Friday, November 23, 2012

उम्मीद यानी पाई की कहानी

फिल्म इल्म- लाइफ ऑफ पाई

दबंगो और सरदारों के सिनेमा के बीच कुदरत से इतने करीबी रिश्ते की फिल्म में धरती उतनी ही है जितने इस पूरी कायनात में इंसान। यानी निर्देशक स्थापित करता है कि कायनात में हमारा वुजूद कोई बहुत बडा नहीं है, और जीवन और मौत के बीच जिंदगी से प्रेम कैसे होता है..



आंग ली की यह फिल्म भारत से और दक्षिण भारतीय धुनों में रचे गए संगीत में तमिल शब्दों के साथ शुरू होती है तो हॉलीवुड की फिल्म अपनी सी लगते हुए जोडती चली जाती है, समंदर की लहरों पर आगे बढती है। पूरी फिल्म कायनात के साथ इनसानी रिश्तों का ही तानाबाना है। पांडिचेरी में रहने वाले एक परिवार में पिता फैसला करते हैं कि अब वे कनाडा जाकर रहेंगे, पांडिचेरी में रेस्त्रां के साथ जू भी चलाने वाले मुखिया का परिवार जू के कुछ जानवरों के साथ समंदर के सफर पर निकलता है और समंदर के बीच उनका जहाज समुद्री दुर्घटना का शिकार हो जाता है और उसमें केवल लगभग पंद्रह साल का लडका पाई बचता है, समंदर में लाइफ बोट पर उसके रोमांचक सफर की जादुई दास्तान है- 'लाइफ ऑफ पाई' जिसे ऑस्कर विजेता निदेंशक आंग ली शानदार तरीके से रचा है।


पाई बचपन से ही ईश्वरीय खोज(सब धर्मो को जानने का उत्सुक और एक साथ स्वीकार तथा व्यवहार करने का अभिलाषी ) और रूचि का व्यक्ति था, और समंदर के इस सफर में वह लगातार ईश्वर से बात करता चलता है, उसे महसूस करता चलता है। इरफान व्यस्क पाई की भूमिका में है जो लेखक को कहानी सुना रहे हैं, तो एक सूत्रधार की तरह ही पर्दे पर अवतरित हुए हैं, बालक पाई की मां की भूमिका में छोटी सी भूमिका तब्बू की है और पिता के रूप में अदिल हुसैन और दोनों ने ही छोटी भूमिकाओं में खुद का दर्शक के जेहन में संजोकर ले जाने लायक काम कर दिया है। समंदर में तीन जानवरों जिनमें दो जल्दी ही मारे जाते हैं, के साथ लंबे समय तक बंगाली टाइगर के साथ जीवन जीना सीखने और कुदरत के बीच बिना किसी मानवीय साथ के जी लेने की जददोजहद करते दिखाया है। बीच में वह एक अनदेखे और अविश्वसनीय द्वीप पर भी पहुंच जाता है जो दरअसल एक आदमखोर द्वीप है, और जहां नेवले बहुतायत में है।

बुकर पुरस्कार से सम्मानित यान मर्टेल की किताब का यह सिनेमाई रूपांतरण देखते हुए लगातार डेनियल डिफो का पात्र रॉबिंसन क्रूसो याद आता है, जिसमें एक किशोर घर से जिद करके समंदर के लिए निकल पडता है और भटक जाता है और 28 साल एक निर्जन टापू पर गुजारता है। दबंगो और सरदारों के सिनेमा के बीच कुदरत से इतने करीबी रिश्ते की फिल्म में धरती उतनी ही है जितने इस पूरी कायनात में इंसान। यानी निर्देशक स्थापित करता है कि कायनात में हमारा वुजूद कोई बहुत बडा नहीं है, और जीवन और मौत के बीच जिंदगी से प्रेम कैसे होता है, इसकी झलक पूरी फिल्म में है। समंदर में जिस सूत्र के सहारे पाई जिंदा रहता है वह है कि 'उम्मीद कभी मत छोडो', समंदर से बाहर धरती पर भी बेहतर जिंदगी का रास्ता भी यह उम्मीद ही देती है।

Thursday, October 25, 2012

लाल सलाम तो बनता है प्रकाश झा के लिए

फिल्म इल्म -चक्रव्यूह :

फिल्म अपने पूरे मिजाज और तेवर में प्रकाश झा की फिल्म है। राजनीति की कई परतें वे राजनीति और आरक्षण में जाहिर कर चुके हैं, यहां उन्होंने माओवाद, नक्सलवाद, के साथ अप्रत्यक्ष रूप से मार्क्स, लेनिन को जेरेबहस रखा है।

