Monday, October 10, 2011

वो गंगा की नगरी, वो डिग्गियों का पानी


- एक हमशहरी

मेरी पीढी के बहुत से लोग होंगे मेरी तरह जिनके घरों में जगजीत को सुनने की जिद के कारण टू-इन-वन खरीदा गया होगा, गजल और शाइरी की ओर झुकाव पैदा किया होगा, गजल सुनने समझने और लिखने वाली एक पीढ़ी जगजीत तैयार ने की है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता।


जगजीत ने जग जीत लिया था, हमारे वक्त में गजलें उनसे जवान हुईं, गजल और जगजीत एक दूसरे के नाम से जाने जाते है, ये मर्तबा सदियों में किसी को हासिल होता है। उनके हमशहरी होने का कितना फख्र करता रहा हूं, यह बताना मुश्किल है, देश भर में जहां भी बैठा हूं बताते ही कि गंगानगर का हूं, जगजीत साहब के नाम से पहचाना जाता रहा हूं। बचपन से सुना कि मेरे शहर का सबसे मशहूर आदमी अगर है तो वह यही नाम था। इत्तेफाक देखिए कि उनसे अंतरंग मुलाकात भी उसी शहर की है, जहां वे बरसों बाद आए थे, कोई दसेक साल पहले, जब उस कंसर्ट को सुनने ही अपने शहर गया था, पांच सौ किमी का सफर तय करके, खयाल था कि जिंदगी कहां ले के जाएगी, पता नहीं उन्हें अपने शहर में सुनने का अवसर शायद ही कभी फिर नसीब हो, ऐसा हुआ भी। कुदरत की पटकथा ऐसी ही होती है। उन कंसर्ट में उन्होंने अपनी मशहूर गजल 'वो कागज की कश्ती' गाने के बीच मे कहा -' भुलाए नहीं भूल सकता है कोई वो गंगा की नगरी, वो डिग्गियों का पानी', तो लोगों के साथ उनकी भी आंखें नम थी अपने शहर को इस रूप में याद करते हुए।

मेरी पीढी के बहुत से लोग होंगे मेरी तरह जिनके घरों में जगजीत को सुनने की जिद के कारण टू-इन-वन खरीदा गया होगा, गजल और शाइरी की ओर झुकाव पैदा किया होगा, गजल सुनने समझने और लिखने वाली एक पीढ़ी जगजीत तैयार ने की है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। जगजीत को जानने के कई नजरिए हो सकते हैं, एक घुड़दौड़ का शौकीन जगजीत थे, गंगानगर की और राजस्थान की रजवाड़ी शराब के शौकीन जगजीत थे, और बतौर गायक तो गजल,भजन, फिल्मी गीत और शास्त्रीय गायन के तमाम रूपों में उनकी याद हम सब के दिलों में पैबस्त है ही।

उन तक किसी ने पहुंचाया दिया था कि मैंने कोई अच्छा शेर कह दिया है, उसके हवाले से जयपुर में हुई आखिरी मुलाकात में बोले-' सुनाओ, तुम्हारे मुंह से सुनना है, और पूरी गजल भी दे दो, तुमसे पहली मुलाकात में कहा था कि तुम्हारी गजल गाऊँगा कभी, पर तुम्हें अपने नाम के आगे गंगानगरी लिखना होगा।' मैंने कहा- 'पा'जी शेर हाजिर है पर ऐसी गजल अभी नहीं हुई जिसे आप गाएं।' उन्होंने पंजाबी में प्यार से गाली दी, मैं मुस्कुराकर रह गया। उनके गाने लायक गजल मुझसे आज तक नहीं हुई और अब तो कभी नहीं होगी। पिछले दिनों दोस्त आशुतोष दुबे ने कहा कि जगजीत साहब पर डॉक्यूमेंट्री बना रहे हैं, उनके शहर से हो इसलिए कुछ मदद करनी होगी, जाहिर है कि मेरी ओर से मना करने का कोई कारण नहीं था, आशुतोष जगजीत के कई एलबम के वीडियो के निर्देशक रहे है।

कह देना चाहिए कि मेरे शहर का सबसे बड़ा नाम अब सिर्फ किस्सों में है, या अपनी आवाज में अमर है, कि उनके होठों से छू के अमर हो गए है जो लफ्ज, जो गजलें, जो नज्में, जो गीत।

