Friday, August 12, 2011

ठेस और ठोस के बीच




फिल्म से मेरी भी असहमतियां हैं पर वे असहमतियां यह इजाजत मुझे नहीं देती कि कहूं भई फिल्म नहीं चलनी चाहिए। दूसरे, यह कोई महान फिल्म नहीं है, एक व्यवसायिक फिल्म है, कभी मेरे प्रिय निर्देशक रहे प्रकाश झा की परंपरा की भी नहीं है, कह देना चाहिए कि मैं उनसे निराश हुआ हूं, पर इस निराशा में भी उनकी फिल्म के प्रदर्शन को रोकने का पक्षधर नहीं हो सकता



पहले संक्षेप में घटनाक्रम बता दें, फिल्म के रिलीज होते होते तीन राज्य आंध्र पदेश, उत्तरप्रदेश और पंजाब 'आरक्षण' के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा चुके हैं, राजस्थान में आरक्षण के लिए संघर्षरत राजपूत करणी सेना और राजस्थान सर्वब्राहमण महासभा के पदाधिकारियों का विरोध कुछ संवाद हटाकर समाप्त किया गया है और प्रकाश झा कुछ और दृश्यों को हटाने को राजी हो गए हैं, पर इधर उधर विरोध जारी है और प्रकाश झा अपने पक्ष के लिए सुप्रीम कोर्ट जा रहे हैं।

इस फिल्म को देखने के बाद मेरा यह कहना वाजिब मान लिया जाना चाहिए कि फिल्म आरक्षण को लेकर बहस छेडती है। वैसे तो, आरक्षण का मुददा ही अपने आप में इतना संवेदनशील है कि कुछ भी कहना विवाद को विषय बन सकता है, चाहे पक्ष में होइए, विपक्ष में या चुप रहिए तो भी। फिल्म में आरक्षण से जुडे सभी पहलूओं को गोया इस तरह से छू लिया गया है कि फिल्म किसी एक पक्ष को तो कतई संतुष्ट नहीं करती है..और सभी पक्ष क्या करें। इसमें प्रकाश झा की चालाकी और समझ को सलाम करना चाहिए या दूसरे शब्दों में कहें तो व्यवसायिक जरूरतों के बरक्स प्रकाश झा मजबूर थे कि इस संवेदनशील विषय पर ऐसी ही फिल्म बना पाते और धीरे-धीरे चतुराई से फिल्म को आरक्षण से हटाकर शिक्षा व्यवस्था पर चोट करती सवाल खडे करती फिल्म के रूप में याद करने लायक ही बनाते। फिल्म का मीडियम यही इजाजत देता है, ऐसा कहना शायद जल्दबाजी होगी हो, पर माफ कीजिए, यह बेशक कहा जा सकता है कि व्यवसायिक सिनेमा इसी की इजाजत देता है, किसी हद तक यह कहना ठीक हो सकता है। वैसे हमारे लोकतंत्र का बडा सच यह है कि जब कोई मसला राजनीतिक रंग अख्तियार कर ले तो इस बात की गुजाइश क्या बहुत कम नहीं हो जाती कि उसका समाधान कम वक्त में निकल जाए... ऐसा सोचना खाम खयाली भी माना जा सकता है।  यही बात आरक्षण को लेकर भी है अब जब कि प्रायः लोग मान चुके हैं कि आरक्षण सामाजिक न्याय की जरूरत है और चाहे कुछ तबकों के बेमन से ही सही इसे व्यवस्था में लागू करना तो भारतीय समाज से बढकर अब भारतीय राजनीति की बडी अपरिहार्यता है।

थोडा व्यक्तिगत होने की मोहलत लेते हुए कहूं कि मैं उस पीढी में हूं जिसने मंडल के बाद देश को बदलते और खुद को उस  बदलाव का हिस्सा बनते हुए देखा है, यह समय के साथ देखा है कि जो तबके विरोध में थे वे भी उसी पंक्ति में आकर खडे हो गए हैं  बेशक इनमें भी कुछ लोग हैं जो आर्थिक आधार पर सरकारी सुविधाओं के हकदार हैं, और बहुत हद तक शायद आरक्षण के भी।

