Thursday, July 30, 2009

मैंने राजमाता गायत्री देवी को छुआ था




कल जब जयपुर की पूर्व राजमाता गायत्री देवी का निधन हो गया हैं, मुझे अपने पत्रकारीय जीवन के महत्वपूर्ण साक्षात्कारों में से एक को आप से बांटने का मन है।


सन् 2004, वो मई के पहले हफ्ते की एक दोपहर थी, उमस भरी। कुल जमा छत्तीस दिन के बाद मुझे लिलीपुल से जयपुर की पूर्व राजमाता गायत्री देवी के एडीसी रघुनाथसिंह का फोन आया- राजमाता ने आपसे मिलने की इजाजत दे दी है, आप एक बजे पधार जाएं यहां। दरअसल भाई आलोक तोमर की एजेंसी शब्दार्थ के जरिए एक विदेशी पत्रिका के लिए ये मेरा पहला असाइनमेंट था और छत्तीस दिन में मैं उम्मीद छोड़ चुका था कि मेरी मुलाकात हो भी पाएगी। खैर, इंटरव्यू हुआ,अब तक भी, पत्रकारीय जीवन का सबसे बेहतरीन मेहनताना शब्दार्थ की ओर से मिला था इस पर, और फिर भारत में भी दो बार छपा लगभग बिना मेहनताने के।
लिलिपुल पहुंचकर एडीसी रघुनाथसिंह के साथ कुछ वक्त इंतजार में गुजारा, कागजी औपचारिक ताएं पूरी कीं और फिर, थोड़ी देर बाद एक कारिंदे के साथ मैं दुनिया की दस बेहद खूबसूरत महिलाओं में शामिल एक शख्सियत से मिलने उनके मेहमानखाने में दाखिल हो रहा था। शाही महल का वो हिस्सा अद्भुत था,चारों ओर विशाल सोफे थे, आदमकद तस्वीरें, चमचमाते झूमर, टिमटिमाती रौशनियां और पीछे किसी लॉन में पानी देते प्रेशर पाइप की आवाज, वो तिलीस्मी सा माहौल था जहां मैं फिर बैठा दिया गया था, इंतजार के लिए। दस मिनट के इंतजार के बाद आसमानी नीले रंग की शिफॉन की साड़ी में वो सिर का पल्लू संभालते हुए आई, कहीं के और किसी भी शाही परिवार के सदस्य से यह पहली मुलाकात थी। उन्होंने और मैंने लगभग एक ही वक्त में एक दूसरे को अभिवादन किया और उन्होंने आगे बढकर हाथ मिलाया। उनके लिए यह आम बात होगी, मेरे लिए ये रोमांच का क्षण था। पंद्रह मिनट का अपांइटमेंट था और फिर वो तक रीबन डेढ घ्टे मेरे साथ रही,अतीत और वर्तमान के बीच सफर क रती रहीं, मुझे लगता हैं कि वो मुझसे इस मुलाकात में बहुत सहज थीं, इस तरह बात क रना उन्हें अच्छा लग रहा था। आखिर में निकलते वक्त उन्होंने पूछा क्या तस्वीर की जरूरत है, मैंने क हा आपके अंदर की खूबसूरती को देख और महसूस कर लिया है, यूं आपकी तस्वीरें मिल ही जाएंगी। वो अवाक हुईं और सौम्य मुसकुराहट बिखेर दीं,मुझे लगा, सोच रहीं होंगी-अजीब लडक़ा है, लोग मेरे साथ तस्वीर के लिए तरसते हैं। और कहा-कोई पुरानी तस्वीर चाहिए तो एडीसी साहब को बोल देती हूं, आपको दे देंगे। आज मुझे अफसोस हैं कि काश मेरी एक तस्वीर उस परी सी सुंदर सौम्य पूर्व राजमाता गायत्रीदेवी के साथ होती।


पेश है उस साक्षात्कार के अंश-

12 अगस्त 1947 को जब जयपुर रियासत स्वतंत्र भारत में मिला दी गई,तब आपको कैसा महसूस हुआ?