Friday, October 7, 2011

'बिज्जी' को नोबेल ना मिलना


राजस्थान जिस वाचिक परंपरा की साहित्यिक विरासत के लिए जाना जाता है, 'बिज्जी' उसके जीवंत और स्वाभाविक प्रतिनिधि हैं। अब वैश्विक रूप से यह सिद्ध और प्रसिद्ध हो गया है कि उनकी कथाएं लोक का पुनराख्यान भर नहीं हैं, वे बिना ज्योतिषी हुए अतीत और वर्तमान के बीच पुल बनाते हुए हमें भविष्य दिखाते हैं, उस और जाने का रास्ता बताते हैं, और साथ ही हमारी वैचारिक और कथा विरासत को उस भविष्य की चुनौतियों से लडने के हथियार के तौर पर हमें सौंपते हैं।


दस साल में सातवी बार नामांकित कवि को नोबेल मिला, कोई दो राय नहीं कि वे स्वीडिश भाषा के बडे कवि हैं, और खुशी की बात यह भी है कि पोलेंड की विस्साव शिंबोस्र्का के बाद 15 साल बाद किसी कवि को नोबेल मिला है, पर हम उम्मीद में थे कि पहली बार नामांकित हमारे विजयदान देथा 'बिज्जी' को इस बार ही नोबेल मिल जाएगा, क्योंकि ऐसा कोई नियम या परंपरा नहीं है कि कोई एकाधिक बार नामांकित हो तभी उसे मिलेगा। खैर, यकीनन नोबेल के लिए नामांकित होना बडी बात है, तो हमारे गौरव का विषय भी, और बिज्जी का लेखकीय कद हमारी नजर में इससे कम भी नहीं होता कि उन्हें नोबेल नहीं मिला।

पर इस बहाने से हमें कुछ बातें करनी ही चाहिए, जो सामान्यतः या तो होती नहीं है या बहुत दबे स्वर में होती हैं। एक बडा प्यारा सा, मासूम सा तथ्य है कि पिछले दस में से सात नोबेल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित लेखक यूरोपीय हैं। इतनी ही प्यारी सी बात यह भी है कि इस बार स्वीडन ने नोबेल अपने ही घर में रख लिया है, यानी स्वदेशी को दिया है, इससे पहले 1974 में ऐसा हुआ था, उस वक्त तो विवाद भी हुआ था क्योंकि वे दोनों लेखक उस स्वीडिश समिति के 18 सदस्यों में से थे, जो नोबेल देती है। बहरहाल, स्वीडिश समिति के बारे में अक्सर कहा जाता है कि वह बहुत आगाह रहती है कि कोई इल्जाम उनपर ना आए, शायद यही वजह थी कि स्वीडन के लोग मानने लगे थे कि टाॅमस को शायद इसीलिए नोबेल नहीं मिल रहा कि वे स्वीडन के हैं।

बिज्जी की बात करें तो पहले व्यक्तिगत होने की इजाजत लेते हुए कहूं तो भारत में जम्मू से लेकर चेन्नई और मुम्बई से लेकर बंगाल, असम सहित सुदूर इलाकों में जब भी किसी भी भारतीय भाषा के किसी भी लेखक से मिलना हुआ है, हरेक ने अलग अलग शब्दों में यही कहा - ''अच्छा राजस्थान से हो! अगली बार जब बिज्जी से मिलना हो तो तो मेरा प्रणाम जरूर कहिएगा।'' ऐसे ही एक लेखक ने कहा था- ''आपकी भाषा राजस्थानी है !'' मेरे 'जी' कहने पर वे मेरे गले लग गए - ''तो आप उसी भाषा को बोलते है, जिसमें बिज्जी लिखते हैं।'' सच कहूं तो बिज्जी के प्रति मेरा सम्मान उनके इस सम्मान से सौ गुना बढा है, बार बार छाती चैडी हुई है। जैसा कहा जाता है कि देश में बहुत लोगों ने रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' पढने के लिए लोगों ने बांग्ला सीखी तो जरूर एक वर्ग है जो बिज्जी को पढने को राजस्थानी सीखने की मंशा रखता है। रेगिस्तान के आखिरी कोने पर एक बरसाती नदी के इलाके में लगभग ढाई दशक पहले जहां अकेला अखबार राजस्थान पत्रिका अपने छपने के दिन बमुश्किल ही पहुंचता था, वहां बचपन गुजारते हुए लेखक के तौर पर पहला नाम जो सुना था, वह बिज्जी का ही था।

