसी नामचीन महिला की आत्मकथा नहींं है,


आज विश्व महिला दिवस से एक दिन पहले एक महिला की आत्मकथा की बात करें तो यकीनन कोई बड़ी बात नहीं मानी जाएगी। पर एक आत्मकथा अगर खतों के रूप में हो तो पहली नजर में अचरज होना लाजमी है और इस रूप में चाहे वह पुरुष की हो या महिला की। मित्थल मौसी का परिवार पुराण एक अलग किस्म की आत्मकथा है, जाहिर है कि अपनी भंाजी टीटू को लिखे खतो के जरिए है पर वह अपने समय जिसका फैलाव चाहे अनचाहे एक सदी तक है, का इतिहास है, एक औपन्यासिक रचना का सा सुख देती इस किताब को पढते हुए मुझे इतिहास के विद्यार्थी के तौर पर बहुत हिचक हुई कि इसे कैसे इतिहास कहा जाए। जब इसे पूरा करके उठा तो लगा कि यह तो सौ फीसदी इतिहास है और इसे आत्मकथा के फॉरमेट में लिखा गया है।
कहने को यह मित्थल मौसी के शब्दों में मित्थल मौसी के परिवार की कथा है, पर दो ऐतिहासिक शैक्षणिक संस्थाओं अजमेर की सावित्री पाठशाला और जयपुर के महारानी कॉलेज की नींव पडऩे की कथा से लेकर अपने समय के नामचीन लोगों के प्रसंगों तक कथा साधारण कायस्थ परिवार की कथा से आगे अपने समय का इतिहास हो जाती है जैसे महात्मा गांधी, सरोजनी नायडू, सुमित्रानंदन पंत, हरिवंशराय बच्चन (जिनसे मित्थल की सगाई होने वाली थी), मिर्जा इस्माइल, मानसिंह और उनकी तीसरी पत्नी गायत्री देवी, विश्वमोहन भट की मां, सितार वादक विलायत खान और तबला वादक गुदई महाराज, मोहनलाल सुखाडिय़ा जैसे लोग जो समाचार की तरह नहीं बल्कि पात्र की तरह कथा में आते है। इनको भूल भी जाएं तो साधारण परिवार की कथा बीसवी शताब्दी के भारत का सामाजिक वस्तुनिष्ठ और फस्र्ट हैंड अनुभव हमारे सामने रखते हुए बड़े फलक का निर्माण करती है। लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद सहित उत्तर प्रदेश तथा अजमेर, जयपुर, उदयपुर सहित राजस्थान और मघ्यप्रदेश के अनेक शहरों तथा दिल्ली में घूमती हुई कथा कब देशव्यापी रूप ले लेती है, पता ही नहीं चलता।
स्त्रीविमर्श के फैशननुमा दौर में कहना जरूरी है कि मित्थल मौसी का परिवार पुराण किसी नारीवादी नारे की तरह नहीं है, पिछले कुछ समय में आई हिंदी आत्मकथाओं से सर्वथा अलग इसलिए भी है कि पुरुष संदर्भश: आता है,वह भगवान नहीं है तो उसकी आलोचना नहीं है, शोषण का प्रलाप नहीं है। पति का जिक्र भी मित्थल मौसी यानी मिथिलेश मुखर्जी बहुत अनिवार्य स्थितियों में केवल संदर्भवश ही करती है। इसमें पुरुष साधारण रूप में ही हमारे सामने आते है, किसी भी अतिशयोक्ति के रूप में कहीं नहीं। पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा के संपादन में यह किताब पठनीय है, सुरुचिपूर्ण है, नई विधा सी होते हुए भी शुरू से आखिर तक बांधे रखती है। इससे गुजरना अनायास अपने अतीत और एक अनुशासन के तौर पर इतिहास से गुजरना है, मुकम्मल तरीके से, अंदर गहरे तक उतरते, डूबते हुए, कभी हंसते हुए, कभी मुस्कुराते हुए तो कभी रोते हुए। हार्पर हिंदी ने इसे छापा है, उनके साहस को सलाम करना पड़ेगा क्योकि यह किसी नामचीन महिला की आत्मकथा नहींं है, पर वैसे देखा जाए तो स्व.मिथिलेश मुखर्जी तो जीवंतता से कथा कहने वाली हैं, इसका मुख्य पात्र तो समय है, जो महिलाओं का, पुरुषों का, सबका है, वही इसको इतना महत्वपूर्ण बनाता है।

