Monday, December 28, 2009

2009 की एक फिल्म जो 2010 के लिए है



अपूर्वा याज्ञिक की फिल्म सच दिखाकर झकझोरती है, और चेताती है तो सिखाती भी है और अंतत: सार्थक विमर्श खड़ा करती है, इसलिए इसे देखना एक अच्छी किताब पढने का आनंद लेना है


साल 2009 गुजर गया जैसे हर साल गुजरता है, 2010 शुरू हो रहा है ठीक वैसे ही जैसे हर नया साल होता है, राजस्थान की एक फिल्म की बात कर रहा हूं जो इस साल आई और जिसकी प्रासंगिकता 2010 में सिद्ध होनी तय है। कुछ ही समय बाद यहां पंचायत चुनाव होने हैं और पंचायतों में पचास फीसदी भागीदारी महिलाओं की पहली बार होनी है और यह फिल्म उन पर ही है, उन्हें ही संबोधित है। आप निराश हो सकते हैं, यह फीचर फिल्म नहीं है, यह 78 मिनट की डॉक्यूमेंट्री फिल्म है।
काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपुल्स एक्शन एंड रूरल टेक्नोलॉजी यानी कपार्ट की इस फिल्म पंचायती राज में महिलाएं का निदेंशन अपूर्वा याज्ञिक ने किया है। इस फिल्म को देखते हुए मुझे आईसीएचआर की एक परियोजना पर राजस्थान की महिलाओं पर लंबे शोध के दौरान हुए अनुभव सीन दर सीन याद आए। ऐतिहासिक परंपरा को सहेजे हुए पर उसे जरा भी ना छूते हुए आज की बात करना बहुत मुश्किल काम है, यानी राजस्थान के सामाजिक ढांचे और उसमें महिलाओं की बुनियादी हालत के बगैर उनकी राजनीतिक स्थिति का निर्धारण और भविष्य की कल्पना असंभव है, इस लिहाज से फिल्म की सबसे बड़ी खासियत गहन एवं सूक्ष्म शोध और उसका उपयुक्त विजुअलाइजेशन है। आरक्षण और क्रमश: राजनीतिक भागीदारी तथा राजनीतिक रूप से ठोकर खाती, समझ विकसित करती, पति के लिए बराएनाम चुनाव लड़ती और फिर केवल हस्ताक्षर तक के लिए सीमित होने से लेकर अपने अनकिये परंतु अपने नाम पर हुए भ्रष्टाचार को झेलती औरतों के आंखें पढने का काम अपूर्वा के कैमरे ने किया है।
क्या यह मासूम इत्तेफाक है कि यह फिल्म वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री काल में शूट हुई है, केवल पोस्ट प्रॉडक्शन गहलोत के समय हुआ है। हमारे समय का कड़वा सच यह है कि इस फिल्म को फिल्मी पन्नों और खबरों में जगह नहीं मिली, यह एक तरह से ठीक भी है, कड़वे जीवन यथार्थ वाली फिल्म को चटपटी खबरों के बीच क्यों आना चाहिए। राजस्थान से यह गंभीर काम हुआ है, जो दस्तावेज ही नहीं मार्गदर्शिका भी है, यह फिल्म समस्या ही नहीं बताती रास्ता भी बताती है, सवाल तो उठाती ही है, मोनोलॉग बाइटस के रूप में सामाजिक कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, पत्रकारों और पंचायत सदस्यों के अनुभवों और विचारों के साथ एक सार्थक बहस चुपचाप करवाकर मौन एक्टिविज्म की सूत्रधार बनती है।
शेखावाटी, जयपुर और दक्षिणी राजस्थान में शूट हुई फिल्म की भाषा को इस लिहाज से देखा जाना चाहिए कि बड़े क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है, पर अगर इसे हम राजस्थानी नहीं कह सकते, तो जैसा कहा गया है मारवाड़ी नहीं कह सकते क्योकि मारवाड़ी तो मारवाड़ यानी जोधपुर की भाषा या बोली है। फिल्म में पटकथा और संपादन रमेश आशर का है तो सूत्रधार के रूप में अपूर्वानंद से बेहतर शायद ही कोई होता। हालांकि इनके द्वारा बोली गई हिंदी कई बार खटकती है, कि असहज हो जाती है, मेरा मानना है कि जब वो उर्दू शब्दों का इस्तेमाल कर ही रहे हैं तो जैसे -यद्यपि की जगह हालांकि कहने में क्या बुराई है, खैर यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। फिल्म बहुत मेहनत, शोध और मन से बनाई गई है तथा अव्यावसायिक है तो जनहित के लिहाज से उसे बड़ा श्रेय क्यों नहीं मिलना चाहिए।

Monday, December 21, 2009

समय का पहिया घूमे रे...



बजाज कंपनी ने स्कूटर ना बनाने का फैसला किया है, यह भारतीय मध्यम वर्ग के जीवन में एक बदलाव के हथियार का इतिहास बनना नहीं है क्या?

बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर, हमारा बजाज... यह विज्ञापन देख और सुनकर बचपन गुजारने वाली पीढी अब जवान होकर युवतर हो रही है, मैं भी उसी लाइन के आखिर में खड़ा हूं। बदलाव जिंदगी का जरूरी हिस्सा है और जिसके लिए कहा जाता है कि बदलाव के अलावा कुछ भी स्थाई नहीं है। बजाज स्कूटर से बाइक का सफर सिर्फ उस कंपनी और दुपहिया चालकों का सफर नहीं है, यह देश के साथ दुनिया के बदलने का वक्त है। इसे दो पीढियों के अंतराल के स्पष्ट विभाजन के रूप में देखा जाना चाहिए। बजाज के चेतक मॉडल को याद करें, जो अब भी आपको साल में दो-चार बार दिख ही जाता होगा। उसे देख के नॉस्टेलजिक नहीं होते क्या! हमारा पहला स्कूटर, उस पर जाकर पहला प्रेम प्रस्ताव या कॉलेज का पहला दिन, सारे घर का दुलारा, सारे मोहल्ले की जलन टाइप कितनी ही बातें क्या उमड़ती-घुमड़ती नहीं है!
आज जवान होती पीढी टेपरिकॉर्डर, ऑडियो-वीडियो कैसेट, वॉकमेन के बाद की पीढी है। मौहल्ले में चंदा करके किसी वीकेंड पर वीडियो पर रात भर फिल्में देखने का विचार और उसका तिलिस्मी अहसास क्या आज की युवा जमात को अविश्वसनीय नहीं लगेगा जो लैपटॉप में दुनिया भर की फिल्में लिए घूमती है। और इस तरह बात वहीं आ गई कि उस वक्त की कितनी ही हिंदी फिल्मों में एक मैटाफर के तौर पर बजाज स्कूटर की उपस्थिति देखी जा सकती है। जरा, पहिए के आविष्कार को याद करें, यह ऐतिहासिक रूप से नवपाषाण काल की घटना है, जो तीन हजार ईसा पूर्व प्रारंभ होता है यानी आज से तकरीबन पांच हजार साल पहले, और यह प्राय: मिटटी के बर्तन का समय था। यह पहिया ही था जिसने उस कालखंड को महत्वपूर्ण बनाया था, हालांकि इसका व्यापक प्रयोग तदंतर इसी मिटटी के बर्तनों के युग के ताम्र-कांस्य काल में हुआ, जब गाडिय़ां बननी शुरू हुईं और फिर समय का पहिया घूमा और वक्त की रफ्तार बढ़ी और मानवीय तरक्की के रास्ते खुले। जब पहली बार जयपुर से पांच सौ किलोमीटर दूर कालीबंगा के संग्रहालय में मौजूद उस ताम्रकांस्ययुगीन पहिए का मिट्टी का प्रतिरूप देखा था, मेरी आंखों की हैरानी मुझे आज भी याद है। वक्त के पहिए ने बहुत सी चीजों को इतिहास बनाकर हमारी याद और किताबों-लफ्जों तक सीमित किया है, बजाज स्कूटर भी वैसा ही प्रतीक है। राजस्थान की पाक सीमा के उस तरफ के राजस्थानी गांव की कथा पर महरीन जब्बार की फिल्म रामचंद पाकिस्तानी के शुरुआती सीन को याद कीजिए जिसमें बालक रामचंद साइकल के चक्के को लकड़ी से ठेलते हुए खेल रहा है। तो आइए, गुजरे हुए वक्त को थामे हुए गुजरते हुए और आते हुए वक्त की रफ्तार को पकड़ें।

Monday, November 2, 2009

पाउलो कोएलो- शब्द जब जिंदगियां बदल देते हैं



'पोर्तोबॅलो की जादूगरनी' के शिल्प में खास बात यह है कि नायिका एथिना के जीवन प्रसंगों को उससे जुड़े लोगों के मुंह से क्रमश: कहलवाया है


हार्पर हिंदी से पाउलो कोएलो या पॉलो क्वेल्हो की हिंदी में तीसरी किताब आई हैं- 'पोर्तोबॅलो की जादूगरनी'। वो मुझे हमारे समय का दैवीय लेखक लगता है। अपने एक इंजीनियर मित्र के मुंह से डेढ दशक पहले अयन रैंड के साथ पाउलो का नाम, जिस किताब के नाम से उसे दुनिया जानती है, उसी के हवाले से सुना था, यानी 'अलकेमिस्ट'। तब तक उसका हिंदी अनुवाद कमलेश्वर जी ने नहीं किया था, मैं भी उस किताब से चमत्कृत हुए बिना नहीं रह सका। फिर 'ब्रीडा' पढ़ी, जो पाउलो की पहली लोकप्रिय किताब थी, इस बारे में एक दिलचस्प बात यह कि अलकेमिस्ट के पहले संस्करण की केवल 900 प्रतियां बिकीं और प्रकाशक ने दूसरा संस्करण छापने से मना कर दिया था, फिर ब्रीडा की लोकप्रियता के कारण पाठकों-आलोचकों में वो यकायक चर्चा में आ गए थे और जिसके कारण लोगों का ध्यान 'अलकेमिस्ट' की ओर गया था। जब कमलेश्वर जी ने मुझे बताया था कि 'तुम्हारी' 'अलकेमिस्ट' का अनुवाद कर दिया है तो बड़ा सुखद लगा था। मृत्यु से पूर्व वे 'द जाहिर' का भी अनुवाद हिंदी संसार को सौंप गए थे। लेखक के नाम की जो वर्तनी 'पाउलो कोएलो' कमलेश्वर ने इस्तेमाल की, वह ही मुझे उपयुक्त लगती है। हिंदी में उसके नाम की वर्तनी भी अलग-अलग सामने आती है। हार्पर ने ताजा किताब में पॉलो क्वेल्हो इस्तेमाल किया है।

खैर, 'पोर्तोबॅलो की जादूगरनी' के शिल्प में खास बात यह है कि नायिका एथिना के जीवन प्रसंगों को उससे जुड़े लोगों के मुंह से क्रमश: कहलवाया है, जैसे- पत्रकार हैरन रायन, अभिनेत्री एंड्रिया मैक्केन, डॉक्टर एॅडा, न्यूम्रॉलॉजिस्ट लॅल्ला तैनब आदि, यह अलग किस्म की किस्सागोई अद्भुत बन पड़ी है। उनके लेखन की एक ताकत है और किसी हद तक कमजोरी भी कि उसके मुख्य पात्र आध्यात्मिक भूख के मारे होते हैं, बतौर उदाहरण- 'अलकेमिस्ट' का नायक गडरिया, 'ब्रीडा' की नायिका ब्रीडा, 'जाहिर' की नायिका एस्थर और 'पोर्तोबॅलो की जादूगरनी' की नायिका एथिना। इसीलिए लेखन और विचार की दुनिया के सबसे आकर्षक और तार्किक माने गए माक्र्सवाद की जगजाहिर धर्म- अध्यात्म से दूरी की स्पष्ट अस्वीकारोक्ति हमें पाउलो में मिलती है और चाहे उसमें ईसाई मिथकों और विचारों की प्रतिच्छाया ही क्यों ना हो, पाउलो की अपार लोकप्रियता, इस बात को सिद्ध ना भी करे तो कम से कम प्रबल संकेत क्या नहीं देती कि आध्यात्मिक भूख मनुष्य की मूल प्रवृति या सनातन भूख है?