मुझेअच्छा नहीं लगा क्योंकि रजवाडों के अपने गौरवशाली इतिहास हैं,रजवाड़ों के जनता के साथ बहुत नजदीकी संबंध रहे हैं। मांबाप के जैसा रिश्ता था,लोग आजकल ये भूल जाते हैं। जब कभी रामबाग आते थे,ढेरों लोग खड़े रहते थे,लोग दरबार से पूछते थे,कहते थे-अन्नदाता, अनाज नहीं है, ये नहीं है, वो नहीं है, नई सरकार के आते ही उठते बैठते टैक्स लगता है, ऐसी बातें करते थे। हम अब उनके लिए कुछ नहीं कर सक ते थे।
आपने लोक तांत्रिक राजनीति में क दम रखा,राजगोपालाचारी के साथ काम किया, तीन बार जयपुर से लोक सभा केलिए चुनी गईं, फिर क्यों छोड़ी राजनीति?


इसलिए कि राजा जी नहीं रहे। स्वतंत्र पार्टी के सिद्धांत मुझे पसंद थे-स्वतंत्र भारत,स्वतंत्र जनता, सब कुछ स्वतंत्र। पंडित जी की मैं बहुत इज्जत करती थी,हर चीज को स्टेट में ले लिया,जनता को को ई आजादी नहीं थी,ये करो तो फॉर्म वो करो तो फॉर्म।एक बार जब राजाजी कांगे्रस में थे,नागपुर में पंडित जी ने क हा-आपकी जमीन भी हम ले लेंगे। राजा जी ने क हा कि किसानों के खेत नहीं लेन चाहिए। अगर आप ऐसा क रते हैं तो आपके विरोध में एक पार्टी बनाउंगा जो स्वतंत्र भारत, स्वतंत्र जनता के लिए। आप उम्र में बहुत छोटे हैं,आपको मालूम नहीं होगा कि पर्चे बांटे गए थे,पाठ्य पुस्तको ंमें लिखा गया था कि जमीन सरकार की इसलिए राजा जी ने पार्टी बनाई।1970 में आखिरी बार चुनाव लड़ा।दरबार भी नहीं थे,इंदिरा गांधी ने चुनाव मतदाता सूची में जिनके के आगे सिंह था,नाम क टवा दिये।रामबाग का राजमहल जिसमें हम रहते थे,उसके स्टाफ तक का नाम काब् दिया गया। कुचामन जहां से मैंने चुनाव लड़ा वहां भी ऐसा ही हुआ।

अभी दिन कैसे गुजरता है आपका?


हजारों चीजें हैं, एमजीडी स्कूल, सवाई मानसिंह स्कूल, एक चांद शिल्पशाला जहां लडकियां दस्तकारी सीखती हैं,और गलता के पास एक गांव में जग्गों की बावड़ी में एक स्क ूल है। गरीब बच्चों के लिए। मेरी चैरिटी भी है। बहुत कुछ है। कुछ ना कुछ करती रहती हूं।

आपका जीवन दर्शन क्या है?


दर्शन वर्शन कुछ नहीं है, मैं तो सामान्य सी इनसान हूं, को ई फिलास्फी-विलॉस्फी नहीं है।


क्या आप सोचती हैं कि आप राजकुमारी या महारानी की बजाय आम नागरिक होतीं?


मैं राजकुमारी की तरह पैदा हुई और महारानी हो गई,इसलिए नहीं जानती कि आम आदमी केसा होता हैं,सिर्फ महसूस कर सक ती हूं। पर मुझे लगता है कि इनसान तो इनसान होता है, मैं मानती हूं कि आम आदमी की तरह स्कूल गई। शांति निकेतन में पढी ,वहां आम थी,खास नहीं थी।

बहुत से लोग सोचते हैं और मैं भी कई बार सोचता हूं कि जनतंत्र की बुराइयां हमें यह कहने को विवश करती हैं कि शायद राजशाही लोक शाही से बेहतर थी।आपको क्या लगता है?