Monday, February 15, 2010

संस्कृति मीमांसा में मेरी प्रेम कविताएँ


painting by alfred gokel,courtesy -google

राजाराम भादू जी के संपादन में िनकल रही संस्कृति मीमांसा के जनवरी-फरवरी अंक में मेरी उन १०४ में से बारह कविताएँ चुनकर छापी हैं जॊ दरअसल मेरे प्रेम में टूटन के बाद दूसरे प‌क्ष की ऒर से हैं.
छपने की कहानी जरा इस तरह है कि ये १०४ कविताएँ उनकॊ आलॊचकीय नजर से पढने के लिए दी तॊ बॊले - 'छापने के लिए क्यों नहीं है, वजह बताऒगे! बडी कीमत में बेचॊगे क्या !' मैंने कहा - मुझे लगता है कि ये निजी हैं इसीलिए तीन साल से लिखी पडी हैं तॊ बॊले - 'ऐसा नहीं है और मैं इनकॊ छाप रहा हूं'
तॊ ये छपकर सामने हैं ....



1

क्यों तुम मेरे सपनों में आते हो
आधी रात उठकर बैठ जाती हूँ
रोती हूँ, सुबकती हूँ
कोसते हुए ईश्वर को
काल को
नियति को कभी
कहां हो और क्यों तड़पा रहे हो
आखिर मेरे प्रिय!

2

यह इमारत
जिसके नीचे पड़ी बैंच पर
तुमने पकड़ा है
पहली बार मेरा हाथ
नहीं भूलेगी यह बैंच, यह इमारत
जैसे हम तुम नहीं भूलेंगे एक दूसरे का साथ
नहीं छोड़ेगे एक दूसरे का साथ
हैं ना, मेरे प्रिय ?



3

कुछ होने के लिए
ज़रूरी नहीं होता है वाक़ई कुछ घटित होना
स्वाभाविक रूप से
हर घटना को घटना मान लेना भी ज़रूरी नहीं
घटना हो सकती है मात्र प्रतीति भी
हो सकती है पूर्वाभास भी
और कभी-कभार
संयोग-दुर्योगवश भी हो सकती है
कोई घटना
सोचती हूँ हमारा प्रेम भी तो ऐसा ही है, मेरे प्रिय!



4-

प्रेम की आड़ी तिरछी रेखाओं में
कहीं मैं गुम हूँ
और कहीं तुम गायब
पर मिलते हैं फिर
किसी ख़ला में अमूर्त-से हम तुम
देश काल की सीमाओं से ऊंचे उठते हुए
मेरे प्रिय!

5

दिल्ली - तीन


सपनों की
दिल्ली बहुत दूर होती है।
पर
तुमने सिखाया और बताया
कि सपनों की दिल्ली दूर नहीं है मेरे प्रिय
पर
अब दिल्ली दूर नहीं है सपनों की
लेकिन
अब सपने ही नहीं हैं ना दूरी के
ना पास के
ना दिल्ली के, मेरे प्रिय!

6-

तुम प्रेम में मर भी सकते हो
इतना प्यार करते हो तुम मुझे
मैं मर नहीं सकती यही है शर्त मेरी प्रेम में
मैं प्रेम में जीना चाहती हूँ
इतना ही करती हूँ प्रेम मैं
सिर्फ इतना ही, मेरे प्रिय!


7-
क्या तुम्हारा साथ वाजिब है
जब तुम रीत गए
भरते हुए मेरा खालीपन
और मैं रीत गई
भरते हुए तुम्हारा खालीपन
पर किसी का भी नहीं भरा
और रीत गए दोनों ही समूचे, मेरे प्रिय!


8-

आओ कॉफी हाउस की इस टेबल पर
बैठे हुए हम
अशरीरी हो जाएं
दो रूहों को बात करने दें
चुपचाप
एक दूसरे को देखते हुए
अपलक, मेरे प्रिय!

