Thursday, October 25, 2012

लाल सलाम तो बनता है प्रकाश झा के लिए

फिल्म इल्म -चक्रव्यूह :

फिल्म अपने पूरे मिजाज और तेवर में प्रकाश झा की फिल्म है। राजनीति की कई परतें वे राजनीति और आरक्षण में जाहिर कर चुके हैं, यहां उन्होंने माओवाद, नक्सलवाद, के साथ अप्रत्यक्ष रूप से मार्क्स, लेनिन को जेरेबहस रखा है।

अपने प्रिय अजय देवगन की जगह अर्जुन रामपाल के साथ 'चक्रव्यूह'लेकर आए प्रकाश झा को इसलिए धन्यवाद कहना चाहिए कि वे नक्सलवाद को लेकर बडी चतुरता से अपनी बात कहते हैं। सरकार और देश की बात कहते हुए आदिवासियों का पक्ष भी उसी बेबाकी से कह जाना इस फिल्म को पॉलिटिकली करेक्ट बनाता है। पूरी भव्यता के साथ उन्होंने फिल्म रची है और कहना चाहिए कि दर्शकों के लिए भरपूर मनोरंजन के साथ सार्थक सिनेमा की अपनी इमेज के मुताबिक काम को अंजाम दिया है।

बदलते आर्थिक माहौल में महान्ता नामक मल्टीनेशनल कंपनी के आगमन और पुराने कॉमरेड बाबा यानी ओमपुरी के साथ फिल्म सीन दर सीन दर्शकों के सामने उदघाटित होती है। नक्सलवाद से लडने वाले पुलिस अफसर के रूप में रामपाल से जो काम प्रकाश झा ने करवा लिया है, वह इस फिल्म को प्रामाणिकता देता है। एक्शन सीन तो अपने पेस और संपादन के कारण शानदार बन ही गए है। पुलिस अफसर के दोस्त और आंदोलनकारी युवती के रूप में अभय दयोल तथा अंजली पाटिल की भूमिकाएं और उनके बीच बनता भावनात्मक रसायन पर्दे पर एक खूबसूरत पेंटिग सा लगता है। कहानी में गुंथा हुआ कैलाश खैर की आवाज में महंगाई वाला गीत-'भैया देख लिया है बहुत तेरी सरदारी रे' अपनी लोकसंगीतीय बुनावट के कारण सिनेमा से बाहर निकलकर भी याद रहता है। नक्सली नेता राजन के रूप में मनोज वाजपेयी वैसे ही है जैसे हम उनसे और उनसे काम करवाने के लिहाज से प्रकाश झा से उम्मीद करते है।


फिल्म अपने पूरे मिजाज और तेवर में प्रकाश झा की फिल्म है। राजनीति की कई परतें वे राजनीति और आरक्षण में जाहिर कर चुके हैं, यहां उन्होंने माओवाद, नक्सलवाद, के साथ अप्रत्यक्ष रूप से मार्क्स, लेनिन को जेरेबहस रखा है। कितना कलेजा इस माध्यम में उन्होंने पुरजोर तरीके से यह बात कहने को जुटाया होगा कि भारत का विकास आजादी के बाद असमान रूप से हुआ है और विकास की रोशनी जहां नहीं पहुंची, वहां रोशनी के मीठे पोपले ख्वाब वहां पहुंचे है। अगर आप जाएंगे तो आपको भी लगेगा कि इन सालों में आदिवासी जीवन इस तरह से सिनेमा में शायद ही आया हो। यानी पूरे दस्तावेजी तरीके से पर बेशक मनोरंजन को सिनेमा की कसौटी मानते हुए। यह फिल्म संतुलित तरीके से दोनों पक्षों की बात रखते हुए सच को सच की तरह देखने का नजरिया देती है। और खास बात कि दोनों यानी सरकार और नक्सलवादियों में किसी एक का पक्ष लेते हुए कतई जजमेंटल नहीं होती। और शायद चुपके से यह बात भी कहती है कि सच दोनों के बीच में कहीं है। वैचारिक सिनेमा का पूरे कॉमर्शियल और मजेदार तरीके से आनंद लेना हो तो 'दामुल' और 'परिणति' वाले प्रकाश झा की यह फिल्म आपके लिए है।

Wednesday, October 10, 2012

'सर्वकाले सर्वदेशे'

एक वेब पत्रिका के संपादक मित्र को कविता भेजी थी, उन्होंने इसे अपने यहां प्रकाशित करने लायक नहीं माना, उनके निर्णय का सम्मान करता हूं, लिहाजा बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर एक कविता जारी की है, मुलाहिजा फरमाएं -



प्रेम को बचा लेना साधना है
अन्यथा उड जाएगा कपूर की तरह
प्रेम को सहेजना एक कला है- जीवन की जरूरी कलाओं में से एक !
वरना बेनूर हो जाएगा सारा का सारा वजूद
और अखिल चराचर जगत में विचरण भूत योनि में जैसे कई धर्मशास्त्र कहते हैं!

प्रेम की जरूरत कब होती है दैहिक फकत
प्रेम होता है जीना साथ - कभी खयालों में, कभी हकीकत में !

जीवन के अरण्य में प्रेम के पुष्प सायास नहीं उगते
वे खरपतवार की तरह होते हैं
और ऐसी खरपतवार जो सिखाती है - रंगों की पहचान और मौसमों की अहमियत !

प्रेम का कोई अर्थशास्त्र नहीं होता, सामाजिकी भी कोई नहीं
प्रेम की राजनीति सबसे विचित्र ज्ञान !

दो जिस्मों की आदिम अकुलाहट भर नहीं होता प्रेम!

प्रेम रहता है फिर भी अपरिभाषेय सर्वकाले सर्वदेशे !

प्रेम रहता है हमेशा केवल जीने के लिए
प्रेम को पाना और जी लेना कुदरत की वह नियामत है जो कुदरत अपने बहुत प्रिय प्राणियों को उपहार में देती है।

किसी नदी में बहते हुए आ जाता है पुष्पसमूह के मध्य कोई दीप
जुगनू भर आभा से चमकता है नदी का वह छोर- आत्म मुग्ध और आत्म संतुष्ट !
वायुवेगों की चंचलताओं के बीच बचा लेना उस दीप की वो अस्मिता
चुनौती स्वरूप उपस्थित होती है
कोई निर्धन माझी लगा सकता है अपना जीवन दांव पर उसके लिए
जिसके पास नहीं होता जीवन के सिवा कुछ भी दांव पर लगाने के लिए।

जीवन में अनंत दुसाध्य कष्टों के बावजूद

प्रेम को संभव बना लेना
रहेगा सबसे बडा कौशल और सबसे बडी विजय भी, तमाम पराजयों के साथ।

प्रेम किसी निर्जन मरूस्थल का वह छोर भी हो सकता है
जहां से आगे जीवन संभव ही नहीं होता।

किसी किसान के खेत में साप्ताहिक सिंचाई के ऐसे अवसर सा हो सकता है प्रेम
जो क्षण भर की किसी चूक से किसी और के खेत को सींच दे संपूर्ण !

प्रेम रहेगा जी लेने के लिए
फिर भी हर सदी, हर देश।