पोर्तोबॅलो का अनुवाद कमलेश्वर जैसा सहज, सरल तो नहीं ही बन पाया है पर प्रकाशक को सलाह है कि जगत प्रसिद्ध पाउलो की रचना के साथ न्याय होना चाहिए, यह पाउलो के पाठकों का भी हक है, और उम्मीद करें कि अभी पाउलो की पहली चर्चित रचना ब्रीडा हिंदी में नहीं आई है, हिंदी पाठकों का यह भी तो वाजिब हक है। आखिर में, छोटी-सी पर खास और दिलचस्प बात यह कि बेस्टसेलर अंग्रेजी लेखकों के समकक्ष बिक्री और लोकप्रियता वाले पाउलो अंग्रेजी लेखक नहीं है, वे ब्राजील में रहकर पुर्तगाली में लिखते हैं।

Saturday, October 3, 2009

मैं भी जाने वाला हूं, मुझ पर किससे लिखवाओगे -हरीश भादानी


शुक्रवार की सुबह अखबार से पहले एसएमएस से एक दुखद खबर आई। एक पहाड़ सा विराट व्यक्तित्व, बच्चे सी कोमलता, सहजता और सरलता, चट्टान सी वैचारिक दृढ़ता वाला और खुद अपने ही शब्दों में 'कलम का कामगार' नहीं रहा। कवि-गीतकार हरीश भादानी की देह शांत होने के बाद मैं याद करता हूं-लगभग एक दशक के परिचय में उनसे किये तीन साक्षात्कार, बीकानेर प्रवास के दौरान दर्जन भर मुलाकातें और कोई पचासेक बार फोन पर बात, मैं याद करता हूं- आखिरी बार जयपुर के प्रेस क्लब में जनवादी लेखक संघ के एक साहित्यिक आयोजन में द्वार पर घुसते ही एक तरफ आयोजक के रूप में, सफेद कुर्ते और ग्रे पेंट में प्लास्टिक की कुर्सी पर सहज रूप से बैठे दद्दू को, जो नाम सबसे पहली मुलाकात में उनके लिए भाई प्रमोद कुमार शर्मा ने मुझे सौंपा था, मेरी जुबान पर सिर्फ उनके लिए ही आरक्षित है। मेरे उन तीन साक्षात्कारों में एक हमलोग में ही छपा था। उन्हें राजस्थान का बच्चन यूं ही नहीं कहा गया, सत्तर और अस्सी के दशक में उनके गीतों की धूम थी। उस समय के सुने उनके गीत आज भी लोगों के कंठ में हैं। घोषित मार्क्‍सवादी कवि का वैचारिक पक्ष उनके गीतोंों में उभरता है.. एक गीत जो उनकी पहचान के रूप में आज भी याद किया जाता है, की कुछ पंक्तियां देखिए-

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे

भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण
तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले
दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है।

उनका जाना कंठ और शब्द के मसीहा का जाना है, उनका एक प्रसिद्ध गीत देखिए-

मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों, दफ्तरों को
रात के मुर्दे, देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के/ ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढऩे बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!

वो हिंदी के विरले और शीर्षस्थ कवि तथा लोकप्रिय गीतकार थे, यह सर्वज्ञात है, राजस्थानी के प्रबल समर्थक रचनाकार भी थे, बकौल भाई सत्यनारायण सोनी, वे राजस्थानी को दूसरी राजभाषा बनाने की आवाज उठाने वाले पहले व्यक्ति थे। उनके शब्द याद करूं तो वो कहते थे-मेरे पास कवि होने और पढऩे के अलावा कोई रास्ता नहीं था, पढऩे ने वैचारिक दृष्टि दी और खुद को रैशनलाइज करना भी उससे आया। इसी तरह मैं उनका यह कहना भी कभी नहीं भूलता कि- जो जिया उससे संतुष्टि है, हालांकि खोया बहुत पर जो पाया वो खोने पर भारी रहा, खोयी भौतिक संपति तो पाए मानवीय संबंध ।

वे कविता कर्म को अपने पालक भत्तमाल जोशी के कथनानुसार 'हियै में कांगसी करणो हुवै' मानते थे। इस दृष्टि से भी अनूठे थे कि वे सिर्फ कवि थे, सिर्फ और सिर्फ कवि होकर जी पाना यह सिद्ध करता है कि उन्होंने कविता को रचा ही नहीं, कविता को जिया भी। यह लोकप्रिय मुहावरे की तरह नहीं कह रहा हूं, जिसे आजकल हर कवि की प्रशंसा में कह दिया जाता है, जो लोग उन्हें जानते हैं, मेेरी इस बात की तस्दीक कर सकते हैं। उनके लिए कविता मनोरंजन या आभिजात्य विलासिता नहीं थी, अनिवार्य जीवन कर्म थी। राजस्थान की माटी से निपजे ऐेसे विरले शब्दशिल्पी जिसने इलाहाबाद, दिल्ली और भोपाल के कुछ साहित्यिक लोगों के मिथ्या दर्प और तथाकथित एकाधिपत्य का सार्थक व सफल भंजन किया था, का जाना दुखद तो है, पर उनकी शाब्दिक उपस्थिति हमें गौरवान्वित करती रहेगी।

सालभर पहले हमलोग के लिए जब मैंने कन्हैयालाल सेठिया पर श्रद्धांजलि लेख लिखने को कहा, तो वे कोलकाता ही थे, उन्होंने मुझसे पूछा था-मैं भी जाने वाला हूं, मुझ पर किससे लिखवाओगे। मैंने कहा था-दादा, आप कैसी बात करते हो।
उनकी स्मृति को प्रणाम।

Tuesday, September 1, 2009

साधारण के असाधारण लेखक - संजीव




जिस समय कथाकार संजीव से मेरा पहला संपर्क हुआ, वे रसायनविद् थे, और मैं इतिहास का विद्यार्थी। तब उनके उपन्यास सूत्रधार को पढ़ा था, पहली नजर में कोई अद्भुत, असाधारण रचना नहीं लगी। बाद में यह अहसास हुआ कि उसकी साधारणता में ही सारा जादू है। हाल ही उनकी समस्त कहानियों को भारतीय ज्ञानपीठ ने संजीव की कथायात्रा के नाम से प्रकाशित किया है, इसके तीन खंड हैं जिन्हें पड़ाव कहा गया है। इस कथा-यात्रा से गुजरना किसी को भी मुग्ध कर सकता है। पहले पड़ाव की भूमिका को उन्होंंने शीर्षक दिया है- मैं क्यों लिखता हूं, इसका जवाब उन्होंने इस तरह दिया है- यह सवाल वैसा ही छीलनेवाला है, जैसे यह पूछना कि मैं क्यों जिंदा हूं। वक्त ने ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है कि न जिंदा रहने का कोई संतोषजनक तर्क समझ में आता है, न लिखने का, पर इसके सिवा मेरे पास विकल्प है ही क्या?

पहले पड़ाव की जितनी कहानियां पढ़ पाया, उनमें से जसी बहू, मुर्दगाह, घर चलो दुलारीबाई और तीस साल का सफरनामा जैसी कहानियां अपने लोक को रचते हुए कहीं गहरे बहुत कुछ रच देती हैं। दूसरे पड़ाव की भूमिका का उन्होंने शीर्षक दिया है- मेरी रचना प्रक्रिया। इस पड़ाव में मेरी पढ़ी कहानियों में से- दुनिया की सबसे हसीन औरत, सागर सीमांत, कन्फेशन और खिंचाव खास तौर पर बार-बार पढऩे लायक हैं।तीसरे पड़ाव की भूमिका मैं और मेरा समय नाम से है और इसमें उनके लेखन, विचारधारा और दुनिया को लेकर उनका नजरिया साफ-साफ नजर आता है जो क्रिस्टल-सा है, ठीक रसायनविद् की तरह, नहीं तो प्राय: वैचारिक जगत में प्रवेश होते ही भाषा सहजता खोते हुए अकादमिक दुरूहता और एक किस्म की अभिजात्यता ओढ़ लेती है, पर यहां इसका ना होना संजीव की ताकत है। इस तीसरे पड़ाव में अवसाद, मरजाद, आविष्कार, गुफा का आदमी, गति का पहला सिद्धांत और खयाल उत्तर आधुनिकी शीर्षक कहानियों को चुनकर दुबारा पढ़ा, इन कहानियों को लंबे समय तक याद किया जाना चाहिए। संजीव ऐसे कथाकार हैं जो बहुत लोकप्रिय नहीं हैं, और स्टारडम से तो कोसों दूर है। कुछ बरस पहले दिल्ली में जेएनयू परिसर में हुई एक छोटी-सी मुलाकात में उन्हें अतिसाधारण पाया था, इतना लेखन जो लगातार सराहा गया है, देर-सबेर आलोचकों ने भी उनके जिस लेखन की साधारणता में छिपी विलक्षणता को स्वीकारा, क्या किसी अतिसाधारण आदमी को पागल नहीं बना देता? पर वो लगातार साधारणता का जादू बिखेर रहे हैं। संजीव हिंदी और पूरे साहित्यिक जगत को अभी कुछ क्लासिक देंगे, पाठकों को उम्मीद करनी ही चाहिए। पर उनकी साधारणता और मासूमियत इस पागल प्रतिस्पर्धा के दौर में कैसे बच पाएगी, अगली मुलाकात में पूछा जाएगा। फिलहाल, साहित्यिक पत्रिका पाखी का ताजा अंक उन पर विशेषांक है। फुरसत मिले तो आप देख लीजिएगा, संजीव को और जानने का मौका मिलेगा।

Thursday, August 27, 2009

जिन्ना उर्फ़ इतिहास से डर क्यों लगता है?