9

उस बहते हुए पानी में जहां हम साथ नहीं थे
साक्षी बनाते हुए उसे हमारे प्रेम का
बहाए प्रेम पत्र एक एक करके
लगा तुम्हें बहा रही हूँ चिंदी-चिंदी
या
खुद को बहा रही हूँ कतरा-कतरा
सोचती हूँ
प्रेम जीने के लिए होता है क्या
प्रेम पाने और खोने के लिए होता है
या
प्रेम होता है
बहाने के लिए प्रेम पत्र की तरह -
निनिZमेष, मौन, मेरे प्रिय!

10

प्रेम का भ्रम - तीन


प्रेम में तुम चाहते थे प्रेम
प्रेम में मै चाहती थी प्रेम
प्रेम के बीच में पला प्रेम का भ्रम
प्रेम के साथ
हमारे बीच और
जब बिखरा भ्रम तो
टूट गया प्रेम भी मेरे प्रिय!

11

मरुधरा - तीन

मेरा प्रेम कहां समाता आिख़र
मरुस्थल के रेतीले प्यासे धोरों में
मुझे क्षमा करना, मेरे प्रिय!

12-

मरुधरा - छ:

हमारे प्रेम की सरस्वती
सूख गई आखिर काल के प्रताप से
लुप्त हो गई मरुधरा में
अज्ञात काल के लिए, मेरे प्रिय!

Friday, February 12, 2010

मेरी प्रेम कवितायें


दोस्तों की मांग पर पेश है मैसूर में कृत्या अंतरराष्टीय काव्योत्सव-2010 में पढी प्रेम कविताएं --

1

तुम्हारे मिलने से

मिली सूरज की किरण

मेरी आँखों में हो गयी शामिल

और मेरी रोशनी

असीम हो गयी

सच

तुम मिली और

मैं उजालों से भर गया

इस अंधेरी रात में

मरुस्थल में उतरते चाँद की तरह....।


2-

अकेला चाँद और तुम

तारों की भीड़ में

टिमटिमाती तुम

उजाले की अंगीठी में

मेरी फूंक से जलती और

शोला बनती मेरी प्रिय

क्या तुम चाँद भी होती हो कभी !

किसी क्षण ....


3

तुम्हारी आंख के

काजल से चाँद को काला कर के

ढक दूँ

और तुम्हारे चेहरे पर

लिख दूँ

नाम चाँद का

काला चाँद फिर चुपके से आए

और शरमाये पूछे खुद मुझसे अपनी शिनाख्त ।

कोई काजल किसी की आंख का

अश्कों के मोती लेकर हथेली में आए

और प्यार की उजली किरणों से

दुनिया का कोई नक्शा बनाये

और

चाँद को सांवली सी दुल्हन बनाए

आंख में उजाले भर जाए ....

फिर किसी

बादल की डोली में बिठा के

दिल की गली में

आशियाँ मुहब्बत का सजाये

चाँद को मुकम्मल बनाये

याद को पागल बनाए

फिर कोई चुपके से आकर

चाँद को साजन बना दे

मरुस्थल के चाँद को

समंदर की छागल बना दे।


4

रात भर किया

दो कुर्सियों ने प्रेम

दो पेड़ों ने

बांहें फैलाकर किया आलिंगन

घर के दरवाजे की चैखटें

करीब आकर चुंबन लेती रहीं रात भर

प्रेम में डृबी रही

पंखे की पंखुडियां चुपचाप

एक ठिठुरती जाड़े की रात में

पति पत्नी लड़ते रहे रात भर

लगभग बिना ही कारण

जो कहते नहीं थकते-

'आय एम लकी बहुत अच्छी बीवी मिली है मुझे '

और

'मेरे पति बहुत प्यार करते हैं मुझसे '

आज फिर देखूंगा

सुबह सुबह दफ्तर में दो कंम्प्यूटर पाये गए

आपत्तिजनक अवस्था में

जो आलिंगनबद्ध रहे रात भर।

5

उन नितांत अकेले क्षणों में

जब ठीक आधी रात को

एक दिन विदा लेता है

और दूसरा दिन शुरू होता है,

याद करता नहीं हूं

याद आती हो तुम

जैसे कोई दीप किसी मंदिर का जल जाए चुपचाप

वो क्षण स्तब्ध से गिनते हैं

शोर के कदमों की आहटों को।

कोई खयाल तो नहीं हो तुम,

और कोई बेखयाल सी भी नहीं हो हरगिज।

प्रेम के उन नितांत अकेले क्षणों की परिधि में जो अधूरा रह गया हो

बिछड़े हुए प्रेम के दिये ही जलते हैं,

कोई मशाल नहीं।

6

ओ मेरे प्रिय !