अपने प्रिय अजय देवगन की जगह अर्जुन रामपाल के साथ 'चक्रव्यूह'लेकर आए प्रकाश झा को इसलिए धन्यवाद कहना चाहिए कि वे नक्सलवाद को लेकर बडी चतुरता से अपनी बात कहते हैं। सरकार और देश की बात कहते हुए आदिवासियों का पक्ष भी उसी बेबाकी से कह जाना इस फिल्म को पॉलिटिकली करेक्ट बनाता है। पूरी भव्यता के साथ उन्होंने फिल्म रची है और कहना चाहिए कि दर्शकों के लिए भरपूर मनोरंजन के साथ सार्थक सिनेमा की अपनी इमेज के मुताबिक काम को अंजाम दिया है।

बदलते आर्थिक माहौल में महान्ता नामक मल्टीनेशनल कंपनी के आगमन और पुराने कॉमरेड बाबा यानी ओमपुरी के साथ फिल्म सीन दर सीन दर्शकों के सामने उदघाटित होती है। नक्सलवाद से लडने वाले पुलिस अफसर के रूप में रामपाल से जो काम प्रकाश झा ने करवा लिया है, वह इस फिल्म को प्रामाणिकता देता है। एक्शन सीन तो अपने पेस और संपादन के कारण शानदार बन ही गए है। पुलिस अफसर के दोस्त और आंदोलनकारी युवती के रूप में अभय दयोल तथा अंजली पाटिल की भूमिकाएं और उनके बीच बनता भावनात्मक रसायन पर्दे पर एक खूबसूरत पेंटिग सा लगता है। कहानी में गुंथा हुआ कैलाश खैर की आवाज में महंगाई वाला गीत-'भैया देख लिया है बहुत तेरी सरदारी रे' अपनी लोकसंगीतीय बुनावट के कारण सिनेमा से बाहर निकलकर भी याद रहता है। नक्सली नेता राजन के रूप में मनोज वाजपेयी वैसे ही है जैसे हम उनसे और उनसे काम करवाने के लिहाज से प्रकाश झा से उम्मीद करते है।


फिल्म अपने पूरे मिजाज और तेवर में प्रकाश झा की फिल्म है। राजनीति की कई परतें वे राजनीति और आरक्षण में जाहिर कर चुके हैं, यहां उन्होंने माओवाद, नक्सलवाद, के साथ अप्रत्यक्ष रूप से मार्क्स, लेनिन को जेरेबहस रखा है। कितना कलेजा इस माध्यम में उन्होंने पुरजोर तरीके से यह बात कहने को जुटाया होगा कि भारत का विकास आजादी के बाद असमान रूप से हुआ है और विकास की रोशनी जहां नहीं पहुंची, वहां रोशनी के मीठे पोपले ख्वाब वहां पहुंचे है। अगर आप जाएंगे तो आपको भी लगेगा कि इन सालों में आदिवासी जीवन इस तरह से सिनेमा में शायद ही आया हो। यानी पूरे दस्तावेजी तरीके से पर बेशक मनोरंजन को सिनेमा की कसौटी मानते हुए। यह फिल्म संतुलित तरीके से दोनों पक्षों की बात रखते हुए सच को सच की तरह देखने का नजरिया देती है। और खास बात कि दोनों यानी सरकार और नक्सलवादियों में किसी एक का पक्ष लेते हुए कतई जजमेंटल नहीं होती। और शायद चुपके से यह बात भी कहती है कि सच दोनों के बीच में कहीं है। वैचारिक सिनेमा का पूरे कॉमर्शियल और मजेदार तरीके से आनंद लेना हो तो 'दामुल' और 'परिणति' वाले प्रकाश झा की यह फिल्म आपके लिए है।

Wednesday, October 10, 2012

'सर्वकाले सर्वदेशे'

एक वेब पत्रिका के संपादक मित्र को कविता भेजी थी, उन्होंने इसे अपने यहां प्रकाशित करने लायक नहीं माना, उनके निर्णय का सम्मान करता हूं, लिहाजा बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर एक कविता जारी की है, मुलाहिजा फरमाएं -



प्रेम को बचा लेना साधना है
अन्यथा उड जाएगा कपूर की तरह
प्रेम को सहेजना एक कला है- जीवन की जरूरी कलाओं में से एक !
वरना बेनूर हो जाएगा सारा का सारा वजूद
और अखिल चराचर जगत में विचरण भूत योनि में जैसे कई धर्मशास्त्र कहते हैं!

प्रेम की जरूरत कब होती है दैहिक फकत
प्रेम होता है जीना साथ - कभी खयालों में, कभी हकीकत में !

जीवन के अरण्य में प्रेम के पुष्प सायास नहीं उगते
वे खरपतवार की तरह होते हैं
और ऐसी खरपतवार जो सिखाती है - रंगों की पहचान और मौसमों की अहमियत !

प्रेम का कोई अर्थशास्त्र नहीं होता, सामाजिकी भी कोई नहीं
प्रेम की राजनीति सबसे विचित्र ज्ञान !