जसवंत सिंह की किताब पढ डालिए, दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार और नेहरू स्मृति पुस्तकालय तथा लंदन स्थित इडिया हाउस लाइब्रेरी में उपलब्ध मूल दस्तावेजों को खंगालिए और सच से सामना कीजिए, बस इतनी सी जरूरत है। हो सकता है कुछ ऐसा निकल जाए जो इन सब धारणाओ को बदल दे और यकीनन इससे इतिहास का भी भला होगा और हमारे भविष्य का भी। पर ये चिंतन बैठकों में और संघ कार्यालयों में बैठकर फतवे जारी करने से नहीं होगा, ये भी तय है।
जब मै लिखने बैठा तो मन हुआ कि पाकिस्तान के बडे अखबारों के आन लाइन संस्करणों पर नजर डाल लू, तो पाया कि द डान, नेशन, द न्यूज, डेली टाइम्स आदि पर जसवंत सिंह का भाजपा से निष्कासन या नरेंद्र मोदी दवारा इस किताब पर प्रतिबंध पहली या दूसरी बडी खबर है। जब ये खबर आई थी, कराची (इत्तेफाकन उसी शहर की, जहां जिन्ना जन्मे और आज भी कब्रगाह में है) की स्वतंत्र पत्रकार और फिल्मकार बीना सरवर ने चैट पर मुझसे जिज्ञासा जताई कि माजरा क्या है जनाब! उन्होने बताया कि जसवंत सिंह ने वही कहा है जो आयशा जलाल कुछ बरस पहले अपनी किताब जिन्ना-द सोल स्पोक्समैन मे कह चुकी हैं। आयशा ने तो यहां तक कहा था कि जिन्ना की तो विभाजन की इच्छा ही नहीं थी। बताता चलूं कि मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो के भतीजे हामिद जलाल की बेटी आयषा जलाल टफ्टस विवि अमेरिका में इतिहास की प्रोफेसर हैं।
वैचारिक दुनिया में अलग विचार को अपने तर्को के आधार पर रखने की परंपरा होती है चाहे वो विचार कैसा भी हो, चाहे तदंतर उन तर्को को तथ्यो के साथ मिलाकर देखते हुए खारिज कर दिया जाए, यहां तो परीक्षण की बात ही बेमानी है साहिब!वैसे वैचारिक बगावत के लिए जसवंत सिंह के साहस को सलाम कीजिए, सियासी तौर पर भाजपा निकट भविष्य में षायद ही सत्ता में आए, और विदेश और रक्षामंत्री वो रह लिए हैं, राजनीतिक तौर पर करियर का चरम देख लिया है और किताब की लोकप्रियता एक बेस्टसेलर लेखक के तौर पर उन्हे निस्देह स्थापित कर रही है।
पहली नजर में मुददा सियासी है पर है तो अतीत की सियासत से। किसी भी दल की नीति इतिहास से इतर होनी चाहिए क्या! सवाल तो मौजू है, चाहे आंखें मूद लीजिए। उससे भी बडा सवाल ये कि इतिहास और सच जानने की कवायद के बजाय अतार्किक तौर पर पार्टी नीतियों का झंडा उठाया जाता है। अब ये जनता पर है कि पार्टी की देश के प्रति प्रतिबद्धता देखे या कि पार्टी की निजी प्रतिबद्धता पर। आडवाणी के जिन्ना के बारे में सायास कुछ नहीं कहूंगा। जरा पीछे चलिए, मैं बचपन से इस बात को सुनकर बडा हुआ कि गांघी भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे, पर फिर पता चला कि वो आधा सच था। दो साल पहले हिंदी लेखक प्रियंवद की किताब आई थी- भारत विभाजन की अंतःकथा। मेरे सनातन प्रिय विषय की इस किताब में उन्होंने लिखा है कि ‘1920 में जिन्ना कांग्रेस से अलग हुए, पर उन्होंने कोई अलग राह नहीं बनाई। अब जिन्ना कांग्रेस से तो अलग थे ही उनकी राह भी अलग थी,भविश्य में यह राह एक नए राष्ट्र की ओर जाने वाली बन गई। जैसा अंबेडकर ने कहा था कि मसला बडा नहीं रह गया था ,पर खाई पाटने की इच्छा दोनों ओर नहीं थी।‘ अंबेडकर की बात मार्के की है विषेषकर उत्तरार्द्ध। यह ऐतिहासिक सच है कि असफल दाम्पत्य के बावजूद रत्ती जिन्ना की मृत्यु के बाद टूटे हुए, निराश, अकेले जिन्ना लंदन से आकर बंबई में 35 साल गुजारने के बाद 4 अक्टूबर 1930 को वापिस लंदन जाने के लिए भारत छोड दिया था, रफीक जकारिया ने अपनी किताब मैन हू डिवाइड इंडिया में बताया है कि कैसे रत्ती जिन्ना को दफनाते वक्त कायदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना की आंखे भर आईं थी और वे अपनी मानवीय कमजोरियों को छुपा नही पाये थे। ये उनका मानवीय पहलू है।
1947 के अप्रेल महीने का पहला दिन याद दिलाना चाहता हूं, एक दिन पहले गांधी और माउंटबेटन की पहली मुलाकात हुई थी, औपचारिक सी, अगले दिन यानी पहली अप्रेल को सुबह तकरीबन 9 बजे, दूसरी मुलाकात में गांधी ने माउंटबेटन को प्रस्ताव दिया कि जिन्ना को देश का प्रधान मंत्री बनने दिया जाए। माउंटबेटन ने कहा- जिन्ना क्या कहेंगे? गांधी ने जवाब दिया- हमेषा की तरह वो कहेंगे कि आह फिर वही कपटी गांधी। मांउटबेटन ने कहा कि वो सही ही होगे? गांधी ने जवाब दिया - नही, मैं गंभीर हूं। पर माउंटबेटन ही नहीं नेहरू और पटेल सबने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। यहां तक कि कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में गांधी अलग थलग पड गए। नेहरू और पटेल के विरोध के बावजूद उनका कहना था कि विभाजन समस्याओं को सुलझाएगा नही बल्कि बढाएगा, अंततः निराष गांधी ने कहा कि मेरे प्रयासों की षुद्धता की अब परीक्षा होगी, मेरी ईष्वर से प्रार्थना है कि मुझे यह दिन देखने के लिए जीवित ना रखे। 10 औरंगजेब रोड से वायसराय हाउस पहुचे जिन्ना से भी मांउटबेटन ने 6 अप्रेल को बात की, तो जिन्ना के अपनी ष्षर्ते रखने से पहले ही माउटबेटन ने अपना दृढ पक्ष रख दिया जो जिन्ना से अधिक दृढता से रखा गया था और जिन्ना के पक्ष में भी था। उस रात जिन्ना के साथ उसकी बहन फातिमा भी रात के डिनर में वहां थीं। ये सब मेरा रचा फिक्षन नहीं, एचवी हडसन की किताब द ग्रेट डिवाइड में दर्ज है।
च्लिए जिन्ना पर आते है, उनके लिए गांधी ने कहा था -'ग्रेट इंडियन'। और छवि से इतर वास्तव में एक सेकुलर मुसलमान जो परिस्थितिवष उस कौमी मुहिम का नायक हो गया जिसका अंत एक एक मुल्क की तामीर में हुआ। हां, नायक या खलनायक होने में कोई संदेह नहीं है, यह महज देष काल सापेक्ष दृष्टिकोण का फर्क है। जैसा प्रसिद्ध इतिहासकार बिपन चंद्र ने इडियाज स्टगल फार फ्रीडम में लिखा है कि जिन्ना जब 1906 में बैरिस्टर बने के बाद भारत लौटे तो वे धर्मनिरपेक्ष, उदार राष्ट्रवादी और दादा भाई नोरोजी के समर्थक थे, भारत आते ही वे कांगे्रस में शमिल हो गए, उन्होने मुस्लिम लीग के गठन का विरोध किया। राष्टीय एकता पर बल दिया तभी सरोजनी नायडू ने उन्हे हिंदू मुस्लिम एकता के राजदूत की उपाधि दी थी। पर इतिहास की ग्रेटमेन थ्योरी जिसके प्रवर्तक थामस कार्लाइल है, के अनुसार महान लोग दो तरह के होते है एक जन्मजात और दूसरे जिन्हे परिस्थितियां बना देती हैं, जाहिर है कि जिन्ना कमोबेश दूसरी श्रेणी में आते हैं।
हम साठ साल बाद ये सोच सकते है कि गांधी का वो प्रस्ताव अगर जिन्ना के सामने रख दिया जाता तो इतिहास क्या होता और भारतीय उपमहाद्वीप की ष्षक्ल क्या होती! मुझे लगता है कि माउंटबेटन या अंगे्रज भारत के विभाजन के लिए कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं नेहरू, पटेल या जिन्ना के। ऐतिहासिक दस्तावेजो की रोषनी मे तो यही मानना पडता है कि विभाजन तत्कालीन घटनाओं का स्वाभाविक परिणाम था, जिनके लिए मुस्लिम लीग निःसंदेह जिम्मेदार थी, जिसकी स्थापना 1906 में दरअसल लार्ड मिंटो के प्रा्रेत्साहन हुई थी। और इसीलिए यह कोई मासूम सी व्याख्या नही है कि अंगे्रज भारतीयों को आपस में बांटकर ढाई सौ साल तक राज करते रहे और आखिरकार भी उन्होंने भौगोलिक और राजनीतिक आधार पर बांटकर ये मुल्क छोडा। हालांकि इतिहास बुनियादी तौर पर मानता है कि जिन्ना भारतीय विभाजन का खलनायक है, हालात का समीचीन मूल्यांकन यह प्रबल संकेत करता है कि प्रकटतया तो ऐसा ही है पर दरअसल वो सिर्फ एक मोहरा था जो 17 अगस्त 1947 को रेडक्लिफ नाम के अंगे्रज की खींची सरहद के एक तरफ महानायक हो गया और दूसरी तरफ खलनायक। इस बहस में चाहे उन्हें हम सेकुलर मानें या ना मानें, पर लोकतत्र में सेंकूलरिज्म से बेहतर तरक्की का रास्ता नहीं हैं यह उन्होने भी माना और यकीन ना आए तो 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के नाम उनके संदेष को कहीं से पढ लेना चाहिए।
वापिस जरा जसवंत सिंह पर आ जाएं, संघ और भाजपा को गांधी भी कभी प्रिय नहीं रहे, जिन्ना कैसे होते! तार्किक आधार पर दोनों महान भारतीय ठहरते हैं, गांधी को पूरा भारत महान मानता ही है और जिन्ना को गांधी महान कहते थे। और जिन्ना पर जसवंत की इस बयानी के लिए उनका कोर्ट माशल इतिहास से मुह मोडना है या बहस से या महज अनुशासन का अतार्किक संदेष देना, राजनाथ या आडवाणी बेहतर बता सकते हैं। परेषानी या कमाल तो ये है कि महज साठ सत्तर साल पहले का सब कुछ कहीं ना कहीं दर्ज है, जिसे मिटाना या बदलना मुमकिन नहीं है। जसवंत सिंह की किताब पढ डालिए, दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार और नेहरू स्मृति पुस्तकालय तथा लंदन स्थित इडिया हाउस लाइब्रेरी में उपलब्ध मूल दस्तावेजों को खंगालिए और सच से सामना कीजिए, बस इतनी सी जरूरत है। हो सकता है कुछ ऐसा निकल जाए जो इन सब धारणाओ को बदल दे और यकीनन इससे इतिहास का भी भला होगा और हमारे भविष्य का भी। पर ये चिंतन बैठकों में और संघ कार्यालयों में बैठकर फतवे जारी करने से नहीं होगा, ये भी तय है। आखिर में बीना सरवर की बात से अंत करना ठीक है कि विभाजन वो सच है जो धटित हो चुका है और जिसे अधटित नहीं किया जा सकता, हम इतना ही कर सकते है कि दोनों मुल्क शाति से रहें। आमीन!

Tuesday, August 11, 2009

दोराहे को समझने की जद्दोजहद में

मीरा कान्त की किताब 'उर्फ़ हिटलर '

ये किताब यहूदियों पर हिटलर के जुल्मो सितम, उसके प्रचार मंत्री गोएबल्स के उन्मादी कारनामों को महसूस कराती हुई बीच बीच में असली भारत को निम्न मध्यमवर्गीय कथा के जरिये पेश करती है ....

मीरा कांत के दो साल पहले आए उपन्यास उर्फ़ हिटलर को को पढना बड़ा ही विचित्र रहा है। दो कहानियों को सामानांतर पढने जिसमे एक इतिहास से है, की लालसा ने इस किताब को खरीदने को मजबूर किया था। शुरू में बहुत आनंद नहीं आया बावजूद इसके कि मीरा कान्त को बतौर लेखक पसंद करता रहा हूं।पेंग्विन ने इसे क्यों छापा ये सवाल उठता रहा, फिर सवाल के जवाब मिलते गए धीरे धीरे, एक ही सवाल के कई जवाब। शालिनी के रूप में लगभग आत्मकथात्मक तरीके से मीरा कान्त आद्योपांत उपस्थित हैं।

भारत सरकार की एक अफसर के तौर पर वो जर्मनी के मुख्तलिफ शहरों में घूमती हुई हिटलर की नाजी जर्मनी को याद करती हैं। यहूदियों पर उसके जुल्मो सितम, उसके प्रचार मंत्री गोएबल्स के उन्मादी कारनामों को महसूस कराती हुई बीच बीच में असली भारत को निम्न मध्यमवर्गीय कथा के जरिये पेश करती हैं॥शुरू शुरू में ये कथा बहुत सामान्य लगती है, बाद में लगता है की इसका ये सामान्य यानी आम होना ही ख़ास बात है। एक बात जो महसूस होती है वो ये कि जर्मनी और हिटलर इतिहास रूप में तो उपस्थित होते हैं पर कथानक के रूप में स्वयं पात्र बनते नहीं दीखते, जिसकी उम्मीद मैं शुरू से आखिर तक करता हूं। भारतीय निम्न मध्यमवर्गीय जीवन का कोलाज तो अपने सामान्य स्वरूप में बहुत ख़ास बन गया है पर ऐतिहासिकता केवल ऐतिहासिक बन कर ख़ास के रूप में बहुत आम सी हो गयी है। कथानक की चर्चा करके आपके पाठकीय आनंद को नहीं छीनूंगा, जिस समय में जी रहे हैं वहां नितांत एकांत जीना संभव नहीं है चाहे वो हर रविवार को गूंजती कबाड़ी की आवाज हो या ओबामा का कोई भाषण, इसी में से जीने की सूरत निकलती है क्योंकि टीवी सेरियल के घटनाक्रम से, विधानसभा और संसद की बेहूदगियों और बद्तमीजियों से, इस शहर या उस शहर के हादसों से दूसरे देश या जगह की मंदी से निरपेक्ष जीना ना मुमकिन है क्योंकि हम मीडिया वालों ने सबको हमेशा बाखबर रखने का बीडा उठाया है तो हर छोटी से छोटी बात हम आप तक पहुंचानी है चाहे वो जरुरी हो या न हो। ये जीवन का द्वंद है और उर्फ़ हिटलर भी उसी द्वंद का एक साहित्यिक प्रतिरूप है जिसे पढ़ लेना चाहिए अपने समय और जीवन को बेहतर जीने में मदद मिलेगी ये मेरा विश्वास है।