रोशनी गुमसुम है और धुन जिंदगी की निस्तेज

प्रेम सूखे हुए पेड़ को सहलाना है क्या?

प्रेम रक्तबीज है

प्रेम बस प्रेम है

भोगने के लिए या भुगतने के लिए।



7

अब भी जब सूरज आके पूछता है

उससे मिलने जाना है क्या आज?

कहां मिलोगे? वहीं महिला छात्रावास?

चांद सुलाता है, मुझे लोरी देता है-

सो जा, वो सो गई है, आज फिर बिना तुम्हारा नाम लिए!


8

प्रेम के पल जीवन के सुंदरतम पल हैं

जो किसी के इंतजार में गुजरते हैं

कुछ भ्रमों को जीवन में पालकर

बहुत प्यारे भ्रम!

जीवन के श्रेष्ठ क्षणों के सूत्रधार

और

प्रेम के अर्थ को व्यर्थ होने से बचाने वाले वे निर्दोष से!

Wednesday, January 27, 2010

अदब से बात अदब की




लगभग हर नियमित दर्शक-श्रोता की स्मृति में कोई ना कोई सत्र सकारात्मक रूप से अंकित ना हुआ हो, किसी न किसी लेखक से संवाद, दर्शन या पास में बैठने का अनुभव गौरवमिश्रित खुशी का वाइज नहीं बना हो, ऐसा मुझे नहीं लगता, तो क्या इसे कम बड़ी जमीनी उपलब्धि माना जाना चाहिए?