राजस्थान जिस वाचिक परंपरा की साहित्यिक विरासत के लिए जाना जाता है, बिज्जी उसके जीवंत और स्वाभाविक प्रतिनिधि हैं। अब वैश्विक रूप से यह सिद्ध और प्रसिद्ध हो गया है कि उनकी कथाएं लोक का पुनराख्यान भर नहीं हैं, वे बिना ज्योतिषी हुए अतीत और वर्तमान के बीच पुल बनाते हुए हमें भविष्य दिखाते हैं, उस और जाने का रास्ता बताते हैं, और साथ ही हमारी वैचारिक और कथा विरासत को उस भविष्य की चुनौतियों से लडने के हथियार के तौर पर हमें सौंपते हैं। यह भी बहुत अस्वाभाविक नहीं है कि कोई उन्हें बातां री फुलवारी के कारण प्यार करता है कोई सपनप्रिया या महामिलन के लिए, कोई चैधरण की चतुराई के कारण, कोई उनकी कहानियों पर हबीब तनवीर के किए नाटकों के कारण, कोई मणिकौल और अमोल पालेकर की बनाई फिल्मों के कारण। कई अकादमिक लोग उन्हें हिंदी राजस्थानी कहावत कोश के कारण बहुत इज्जत से देखते हैं, तो बहुत से लोगकोमल कोठारी के साथ रूपायन में किए अतुलनीय लोक विरासत सहेजने के काम के लिए। मुझे एक लेखक के तौर पर कहना और मानना चाहिए कि मुझ जैसे बहुतेरे लेखकों को उनकी भाषा और कथा शिल्प ईष्र्या और प्रेरणा दोनों देते हैं, फिर मैं तो कम से कम उन्हें अपनी शानदार विरासत के रूप में ग्रहण करते हुए नतमस्तक हो जाता हूं।

पर क्या इसे दुर्योग नही कहना चाहिए कि वे उस भाषा के कथाकार हैं जिसे संवैधानिक मान्यता नहीं है, बहुत संभव है कि इसीलिए उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान माना जाने वाला ज्ञानपीठ नहीं मिला है, पर वे इसके बावजूद देश के चोटी के साहित्यकारों में गिने जाते रहे हैं। उनका काम हाल ही के सालों में कायदे से अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है, कथा और पेंगुइन से प्रकाशित हुआ है, मिशिगन विवि में दक्षिण एशिया अध्ययन विभाग की क्रिस्टी मेरिल के अनुवाद को ही माना जा रहा है कि बिज्जी को नोबेल के नामांकन तक पहुंचाया है। इस अनुवाद के काम में कैलाश कबीर उनके साथी रहे हैं। हालांकि यह तय बात है कि कोई पुरस्कार किसी के काम और अहमियत का पैमाना नहीं होता पर जब ऐसा कोई बडा इनाम किसी को मिलता है तो इनाम और उस व्यक्ति दोनों की गरिमा में इजाफा जरूर होता है, उस व्यक्ति के काम को और ज्यादा लोगों तक पहुंचने का बहाना और जरिया मिलता है, और हस्बेमामूल यहां अनुवाद की अहमियत फिर से साबित होती है, जिसे प्रायः हमारे लेखक हीन भाव से देखते हैं, जबकि परस्पर अनुवाद की खिडकियां खुली सांस के लिए हवाओं की तरह हैं। क्या हमें भूल जाना चाहिए कि अमता प्रीतम हिंदी और पंजाबी दोनों में उनती ही बराबर मुहब्बत से पढी और सराही गई हैं और उनका अदबी कद इसी वज्ह से अखिल भारतीय स्तर का बना है।

बिज्जी को नोबेल साहित्य ना मिलने से बिज्जी निराश नहीं हुए, दुखी भी नहीं हुए, हमें यानी विशेषकर राजस्थान और वैसे पूरे भारत के लोगों, दुनिया भर में फैले उनके पाठकों, प्रशंसकों को दुख जरूर हुआ, पर हम नाउम्मीद नहीं है ना ही इससे उनके कद और उनके प्रति हमारी नजर में सम्मान में कोई कमी ही आई है, उनका लिखा जब जब भी पढते हैं, पढंेगे, उनके प्रति सम्मान बढता जाता है, दुआ कीजिए कि वे स्वस्थ हो जाएं, दो सप्ताह पहले फोन पर उनसे बात हुई थी, उन्हें सुनने बोलने में हो रही तकलीफ साफ महसूस हो रही थी, इस नामांकन की खबर के साथ कितने हमपेशा दोस्तों ने उन्हें फोन किया, मेरी हिम्मत नहीं हुई कि उन्हें तकलीफ दूं, मिलकर दुआ करें कि वे मन का पढ-लिख पाएं, क्योंकि लेखक की सबसे बडी यातना ना लिख पाना होता है, और यह यातना वे झेल रहे हैं। संभव है उन्हें अगले किसी साल में नोबेल साहित्य मिल जाए, या अन्य कोई भारतीय लेखक ले आए, राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया जाए, पर इसमें किसी को भी संदेह नहीं हो सकता, और ना ही होना चाहिए कि बिज्जी भारतीय साहित्य में अपनी तरह के विरले और अदभुत लेखक हैं, नामुमकिन नहीं तो बेहद मुश्किल जरूर।