Monday, October 27, 2014

लेखक के दर्द की स्वानुभूति की फिल्म

विचार को तथ्यों और तर्को पर बिना कसे ही बिना कोर्ट बिठाए सजा देने का काम सदियों से हमारी सभ्यताएं करती रही हैं, 'निर्बाशितो' भी उसी की दास्तान है, बस किरदार अलग है, और इस तरह से यह हमारे निरंतर और ज्यादा, बहुत ज्यादा असहिष्णु होते जाते समय का एक क्रूर बयान है।

'निर्बाशितो' (Bangla-English, 2014) देखना उपलब्धि रहा है। एक लेखक की जीवनस्थितियों का सुंदर पर रूला देना वाला अकाउंट प्रस्तुत किया है चुरनी गांगुली ने।
एक निर्देशक के रूप में यह उनकी पहली फिल्म है, लिखा भी उन्होंने ही है, मुख्य भूमिका में भी वही हैं। चुरनी ने मुख्य भूमिका में अभिनेत्री के तौर पर कमाल की सहजता के साथ तस्लीमा के रूप में एक लेखिका की यथेष्ट सवेदनशीलता को मूर्त किया है। वे कहीं भी लाउड नहीं है, सहजता में ही भाव का वांछित प्रकटीकरण किया है।


जिस बात में लेखक का विश्वास है, उसे कहने की सजा उसको भुगतनी पड़े, उसे अपने देश, अपने लोगों से दूर कर दिया जाए, सारे संचार माध्यमों से काट कर किसी समुद्री टापू पर रख दिया जाए, यह कहना सुनना लिखना जितना सहज लगता है, उतना सहज उससे गुजरना नहीं है, कतई नहीं है, फिल्म अपने कैनवस पर उसी पीड़ा के भाव को जीवंतता से चित्रित करती है, कि हम सामने बैठकर उस दर्द में हमदर्द हो जाते हैं। 'निर्बाशितो' कहने को निर्वासन के बाद लेखिका और उससे बिछुड़ी बिल्ली बाघिनी की कहानी है पर दरअसल अपनी सतह के नीचे समंदर के गहरे जल सी विराट हलचलों को समेटे हुए है।

बिना नाम लिए हुए पूरी फिल्म तस्लीमा नसरीन की कहानी कहती है, नाम की जरूरत भी नहीं है, एक रचनात्मक व्यक्ति का दर्द उसका संघर्ष रूप बदल बदल कर वही होता है। कभी वह सुकरात होता है, कभी गांधी होता है, कभी मंसूर होता है, कभी गैलिलियो /कॉपरनिकस होता है। विचार को तथ्यों और तर्को पर बिना कसे ही बिना कोर्ट बिठाए सजा देने का काम सदियों से हमारी सभ्यताएं करती रही हैं, 'निर्बाशितो' भी उसी की दास्तान है, बस किरदार अलग है, और इस तरह से यह हमारे निरंतर और ज्यादा, बहुत ज्यादा असहिष्णु होते जाते समय का एक क्रूर बयान है। एक पंक्ति में कहा जाय तो 'निर्बाशितो' लेखक के दर्द से सहानुभूति नहीं, उस दर्द की स्वानुभूति की फिल्म है। फिल्म बायोपिक नहीं है, तस्लीमा के जीवन के एक छोटे से हिस्से की कथा है, जो अपने स्वरूप में बड़ा है।

बंगाली और अंग्रेजी में कही गई कहानी कोलकाता से दिल्ली होती हुई स्वीडन और फिर एक समुद्री टापू पर पीड़ा के चरम और उम्मीद के दामन को थामे हुए समाप्त होती है।
फिल्म में बीच बीच में तस्लीमा की कविताओं के बेकग्राउंड पाठ ने गीतों की जगह भरते हुए कहानी को सान्द्र, सघन बनाया है।बिल्ली को राजनीतिक व्यंग्य के लिए मैटाफर बनाना भी खूबसूरत लगा है पर उस हिस्से का थोडा सा अधिक हो जाना खलता है।

लेखक का जीवन पर्दे पर आना महत्वपूर्ण है, उसे इस तरह पर्दे पर ला पाना और ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, तस्लीमा के जीवन को अंकित करना बेहद दुस्साहसिक चुनौती स्वीकारने जैसा है, उसके साथ न्याय कर पाना उसी चुनौती को गंभीरता से लेने की जिम्मेदार कोशिश का नाम है।

Saturday, October 4, 2014

गहरे अंधेरे के पार उजाले का दरख्त


पाठक के लिए सहजता के स्तर पर रवि बुले का उपन्यास ‘दलाल की बीवी’ पल्प और साहित्य के बीच का पुल है। देहव्यापार की कथा कहते कहते कहीं कहीं अश्लीलता के स्तर को छू जाने का खतरा लेखक को उठाना पडता है, वह रवि ने उठाया है। मुम्बइया अपराध जगत और देह व्यापार की दुनिया की डिटेलिंग में वे नया संसार नहीं खोलते, पर बेशक औपन्यासिक कथा, उसके शिल्प और उसे कहने की भाषा में वे नयापन लिए हुए हैं...