सबसे पहली बात तो यह कि मैं ना तो जयपुर साहित्य उत्सव के आयोजकों में से हूं और ना ही प्रतिभागी लेखकों में। पर पिछले पांच सालों से लगातार एक पाठक-लेखक के तौर पर दर्शक रहा हूं और पत्रकार के तौर पर अखबार, टीवी और मैगजीन के लिए कवर भी किया है। इत्तेफाक यह है कि मुझे हर बार इसके विरोध में उठती आवाजें समर्थन के तर्कों के सामने गौण लगती हैं। वजह यह है कि व्यक्तिगत रूप से मुझे यह उत्सव परंपरागत रूप से प्राप्त दयनीयता के बोध से मुक्ति देते हुए साहित्य को एक गरिमा और लोकप्रिय मुहावरे में ग्लैमर प्रदाता दिखता है।
आलोचकों की जुबान के जरिए साहित्य और साहित्यकारों को मिलती यह गरिमा और ग्लैमर की चुभन ही तो प्रकट नहीं हो रही? पिछले साल इस आयोजन के बाद डेली न्यूज - हमलोग के लिए लिखते हुए हिंदी की प्रसिद्ध कथाकार गीतांजलि श्री ने प्रतिभागी लेखक के तौर पर अपने अनुभवों को बांटते हुए जो कहा था, आज मुझे याद आ रहा है कि यह बड़े अदब से अदब की बात करना है और हिंदी वालों को इससे सीखने की जरूरत है। गीतांजलि श्री की इस बात से कोई असहमत भी हो सकता है क्या? खैर, पहली बात, इस बार के आयोजन में पिछले दो सालों की तरह मीडिया में नकारात्मक खबर बनाने का काम नहीं हुआ, उसके कारण को शब्द देने की जरूरत नहीं जान पड़ती। दूसरी खास बात यह कि लगभग हर नियमित दर्शक-श्रोता की स्मृति में कोई ना कोई सत्र सकारात्मक रूप से अंकित ना हुआ हो, किसी न किसी लेखक से संवाद, दर्शन या पास में बैठने का अनुभव गौरवमिश्रित खुशी का वाइज नहीं बना हो, ऐसा मुझे नहीं लगता, तो क्या इसे कम बड़ी जमीनी उपलब्धि माना जाना चाहिए? मैं व्यक्तिगत रूप से चार सत्रों नंदिता पुरी-ओमपुरी की नमिता भेंदे्र से बातचीत, फैज अहमद फैज की यादगार वाला सत्र और अशोक वाजपेयी के साथ यतींद्र मिश्र के सत्रों को बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं। आयोजन की गंभीरता पर सवालिया निशान लगाने वाले दोस्त, ज्ञानपीठ से सम्मानित नाटककार एवं अभिनेता गिरीश कर्नाड वाले अद्भुत व्याख्यानात्मक सत्र को भूल कर ही यह कह सकते हैं, जिसमें उनका विस्तृत अध्ययन, शोधपरक नजरिया क्या आयोजन की चकाचौंध वाली, फिल्मी ग्लैमर वाली छवि के बरक्स जोरदार जवाब नहीं था?
फैज वाला सत्र क्या ऐतिहासिक क्षण नहीं था जब उनकी बेटी सलीमा हाश्मी के सामने जावेद अख्तर फैज से अपनी अविश्वसनीय किंतु सत्य किस्म की पहली मुलाकात नोस्टेल्जिक और पटकथा लेखक के हुनर से मिलाते हुए लोगों से बांट रहे हैं कि कैसे वे मुंबई में एक मुशायरे में भाग लेने आए फैज से मिलने ठर्रा पीकर आत्मविश्वास से, बिना टिकट लोकल ट्रेन में अंधेरी से मरीन ड्राइव की यात्रा करके गए, बिना परिचय के ही रात होटल में उनके ही कमरे में गुजारी थी और सुबह-सुबह कुलसुम सायानी की प्रेस कॉन्फे्रेस के बीच इजाजत लेकर चुपके से अजनबीके रूप में ही निकल आए थे। जावेद साहब के इस संस्मरण साझा करने के बाद शबाना आजमी और पाकिस्तान से आए अली सेठी फैज साहब की नज्मों का सुंदर पाठ किया और नोबल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार पाब्लो नेेरूदा और फैज की मित्रता के अंतरंग क्षण स्क्रीन पर फिल्म के रूप मेंं दिखाए गए।