राजशाही अच्छी थी,हर जगह तो नहीं पर क ई जगह तो बहुत ही अच्छी थी।जैसे मेरे नानो सा सयाजीराव गायक वाड़ का राज बहुत ही अच्छा था।अंबेडकर को किसने पढाया,बनाया,उन्होंने ही ना। मेरे पीहर में भी अच्छा था,हिंदू मुस्लिम प्यार से साथ रहते थे। जयपुर में भी ऐसा ही था,दरबार हमेशा कहते थे हम जो कुछ भी हैं,जयपुर की वजह से हैं,जो कुछ भी हमारे पास है,जयपुर की वजह से है,सब जयपुर को देना है,लोग उनको बहुत मानते थे।

आपने दुनिया देखी है, आपका पसंदीदा शहर कौनसा है?


बेशक जयपुर !

कूचबिहार में आपका जन्म हुआ,वहां की यादें हैं अभी भी आपके जेहन में?

बहुत हैं,हर साल जाती हूं अब भी।इस साल कुछ कारणों से देर हो गई,शायद अक्टूबर नवंबर में जाऊं पूजा के समय।

अपने परिवार के बारे में बताएं।


बेटे महाराजा जगत सिंह का लडक़ा मेरा पोता देवराज यहीं हैं,उसने बीए किया है, शायद दिल्ली से मास्टर्स क रेंगे।पोती लालित्या अपनी मां के पास बैकॉक में रहती हैं, इन दिनों वो भी यहीं हैं, उसने मास्टर्स किया है।

आप गिरधारीलाल भार्गव के नामांकन के समय उनके साथ थीं,राजनीति में अब भी रुचि है?


उन्होंने बुलाया तो मैं गई थी,कोई रुचि नहीं अब राजनीति में,मैं तो बस यह चाहती हूं जयपुर की जनता खुश रहे, खुशहाल रहे, ये भी चाहती हूं कोई उनके लिए कुछ करे, मैं उम्मीद क रती हूं कि वसुंधरा राजे कुछ करेंगी क्योंकि वे अच्छे परिवार से हैं,समझती हैं,देखते हैं क्या करतीं हैं?



आप शांति निकेतन में पढीं हैं,रवींद्र बाबू से जुड़ी वहां की कोई याद ?


उन्हें हम गुरूजी क हते थे,मैं उनके पास जाती थी,बहुत जाती थी,एक बार उन्होने मुझसे कहा कि आपने डांस क रना क्यों छोड़ दिया,मैंने कहा:वो टेनिस का समय है,मुझे टेनिस बहुत पसंद है। उन्होने कहा-लड़कियों को नाचना चाहिए।


जबसे होश संभाला,आपका नाम सुना,ये जाना कि आपको दुनिया की सबसे खूबसूरत महिलाओं में गिना जाता है?


किसने कहा? ये सही नहीं है।

मुझे तो आज भी लगता है कि आप बेहद खूबसूरत हैं?


नहीं, नहीं, मेरी मां बहुत खूबसूरत थीं, मेरे पिताजी बेहद खूबसूरत थे, मेरे भाई बहिन भी सुंदर थे।

अगर सेहत साथ दे तो कुछ और क रने की इच्छा है?


कुछ नहीं अब क्या क र सक ती हूं ?