अपराधजगत के सियाह कोनों में विचरण फिल्मकारों और अफसानानिगारों का पुराना शगल रहा है। रवि बुले का हार्पर हिंदी से आया पहला उपन्यास ‘दलाल की बीवी’ उस अपराध जगत के खास हिस्से देह व्यापार की संकरी घाटियों में अपने विरले कथाशिल्प और भाषाई कलाकारी के साथ प्रवेश करता है तो हिंदी के ईन-मीन-साढे तीन सौ साहित्यिक पाठकों की उम्मीदों, उनमें बहुतांश आत्ममुग्ध लेखकों की ईर्ष्यामिश्रित कुंठाओं और आलोचकों की लेखकों से पादचंपी की लालसाओं से आगे जाना निहायत स्वाभाविक और जरूरी प्रक्रिया हो जाता है। और रवि ने अपने लेखकीय कौशल, अपने समय को देखने और अंकित करने की समझ तथा जिद से उसमें मुकम्मल हस्तक्षेप किया है।

पूरी कथा में नायक महानगर है या ‘कितने पाकिस्तान’ में कमलेश्वर की भूमिका को याद करते हुए कहा जाए तो समय है, हमारा समय। परंपरागत हिंदी आलोचकीय भाषा में - मंदी के बहाने उपन्यास बाजारवादी तंत्र में मानवीय मूल्यों में मंदी का आख्यान है। गांवों ओर छोटे कस्बों से बडे शहरों खासकर मुम्बई के आईने में देखते- झांकते हुए रवि बुले इस उपन्यास में शीर्षक के बवजूद दलाल की बीवी को नायिका का दर्जा नहीं देते हुए प्रतीत होते हैं। उसका नायिका भाव बस इतना है कि वह शुरूआती चतुर्थांश से लेकर अंतिम यानी 22 वे अध्याय से पहले यानी इक्कीसवें अध्याय तक उपस्थित हैं। यह उपस्थिति उतार चढावों वाली है, जैसे वह एक सागर है और आसपास के कई पात्र जैसे नदियां हैं जिन्हें आके उस सागर में गिरना होता है। यहां तक कि दलाल की हैसियत भी कहानी में एक नदी सी ही मालूम पडती है। अपनी लुप्त बीवी को ढूंढता कमाल झूठे वादों, कामुक इरादों, मादा देह के इर्दगिर्द मंडराती मर्दाना देहों के बीच कवि पात्र लगता है, दलाल का उसे कहा गया एक वाक्य उपन्यास का यादगारी सूक्ति वाक्य है- ‘’जो औरत इस दुनिया में खो जाती है, फिर वह दोबारा नहीं मिलती। औरत बहती नदी है। उसके साथ रहने का एक ही तरीका है, उसमें डूबकर उसके साथ तैरते रहो। एक बार वह छोडकर चली गई तो फिर खो ही जाती है।‘’

जीवन सफर में जरूरी सामान खोकर टिकट के पैसे जुटाने में पोर्न फिल्मों का नायक बन जाने वाला इटली का पर्यटक रेनातो मिलानी, मीठे सपनों में जहर का स्वाद चखती मिटठू कुमरी, नैनों से भोग और सन्यास का आनंद एक साथ उठाते नयनानंद, दलाल और नयनानंद के बीच झूलती सेक्स डॉल नेपालन, सी-फेसिंग गगनचुम्बी इमारत में मोहिनी मजूमदार का बॉलीवुडीय संघर्ष, सपनों की छटपटाहट में फिसलन कथा को पाठकीय आकांक्षाओं के पर्वत लांघने का हौसला देते हैं। और तो और उपन्यास में बिल्ल्यिां और मछलियां भी पात्र हैं, मुकम्मल पात्र।

पाठक के लिए सहजता के स्तर पर उपन्यास पल्प और साहित्य के बीच का पुल है। देहव्यापार की कथा कहते कहते कहीं कहीं अश्लीलता के स्तर को छू जाने का खतरा लेखक को उठाना पडता है, वह रवि ने उठाया है। मुम्बइया अपराध जगत और देह व्यापार की दुनिया की डिटेलिंग में वे नया संसार नहीं खोलते, पर बेशक औपन्यासिक कथा, उसके शिल्प और उसे कहने की भाषा में वे नयापन लिए हुए हैं, जिसकी उम्मीद और भरोसा वे अपने दो कहानी संग्रहों से पाठकों के मन में पहले ही जगा चुके थे। कडवे और नंगे सच को नंगी आंखों से देखना -लिखना आसान नहीं होता, पढना भी आसान नहीं होता, पर रोशनी का रास्ता अंधेरों से होकर ही तय होता है, इसलिए रवि बुले का यह उपन्यास व्यापक पाठ की मांग करता है और पाठ का वाजिब हकदार भी है।