Tuesday, March 9, 2010

कच्ची रेखाएं और जाहिद अबरोल साहब की एक नज्म

अपने बनाए एक कच्चे से पर सच्चे से रेखाचित्र को बांट रहा हूं
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लगे हाथ, पंजाब के मशहूर शाइर जाहिद अबरोल साहब की नज्म भी मुलाहिजा फरमाइए जो अंबाला में रहने वाले मेरे दोस्त शिवनंदन बाली ने साढे तीन साल पहले, मेरे ब्रेक-अप के बाद सुनाई थी-


जब मैं नन्हा सा बच्चा था
मेरी मां ने इक दिन मुझसे
एक पहेली पूछी थी-

एक डाल पे पांच कबूतर
एक शिकारी ने गोली से
एक कबूतर मार गिराया
बोलो कितने बचे कबूतर!

मैंने नन्हीं सी उंगली पर
गिनकर चार कहा था लेकिन
मो ने मुझको समझाया था
एक कबूतर के मरने से
बाकी के सब भाग गए हैं

आज तुम जीवन के वीराने पथ पर
मुझे अकेला छोड चले हो,
एक खुशी दम तोड रही है
बाकी खुशियों का क्या होगा!
वही पहेली आज मैं तुमसे पूछ रहा हूं -
जो मेरी मां ने मुझसे पूछी थी,

एक डाल पे पांच कबूतर
एक शिकारी ने गोली से
एक कबूतर मार गिराया,
एक खुशी दम तोड रही है
बाकी खुशियों का क्या होगा!

Sunday, March 7, 2010

मित्थल मौसी का परिवार पुराण यानी जब समय हमारा बोलता है...



इससे गुजरना अनायास अपने अतीत और एक अनुशासन के तौर पर इतिहास से गुजरना है, मुकम्मल तरीके से, अंदर गहरे तक उतरते, डूबते हुए, कभी हंसते हुए, कभी मुस्कुराते हुए तो कभी रोते हुए। हार्पर हिंदी ने इसे छापा है, उनके साहस को सलाम करना पड़ेगा क्योकि यह किसी नामचीन महिला की आत्मकथा नहींं है,


आज विश्व महिला दिवस से एक दिन पहले एक महिला की आत्मकथा की बात करें तो यकीनन कोई बड़ी बात नहीं मानी जाएगी। पर एक आत्मकथा अगर खतों के रूप में हो तो पहली नजर में अचरज होना लाजमी है और इस रूप में चाहे वह पुरुष की हो या महिला की। मित्थल मौसी का परिवार पुराण एक अलग किस्म की आत्मकथा है, जाहिर है कि अपनी भंाजी टीटू को लिखे खतो के जरिए है पर वह अपने समय जिसका फैलाव चाहे अनचाहे एक सदी तक है, का इतिहास है, एक औपन्यासिक रचना का सा सुख देती इस किताब को पढते हुए मुझे इतिहास के विद्यार्थी के तौर पर बहुत हिचक हुई कि इसे कैसे इतिहास कहा जाए। जब इसे पूरा करके उठा तो लगा कि यह तो सौ फीसदी इतिहास है और इसे आत्मकथा के फॉरमेट में लिखा गया है।
कहने को यह मित्थल मौसी के शब्दों में मित्थल मौसी के परिवार की कथा है, पर दो ऐतिहासिक शैक्षणिक संस्थाओं अजमेर की सावित्री पाठशाला और जयपुर के महारानी कॉलेज की नींव पडऩे की कथा से लेकर अपने समय के नामचीन लोगों के प्रसंगों तक कथा साधारण कायस्थ परिवार की कथा से आगे अपने समय का इतिहास हो जाती है जैसे महात्मा गांधी, सरोजनी नायडू, सुमित्रानंदन पंत, हरिवंशराय बच्चन (जिनसे मित्थल की सगाई होने वाली थी), मिर्जा इस्माइल, मानसिंह और उनकी तीसरी पत्नी गायत्री देवी, विश्वमोहन भट की मां, सितार वादक विलायत खान और तबला वादक गुदई महाराज, मोहनलाल सुखाडिय़ा जैसे लोग जो समाचार की तरह नहीं बल्कि पात्र की तरह कथा में आते है। इनको भूल भी जाएं तो साधारण परिवार की कथा बीसवी शताब्दी के भारत का सामाजिक वस्तुनिष्ठ और फस्र्ट हैंड अनुभव हमारे सामने रखते हुए बड़े फलक का निर्माण करती है। लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद सहित उत्तर प्रदेश तथा अजमेर, जयपुर, उदयपुर सहित राजस्थान और मघ्यप्रदेश के अनेक शहरों तथा दिल्ली में घूमती हुई कथा कब देशव्यापी रूप ले लेती है, पता ही नहीं चलता।
स्त्रीविमर्श के फैशननुमा दौर में कहना जरूरी है कि मित्थल मौसी का परिवार पुराण किसी नारीवादी नारे की तरह नहीं है, पिछले कुछ समय में आई हिंदी आत्मकथाओं से सर्वथा अलग इसलिए भी है कि पुरुष संदर्भश: आता है,वह भगवान नहीं है तो उसकी आलोचना नहीं है, शोषण का प्रलाप नहीं है। पति का जिक्र भी मित्थल मौसी यानी मिथिलेश मुखर्जी बहुत अनिवार्य स्थितियों में केवल संदर्भवश ही करती है। इसमें पुरुष साधारण रूप में ही हमारे सामने आते है, किसी भी अतिशयोक्ति के रूप में कहीं नहीं। पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा के संपादन में यह किताब पठनीय है, सुरुचिपूर्ण है, नई विधा सी होते हुए भी शुरू से आखिर तक बांधे रखती है। इससे गुजरना अनायास अपने अतीत और एक अनुशासन के तौर पर इतिहास से गुजरना है, मुकम्मल तरीके से, अंदर गहरे तक उतरते, डूबते हुए, कभी हंसते हुए, कभी मुस्कुराते हुए तो कभी रोते हुए। हार्पर हिंदी ने इसे छापा है, उनके साहस को सलाम करना पड़ेगा क्योकि यह किसी नामचीन महिला की आत्मकथा नहींं है, पर वैसे देखा जाए तो स्व.मिथिलेश मुखर्जी तो जीवंतता से कथा कहने वाली हैं, इसका मुख्य पात्र तो समय है, जो महिलाओं का, पुरुषों का, सबका है, वही इसको इतना महत्वपूर्ण बनाता है।