दो जिस्मों की आदिम अकुलाहट भर नहीं होता प्रेम!

प्रेम रहता है फिर भी अपरिभाषेय सर्वकाले सर्वदेशे !

प्रेम रहता है हमेशा केवल जीने के लिए
प्रेम को पाना और जी लेना कुदरत की वह नियामत है जो कुदरत अपने बहुत प्रिय प्राणियों को उपहार में देती है।

किसी नदी में बहते हुए आ जाता है पुष्पसमूह के मध्य कोई दीप
जुगनू भर आभा से चमकता है नदी का वह छोर- आत्म मुग्ध और आत्म संतुष्ट !
वायुवेगों की चंचलताओं के बीच बचा लेना उस दीप की वो अस्मिता
चुनौती स्वरूप उपस्थित होती है
कोई निर्धन माझी लगा सकता है अपना जीवन दांव पर उसके लिए
जिसके पास नहीं होता जीवन के सिवा कुछ भी दांव पर लगाने के लिए।

जीवन में अनंत दुसाध्य कष्टों के बावजूद

प्रेम को संभव बना लेना
रहेगा सबसे बडा कौशल और सबसे बडी विजय भी, तमाम पराजयों के साथ।

प्रेम किसी निर्जन मरूस्थल का वह छोर भी हो सकता है
जहां से आगे जीवन संभव ही नहीं होता।

किसी किसान के खेत में साप्ताहिक सिंचाई के ऐसे अवसर सा हो सकता है प्रेम
जो क्षण भर की किसी चूक से किसी और के खेत को सींच दे संपूर्ण !

प्रेम रहेगा जी लेने के लिए
फिर भी हर सदी, हर देश।

Wednesday, July 25, 2012

साधारणता के नायकत्व का दुर्लभ प्रतिमान

ऐसी किस्मत कितने लोगों को मिलती है कि उनकी पहली ही फिल्म ”आखिरी खत” ऑस्कर के लिए नामांकित की गयी थी। क्या हमें नहीं मान लेना चाहिए कि अमिताभ का उदय राजेश खन्ना का अंत था और अब उनकी देह का अंत हुआ है। देह का अंत ज्यादा मायने नहीं रखता … कलाकार का जिंदा होना या मरना उसके काम से ही होता है। उनके किरदार और सिनेमा जिंदा रहेंगे, जैसे उनके सुपरस्टारडम के अंत के बाद भी अब तक जिंदा रहा है!!



पर्दे पर मोहक दिखता यह नायक कितने ही कथानकों में गुलशन नंदा (जिनके बेटे राहुल नंदा पब्लिसिटी डिजाइनर के तौर पर आज के नायकों की छवियों रचते हैं) के उपन्यासों से रचा गया था (जैसे कटी पतंग और दाग)। दबे छुपे जो बाहर आया है, उसके आधार पर कहना जरूरी है कि अराजक जीवन ने लाखों दिलों में रहने वाले नायक को केवल 69 साल की उम्र में छीन लिया … ऐसे नायक को क्या ये हक होता है कि कुछ फिल्मों की असफलता से टूटकर अपने चाहने वालों को भूलकर जीवन को अराजक बना दे? मेरी जिज्ञासा है कि वे पुरुष केंद्रित उद्योग में सितारों के चरम अराजक व्यवहार की परंपरा के सूत्रधार नहीं कहे जाने चाहिए क्या?

मुझ जैसे कितने ही लोगों की परवरिश दूरदर्शन पर शनिवार और रविवार को राजेश खन्ना की फिल्में देखकर हुई होगी और बेशक हमें उन फिल्मों का रिलीज होना और पर्दे पर देखना नसीब नहीं हुआ, पर मैंने उनकी जो एक मात्र फिल्म पर्दे पर देखी, वह थी – ”नजराना” (वो भी गुलशन नंदा की कहानी पर आधारित थी) और उसका एक गाना बहुत मशहूर हुआ था – ”मैं तेरा शहर छोड़ जाऊंगा” … वो अब जब ये दुनिया छोड़ गये हैं, याद तो वे आएंगे, बहुत आएंगे।

बेशक राजेश खन्ना ने लोकप्रियता का चरम देखा, पर मेरी राय है कि अभिनय के क्लासिक मापदंडों पर वे बहुत साधारण थे। महान उन्हें शायद ही कहा जा सकता है। इस लिहाज से साधारणता के नायकत्व का दुर्लभ प्रतिमान हैं राजेश खन्ना!