Monday, July 27, 2009

कलम को सलाम कीजिए


रामचंद्र गुहा का प्रकाशक पेंग्विन से करार हुआ है जिसके तहत वे इस साल उनके लिए 97 लाख रुपये में सात किताबें लिखेंगे, यह करार भारतीय लेखन जगत में एक इतिहास का रचा जाना है तो उचित लेखकीय मानदेय का उदाहरण भी।


एक बड़ी खबर यह है कि प्रसिद्ध इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा का एक प्रकाशक से करार हुआ है जिसके तहत वे इस साल उनके लिए 97 लाख रुपये में सात किताबें लिखेंगे। वे गद्यकार है, लिहाजा ये किताबें नॉन फिक्शन यानी कथेतर होंगी। उनकी पिछली किताब इंडिया आफ्टर गांधी भारत की कथेतर बेस्टसेलर है। गुणवत्ता में मिथकीय प्रतिमान स्थापित करने वाले लेखक का यह करार भारतीय लेखन जगत में एक इतिहास का रचा जाना है तो उचित लेखकीय मानदेय का उदाहरण भी।दरअसल भारत में लेखन को कला तो माना गया पर उसे व्यवसाय के तौर पर प्राय: हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है। इसीलिए लेखन को पारिश्रमिक से भी नहीं जोड़ा जाता। मै मानता हूं कि पैसे के लिए ना लिख जाए पर जो लिखें, उसका उचित लेखकीय मानदेय लेखक का हक है। ज्ञात हो कि आज राजेंद्र यादव और नरेंद्र कोहली हिंदी के सर्वाधिक रॉयल्टी पाने वाले लेखक हैं जबकि निर्मल वर्मा अपनी मृत्यु से ठीक पूर्व भी सालाना रॉयल्टी के रूप में केवल एक लाख रुपये के आसपास प्राप्त कर रहे थे। कुल मिलाकर लेखक को उचित मानदेय ना मिल पाने में प्रकाशकीय खोट भी कम नहीं है। पर लेखन में व्यवसायिकता को लाने की जरूरत और संभावना को लेखक प्रकाशक दोनों की आपसी समझ से तय कर सकते हैं। यहां संदर्भश: बताना चाहिए कि राजस्थान हिंदी गं्रथ अकादमी द्वारा स्थापित रॉयल्टी के पारदर्शी मॉडल को हिंदी सृजनात्मक लेखन में भी संभव बनाने की जरूरत है। ये संयोग भर नहीं है कि उपरोक्त करार करने वाले प्रकाशक पेंगुइन ने ही हिंदी के उदय प्रकाश से एडवांस रॉयल्टी पर उपन्यास लिखने का पहला करार किया है जबकि हिंदी के स्थापित नामचीन प्रकाशक नहीं कर पाये, हालांकि राजकमल प्रकाशन ने पिछले दिनों एक उत्साहजनक योजना अपनी स्थापना के साठ वर्ष पूरे वर्ष होने पर घोषित की है। जिसमें साठ पांडुलिपियों को रॉयल्टी के साथ साठ लाख
रुपये दिए जाएंगे। अब तक मुहावरे में कहा जाता है कि अंगे्रजी में लिखते हो तो रॉयल्टी की बात करो, हिंदी में प्रकाशक को बिना कुछ दिए छप जाओ तो गौरवान्वित होना चाहिए, पंजाबी, उर्दू और राजस्थानी में प्रकाशक को धन देकर भी छप जाओ तो गनीमत मानिए। पर अब माहौल बदलने लगा है जबकि अंगे्रजी के बड़े और अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक हिंदी में आ रहे हैं। तो परंपरागत भारतीय प्रकाशक भी बदलेंगे, उम्मीद करनी चाहिए।

Wednesday, July 8, 2009

इनसान परेशान यहां भी है, वहां भी


यह महज किताब नहीं है, दरअसल अतीत की वो खिड़की है जिससे भारतीय उपमहाद्वीप का भविष्य झांकता है...