बहरहाल, यकीनन पूरा आयोजन एक मजमा था, बेहतरीन मजमा। जिसके लिए पटना से आए कवि पद्मश्री रवींद्र राजहंस ने व्यक्तिगत क्षणों में मेला ठेला कहा, यह कहते हुए कि मेले में बहुत गंभीर विमर्श की अपेक्षा नहीं की जा सकती, मैं उनसे सहमत होते हुए जोडूंगा कि मेले का कोई सत्र आपको कुछ भी छोटी सी वैचारिक उलझन, खुशी या प्रेरणा दे दे तो क्या उस मेले को खारिज किया जा सकता है?
अब मुझे पत्रकार की भूमिका में आना चाहिए, बुद्धिजीवियों की राय कानों में पड़ी कि ऐसे आयोजनों से लोकतांत्रिक संस्थाओं का पतन होता है, बात तो सही है, बात में तर्क है और दमदार भी है, तो क्या किया जाए? या तो से आयोजन सरकारी स्तर पर हों जैसा लगभग सफल किस्म का मॉडल राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी ने पुस्तक पर्व के रूप में (कतिपय स्वाभाविक आंरभिक कमियों के बावजूद) हाल ही हमारे सामने रखा। दूसरी बात यह कि जब साठ साल के गणतंत्र के जश्न में डूबे देश के लोगों के सामने कुछ लोग अपनी मेधा, मेहनत और विजन से एक सफल किस्म का लोकप्रिय (चाहे उसे गंभीरता में साधारण ही क्यो ना कह दिया जाए) आयोजन खड़ा करते हैं, तो उसे विरोध के लिए विरोध की मुद्रा में खारिज करने का काम भी होगा ही, पर होना नहीं चाहिए।
ऐसा नहीं है कि इस आयोजन में किसी तरह की निराशा नहीं हुई, कमियां नहीं दिखीं, मसलन राजस्थानी का सत्र फीका सा रहा तो पीड़ा हुई और लगा कि क्या इससे अधिक क्षेत्रीय और भाषाई भागीदारी का तर्क कमजोर नहीं होता और अपने ही लोग समयबद्ध रूप से रोचक सत्र नहीं बना पाए तो आयोजकों को क्या दोष दें? वहीं, अभिजात्यता और चकाचौंध को हम मान भी लें तो क्या पूरे आयोजन में लोकतांत्रिकता के अनूठे अवसर यादगार नहीं बनाते? याद कीजिए, गुलजार नज्में पढ़ रहे हैं, जावेद अख्तर सामने बैठ कर सुन रहे हैं, ओमपुरी को बैठने की जगह नहीं मिलती पर बिना शिकवा किए, बिना झल्लाए लगभग मध्य में खड़े सुन रहे हैं और जब माइक गड़बड़ाता है तो आवाज के लिए कहते हैं, यहां तक तो आवाज आ रही है। तो साहित्यिक आयोजन को आसमान की उंचाइयों तक ले जाने वाले इसके सूत्रधार संजोय रॉय मंच के पास नीचे जमीन पर बैठकर ही नज्म सुनें तो इसे क्या कहेंगे? एक आयोजन सिर्फ इसलिए कि वह सरकारी नहीं है, अंग्रेजी के वर्चस्व वाला है, आलोचना करें, यह भूलकर कि पूरी दुनिया और कम से कम एशिया में जयपुर की पहचान के साथ एक सार्थक सी, प्रकटतया गंभीर विषय साहित्य को जोड़ रहा है और वह भी बड़े मर्तबे के साथ, तो यह गौरवपूर्ण नहीं तो संतोषजनक जरूर है। और साहित्य से सिनेमा और संगीत जुड़ कर कोई गुनाह कर रहे हैं क्या?
इसे आप क्या कहेंगे कि वसुंधरा राजे सिंधिया प्रतिलिपि पत्रिका के दलितों पर केंद्रित ताजा अंक को खरीद रही हैं, यानी साहित्य के बहाने विविध क्षेत्रों के लोग एक साथ जुट रहे हैं और पारस्परिक संवाद के अवसर सुलभ हो रहे हैं। और शाम को भोजन के समय की अनौपचारिकताओं एवं आत्मीयताओं की अहमियत को तो शाम के गवाह लोग ही जान सकते हैं। और लगभग एक हफ्ते बाद जब मैं मैसूर में ऐसे ही एक आयोजन-पांचवें अंतरराष्ट्रीय काव्योत्सव में काव्यपाठ कर रहा होऊंगा, तो यकीन मानिए पांच साल के जयपुर साहित्य उत्सव को अपनी स्मृति और चेतना में एक निकष के रूप में रखते हुए वहां जयपुर की सी अपेक्षाएं करूंगा, तो जयपुर के इस आयोजन को लेकर हम सबकी या कम से कम मेरी शिकायतें तथा नुक्ताचीनी और भी गौण नहीं हो जाएंगी क्या?