बार-बार कहा जाता है कि सिनेमा एक सामूहिक कला है। कौन असहमत होगा कि किशोर कुमार और आरडी बर्मन के बिना इस सुपर स्टार का आकार लेना मुमकिन ही नहीं था!! यानी जिन लोगों का साथ उन्हें मिला, उस लिहाज से भी वो किस्मत के शेर थे! और यह भी पुरजोर पुन: स्थापित होता है कि च्युत नायकत्व को भी सम्मान देना भारतीय परंपरा है।

जरूरी नहीं कि जीवन मूल्य किसी धर्म या परंपरा से आएं, पर वो किसी इनसान के जीवन में होने चाहिए। राजेश खन्ना के जीवन में एक ही मूल्य था – आभासी नायकत्व और उसे कायम रखना। यह ज्ञात और कुख्यात है कि घोर अराजक और विलासी जीवन राजेश खन्ना ने जिया है। क्या यह काला सच नहीं है कि वो अपने अहम और स्टारडम की कंदराओं से ताउम्र बाहर नहीं निकले। बाबू मोशाय को लेकर दिये बयान बताते हैं कि वे किस कदर आत्ममुग्ध थे, ईष्यालु थे, असहिष्णु थे। चाहे इसे गॉसिप और संघर्षशील अभिनेत्री का स्टंट कहकर खारिज कर दें, पर याद करना जरूरी है कि उन पर भी बलात्कार का आरोप लगा था और जिसे एक स्टार के मीडिया प्रबंधन के उदाहरण के तौर पर दबाने के किस्से मशहूर हैं।

ये सवाल प्राय: हमारा आधुनिक समाज व्यक्तिगत कहकर नहीं पूछेगा कि अंजू महेंद्रू से ब्रेकअप क्यों हुआ? क्यों डिंपल अलग हो गयीं? क्यों जीवन संध्या में उनकी अंतरग हुई महिला ने उनसे शादी नहीं की? पर्दे पर आदर्श रोमांटिक नायक जीवन में आदर्श प्रेमी नहीं बना, क्या समाजशास्त्रियों को नहीं सोचना चाहिए!!! ऐसे प्रेमिल परदाई नायक के लिए आहें भरने वाली, खून से खत लिखनेवाली, निर्जन स्थान पर खड़ी नायक की कार पर चुंबनों से प्रेम-कविता रचने वाली, डिंपल से विवाह पर आत्महत्या करने वाली लड़कियां अपने जीवन की प्रौढ़ अवस्था में अपनी आंखों की भीगती कौर के साथ सोचती होंगी – ”क्या वो ऐसे आभासी – कागजी नायक से प्रेम करती थी! कितना बेवकूफाना था – वो प्रेम या आकर्षण !!” यानी वास्तविक जीवन में राजेश खन्ना नहीं जानते थे कि सच्चा प्रेम रोमांस, जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता का समेकित रूप है … या कहा जाए कि उनके लिए प्रेम रोमांस भर था!!

जब पूरा मीडिया एक फैन का सा व्यवहार कर रहा है, मेरी आपसे इल्तिजा है, मेरी टिप्पणी को मौत के बाद की गयी आलोचना नहीं, निष्पक्ष मूल्यांकन की एक कोशिश माना जाना चाहिए।

Monday, May 21, 2012

गुजरा हुआ जमाना, आता नहीं दुबारा


हर आदमी का अपना इतिहास होता है, कभी गौरवपूर्ण कि हम बार-बार चिल्लाके बताना चाहें तो कभी छुपानेलायक कि बचते रहें। यही देशों और सभ्यताओं के साथ होता है। यह परिपक्वता और सहनशीलता पर है कि हम समय के साथ हर चीज को जैसी वह थी, बिना भावुक हुए अपने स्वरूप में स्वीकारना सीख जाएं।

अतीत यूं भी सताता है, अतीत आपको कभी नहीं छोड़ता, अतीत खुद को दोहराता है, अतीत यानी इतिहास को लेकर कितने ही मुहावरे हम में से हर किसी की जुबान पर रहते हैं। मसलन, इतिहास दोहराने की बात ही सच होती तो इब्ने इंशा साहब को क्यों कहना पड़ता कि झूठ है सब तारीख हमेशा अपने को दोहराती है, अच्छा मेरा ख्वाबेजवानी थोड़ा सा दोहराए तो। कोई साठ साल पहले छपा कार्टून फिर जिंदा हो गया, यह किसी कलात्मक चीज का कालजयी होना था क्या? यकीनन नहीं, यह दरअसल परीक्षा थी, कई मायनों में परीक्षा और इसमें हम सब फेल हुए या पास यह तय करने का फैसला आप पर ही छोड़ता हूं। साधारण अर्थों में अतीत की जकडऩ में वर्तमान का आ जाना ही कह सकते हैं इसे ...पर बात इतनी सी नहीं है, बजाहिर बात इतनी सी होती तो कोई खास बात थी भी नहीं। इसके मायने और सरोकार कहीं बड़े हैं।