Thursday, July 30, 2009

मैंने राजमाता गायत्री देवी को छुआ था




कल जब जयपुर की पूर्व राजमाता गायत्री देवी का निधन हो गया हैं, मुझे अपने पत्रकारीय जीवन के महत्वपूर्ण साक्षात्कारों में से एक को आप से बांटने का मन है।


सन् 2004, वो मई के पहले हफ्ते की एक दोपहर थी, उमस भरी। कुल जमा छत्तीस दिन के बाद मुझे लिलीपुल से जयपुर की पूर्व राजमाता गायत्री देवी के एडीसी रघुनाथसिंह का फोन आया- राजमाता ने आपसे मिलने की इजाजत दे दी है, आप एक बजे पधार जाएं यहां। दरअसल भाई आलोक तोमर की एजेंसी शब्दार्थ के जरिए एक विदेशी पत्रिका के लिए ये मेरा पहला असाइनमेंट था और छत्तीस दिन में मैं उम्मीद छोड़ चुका था कि मेरी मुलाकात हो भी पाएगी। खैर, इंटरव्यू हुआ,अब तक भी, पत्रकारीय जीवन का सबसे बेहतरीन मेहनताना शब्दार्थ की ओर से मिला था इस पर, और फिर भारत में भी दो बार छपा लगभग बिना मेहनताने के।
लिलिपुल पहुंचकर एडीसी रघुनाथसिंह के साथ कुछ वक्त इंतजार में गुजारा, कागजी औपचारिक ताएं पूरी कीं और फिर, थोड़ी देर बाद एक कारिंदे के साथ मैं दुनिया की दस बेहद खूबसूरत महिलाओं में शामिल एक शख्सियत से मिलने उनके मेहमानखाने में दाखिल हो रहा था। शाही महल का वो हिस्सा अद्भुत था,चारों ओर विशाल सोफे थे, आदमकद तस्वीरें, चमचमाते झूमर, टिमटिमाती रौशनियां और पीछे किसी लॉन में पानी देते प्रेशर पाइप की आवाज, वो तिलीस्मी सा माहौल था जहां मैं फिर बैठा दिया गया था, इंतजार के लिए। दस मिनट के इंतजार के बाद आसमानी नीले रंग की शिफॉन की साड़ी में वो सिर का पल्लू संभालते हुए आई, कहीं के और किसी भी शाही परिवार के सदस्य से यह पहली मुलाकात थी। उन्होंने और मैंने लगभग एक ही वक्त में एक दूसरे को अभिवादन किया और उन्होंने आगे बढकर हाथ मिलाया। उनके लिए यह आम बात होगी, मेरे लिए ये रोमांच का क्षण था। पंद्रह मिनट का अपांइटमेंट था और फिर वो तक रीबन डेढ घ्टे मेरे साथ रही,अतीत और वर्तमान के बीच सफर क रती रहीं, मुझे लगता हैं कि वो मुझसे इस मुलाकात में बहुत सहज थीं, इस तरह बात क रना उन्हें अच्छा लग रहा था। आखिर में निकलते वक्त उन्होंने पूछा क्या तस्वीर की जरूरत है, मैंने क हा आपके अंदर की खूबसूरती को देख और महसूस कर लिया है, यूं आपकी तस्वीरें मिल ही जाएंगी। वो अवाक हुईं और सौम्य मुसकुराहट बिखेर दीं,मुझे लगा, सोच रहीं होंगी-अजीब लडक़ा है, लोग मेरे साथ तस्वीर के लिए तरसते हैं। और कहा-कोई पुरानी तस्वीर चाहिए तो एडीसी साहब को बोल देती हूं, आपको दे देंगे। आज मुझे अफसोस हैं कि काश मेरी एक तस्वीर उस परी सी सुंदर सौम्य पूर्व राजमाता गायत्रीदेवी के साथ होती।


पेश है उस साक्षात्कार के अंश-

12 अगस्त 1947 को जब जयपुर रियासत स्वतंत्र भारत में मिला दी गई,तब आपको कैसा महसूस हुआ?


मुझेअच्छा नहीं लगा क्योंकि रजवाडों के अपने गौरवशाली इतिहास हैं,रजवाड़ों के जनता के साथ बहुत नजदीकी संबंध रहे हैं। मांबाप के जैसा रिश्ता था,लोग आजकल ये भूल जाते हैं। जब कभी रामबाग आते थे,ढेरों लोग खड़े रहते थे,लोग दरबार से पूछते थे,कहते थे-अन्नदाता, अनाज नहीं है, ये नहीं है, वो नहीं है, नई सरकार के आते ही उठते बैठते टैक्स लगता है, ऐसी बातें करते थे। हम अब उनके लिए कुछ नहीं कर सक ते थे।
आपने लोक तांत्रिक राजनीति में क दम रखा,राजगोपालाचारी के साथ काम किया, तीन बार जयपुर से लोक सभा केलिए चुनी गईं, फिर क्यों छोड़ी राजनीति?


इसलिए कि राजा जी नहीं रहे। स्वतंत्र पार्टी के सिद्धांत मुझे पसंद थे-स्वतंत्र भारत,स्वतंत्र जनता, सब कुछ स्वतंत्र। पंडित जी की मैं बहुत इज्जत करती थी,हर चीज को स्टेट में ले लिया,जनता को को ई आजादी नहीं थी,ये करो तो फॉर्म वो करो तो फॉर्म।एक बार जब राजाजी कांगे्रस में थे,नागपुर में पंडित जी ने क हा-आपकी जमीन भी हम ले लेंगे। राजा जी ने क हा कि किसानों के खेत नहीं लेन चाहिए। अगर आप ऐसा क रते हैं तो आपके विरोध में एक पार्टी बनाउंगा जो स्वतंत्र भारत, स्वतंत्र जनता के लिए। आप उम्र में बहुत छोटे हैं,आपको मालूम नहीं होगा कि पर्चे बांटे गए थे,पाठ्य पुस्तको ंमें लिखा गया था कि जमीन सरकार की इसलिए राजा जी ने पार्टी बनाई।1970 में आखिरी बार चुनाव लड़ा।दरबार भी नहीं थे,इंदिरा गांधी ने चुनाव मतदाता सूची में जिनके के आगे सिंह था,नाम क टवा दिये।रामबाग का राजमहल जिसमें हम रहते थे,उसके स्टाफ तक का नाम काब् दिया गया। कुचामन जहां से मैंने चुनाव लड़ा वहां भी ऐसा ही हुआ।

अभी दिन कैसे गुजरता है आपका?


हजारों चीजें हैं, एमजीडी स्कूल, सवाई मानसिंह स्कूल, एक चांद शिल्पशाला जहां लडकियां दस्तकारी सीखती हैं,और गलता के पास एक गांव में जग्गों की बावड़ी में एक स्क ूल है। गरीब बच्चों के लिए। मेरी चैरिटी भी है। बहुत कुछ है। कुछ ना कुछ करती रहती हूं।

आपका जीवन दर्शन क्या है?


दर्शन वर्शन कुछ नहीं है, मैं तो सामान्य सी इनसान हूं, को ई फिलास्फी-विलॉस्फी नहीं है।


क्या आप सोचती हैं कि आप राजकुमारी या महारानी की बजाय आम नागरिक होतीं?


मैं राजकुमारी की तरह पैदा हुई और महारानी हो गई,इसलिए नहीं जानती कि आम आदमी केसा होता हैं,सिर्फ महसूस कर सक ती हूं। पर मुझे लगता है कि इनसान तो इनसान होता है, मैं मानती हूं कि आम आदमी की तरह स्कूल गई। शांति निकेतन में पढी ,वहां आम थी,खास नहीं थी।

बहुत से लोग सोचते हैं और मैं भी कई बार सोचता हूं कि जनतंत्र की बुराइयां हमें यह कहने को विवश करती हैं कि शायद राजशाही लोक शाही से बेहतर थी।आपको क्या लगता है?


राजशाही अच्छी थी,हर जगह तो नहीं पर क ई जगह तो बहुत ही अच्छी थी।जैसे मेरे नानो सा सयाजीराव गायक वाड़ का राज बहुत ही अच्छा था।अंबेडकर को किसने पढाया,बनाया,उन्होंने ही ना। मेरे पीहर में भी अच्छा था,हिंदू मुस्लिम प्यार से साथ रहते थे। जयपुर में भी ऐसा ही था,दरबार हमेशा कहते थे हम जो कुछ भी हैं,जयपुर की वजह से हैं,जो कुछ भी हमारे पास है,जयपुर की वजह से है,सब जयपुर को देना है,लोग उनको बहुत मानते थे।

आपने दुनिया देखी है, आपका पसंदीदा शहर कौनसा है?


बेशक जयपुर !

कूचबिहार में आपका जन्म हुआ,वहां की यादें हैं अभी भी आपके जेहन में?

बहुत हैं,हर साल जाती हूं अब भी।इस साल कुछ कारणों से देर हो गई,शायद अक्टूबर नवंबर में जाऊं पूजा के समय।

अपने परिवार के बारे में बताएं।


बेटे महाराजा जगत सिंह का लडक़ा मेरा पोता देवराज यहीं हैं,उसने बीए किया है, शायद दिल्ली से मास्टर्स क रेंगे।पोती लालित्या अपनी मां के पास बैकॉक में रहती हैं, इन दिनों वो भी यहीं हैं, उसने मास्टर्स किया है।

आप गिरधारीलाल भार्गव के नामांकन के समय उनके साथ थीं,राजनीति में अब भी रुचि है?


उन्होंने बुलाया तो मैं गई थी,कोई रुचि नहीं अब राजनीति में,मैं तो बस यह चाहती हूं जयपुर की जनता खुश रहे, खुशहाल रहे, ये भी चाहती हूं कोई उनके लिए कुछ करे, मैं उम्मीद क रती हूं कि वसुंधरा राजे कुछ करेंगी क्योंकि वे अच्छे परिवार से हैं,समझती हैं,देखते हैं क्या करतीं हैं?



आप शांति निकेतन में पढीं हैं,रवींद्र बाबू से जुड़ी वहां की कोई याद ?


उन्हें हम गुरूजी क हते थे,मैं उनके पास जाती थी,बहुत जाती थी,एक बार उन्होने मुझसे कहा कि आपने डांस क रना क्यों छोड़ दिया,मैंने कहा:वो टेनिस का समय है,मुझे टेनिस बहुत पसंद है। उन्होने कहा-लड़कियों को नाचना चाहिए।


जबसे होश संभाला,आपका नाम सुना,ये जाना कि आपको दुनिया की सबसे खूबसूरत महिलाओं में गिना जाता है?


किसने कहा? ये सही नहीं है।

मुझे तो आज भी लगता है कि आप बेहद खूबसूरत हैं?


नहीं, नहीं, मेरी मां बहुत खूबसूरत थीं, मेरे पिताजी बेहद खूबसूरत थे, मेरे भाई बहिन भी सुंदर थे।

अगर सेहत साथ दे तो कुछ और क रने की इच्छा है?


कुछ नहीं अब क्या क र सक ती हूं ?