28 जनवरी 2010 को डेली न्यूज के संपादकीय पेज पर अग्र लेख

Friday, January 22, 2010

गुनगुनी धूप में सर्द सचाइयां


जयपुर की सुहानी सुबह में देश का मशहूर और बेहतरीन अदाकार खुद पर लिखी किताब पर बात कर रहा था और साथ थी किताब की लेखक और उनकी पत्नी नंदिता पुरी, दोनों से मुखातिब नमिता भेद्रे। शुरूआत बहुत अनौपचारिक सी, ओम पुरी अपनी सीट से उठकर नंदिता के पास आकर माइक चेक करते हैं, इतने करीब से कि अपनी पत्नी के सांस महसूस कर सकें। दोनों के सांसो की मिलीजुली आवाज होटल डिग्गी हाउस के खुले लान में सांय सांय गूंजती हैं। नंदिता ने कहा कि ठीक है अब आप अपनी जगह बैठ सकते हैं, ओम अपनी जगह बैठे तो नमिता ने कहा कि ओम की इच्छा तो वहां से हटने की नहीं है पर सामने फेमिली आडियंस है।
पहला सवाल यह था कि क्या किताब अनलाइकली हीरो पर विवाद प्रचार के लिए था तो नंदिता ने कहा कि नहीं, मैं तो हैरान थी, मुझे तो धक्का लगा था, यह वो हिस्सा नहीं था जो हमने प्रकाशक के साथ मिलकर अखबारों और पत्रिकाओं के लिए चुने थे। जब यही सवाल ओम से किया गया तो उनका कहना था हां, यह था पर हमारी ओर से नहीं प्रकाशक की ओर से, उसकी भूमिका के बगैर कैसे वह हिस्सा मीडिया के पास चला गया! इस वक्त पत्नी नंदिता के चेहरे भाव देखने लायक थे। पति पत्नी एक ही बात पर अलग अलग थे। बातों बातों में जब ओम ने कहा कि जब मैं ड्रामा स्कूल में था बीस साल का था तो नंदिता चार साल की थी तो नंदिता के चेहरे भाव मुस्कुराहट में कुछ लजाने के थे और लान में आगे से पीछे तक गूजता हुआ एक कहकहा था ।
ओम ने कहा कि लोगों ने पूछा कि क्या मुझे अपने सेक्स जीवन को यूं बताना चाहिए था, मेरी नजर में जीवनी का मतलब क्योकि किसी इनसान को संपूर्णता में देखना चाहिए उसकी उपलब्धियां, कमजोरियां, खूबियां सब कुछ आना चाहिए। उनसे जब नमिता ने कहा कि आप अच्छे अदाकार है फिर सिंह इज किंग जैसी कैसी कैसी फिल्में कर रहे हैं ! तो आराम की मुद्रा में बैठे ओम ने दोनों हाथ पावों के बीच बांधे और लगभग कमर को आगे बैड करते हुए सिर झुका कर कहा कि नमिता आय एम सारी आई वर्कड इन सिंह इज किंग! फिर अपनी मुद्रा में वापिस आए और बोले अपनी आरभिक फिल्मों के पारिश्रमिक का ब्योरा दिया और बोले कि जब पेंतालीस का हुआ तो लगा कि परिवार है और बुढापा आएगा, मेरे पास कुछ नहीं है और मैं कमर्शियल फिल्मों की ओर मुडा। जैसे फिएट चलाता था तो लोग कहते थे बेहतर कार से रेट अच्छा मिलता है तो मैं कहता था यार मेरे लिए घर जरूरी है कार से पहले।
उनसे जब पूछा गया कि तो क्या आपको लगता है आपकी किस्म की फिल्में बनती नहीं रोल नहीं होते! तो बोले कि रोल भी है, फिल्मे भी हैं पर वो बच्चन साहब ले जाते हैं, दोनों के बाल ग्रे हैं, दोनो की आवाज भी अच्छी है और दोनों की अदाकार भी। मैं चाहता हूं उनके पास इतना काम आए कि वो कहें कि जाओ सात बंगला चले जाओ, तो कुछ काम मुझे मिले, उन्होंने याद किया कि अमिताभ की वजह से उन्हें अर्द्धसत्य मिली जो उनके लिए लाटरी थी। कमर्शियल करने के बाद फिर अपने मन का काम करने का जरिया उनके लिए ब्रिटिश सिनेमा बना जिसके लिए उनका मानना है कि वे आर्ट सिनेमा बनाते है, और हालीवुड वाले कमर्षियल।
जब उनकी पत्नी नंदिता पुरी ने कहा कि सिनेमा के लोग आत्म मुग्ध होते हैं तो नमिता ने पूछा कि क्यो ओम भी है! तो नंदिता ने कहा माइल्डली। नमिता ने कहा कि सिनेमा भी अब क्लोज होता जा रहा है यानी परिवार केंद्रित सा। क्या उन्हे लगता है कि कोई नया आदमी उसमं घुस कता है तो बोले कि परिवार मदद करता है पर अंततः अपनी प्रतिभा से ही स्थापित होते हैं , असफल के उदाहरण हमारे पास हैं ही, बाहर वाले ष्षाहरूख है जो हिट हैं नंबर वन हैं। और जैसे बीए करते ही दुकानदार बेटे को कहता है बैठना शुरू करदे यहां भी है।
ऐसे ही चुटीले सवाल जवाब और हसीं मजाक में अनौपचारिक बातचीत के बाद नंदिता ने किताब का अंश पढना शुरू कर दिया- ओम का जन्म अंबाला में हुआ, जो पंजाब में था अब हरियाणा में है, जन्म का दिन निश्चित नहीं है.....
गुनगुनी धूप अब कुछ तीखी होने लगी थी।

Friday, January 1, 2010

जुबानें ज्ञान की खिडकियां है ज्ञान नहीं


माफ कीजिए अंग्रेजी के वेदप्रकाश शर्मा या सुरेंद्रमोहन पाठक यानी चेतन भगत हिंदी के अखबारों में गर्व से लिख रहे हों तो जुबान के नाम पर नए दशक का व्यवहार और संसार हमारे सामने खुलकर नहीं आ जाता क्या!