हमारे आसपास बहुत कुछ घटता है, सब कुछ क्या इतिहास में दर्ज होने लायक होता है, कौन दर्ज करेगा? दर्ज करनेवाला क्या वस्तुनिष्ठ रहेगा? उसके खुद के आग्रह क्या बीच में नहीं आएंगे? वह भी तो इनसान है, उसके सुख, दुख, दोस्तियां, दुश्मनियां भी तो उसके साथ ही रहेंगी। समय के साथ उसमें चाटूकारितांए और राजनीतिक जरूरतें भी शामिल हो जाती हैं और तब इतिहास इतिहास नहीं रहता, जरूरत के मुताबिक अतीत का पक्षविशेष तक सीमित कोई दस्तावेज भर ही तो रह जाता है।


इसे हम क्या कहेंगे कि जिनको कार्टून का पात्र बनाया गया था, उनकी भावनाएं तो उस वक्त आहत नहीं हुईं, अब उनके झंडाबरदारों की भावनाएं इतनी नाजुक हैं कि पूछिए मत।अगर कोई इस संसार से परे का संसार होता है तो उसमें बैठे नेहरू, अंबेडकर सोच रहे होंगे कि यार हमने तो सोचा ही नहीं, हम क्या मूर्ख ही थे। क्या इसे अतीत और प्रकारांतर से हमारे व्यवहार में सहनशीलता की घटती प्रवृति को नहीं देखना चाहिए। या तो हम यही मान लें कि अतीत को चिकना चुपड़ा धो-पोंछकर ही सामने लाया जाएगा, तो फिर वह अतीत की परिभाषा कि इतिहास यानी जैसा था से तो कहीं परे हो ही जाएगा। हालांकि हर समय में प्रायोजित इतिहास के बरक्स छोटी छोटी कोशिशें होती हैं जो झूठे इतिहासों को कठघरे में खड़ा कर देती हैं, और शायद यही डर झूठा इतिहास लिखने वालों को भी रहता है कि कहीं कोई खब्ती लेखक, कवि, पत्रकार अपने समय का सच्चा दस्तावेजीकरण कर रहा होगा, बकौल हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स -झूठ को सौ बार दोहराओ कि वह सच बन जाए, झूठा इतिहास रचने वाले बार-बार अपने तथाकथित इतिहास को अलग-अलग रूपों में रच और पेश करके उसे स्थापित करते रहते हैं।


यहां हम आपको याद दिला दें कि इतिहासकार ई एच कार ने कहा था -इतिहास अपने आप में उसके तथ्यों और उसके बीच की अंतक्रिया है, इसलिए इतिहासकार को इस बात की इजाजत दी जानी चाहिए कि वह अपने समय और पूर्वाग्रहों से सर्वथा मुक्त ना हो पाए ...और ईएच कार के इस खयाल की वजह शायद यह रही होगी कि इतिहासकार अपने वक्त की जमीन पर खड़ा होके ही अपनी आंख से अतीत को देखता-परखता है, वह उससे मुक्त कैसे हो सकता है? पर केवल भावानाएं आहत होने से वोटबैंक पर मंडराते खतरों से घबराए लोग तो इतिहासकार नहीं है और इतिहास की बुनियादी समझ भी उनमें से बमुश्किल पांच-सात लोग ही रखते होंगे।

आप सहमत होंगे कि हर आदमी का अपना इतिहास होता है, कभी गौरवपूर्ण कि हम बार-बार चिल्लाके बताना चाहें तो कभी छुपानेलायक कि बचते रहें। यही देशों और सभ्यताओं के साथ होता है। यह परिपक्वता और सहनशीलता पर है कि हम समय के साथ हर चीज को जैसी वह थी, बिना भावुक हुए अपने स्वरूप में स्वीकारना सीख जाएं। उदाहरण के तौर पर हमारे हमजाद और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में इतिहास पढ़ाते समय शायद यह भावना प्रबल रहती है कि वह पांच हजार साल की परंपरा के इतिहास से खुद को अलग ही दिखाए, साथ दिखाना कई राजनीतिक परेशानियों में डालता होगा। ये सहनशीनता उधर कभी आ पाएगी, दुआ तो करते हैं, पर उम्मीद जरा कम है।