Monday, July 27, 2009

कलम को सलाम कीजिए


रामचंद्र गुहा का प्रकाशक पेंग्विन से करार हुआ है जिसके तहत वे इस साल उनके लिए 97 लाख रुपये में सात किताबें लिखेंगे, यह करार भारतीय लेखन जगत में एक इतिहास का रचा जाना है तो उचित लेखकीय मानदेय का उदाहरण भी।


एक बड़ी खबर यह है कि प्रसिद्ध इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा का एक प्रकाशक से करार हुआ है जिसके तहत वे इस साल उनके लिए 97 लाख रुपये में सात किताबें लिखेंगे। वे गद्यकार है, लिहाजा ये किताबें नॉन फिक्शन यानी कथेतर होंगी। उनकी पिछली किताब इंडिया आफ्टर गांधी भारत की कथेतर बेस्टसेलर है। गुणवत्ता में मिथकीय प्रतिमान स्थापित करने वाले लेखक का यह करार भारतीय लेखन जगत में एक इतिहास का रचा जाना है तो उचित लेखकीय मानदेय का उदाहरण भी।दरअसल भारत में लेखन को कला तो माना गया पर उसे व्यवसाय के तौर पर प्राय: हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है। इसीलिए लेखन को पारिश्रमिक से भी नहीं जोड़ा जाता। मै मानता हूं कि पैसे के लिए ना लिख जाए पर जो लिखें, उसका उचित लेखकीय मानदेय लेखक का हक है। ज्ञात हो कि आज राजेंद्र यादव और नरेंद्र कोहली हिंदी के सर्वाधिक रॉयल्टी पाने वाले लेखक हैं जबकि निर्मल वर्मा अपनी मृत्यु से ठीक पूर्व भी सालाना रॉयल्टी के रूप में केवल एक लाख रुपये के आसपास प्राप्त कर रहे थे। कुल मिलाकर लेखक को उचित मानदेय ना मिल पाने में प्रकाशकीय खोट भी कम नहीं है। पर लेखन में व्यवसायिकता को लाने की जरूरत और संभावना को लेखक प्रकाशक दोनों की आपसी समझ से तय कर सकते हैं। यहां संदर्भश: बताना चाहिए कि राजस्थान हिंदी गं्रथ अकादमी द्वारा स्थापित रॉयल्टी के पारदर्शी मॉडल को हिंदी सृजनात्मक लेखन में भी संभव बनाने की जरूरत है। ये संयोग भर नहीं है कि उपरोक्त करार करने वाले प्रकाशक पेंगुइन ने ही हिंदी के उदय प्रकाश से एडवांस रॉयल्टी पर उपन्यास लिखने का पहला करार किया है जबकि हिंदी के स्थापित नामचीन प्रकाशक नहीं कर पाये, हालांकि राजकमल प्रकाशन ने पिछले दिनों एक उत्साहजनक योजना अपनी स्थापना के साठ वर्ष पूरे वर्ष होने पर घोषित की है। जिसमें साठ पांडुलिपियों को रॉयल्टी के साथ साठ लाख
रुपये दिए जाएंगे। अब तक मुहावरे में कहा जाता है कि अंगे्रजी में लिखते हो तो रॉयल्टी की बात करो, हिंदी में प्रकाशक को बिना कुछ दिए छप जाओ तो गौरवान्वित होना चाहिए, पंजाबी, उर्दू और राजस्थानी में प्रकाशक को धन देकर भी छप जाओ तो गनीमत मानिए। पर अब माहौल बदलने लगा है जबकि अंगे्रजी के बड़े और अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक हिंदी में आ रहे हैं। तो परंपरागत भारतीय प्रकाशक भी बदलेंगे, उम्मीद करनी चाहिए।

Wednesday, July 8, 2009

इनसान परेशान यहां भी है, वहां भी


यह महज किताब नहीं है, दरअसल अतीत की वो खिड़की है जिससे भारतीय उपमहाद्वीप का भविष्य झांकता है...


हार्पर कॉलिन्स से एक किताब आयी है, जिसका संपादन इरा पांडे ने किया है। हिन्दी पाठकों को पता होगा ही कि वे प्रसिद्ध लेखिका शिवानी की बेटी हैं। इस ताजा किताब का नाम है- द ग्रेट डिवाइड -इंडिया एंड पाकिस्तान, जो दरअसल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, दिल्ली के त्रैमासिक जर्नल के विशेषांक का पुस्तकाकार रूप है और इसकी भूमिका डॉ।कर्ण सिंह ने लिखी है। साठ साल की आजादी का जश्न मना रहे दोनों देशों के हालात और अंतर्संबंधों पर ये किताब बहुत खास है जिसके लेखक सीमा के दोनों ओर के जाने माने लोग हैं, जिनमें उर्वशी बुटालिया, बीना सरवर, शिव विश्वनाथ, सोनिया जब्बार, अमित बरुआ, आलोक रॉय, लॉर्ड मेघनाथ देसाई, मुकुल केसवन आदि शामिल हैं। बेशक उस विभाजन को याद करना दर्द को कुरेदना है और जैसा मशहूर शायर निदा फाजली ने पाकिस्तान से लौटने के बाद कभी कहा था-
हिंदू भी मजे में है, मुसलमां भी मजे में,
इनसान परेशान यहां भी है, वहां भी।
उठता है दिलो-जां से धुआं दोनों ही तरफ,
ये मीर का दीवान यहां भी है, वहां भी।
पर जो कुछ साझा है,वो सुकून देता है। बेशक ये किताब इस मायने में नयी जमीन तोड़ती है कि इसमें दृष्टि सर्वथा नयी है, व्यवहारिक है, अकादमिक गंभीरता तो है, पर अकादमिक लफ्फाजी यहां बिलकुल नहीं है, इसकी बानगी के लिए बीना सरवर के लेख मीडिया मेटर्स का अंश देखें-

भारत और पाकिस्तान दोनों में आये मीडिया बूम ने दोनों देशों के लोगों को करीब लाने का काम किया है और बंधी बंधाई लीक से तोडऩे का काम भी किया है तो दूसरी तरफ इसके विपरीत पूर्वाग्रहों और पुराने अंधविश्वासों से भी पुनस्र्थापित किया है।

वहीं आलोक रॉय ने उर्दू को याद किया है, परमाणु मुद्दे पर सी. राजामोहन का बेहतरीन लेख है। सलीम हाश्मी का कला पर फोटो निबंध है, तो मेजर जनरल उदयचंद दुबे का रजमाक एलबम तकरीबन सौ साल पुरानी तस्वीरों के जरिए हमारे सामने उस युग को जीवंत कर देता है। सुनील सेठी का लिया हुआ मशहूर पाकिस्तानी कथाकार नदीम असलम का साक्षात्कार किताब को सार्थक बनाता है। दोनों के आजाद मुल्कों के रूप में जन्म से लेकर आज ये दोनों देश आर्थिक राजनीतिक सामाजिक तौर पर कहां खड़े हैं, किताब ये परीक्षा तो करती है, साथ ही कतिपय सॉफ्ट विषयों जैसा इरा स्वयं इसकी भूमिका में बांटती हैं- जैसे सिनेमा, साहित्य, भाषा, क्रिकेट, मीडिया आदि की बात भी खुलकर की गयी हैं। इस लिहाज से किताब केवल नोस्टालजिक कोलाज मात्र नहीं है, उससे कहीं आगे है। दोनों देशों के सदियों पुराने सांस्कृतिक संबधों और उनकी सांझी बुनावट को इस तरह याद किया गया है कि ये स्थापित हो जाता है कि सियासी बंटवारे हमारी तहजीब और दिलों को बंटवारा तो नहीं कर सकते हैं। कुल मिलाकर ये किताब नयी रोशनी में नयी सदी में दोनों मुल्कों के संबंधों को देखने का मुकम्मल जरिया देती है और ये उम्मीद या सवाल भी चुपके से जताती है कि हमें अच्छे पड़ोसी क्यों नहीं होना चाहिए।

Tuesday, June 30, 2009

आज तीस जून है



आज तीस जून है ...

तीन साल पूरे हो गए हैं एक घटना को ...पर जो अब भी ताजा है

वक्त को गुजरना है लम्हों को सहना है और दिल को तड़पना है ...

वो खुश होंगे .आज उन्हें दुनिया की सबसे बड़ी उपाधि मिलने की पूर्व पीठिका बननी है ..फिर उपाधि मिलना औपचारिकता मात्र होगी ..खुश हूँ मैं..लाजिम है ...

दिन , अगर ऊपर वाला है तो वो ही तय करता है ..कब क्या होना है ..

मैं तो चाहता था.आज इस शहर में ना होऊं..पर फिर भी रह गया...शायद दिमाग मुझे कहीं ले जाना चाहता था और दिल रोकना....रुक गया हूँ.. ..

Thursday, June 25, 2009

आलोक श्रीवास्तव की आमीन का सफर मुसलसल जारी

कुछ लोगों की सृजनात्मकता से ईर्ष्या होती है , उनमे पहली पंक्ति में हैं - भाई आलोक श्रीवास्तव ..उनकी शायरी के पहले मजमुए 'आमीन' का दिग्विजय अभियान जारी है ...पूरी खबर के लिए एक क्लिक तो कर ही लें...

http://qalam1.blogspot.com/

Monday, June 15, 2009

सौ साल की गवाही में एक किताब

हिंद स्वराज

आज एक किताब के बहाने उसके समय पर बात कर रहा हूं। पंद्रह साल पहले, पहली बार जब मेरा हिंद स्वराज नाम की किताब से राब्ता कायम हुआ था, गांधी को तार्किक रूप से समझना और उनके प्रति अपनी अगाध भक्ति के तार्किक आधार खोजना शुरू कर रहा था, उस वक्त किताब की उम्र जाहिर है 85 साल की थी। इस साल समय की रेत घड़ी में जब इस किताब को सौ साल हो रहे हैं, इस किताब की अहमियत मुझे लगता है कि बहुत बढ़ गयी है, जैसा गांधी इस किताब की भूमिका में कहते हैं कि यह द्वेष धर्म की जगह प्रेम सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है, पशु बल से टक्कर लेने के लिए आत्म बल को खड़ा करती है। दरअसल ये किताब भारत की दशा और बेहतरी के लिए मॉडल प्रस्तावित करती है हालांकि वे खुद कहते हैं कि हिदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रि य अंश के रूप में स्वीकारे तो स्वराज स्वर्ग से हिन्दुस्तान की धरती पर उतरेगा लेकिन मुझे दु:ख के साथ इस बात का भान है कि ऐसा होना दूर की बात है। ये अक्षरश: सच है आज भी, उस निर्मम समय में जब जाति, धर्म, क्षेत्रीयता और वंशवाद राजनीति में स्वीकार प्राय: हो गए हैं।हिंद स्वराज के सौ साल एक तरह से भारत के बदलाव के सौ साल हैं, इन सौ सालों ने गांधी का अप्रतिम, अकल्पनीय और अद्भुत नेतृत्व तो देखा ही, साथ ही क्रमश: बढ़ती साम्प्रदायिकता, देश का विभाजन और विभाजित देश का विभाजन भी, गांंधी की हत्या, समाजवादी लोकतंत्र के सपने का बुना जाना और आंशिक सफलता के बाद उसका बिखर जाना, कांग्रेस के एकनिष्ठ राज, पतन और फिर क्षेत्रीय ताकतों का उद्भव और पुन: कांग्रेस का उदय, पंजाब और कश्मीर का जलना, गांंधी के ही गुजरात में सांप्रदायिकता के तांडव, उत्तर पूर्व के संकट, घोटालों के चरम, आतंकवाद और इंदिरा तथा राजीव की हत्याओं के दौर जैसी स्थितियों के बीच बनते, बिगड़ते, उभरते, उलझते, सुबकते, सुलगते मुल्क को भी देखा है। तो इन तमाम स्थितियों की गवाह किताब को इस लिहाज से देखा जाना जरूरी है कि ये किताब भारत के बनने और उसके बाद लगातार होती भूलों और चूकों, सायास चालाकियों, छद्म-अदृश्य राष्ट्रद्रोहों के आलोक में हमारे देश के गुनाहगारों की करतूतों का अतीत में रहस्योद्घाटन करती है और जैसे आज सौ साल बाद आके हर हिंदुस्तानी से कहती है कि इस गुनाह में तुम भी बराबर के शरीक हो और ये वो प्रेमपूर्ण हिदुस्तान नहीं है जिसकी कल्पना गांधी बाबा जैसे आजादी के लिए लडऩे वाले लोगों ने की थी और वो सपने अभी अधूरे हैं। गांधी बाबा जब इसमें लिखते हैं कि अगर हिदू मानें कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसनमान ही रहें तो उसे भी सपना समझिए तब बाबरी मस्जिद का ढांचा नहीं ढहा था, गुजरात नहीं जला था। और जब इस किताब में गांधी बाबा कहते हैं कि उसने सच्ची शिक्षा पाई है जिसका मन कुदरती कानूनों से भरा है और जिसकी इंद्रियां उसके बस में हैं, जिसके मन की भावनाएं बिल्कुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है, ऐसा आदमी ही सच्चा शिक्षित माना जाएगा। तो क्या इसे संसार के समस्त नीतिशास्त्रों का निचोड़ नहीं माना जाना चाहिए। क्या आधुनिक झंडाबरदार तथाकथित राष्ट्रवादी इस किताब में दिए स्वदेशाभिमान के अर्थ को ग्रहण करेंगे कि स्वदेशाभिमान का अर्थ मैं देश का हित समझता हूं, अगर देश का हित अंग्रेजों के हाथ होता हो, तो मैं आज अंग्रेजों को झुककर नमस्कार करूंगा।