हार्पर कॉलिन्स से एक किताब आयी है, जिसका संपादन इरा पांडे ने किया है। हिन्दी पाठकों को पता होगा ही कि वे प्रसिद्ध लेखिका शिवानी की बेटी हैं। इस ताजा किताब का नाम है- द ग्रेट डिवाइड -इंडिया एंड पाकिस्तान, जो दरअसल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, दिल्ली के त्रैमासिक जर्नल के विशेषांक का पुस्तकाकार रूप है और इसकी भूमिका डॉ।कर्ण सिंह ने लिखी है। साठ साल की आजादी का जश्न मना रहे दोनों देशों के हालात और अंतर्संबंधों पर ये किताब बहुत खास है जिसके लेखक सीमा के दोनों ओर के जाने माने लोग हैं, जिनमें उर्वशी बुटालिया, बीना सरवर, शिव विश्वनाथ, सोनिया जब्बार, अमित बरुआ, आलोक रॉय, लॉर्ड मेघनाथ देसाई, मुकुल केसवन आदि शामिल हैं। बेशक उस विभाजन को याद करना दर्द को कुरेदना है और जैसा मशहूर शायर निदा फाजली ने पाकिस्तान से लौटने के बाद कभी कहा था-
हिंदू भी मजे में है, मुसलमां भी मजे में,
इनसान परेशान यहां भी है, वहां भी।
उठता है दिलो-जां से धुआं दोनों ही तरफ,
ये मीर का दीवान यहां भी है, वहां भी।
पर जो कुछ साझा है,वो सुकून देता है। बेशक ये किताब इस मायने में नयी जमीन तोड़ती है कि इसमें दृष्टि सर्वथा नयी है, व्यवहारिक है, अकादमिक गंभीरता तो है, पर अकादमिक लफ्फाजी यहां बिलकुल नहीं है, इसकी बानगी के लिए बीना सरवर के लेख मीडिया मेटर्स का अंश देखें-

भारत और पाकिस्तान दोनों में आये मीडिया बूम ने दोनों देशों के लोगों को करीब लाने का काम किया है और बंधी बंधाई लीक से तोडऩे का काम भी किया है तो दूसरी तरफ इसके विपरीत पूर्वाग्रहों और पुराने अंधविश्वासों से भी पुनस्र्थापित किया है।

वहीं आलोक रॉय ने उर्दू को याद किया है, परमाणु मुद्दे पर सी. राजामोहन का बेहतरीन लेख है। सलीम हाश्मी का कला पर फोटो निबंध है, तो मेजर जनरल उदयचंद दुबे का रजमाक एलबम तकरीबन सौ साल पुरानी तस्वीरों के जरिए हमारे सामने उस युग को जीवंत कर देता है। सुनील सेठी का लिया हुआ मशहूर पाकिस्तानी कथाकार नदीम असलम का साक्षात्कार किताब को सार्थक बनाता है। दोनों के आजाद मुल्कों के रूप में जन्म से लेकर आज ये दोनों देश आर्थिक राजनीतिक सामाजिक तौर पर कहां खड़े हैं, किताब ये परीक्षा तो करती है, साथ ही कतिपय सॉफ्ट विषयों जैसा इरा स्वयं इसकी भूमिका में बांटती हैं- जैसे सिनेमा, साहित्य, भाषा, क्रिकेट, मीडिया आदि की बात भी खुलकर की गयी हैं। इस लिहाज से किताब केवल नोस्टालजिक कोलाज मात्र नहीं है, उससे कहीं आगे है। दोनों देशों के सदियों पुराने सांस्कृतिक संबधों और उनकी सांझी बुनावट को इस तरह याद किया गया है कि ये स्थापित हो जाता है कि सियासी बंटवारे हमारी तहजीब और दिलों को बंटवारा तो नहीं कर सकते हैं। कुल मिलाकर ये किताब नयी रोशनी में नयी सदी में दोनों मुल्कों के संबंधों को देखने का मुकम्मल जरिया देती है और ये उम्मीद या सवाल भी चुपके से जताती है कि हमें अच्छे पड़ोसी क्यों नहीं होना चाहिए।