इसी तरह, गांधी को लेकर समय-समय पर तथाकथित नई-नई चीजें सनसनी के रूप में पेश करने का फैशन भी रहा ही है, वह भी इतिहास को देखना है ...मैं इसे बुरा नहीं मानता, ज्ञात तथ्यों की नई व्याख्या और अज्ञात या कम ज्ञात तथ्यों को खोजना और पेश करना ही इतिहास का पुनर्लेखन होता है। किसी व्याख्या से आहत होकर यहां भी सत्य तक नहीं पहुंच सकते। यहां कहना जरूरी है कि जिन दिनों में भारतीय लोकतंत्र की प्रतीक संसद क ी पहली बैठक के साठ साल पूरे हुए हैं, लगभग उन्हीं दिनों में ऐसा वाकया होना कमाल ही नहीं उन लोगों के सठियाने का आभास देता है जिनके कांधों पर देश की लोकतांत्रिक परंपरा और करोड़ों के जनविश्वास की बड़ी जिम्मेदारी है। हमारे राष्ट्रीय नायकों के प्रति अंधमोह के स्थान पर उन्हें मानव और मानवीय कमजोरियों से युक्त प्राणी मानकर देखने की आदत और प्रवृति की अहमियत को कतई खारिज नहीं कर सकते। आखिर में शाइर निदा फाजली के शब्दों में एक गुजारिश- गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो, जिसमें खिले है फूल वो डाली हरी रहे।
आमीन।

Wednesday, April 11, 2012

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात..




पुरानी दिल्ली में बल्लीमारां की उन पोशीदा सी गलियों से तकरीबन पंद्रह सौ किलोमीटर की दूरी पर महाराष्‍ट्र में एक जगह है शोलापुर, वहां कुछ वर्दीधारी लोगों को यह इलहाम हुआ है कि चाचा का एक शेर तो इन्कलाबी है- ''मौज- ए- खूं सर से गुजर ही क्यों न जाए , आस्तान-ए-यार से उठ जाएं क्या! '', इसमें साफ- साफ तौर पर बगावत की बू आती है, बगावत भी क्या हुजूर, दहशतगर्दी की !



गालिब का एक मशहूर शेर है कि ''पूछते हैं वह कि गालिब कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या!'' आज फिर गालिब की पहचान जेरेबहस है और रात गालिब ख्वाब में आए और बोले -'मियां, मैं गालिब हूं, मेरा यकीन करो मैं आतंकवादी नहीं हूं।' माजरा आपकी निगाह में आ गया होगा, फिर भी सहाफत का तकाजा है, जरा संक्षेप में अर्ज कर दूं कि चचा गालिब के एक शेर की बिना पर किसी को आतंकवादी ठहराने का करिश्मा अंजाम दिया जा रहा है। इस शेर के आधार पर सिमी के एक कार्यकर्ता पर यह आरोप लगाया है। वह आतंकवादी है या नहीं और सिमी की गतिविधियां ठीक हैं या नहीं, यह हमारी बहस का सवाल नहीं है, उन्हें कुसूरवार या निर्दोष तो कानून साबित करेगा। पुरानी दिल्ली में बल्लीमारां की उन पोशीदा सी गलियों से तकरीबन पंद्रह सौ किलोमीटर की दूरी पर महाराष्‍ट्र में एक जगह है शोलापुर, वहां कुछ वर्दीधारी लोगों को यह इलहाम हुआ है कि चाचा का एक शेर तो इन्कलाबी है- ''मौज- ए- खूं सर से गुजर ही क्यों न जाए , आस्तान-ए-यार से उठ जाएं क्या! '', इसमें साफ- साफ तौर पर बगावत की बू आती है, बगावत भी क्या हुजूर, दहशतगर्दी की ! तो साहिब जिस शेर के मानी यह हैं कि चाहे खून की लहर ही हमारे सिर के उपर से गुजर जाए, हम तो अब ये दर, महबूब का दरवाजा नहीं छोडेंगे यानी चाहे सर कलम हो जाए ...के उन आलिमों फाजिलों ने क्या- क्या मानी निकाल लिए हैं। अरे, प्रो. सादिक साहब, गोपीचंद नारंग साहब और हिंदुस्तान के तमाम उर्दू शाइरी के तनकीदनिगारो ! आप सुन रहे हैं क्या ! इन नए वर्दीवाले आलोचकों का स्वागत कीजिए, हमारे साहित्य की नई व्याख्याएं हो रही हैं।


उर्दू और फिर पूरी दुनिया की शाइरी को इशारे का आर्ट या फन माना जाता है। इशारे में कही गई बात के मानी कई कई खुलें, यह शाइरी की ताकत मानी जाती है। पहली बात तो यह कि इस शेर के बहुत सारे मानी है नहीं.. और जो है वह बलिदान के तो हैं (चाहे प्रेमिका के लिए, देश के लिए या कौम के लिए), मारने के नहीं। यानी ठीक वैसे ही जैसे महात्मा गांधी भारत छोडो आंदोलन के समय इसी महाराष्‍ट्र में मुम्बई के अगस्त क्रांति मैदान में (जो नाम इस घटना के बाद दिया गया था) कहते हैं- 'करो या मरो '। उसमें 'मारो' शामिल नहीं था, इसका अर्थ था -आजादी की राह में आगे बढें और करना पडें तो जान दें दे।