गुजरते साल की आखिरी शाम ताजा धुले लिहाफ में कालिंगवुड की 'द आइडिया आफ हिस्ट्री' का पाठ करते हुए( दो सालों के संधिकाल में इतिहास पढने से बेहतर मुझे कुछ नहीं लगता) जो चीज बार बार ध्यान भंग कर रही थी, वह थी गली के तात्कालिक उत्सव पंडालों से उठती पंजाबी गीतों की आवाज। सुबह उठा तब भी हरभजन मान का गाया पंजाबी गीत कहीं बज रहा था। यह इस शहर का मिजाज मुझे मालूम नहीं होता। जब राजस्थान के एक मात्र पंजाबी इलाके से आए मुझ किशोर के लिए सुखद होते हुए भी पंद्रह साल पहले इस शहर में पंजाबी गीत लगभग वैसा ही था जैसा कोई तमिल तेलुगू गीत आज भी होता हो।
क्या यह वैश्विक भाषाई बहुलतावाद की एक झलक नहीं है। इसे जरा विस्तार देकर देखें तो जब आंध्र फिर भाषा के नाम पर उबल रहा है और दूसरी तरफ पाउलो कोएलो दुनिया की आधी से ज्यादा जुबानों में पढे जा रहे हों, दूर क्यों जाएं हिंदी के उदय प्रकाष दुनिया की दो दर्जन भाषाओं में पढे जा रहे हों और माफ कीजिए अंग्रेजी के वेदप्रकाश शर्मा या सुरेंद्रमोहन पाठक यानी चेतन भगत हिंदी के अखबारों में गर्व से लिख रहे हों तो जुबान के नाम पर नए दशक का व्यवहार और संसार हमारे सामने खुलकर नहीं आ जाता क्या! चेतन भगत की ताजा किताब टू स्टेटस कहीं टू लेंग्वेजेज होती तो! या होनी चाहिए थी!
इसका सीधा साधा मतलब यह है कि जुबान की दादागिरी का वक्त भी अब खत्म हो गया है जैसे तथाकथित रूप से पांडित्य और विद्वता की भाषाई दादागिरी का पर्याय संस्कृत और पढे लिखे होने की जुबानी पहचान अंग्रेजी रही है, अब नहीं है, प्रबंधन की पाठशालाओं में कई जुबानें सिखाई जा रही हैं यानी तय है कि केवल अंग्रेजी से काम नहीं चलेगा। यह लगभग वैसा ही होगा जब आप दक्षिण भारत में जाते हैं तो विज्ञापनों पर जुबान और चेहरे दोनों बदल जाते हैं। तो बाजार की जुबान हमारी जुबान और हमारी जुबान बाजार की। यही कारण है कि बदलती दुनिया में अंग्रेजी के बावजूद हिंदी के व्यापक फैलाव से लोग हैरत में है। किताबों और अखबारों का बाजार झूठ तो नहीं बोलता। और मैं बाजार के इस स्वरूप का नकारात्मक नहीं मानता, क्योकि इसमें अहित तो किसी का नहीं है, ना जुबानों का ना उन्हें बोलने वाले लोगों का।
जाहिर है कि ज्यादा जुबानें जानना अब बड़ी जरूरत है। मल्टीलिंग्वल कल्चर का युग प्रारंभ हो गया है, वैसे भी जैसा कभी मेरे दादाजी ने बचपन में मुझे कहा था कि बेटा, ज्ञान और कौशल का रास्ता जुबानें बनाती हैं, जुबानों की खिड़की से हम वहां पहुचते हैं, बस जुबान की यही और इतनी सी अहमियत है, यानी जुबान ज्ञान का विकल्प तो नहीं ही होती। आइए, नए साल में हम भी कोशिश करें कुछ जुबानें और जानें, कुछ खिड़कियां और खोलें ज्ञान की।