मेरी राय में तमाम अतिशयोक्तियों से बचते हुए कहा जाय तो भी यह किताब भारतीय परिप्रेक्ष्य में बेहतर जीवन, बेहतर समाज, बेहतर राष्ट्र और फिर बेहतर दुनिया का सहज और व्यावहारिक रास्ता बताने वाली बेहतरीन किताबों मे से एक है और उन विरासतों में से भी है जिन्हें बचाना बहुत जरूरी है।

Monday, June 8, 2009

तारीख लिखो तो ऐसे लिखो


ये पुस्तक समीक्षा कतई नहीं है न ही व्यक्ति परिचय है, किताब के बहाने व्यक्ति और व्यक्ति के बहाने किताब पर भी बात नहीं है। सच पूछें तो इन दिनों एक किताब ने नींद हराम कर रखी है, किताब है झुरावौ जिसका शाब्दिक अर्थ है विलाप, और मैं सचमुच विलाप की अवस्था में हूं। एक इतिहास का विद्यार्थी एक अल्पज्ञात से ऐतिहासिक प्रसंग को जब साहित्य में जीवंत देखता है तो शायद ऐसा ही होता हो । ऐसी ही अनुभूति मुझे कुछ बरस पहले झारखंड मे रहने वाले राकेश कुमार सिंह के उपन्यास जो इतिहास में नहीं है से गुजरते हुए भी हुई थी जिसे उसके बाद जामिया मिलिया से जुड़े रहे इतिहासकार सुधीर चन्द्र ने मुझसे अनौपचारिक बातचीत में कुछ यूं बयां किया था कि साहित्य में नामों के अलावा सब सच होता है और एक हद तक इतिहास में केवल नाम॥।


झुरावौ राजस्थानी और हिन्दी के जाने माने लेखक चन्द्रप्रकाश देवल की कविता कृति है। इसमें आउवा में विक्रमी संवत 1643 यानी 1586 ईस्वी में हुए जिस धरने को केंद्र में रखकर कवितायें रची हैं वो दरअसल सामंतवाद के खिलाफ आत्मसम्मान और प्रतिकार का प्रतीक है, और जिसे गांधी के सत्याग्रहों और बिजोलिया के सत्याग्रह की पूर्व पीठिका के रूप में देखा जा सकता है। ऐसा नहीं कि ये धरना इतिहास में अज्ञात है। सूर्यमल्ल मिश्रण, श्यामलदास, विश्वेश्वरनाथ रेउ, मुहता नैणसी इस घटना से परिचित हैं पर इसे मानवीय संवेदना की उंचाइयों तक झुरावौ ही पहुंचाती है अचम्भित करने की हद तक। ये इस घटना का जादू है, उस संवेदना का भी जिसने धरने की पृष्ठभूमि रची और अंतत कवि के कवित्व का भी। पहली कविता मीठी सी पीड़ा की आरंभिक पंक्तियां तिलिस्मी हैं - बेटा ! /कमरे की उत्तर दिशा वाली खिड़की मत खोल /यह आउवा की और खुलती है। या संग्रह की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां- मैं अपने होने और न होने के मध्य /उद्विग्न सा /नया आउवा तलाशता हूं /वह दूर तक मुझे /कहीं दिखाई नहीं देता।


राजस्थान के इतिहास प्रसंगों को साहित्य की विषय वस्तु बनाकर इस से पहले भी फिक्शन में उमेश शास्त्री और आनंद शर्मा के रस कपूर, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र के एकाधिक में से जनानी ड्योढी जैसे महत्वपूर्ण काम हुए तो हरिराम मीणा के धूणी तपे तीर जैसे हादसे भी रचे गए हैं पर कविता में झुरावौ अनोखा है और कविता तथा इतिहास के एक साथ दुर्लभ निर्वहन के साथ। इतिहास के साथ साहित्य के रिश्ते को लेकर मुझे लगता है कि बड़ा ही नाजुक रिश्ता है, कब कहां चूक हो जाए और पता भी ना चले और जब रसायनशास्त्री (राकेश कुमार सिंह और चंद्रप्रकाश देवल) साहित्य और इतिहास की कैमिस्ट्री को भरपूर निभाते हैं तो ईष्र्या-सी होती है। झुरावौ जैसी एक इतिहास आधारित साहित्यिक कृति से गुजरते हुए ये आभास होना लाजमी है कि वर्तमान की पीठ पर सवार होकर अतीत से भविष्य की यात्रा करना इंसानी आदत हो जाये तो हमारी बहुत-सी समस्याएं शुरू होने से पहले खत्म हो जाएं।


खुशामदीद !


इधर, युवा शायर धूप धौलपुरी की शायरी का पहला मजमुआ जज्बात की धूप हाल ही मंजरे आम पर आया है, फिल्मी लबोलहजे के इस शायर के अदबी मेयार की बानगी देखिए-


बादल से कहते हैं तुम ना बरसो मेरे आंगन में,


आंखों में, सावन के जैसी फिर भी झड़ी लग जाती है।


हमने बसा ली अपनी बस्ती दूर तुम्हारे शहरों में,


फिर भी न जाने कब ये बस्ती शहरों से मिल जाती है।

Friday, May 15, 2009

इस दौर के लिए अफ़सोस भी..शुकराना भी


चुनाव निपट गए.. कुछ नेता निपट गए और मुद्दे की बात जनता फिर निपट गयी । दुनिया भर की मंदी के बीच भारत में फैलते चुनावी कारोबार को देखकर एकबार लगा मंदी हमारे यहाँ तो है ही नहीं। यही मुगालता पाल लें, चलिए कुछ देर के लिए, पर कबूतर के बिल्ली को देखकर आँख बंद कर लेने से बिल्ली गायब थोड़े ही हो जाती है। मंदी का बुनियादी सच ये है कि कॉर्पोरेट जगत की चमक जहाँ थी वहीं मंदी है जहाँ चमक नहीं थी, वहाँ हालत यथावत हैं.. साठ सालों में जहां कुछ खास नहीं बदला ऐसी चार दिन की चमक चांदनी क्या कर लेती? छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में इन दिनों चमक है वहां कॉर्पोरेट चमक बहुत कम या ना के बराबर थी। अब वहाँ छोटे व्यवसायियों की चमक देखिये,वजह मामूली नहीं है, सरकारी नौकरी और छठे वेतन आयोग की चमक है, महानगरों में बैठकर उस चमक का अंदाजा लगाना मुश्किल है हालाँकि इन सालों में महानगर कसबे और गाँव का फर्क कुछ कम हुआ जब दूर दराज के प्रतिभाशाली युवा ऊँचे पैकेजों की चमक में महानगरों में आये हैं, पर मुठ्ठी भर ऐसे लोगों से पूरे गाँव देहात तो नहीं बदल सकते हैं।और वैसे भी इन सालों में जो जीवन बदला है, उसके यूं टर्न लेने की सभावनाएं मुझे इस मंदी से दिखती है. लोन दर लोन से..सुविधाओं के चक्रव्यूह और धन से सब कुछ खरीदने के मुगालते वाले तथाकथित पैकेज मूलक सफलता में पगलाए लोगों के लिए मंथन और जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने खोजने जानने का अद्भुत अवसर दिया है मंदी ने। न्यूनतम साधनों में जीने और मानसिक अध्यात्मिक आनंद को सर्वोतम मानने वाली भारतीय जीवन शैली को इतिहास की किताबों में सजाने का पक्का इंतजाम करने वालों मित्रों को आत्मावलोकन का भी अवसर दिया है इन मंदी के हालातों ने।देश में नई सियासी सूरतेहाल है। पर देश के निजाम से ये तय न पहले हुआ न अब होना है, ये हमें खुद चुनना है, हम खुद ही चुनते हैं अपने लिए और अपनी आनेवाली नस्लों के लिए...

Thursday, April 23, 2009

एक वादे का पूरा होना




साल भर बाद एक वादा पूरा किया ...भाई आलोक प्रकाश पुतुल ( मेरे जिन्दगी के तीन आलोकों में से एक - पहले बड़े भाई कुख्यात विख्यात आलोक तोमर, दूसरे शायर आलोक श्रीवास्तव और ये तीसरे हैं रायपुर वाले भाई आलोक पुतुल) से कहा था कि कविता कहानी से इतर कुछ दूंगा ... उनके वेब पोर्टल रविवार के लिए...ये खुद से भी वादा किया कि कविता कहानी के अलावा दूं॥क्योंकि जब भी किसी लेखक मित्र से लेखकीय सहयोग माँगता हूँ तो झट से जवाब मिलता है हाँ कवितायेँ देता हूँ ..या हद से हद कहानी...मैं मानता हूँ कि इससे इतर लेखन में बहुत जोर आता है पर जिन्दगी इनसे इतर विधाओं में भी बेहद संजीदगी और करीबी से अभिव्यक्त होती है..खैर हो सकता है मैं गलत होऊं..

जो लिख पाया आलोक भाई के बार बार इसरार के बाद.... पेशे नज़र है ......