इत्तेफाक देखिए कि हमने जहां से बात शुरू की वह शेर- ''पूछते हैं वह..'' भी इसी गजल का है। बहरहाल शाइरी की बात ना करें सियासत की कर लें, कहना चाहिए कि यह जल्दी का बयान है, कुछ वक्त बाद बयान बदल जाएंगे, फिलवक्त तो यही है। वैसे गौर करें तो चाचा गालिब का दौरे सुखन अंग्रेजों का दौर था जैसे भगतसिंह का दौर था, नजरूल इस्लाम का दौर था। हालांकि ये बात ओर है कि बहुत खुल के चाचा गालिब ने अंग्रेजों की मुखालफत कम ही की या कहें ना के बराबर ही की तो चाचा किस के खिलाफ दहशतगर्दी करते, प्रेम में प्रेमिका के लिए करते या जमाने के खिलाफ एक आम लेखक के तरह से जैसे हर लेखक बुनियादी तौर पर एंटीएस्टाब्लिशमेंट का एटीटयूड रखता है।


उन्होंने फारसी में कहा है कि ''आराइश-ए-जमाना जि बेदाद करद: अंद, हर खूं कि रेख्त गाज-ए- रू-ए-जमीं शनास'' यानी जमाने का सिंगार अत्याचार से किया गया है और जो भी खून बहाया गया है, यह धरती का अंगराग बन गया है। अफसोस भरे लहजे में ऐसा लिखनेवाला शाइर दहशतगर्दी की परस्ती कर सकता है क्या? उनके कितने ही शेर इनसान को दुनिया या कायनात का मर्कज यानी केंद्र घोषित करते हैं। कभी कभी हमें यह सोच लेना चाहिए, वैसे भी महंगाई के जमाने में यही काम बचा है जो अब भी निशुल्क संभव है, सोच की कोई इंतिहा भी नहीं होती.. तो सोचना का नुक्त- ए- नजर यह है कि चाचा गालिब को फिरकापरस्त भी नहीं कह सकते, दहशतगर्द कहना तो बहुत दूर की बात है, मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरी बात से इत्तेफाक रखेंगे।


वैसे मैं यह भी मान लेता हूं कि अदब यानी साहित्य के मरहले ऐसे हैं कि 'या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात'...यह भी चचा ने कहा था तो उनकी बातों को कौन समझता है, कौन समझेगा! चाचा को भी पता था, है ना! जाहिर सी बात है कि कहने और समझने का फासला हमारे समय में बढ रहा है यह मान लेना चाहिए पर यह हमारे वक्त की पैदाइश है, ऐसा तो हरगिज नहीं कहा जा सकता। कहने और समझने के बीच इत्मीनान से सुनने अदब और एहतराम से सुनने का बडा जरूरी मकाम है, और जीवन की आपाधापी तथा अहम के पहाड जब इतने उतिष्ठ हो जाते हैं तो चिल्लाना भी बेमानी हो जाता है, धीरे से कान में की गई फुसफुसाहट सुन जाए तो करिश्मा होगा। शेरों और कविताओं मे अपनी बात कहना उसी फुसफुसाहट जैसा है, ये सरगोशियां बेमानी ना हों आओ कुछ ऐसा करें। गालिब के ही हमशहरी दाग देहलवी के शब्दों में कहें तो 'चल तो पडे हो राह को हमवार देखकर, यह राहे शौक है सरकार देखकर।


अकसर यह भी होता है कि किसी अदीब को उसके गुजरने के बाद जाना- समझा जाता है इज्जत दी जाती है। गालिब को तो गुजरे भी जमाना हो गया, अब तो उसे हम कायदे से समझ लें पर साहिब जिस दौर से गुजर रहे हैं, वहां अपनी तहजीबो रवायत के कर्णधारों - विचारकों, चिंतकों, कवियों, लेखकों को सबसे गैरजरूरी मान लिया गया है तो बाकी सब रास्ते और मंजिलें भी तो वैसी ही होंगी। इस बात पे अगर आज फिर चचा गालिब अगर मेरे ख्वाब में आए तो माफी मांगते हुए उन्हीं के शब्दों में कहूंगा कि '' हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है, वो हर एक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता'' ।

Tuesday, January 24, 2012

विदाई का गीत





ए जाते हुए लम्हों जरा ठहरो...जरा ठहरो


सिगरेट के धुएं के छल्ले, कुछ खुशबूएं, कुछ मादक गंध, कुछ प्यारे से- चिकने- चुपड़े चेहरे याद रह जाएंगे, कुछ सितारे यादों में बसे रह जाएंगे, कुछ शब्द जेहन में चिपक के कुछ दिन हमसफर रहेंगे।