वापिस फिल्म पर लौटें तो कहना चाहिए कि सिनेमा कथा कहने का जीवंत विजुअल माध्यम है यानी फिक्शन का । और उसे समस्त कला माध्यमों से विकसित और उन्नत कला माध्यम माना जाता है क्योंकि उसमें पेंटिंग,  साहित्य- (कहानी और कविता दोनों),  संगीत, फोटोग्राफी आदि का समावेश है। फीचर फिल्में जैसा हम सब जानते हैं कथा फिल्में होती हैं कथा में सच कितना हो यह बहस का विषय हो सकता है । वैसे भी भारत में कितने निर्देशक रियलीस्टिक सिनेमा बनाते हैं, उसमें भी राजनीतिक सिनेमा तो और भी कम। यही वजह है कि भरत में बायोपिक सिनेमा नहीं बनता है मुददों पर ही फिल्म नहीं बना सकते तो व्यक्तियों पर कैसे बना के दिखा पाएंगें... शायद यही वजहें है कि बवंडर बनाने वाले फिल्मकार दोस्त जगमोहन मूंदडा की एक राजनीतिक फिल्म रिलीज के इंतजार में हैं ...देखना होगा कि संजय पूरणसिंह चौहान जिन्होनें पिछले दिनों संजय गांधी पर फिल्म बनाने की घोषणा की है बना के प्रदर्शित कर पाते हैं कि नहीं। बहरहाल, यहां हमें प्रकाश झा को सलाम करना चाहिए उनके साहस के लिए कि वे राजनीतिक सिनेमा बना रहे हैं और लोगों तक पहुचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, आप उनसे सहमत है कि असहमत हैं यह बाद की बात है।

सवर्ण पात्र की आर्थिक हालत दिखाते हुए सहानुभूति पैदा करना फिल्म का वह प्रसंग है जो सवर्ण आरक्षण की मांग का परोक्ष समर्थन करता लगता है। दलित नायक सैफ के तर्क पूरी फिल्म की वह थिसिस है जो सवर्ण पात्र की पूरक थिसिस के साथ मिलकर एक मुकम्मल तस्वीर बनाते हैं। यह भी कहना जरूरी लगता है कि अमिताभ की स्थिति तो पक्ष विपक्ष के बीच फंसी सरकार की सी दिखाकर निर्देशक फेंटेसी में जैसे कई सच परोक्ष में जाहिर कर देना चाहता है।

इस लिहाज से सवाल अभिव्यक्ति का भी है पर उसका अपवाद किसी को ठेस पहुचाने की आजादी कतई नहीं होता है, इस लिहाज से मुझे नहीं लगता कि प्रकाश  झा किसी को ठेस पहुचाने का काम कर रहे हैं, राजनीतिक हितों को ठेस पहुचती है तो वह तो साहेब अभिव्यक्ति के दायरे से बाहर की बात ही कही जाएगी ना! फिल्म से मेरी भी असहमतियां हैं पर वे असहमतियां यह इजाजत मुझे नहीं देती कि कहूं भई फिल्म नहीं चलनी चाहिए।  दूसरे, यह कोई महान फिल्म नहीं है, एक व्यवसायिक फिल्म है, कभी मेरे प्रिय निर्देशक रहे प्रकाश झा की परंपरा की भी नहीं है, कह देना चाहिए कि मैं उनसे निराश हुआ हूं, पर इस निराशा में भी उनकी फिल्म के प्रदर्शन को रोकने का पक्षधर नहीं हो सकता।

आपको याद ही होगा कि हाल ही में हरियाणा व उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में 'खाप' फ़िल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी और कई सिनेमा हॉल वालों ने उनके दबाव में आकर यह फ़िल्म अपने यहाँ नहीं लगाई थी। इससे पहले मधुर भंडारकर की 'ट्रैफिक सिग्नल' को हिमाचल प्रदेश में, आमिर खान की 'फ़ना' और राहुल ढोलकिया की फ़िल्म 'परज़ानिया' को तो गुजरात में प्रदेश सरकारों ने प्रतिबंधित कर ही दिया था। वैसे सोचने की बात तो यह भी है कि किताबों, चित्रों, फिल्मों पर प्रतिबंध की परंपरा से ज्यादा जरूरी क्या बहस की परंपरा नहीं होती! दरअसल हम लोग यह मान लेते हैं कि जिसके साथ खडे नहीं हो सकते, उसे जीने का अधिकार तक नहीं है, उसके साथ जीना तो मासूम सा ख्वाब है। यहां सवाल खडा हो जाता है कि तो हम विरोधियों को दुश्मन कब तक मानते रहेगे! इतना ही नहीं यह सवाल भी खडा होता ही है कि क्या हमें नहीं मान लेना चाहिए कि सेंसर बोर्ड के बेमानी होते देखने का दौर है ये ! ''आरक्षण'' चल पाती है या नहीं पर फिलहाल इतना तय है कि सेंसर का होना और चलना संदेह के घेरे में आ गया है।