आम चुनाव उर्फ ऐसा देश है मेरा




नहीं, ये किसी विशेषज्ञ की राय नहीं है, राजनीतिक राय तो हरगिज नहीं. आप चाहें तो इसे एक आम आदमी के नोट्स मान सकते हैं.
बुनियादी परन्तु सतही बात से शुरू करुं तो राजस्थान में लोकसभा की 25 सीटें हैं, जिन पर 7 मई को मतदान होगा.पिछले लोकसभा चुनाव में 21 पर भाजपा जीती थी तो 4 पर कांग्रेस. इस बार भाजपा और कांग्रेस हर बार की तरह सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहें हैं. बसपा की हवा इसलिए निकली हुई है कि सभी 6 विधायकों ने सत्तारूढ कांग्रेस में जाने का हाल ही में निर्णय ले लिया.
खैर ये तो हुई सामान्य बात, अब कुछ अलग ढंग से देखा जाये, अपनी चार यात्राओं का सन्दर्भ लूंगा. एक महीने में अपने गृह क्षेत्र की दो यात्रायें, एक यात्रा मारवाड़-पाली क्षेत्र की और एक साल भर पहले की दक्षिण राजस्थान के आदिवासी क्षेत्र की.
मेरा गृह क्षेत्र है उत्तरी राजस्थान यानी गंगानगर और हनुमानगढ़ ..पाकिस्तान की सीमा से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर अपने खेतों को छूने की हसरत से गया. कोई पिछले ढाई दशक से जब से होश संभाला है, इस गाँव और खेत के मंजर को देखते आया हूँ. लोग कहते हैं बहुत कुछ बदला है. मुझे पता है, बदला तो बहुत कुछ...ऊँटों की जगह ट्रेक्टर आ गए. पहले फोन घरों में आये फिर हाथों में मोबाइल आ गए. पढी लिखी बहुएं आ गयी, हर घर में कम से कम एक दोपहिया फटफटिया ज़रूर है.
कोई साढे तीन दशक पहले मेरे गाँव से तीन किलोमीटर दूर के पृथ्वीराजपुरा रेलवे स्टेशन से जो अंग्रेजों के जमाने का है; से मेरी मां दुल्हन के रूप में ट्रेन से उतरकर ही इस गांव तक आयी थी. मेरे बचपन में गाँव तक शहर से बस जाती थी, कोई पांच बसें. यही पांच वापिस लौटती थीं, सब की सब बंद हो गयी हैं. अब सिर्फ टेंपो चलता है, बिना किसी तय वक्त के, जब भर दिया तो चल दिया...!
बचपन में जहां मेरे गाँव में बीड़ी और हुक्के के अलावा कोई चार पांच लोग शराब पीते होंगे, अब तरह-तरह के नशे युवाओं की जिन्दगी में शामिल हैं, जिन्होंने उन शराबियों को तो देवता-सा बना दिया दिया है. और ये हालत कमोबेश आसपास के हर गाँव की है. हमने तरक्की के कितने ही रास्ते तय किये हैं!
मेरे पिता गाँव के जिस सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़कर गाँव के पहले स्नातक, पहले स्नातकोतर और फिर पहले ही गजेटेड हुए, दसेक साल पहले वो मिडिल हो गया था. पर अब उसमें बच्चे नाम को हैं. मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आने वाले दो चार सालों में वो बंद हो जाये. सुना है उसमें मास्टर सरप्लस हैं. ये भी तरक्की है कि नाम के अंग्रेजी या पब्लिक स्कूलों में कम पढ़े-लिखे मास्टरों के पास बच्चों को भेजकर गाँव खुश है.
नरेगा है पर गाँव में भूख भी है. स्कूल है, पढाई है पर बेरोजगारी भी है. नयी पीढी ने खेत में हाथ से काम करना बंद कर दिया है, तीजिये चौथिये पान्चिये से ही काम होता है. भारत चमकता है जब सफ़ेद झक्क कुरते पायजामे में पूरे गाँव के लोग दिखते हैं. किसी की इस्त्री की क्रीज कमजोर नहीं है..अद्भुत अजीब से आनंद हैं .. कागजी से ठहाके हैं...भविष्य कुछ भी नहीं पता. एक और बदलाव आते देखा है छोटे किसानों की ज़मीनों को कर्ज निपटाने के लिए बिकते और फिर उनको मजदूर बनते भी देखा है.. मुहावरे में कहूं तो कर्ज निपटाने में जमीन निपट गई और अब खुद भी कब निपट जाए, कौन जानता है? कर्ज से मुक्ति की चमक उनकी ऑंखों में ज्यादा है या कि ऑंखों के कोरों से कभी आंसू बनके टपकता अपनी ज़मीन जाने का दर्द बड़ा है ..मैं सोचता रहता हूँ.. वो भी आजादी का मतलब ढूंढते हैं शायद.
मध्य राजस्थान का मारवाड़ का इलाका यूँ तो बिज्जी जैसे लेखक के कारण स्मृतियों में है पर इन सालों में कई बार जाना हुआ है... पाली के एक इंटीरियर इलाके में किसी पारिवारिक कारण से जाता हूँ. दूर तक हरियाली का नामों निशान नहीं. चीथड़ों में लोग दीखते हैं. जीप का ड्राईवर कहता है- साब यहाँ का हर गरीब सा दिखने वाला करोड़पति है..विश्वास नहीं होता. वो कहता है-हर घर से कोई न कोई मुंबई, सूरत या बैंगलोर नौकरी करता है...यहाँ खेती तो है नहीं साहब...!
मुझे उसकी बात कम ही हजम होती है..क्योंकि मुनव्वर राणा का शेर कभी नहीं भूलता -' बरबाद कर दिया हमें परदेश ने मगर, मां सबसे कह रही है बेटा मजे में है', दूर तक..या तो ये ड्राइवर उसी भाव से कह रहा है या कि अपने लोगों की बेचारगी-मुफलिसी का मजाक नहीं बनने देता. दरअसल सच तो ये ही है ना कि दूर तक बियाबान है.
किसी हड्डी की लकड़ी-सी काया पर ऊपर रखी हुई लोगों की आंखें किसी परदेसी की जीप का शोर सुनकर चमकती है..मैं उसमें साठ साल की आजादी का मतलब ढूंढता हूँ. जिस नज़दीक के रेलवे स्टेशन मारवाड़ जंक्शन पर उतरता हूँ और फिर जहाँ से वापसी में जोधपुर के लिए ट्रेन लेता हूँ, उसके अलावा कोई साधन नहीं है, ये भी बताया जाता है. कुल मिलाकर एक अलग भारत पाता हूँ.. जो जयपुर में बैठकर सचिवालय में टहलते, कॉफी हाउस में अड्डेबाजी करते, मॉल्स में शॉपिंग करते, हर हफ्ते एक न एक फिल्मी सितारे को शूटिंग, रिबन काटने, किसी की शादी या अजमेर की दरगाह के लिए जाते हुए की खबर पढते हुए सर्वथा अकल्पनीय है.
एक साल पहले बांसवाड़ा के घंटाली गाँव में आदिवासी संसार को देखने के अभिलाषा में गया था. सामाजिक कार्यकर्ता और कम्युनिस्ट नेता श्रीलता स्वामीनाथन मेरी मेजबान थीं.
इलाका जितना खूबसूरत लोग उतने ही पतले दुबले मरियल... अल्पपोषण के शिकार...खेती नाममात्र को..आय का कोई जरिया नहीं..भाई आलोक तोमर की किताब एक हरा भरा अकाल के सफे जैसे एक-एक कर ऑंखों के सामने खुल रहे थे..कालाहांडी का उनका शब्दचित्र अपने राजस्थान में सजीव होते पाया. हरियाली वाह...अति सुन्दर पर लोगों का जीवन...बेहद मुश्किल .. हालाँकि जीने की आदत डाल लेना इंसानी खासियत भी है और मजबूरी भी, इंसान इन क्षणों में भी मुस्कुराने के अवसर खोज लेता है.
मुझे इतने मुस्कुराते चेहरे मिले...पता नहीं इस अपेक्षा में कि कोई सरकार से जुड़ा आदमी होगा, कोई मदद करेगा. फिर लगा इस तरह तो साठ साल में बहुत लोग आये होंगे, बहुत मिथक खुशफहमियां टूटी होंगी...फिर भी कुछ है कि मुस्कुराहटें अब भी हैं. उन में कुछ लोगों से बात की. कुछ की आंखें पढने की कोशिश की..कुछ ने जो कहा, उनमे से जो नहीं कहा, उसे खोजकर पढना चाहा तो लगा...जिसे अंग्रेजी वाले 'टु रीड बिटवीन द लाइंस' कहते हैं. उन्हें अब भी नेताओं से उम्मीदें है..लोकतंत्र से उम्मीदें हैं..ये ही बस लोकतंत्र की जीत है क्या...क्या कि उससे उम्मीदें अब भी हैं.

ये चेहरा सारे राजस्थान का होगा, ये सोचना शायद बहुत गलत नहीं होगा, पूरे भारत का सच भी यह हो सकता है. बस स्थानीय अंतरों को एक बार अलग रख लें तो...आपके आसपास भी थोड़े बहुत साहित्यिक-से डिटेल्स के फर्क को छोड़ दें तो..और दूसरा ये न माने कि चमकते महानगरीय भारत और तकनीकी क्रांति..मंदी से पहले की कॉर्पोरेट चमक और हाल ही की सरकारी कर्मचारियों की छठे वेतन आयोग की चमक से हम नावाकिफ हैं या उसे कम महत्वपूर्ण मानते हैं..पर उस चकाचौंध में हम जिस भारत की तस्वीर को बिलकुल नज़र अंदाज कर देते हैं..उसे देखकर मेरी अनुभूतियों के तिलमिला जाने के बयानबध्द करने की कोशिश को आप चाहे जैसे देख सकते हैं पर इस वक्त जबकि अपनी जाति के लिए भाजपा से लड़ने वाले बैंसला भाजपा में शामिल हो गए हैं... पर उनका यह शामिल होना पार्टी में बवाल मचाये हुए है और उस आन्दोलन के जातीय चरित्र को छोड़ते हुए जिस नायक का चेहरा मैंने उभरते देखा महसूस किया था, वो अब मेरी नज़रों में धूमिल सा हो रहा है.
जाति धर्म..इलाके..और संबंधों ने हमेशा की तरह टिकटों का फैसला किया है और ये हर दल में हुआ है...देश और जमीन के लिए बुनियादी बदलावों के नाम पर कुछ होना एक मासूम सा ख्वाब है शायद. मुझ समेत हर किसी को अपने परिवार, अपने बच्चों, अपने करिअर की पड़ी है. चुनाव से देश की तकदीर बदलेगी,सभव है आपको इस बार लगता हो, हम ऐसा होने की दुआ करें.. दुआ ही कर सकते हैं..क्या वाकई सिर्फ दुआ ही कर सकते हैं? …..!!! इस चुनाव में हम गांधी के अंतिम व्यक्ति या अंतिम भारतीय की भी जीत हो…जय हो.

Monday, April 6, 2009

बहुत दिनों बाद एक कविता



शीर्षक विहीन


एक उदास सी शाम

बैठी है

बिजली के तारों पर

गुनगुनाती है कोई साठ के दशक का हिन्दी फिल्मी गीत

दूर कल्पना में गाव की एक ध्वनि सुनती है

तो टूटता है क्रम

उसी पल सड़क के कोलाहल में सूरज शाम के

कानो में आकर कहता है

कब से बैठी हो .

जाओ...

कुछ काम नहीं है क्या...?

Wednesday, March 25, 2009

तू ज्योंदा रहे मेरे शहर



आज सुबह उठा तो मेरे शहर -जो है भी और नहीं भी यानी श्री गंगानगर से एक एसएमएस ने बेहतर दिन की दुआ दी. ये आज खास इसलिए कि शहर बहुत याद आया ..हालाँकि वो दिन शायद ही हो जब मुझे उस शहर की याद न आती हो .. यूँ मेरे बचपन की स्म्रतियों में हनुमानगढ़ जिले का पीलीबंगा इलाका जो उस वक्त श्रीगंगानगर जिले का ही भाग था ..है तो किशोरपन की यादें भी उसके आसपास से ही है पर सिर्फ पॉँच साल की गंगानगर की रिहायश ने मुझे उस शहर का बना दिया है जितना पंद्रह साल की रिहायश ने जयपुर को नहीं बनाया खैर वो सुबह वाला सन्देश बाँटते हुए उस शहर को याद कर रहा हूँ -


रेलवे रोड दे नजारे ना हुँदै


मटका चौक दे इशारे ना हुँदै


जे गोदारा कोलेज दियां कुडियां ते सारे गंगानगर दे मुंडे आवारा ना हुँदै


रोनक लगदी ना दुर्गा मंदिर रोड ते गुरुनानक स्कूल विच हुस्न दे पवाडे ना


हुँदै खालसा कोलेज रोड वी सोणा ना होंदा


जे जीन टॉप ते लक दे हुलारे ना हुँदै



पंजाबी ना समझ पाने वाले मित्रों से क्षमा सहित

Sunday, March 15, 2009

तिब्बत का दर्द अपना भी है...



बचपन से हम तिब्बत को संसार की छत के रूप में पढ़ते हैं फिर वो भूगोल से हमारे इतिहास के अध्ययन में शामिल होता है तो कभी दयानंद सरस्वती उसे आर्यों का मूल निवास स्थान बताते हैं तो कभी उसे बोद्धों के एक प्रमुख केंद्र के रूप में जानते हैं और राहुल संकृत्यायन की चार तिब्बती यात्रायें भी हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं ,ये हमारी नियति या तिब्बत की दुर्गति कहें या समय का फरेब कि वो हमारे वर्तमान में भी है दुखद कारणों से है अशांत है, ये अफ़सोस की बात है ।
भारतवर्ष के इतिहास और संस्कृति का ये अमर पात्र इन दिनों अपने इतिहास की एक घटना के पचास साल पूरे कर रहा है ,वो घटना है क्रांति की जो 1959 में 10 मार्च को हुई थी इतिहास से वर्तमान में आके बात करें तो दलाई लामा भारत में शरणार्थी हैं ..हिमाचल के धर्मशाला में उनकी तथाकथित सरकार का कार्यालय भी है और ये आज से नहीं है इसे भी पचास साल हो गए हैं
जग जाहिर है कि भारत तिब्बत की इस सरकार को कूटनीतिक मान्यता देता है और चीन से भी उसके सम्बन्ध ठीक ठाक से हैं और तिब्बत का संघर्ष चीन से है हम ज्यादा कूटनीतिक पेचीदगियों में न जाएँ तो भी तिब्बतियों के हक की पैरवी करते भारत के बाशिंदों के लिहाज से उस दिन को इस रूप में देखना ज़रूरी लगता है कि 86 हज़ार तिब्बतियों के बलिदान के बाद भी तिब्बतियों को वो हक नहीं मिले थे जो वो मांग रहे थे चाह रहे थे इस लिहाज से ये उनका 1857 है हमारी सांस्कृतिक जड़ें उस देश में है ,
पाकिस्तान में लोकतंत्र खतरे में है बांग्लादेश में एक विद्रोह हुआ ही है श्री लंका और नेपाल भी कोई बहुत बेहतर स्थितियों में नहीं है पूरा भारतीय उपमहाद्वीप जिस तरह के दौर से गुजर रहा है उस दौर के बीच उस के सबसे बड़े देश और महा लोकतंत्र में आम चुनाव का बिगुल बजा है ! क्या हमें अपने आस पास देखना नहीं चाहिए..ताज़ा खबर ये है कितिब्बती संगठनों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के जेनेवा स्थित मानवाधिकार आयुक्त को गुहार लगाईं है कि चीन उस असफल क्रांति की पचासवीं सालगिरह के आयोजनों में भी भय दिखा रहा है और हमारे मानवाधिकारों का हनन दशकों से बदस्तूर जारी है... तिब्बत की भी कोई सुनेगा क्या?