बेशक ये दोपहर थी, पर सांझ के कुछ बदमिजाज और जिददी साए जनवरी की धूप में शामिल होकर इतरा रहे थे, लहरा रहे थे। ये आखिरी लंच था इस साल के फेस्ट का, देख पा रहे हैं कि गोविंद निहलानी अकेले अपनी साफ शफाफ सी प्लेट में करीने से छोला- पुलाव डाल रहे हैं, उनके चेहरे के भाव उनकी फिल्मों की तरह हैं। राजस्थान में उनका बचपन गुजरा है, उत्सव के बहाने यहां होना और इन लम्हों को सहेज लेना उनके लिए मुश्किल नहीं है, सीन दर सीन एक निर्देशक की आंखों में दर्ज हो रहे हैं। मैं पूछता हूं-' आखिरी दिन है, कैसा लग रहा है?', मुस्कुराहट के सिवा कुछ नहीं कहते। बीतते लम्हों की कसक का बयान या तो आंसू करते हैं या मुस्कुराहट।

माहौल में अभिजात्यता है, गंध में कितनी देशी- विदेशी गंध शुमार हैं, इसकी गिनती बहुत मुश्किल है, गंध में एक गंध शब्दों की है, बातों की है, जो बीत गया है उसकी है, जो ठहर गया है, उसकी है। आखिरी दिन से पहले की शाम की संगीत लहरियों में पार्वती बारूआ के बाद राजस्थानी यूजन की याद नीलाभ अश्क की बातों में अब भी घुली हुई है। उनके साथ बैठे ऑस्टे्रलियन पेंटर डेनियल कॉनेल के मुंह से हिंदी में निकला- 'जयपुर चमक रहा है।' यह चमक- दमक है, इसमें महक भी है, यह वह जयपुर अब नहीं है, दिल्ली से आए छात्राओं के समूह में से एक छात्रा से बात करता हूं, पता चलता है कि उनके मन में क्या है, उनका मन है-''इसे महीने भर का होना चाहिए।'' यह इनसानी मन है, जो भरता नहीं है, भरने की कोशिश में और रीतता जाता है, प्यास बढती जाती है।

किताबों की दुकान पर मेला है, किताबें देख रहे है, खरीद रहे हैं, लगता है दुनिया बस किताबों सी सुंदर हो जाने वाली है, एक लेखक प्रकाशक गेट पर जाते हुए मिल गए, जावेद अख्तर की किताब 'लावा' के विमोचन की बेला की चमक उनकी आंखों में जिंदा है, जाते हुए उनके कदम ठिठक रहे हैं, शायद गुलजार के लफजों में 'रुके रुके से कदम, रुक के बार- बार चले'।

रूश्दी नहीं आए, नहीं बोल पाए, उनके विचार गूंजते रहे जैसे किसी भी कलमकार के होते हैं। सिगरेट के धुएं के छल्ले, कुछ खुशबूएं, कुछ मादक गंध, कुछ प्यारे से- चिकने चुपड़े चेहरे याद रह जाएंगे, कुछ सितारे यादों में बसे रह जाएंगे, कुछ शब्द जेहन में चिपक के कुछ दिन हमसफर रहेंगे। अगले साल इन्हीं दिनों तक, नए मजमें के सजने तक ये लम्हे यादों के एलबम में रह जाएंगे। सबके लबों की दुआ लौट-लौट कर आते कदमों की आहट में घुली हुई सी है कि वक्त ठहर जाए, यहीं कहीं।

Saturday, January 14, 2012

कविता जैसा कुछ


जिंदा लाशें जश्न मनाती हैं


किसी के साथ ना होने से कोई नहीं मरता
ऐसी बातें अच्छी लगती हैं पर सच्ची नहीं होतीं कि -
''जैसे मर जाएंगे हम एक दूसरे के बिना या जिंदा लाश ही हो जाएंगे हम ''
जिंदा रहते हुए मर जाना भी कोई खयाल होता है किताबों में
मर कर जिंदा रहने का जैसे
मरते हुए जिंदा रहते हुए मौत को याद करता भी एक शाइराना खयाल हो सकता है देवदास सा
देवदास का खयाल भी तो किताबी सा है !
प्रेम में जिंदा हो जाने या नई जिंदगी भर देने जैसे महान खयाल भी तो देते हैं शाइर- कवि लोग
भूल जाते है वे खुद भी कि साथ बनाता है जिंदगी को जिंदगी सा
और साथ छूटना भी जिंदगी को संभव अगर किसी तरह तो हम क्यों झूठ बोलते हैं खुद से ही कि नहीं रह पाएंगे तुम्हारे बगैर!
रह लेते हैं, जी लेते हैं, सह लेते हैं खुश भी ...और खुश भी इतने कि कभी कभी लगता है कि ये हंसी ये खिलखिलाहट तो तब भी नहीं थी जब खुश थे, साथ के अहसास के साथ दोनों !
जीना हर हाल में संभव हो जाता है, जिंदा लाशें जश्न मनाती हैं !!