Thursday, March 5, 2009

प्रभु जोशी - तुम चन्दन हम पानी

कलम पर पढ़ें

जाने माने चित्रकार और कथाकार प्रभु जोशी के काम और शख्सियत पर मेरी एक टिप्पणी -जो कल पत्रिका के इंदौर संस्करण में प्रकाशित हुई है


रंगों और शब्दों के बीच की आवाजाही का पड़ाव जयपुर

Sunday, March 1, 2009

रही परदे में न अब वो पर्दानशीं .....



स्लमडॉग मिलिनेयर और ऑस्कर पर अमिताभ बच्चन तक की राय इस तरह बदली कि दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है। मैं न तो डॉग शब्द की मीमांसा करने जा रहा हूँ ना भारत की छवि पर कोई स्यापा कर रहा हूँ कि भारत की बुराई से ही पुरस्कार मिलते हैं॥चाहे साहित्य हो या सिनेमा .पहली बात तो यह कि क्या कहानी,उसका लेखक और परिवेश,अभिनेता,गीत संगीत और तकनीकी स्तर पर ढेर सारे लोगों के जुड़ जाने के बाद भी सिर्फ इस आधार पर इसे भारतीय फिल्म होने से खारिज कर देना ठीक है कि इसके निर्माता निर्देशक भारतीय नहीं हैं.देखिये , बेशक साहित्य और सिनेमा जिन्दगी से बनते हैं और जिन्दगी इनसे मुतासिर होती है पर यकीनन धागे सी दूरी है इनकी जिन्दगी से...दोनों बिम्ब के माध्यम हैं सौ फीसदी सच दिखाना न साहित्य का काम है न सिनेमा का ...जैसे अतीत का सच इतिहास की विषय वास्तु है न कि ऐतिहासिक फिक्शन की ...एक बार हम मान लें स्लम डॉग में अतिरेक में भारत की बुराई को दिखाकर महान बनने की चेष्टा की गयी है तो कहूंगा कि जौहरों, चोपडाओं बडजात्यों के बौलीवुड में जो कुछ दिखाया जाता है क्या वो सच होता है पंजाब से बचपन से जुडाव रहा है ... वहाँ की नदियों का पानी पीकर और उससे सींचे खेतों का अन्न खाकर बड़ा हुआ हूँ . लोकप्रिय सिनेमा का पंजाब मुझे कहीं भी असली पंजाब नहीं लगता ..गुलज़ारनुमा कोशिश अपवाद स्वरुप ही होती हैं और जो दिखता है उसे मैं पंजाब में ढूंढता रहता हूँ . एक दिन मित्र फिल्मकार दीपक महान कह रहे थे कि भला हो भारतीय दम्पतियों की सूझबूझ का वरना कश्मीर में बर्फ पर नाचते गाते जोडों को देखकर फिर वास्तविक जिन्दगी में न पाकर तलाक़ देते देर न लगे कि मेरी पत्नी या पति वैसा नहीं लग रहा है ये है हमारा सिनेमा ,मेरा निवेदन ये है कि साहित्य और सिनेमा में जिन्दगी को यथारूप में न तो तलाश करना चाहिए न ये मुमकिन है . कहना चाहिए कि लोकप्रिय सिनेमा और डॉक्यूमेंट्री के बीच में यथार्थ के करीब का है सार्थक या समांतर सिनेमा..हाँ कभी भी इस हाशिये की सिनेमाई दुनिया का कोई उत्पाद भी लोकप्रिय हो जाता है या कभी इसका उलटा भी ..वो विरले हैं जो लोकप्रिय सिनेमा या साहित्य रचते हुए सार्थक बना जाएँ जिन्दगी के कड़वे सच से रूबरू करवादें
हाल में आई देव डी मुझे ब्रिलिएंट फिल्म लगी अनेक लोगों को फिल्म की भाषा को लेकर आपत्ति थी ..वो अपनी जगह गलत नहीं है पर जिस युवा वर्ग की वो फिल्म है ये उनकी भाषा है उनका जीवन है उनके समय का जीवन है , उन इत्रों से कहूंगा यकीन न आये तो २० से पचीस की उम्र के अपने भाई बहनों भतीजों के एसएमएस, ई मेल, चेट की भाषा एक दिन चोरी से पढने का नैतिक अपराध कर लें और ये भी कि जो कहे वो करें और जो करें वो ही जाहिर करें ये साहस भी उस पीढी में मिलेगा..हम भारतीय प्रतिकार की बजाय कड़वा घूँट पीने को महान मानते हैं ..बुरे के खिलाफ बोलने की बजाय चुप रहना...ये लगभग वैसे ही है जैसे सडांध मारते रिश्तों को जीना जीते रहना और मरने की हद तक जीनाखैर सिनेमा और साहित्य के वो बिम्ब जो यकीनन जिन्दगी से उठते हैं फिल्मकार या साहित्यकार की आंख ही जिन्हें देखती है और हम वाह कह उठते हैं इसकी वजह शायद ये होती है कि हम उसे उस तरह से नहीं देख पाते हैं...जैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पात्र मैं हर बंगाली में ढूंढता हूँ पर निराश होता हूँ वो अच्छे प्यार होते होते हैं हो सकते हैं पर रबीन्द्रनाथ के पात्रों से नहीं लगते...दोष न रबीन्द्रनाथ का है न इन बंगाली मित्रों का .फर्क माध्यम का है और उसके क्राफ्ट का है और गरज ये कि हम सिनेमा और साहित्य को और कलाओं के लिए ये मान लें कि यकीनन ये जिन्दगी से है पर जिन्दगी की छायाप्रति न है और न ही हम में से कोई चाहेगा कि ये हो जाये फिर उनकी खूबसूरती रह जायेगी क्या?
आखिर में सूफियत के दो मिसरे-
रही परदे में न अब वो पर्दानशीं,
एक पर्दा सा बीच में था सो न रहा ...

Saturday, January 17, 2009

मेरा भी है कश्मीर


याद प्योम
एक हफ्ते से मैं कश्मीर मय हूँ हालाँकि जिस काम से वाबस्ता हूँ उसके तहत कश्मीर अंक की योजना मेरे जेहन में तभी से आकार लेने लगी थी जब उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में वहाँ निजाम बदलने की ख़बर आयी ॥कश्मीर में निजाम का सिर्फ़ चेहरा बदला है या वाकई कुछ बदलाव आयेगा ये फैसला तो वक्त ही करेगा पर मेरे हम लोग के कश्मीर अंक की पृष्ठभूमि में ये परिवर्तन था और फ़िर प्रेमचंद गांधी जी के विशेष सहयोग के साथ इस अंक को मूर्त रूप दे पाया।बचपन का कश्मीर याद आ रहा है जब तब लगभग अनजान से कुपवाडा का बशीर गंगानगर के गांवों में शॉलें बेचने आता था मुझे आज भी याद है कि काउ ओप रेतिव की चेतक छाप कॉपी में आखरी पन्ने पे बशीर का पता लिख रख लिया था और जब बड़ा हुआ और कश्मीर और कुपवाडा को जन तब तक चेतक चाप कॉपी किसी रद्दी वाले के यहाँ पहुचकर लिफाफा बन चुकी होगी ॥पर आज भी वो नोस्टाल्जिया का कश्मीर और बचपन का बशीर मेरी यादों में है ... ॥मशहूर डोगरी लेखिका पद्मा सचदेव जी का अपार स्नेह मुझ पर रहा है कश्मीर अंक की योजना के साथ ख्याल आया उनसे लिखवा लूँ पर उनकी तबीयत ठीक नहीं थी फ़िर उनके सुझाव पर चंद्रकांता जी से लिखवाया ,पद्मा जी ने ख़ुद चंद्रकांता जी को फोन करके कहा कि दुष्यंत का फोन आयेगा तो ऐसे प्रकरण मुझ जैसे के लिए ज़मीन से उछलने के लिए काफी हैं.....और चंद्रकांता जी ने मेरे लिए लिखा भी और चमन लाल सप्रू जी से खाने पर लिखवाया भी ....और नाटकीय तरीके से अग्निशेखर जी ने लिखा या कहूं बोला ...जिस दिन वो जम्मू में बैठकर लिखनेवाले थे उन्हें बहुत ज़रूरी काम से दिल्ली आना पडा और फ़िर वे लगातार सफर में रहे पर उनकी कश्मीर पर मुहब्बत और मेरा इसरार या मुझ पर स्नेह कि लिखना और कहना ज़रूर चाहते थे ॥तय किया कि फ़ोन पे मुझे बोलेंगे और मैं रिकॉर्ड करके आलेख तैयार कर लूँगा बुधवार शाम से मुझे जयपुर में दिल्ली की सी सर्दी ने जकड लिया खैर किसी तरह उनके नागपुर से जयपुर की ट्रेन पकड़ने से पहले उन्हें फोन पर पकड़कर मैंने तफसील से बात की ..पर फ़िर मेरी तबीयत अभी संभली नहीं थी ..एक बार सोच लिया यार जाने दो सिर्फ़ चंद्रकांता जी के आलेख को कवर बना लूंगा जब काया ही ठीक नहीं तो किस कायनात की बात कर रहा हूँ ..गांधी जी ने पूछा बात हुई? मैंने कहा कि उन्होंने लिखा तो नहीं पर बात हो गयी उसे ख़ुद ही लिखना है पर मैं लिख नहीं पा रहा हूँ ..खैर मन हुआ और लिखा और इत्तेफकान और उनके यायावरी के मिजाज की वजह से शुक्रवार की सुबह अग्निशेखर शहर में थे वे प्रसिद्द मूर्तिकार हिमा कौल से मिलने आए थे जो यहाँ राष्ट्रीय आयुर्वेदिक संस्थान में अपना इलाज करवा रही हैं ..अग्निशेखर जी उनके लिए कह रहे थे जिन हाथों ने लोहा पत्थर तोडा उन्हें शिथिल देखकर बहुत पीड़ा होती है और ये वाजिब भी है,ये मेरी अग्निशेखर जी पहली मुलाक़ात थी बेहद आत्मीयता और स्नेह से मुलाकात हुई और उनके साथ फिलहाल जयपुर निवासी कश्मीरी गायक वीर कौल से भी ..उनकी पहाडी मासूमियत और बेलागपन..क्या कहने ..दो दिन इन दो कश्मीरियों के साथ और एक पूरा हफ्ता कश्मीर को महसूस करते बीता..पूरे चार पेज के कश्मीर अंक में ..दो कश्मीरियों के साथ में... उन दोनों के लहजे और जुबां में उनके दिल का दर्द साफ देखा सुना सूंघा और महसूस किया जा सकता था ...वीर जी जब अपना एल्बम याद प्योम मुझे दिया और अपने मोबाईल से उस एल्बम का एक गीत सुनाया तो उस आवाज का दर्द मुझे अनबोला कर गया इन दिनों जितना अनबोला रहा हूँ ,शायद ही रहा होऊं..सियासत और आंकडों से इतर संवेदना और संस्कृति के स्तर पर कश्मीर को महसूस करना इस हफ्ते की सबसे बड़ी यादगार घटना हो गयी है और पत्रकारिता के मेरे करियर में इसे याद रखूंगा कल अग्निशेखर जी को जम्मू के लिए विदा करते समय भी मन भारी था और उस वक्त लगभग चुप सा मैं.. ..मैं मौन वक्त के खेल को देख समझने की चेष्टा कर रहा था ...उन्हें ये एहसास नहीं होगा कि इस कश्मीर अंक ने उनके इस फ़ोन और व्यक्तिश सानिध्य के साथ मेरे भीतर कितना और क्या बदलाव पैदा किया है।हालाँकि ये मानता हूँ की यकीनन मुझसे पहले भी कश्मीर पर केंद्रित काम हुए होंगे और मुझसे बेहतर भी होंगे पर यहाँ सिर्फ़ मैं कश्मीर को लेकर अपनी अनुभूतियाँ आपसे बाँट रहा हूँ