Saturday, July 26, 2008

उदय जी को बधाई


मेरे प्रिय कथा लेखक उदय प्रकाश जी को कृष्ण बलदेव वैद पुरस्कार देने की घोषणा हुई है ॥ हाल में उन्हें वनमाली पुरस्कार भी दिया गया था...उस प्रोग्राम के समय मेरा दोस्त अभिषेक उनकी कहानी तिरिछ की नाटकीय प्रस्तुति के लिए भोपाल गया था..उसने आके जिस रूप में ये मुझसे बांटा..मुझे बहुत खुशी हुई थी...इस से पहले जयपुर में तिरिछ की प्रस्तुति पर उदय जी स्वयं उपस्थित थे और अभिषेक के निर्देशन में जफ़र खान की उस एकल पेशकश पर उदय जी लगभग अभिभूत हो गए थे..
कलख़बर मिली उनको इस उनको इस पुरस्कार की ...
अब इस मौके पर क्या कहूं ...खुश हूँ..लगता है देर आयद दुरुस्त आयद..या फ़िर ये की तमाम मठाधीशों और तथाकथित आलोचकों के दुराग्रहों और 'सुप्रयासों 'के बावजूद अच्छा लेखन गुणवत्ता और पाठकीय प्रेम और स्नेह के कारण स्वीकारा जा रहा है ...वो हमारे समय के हिन्दी के सबसे सजग सफल और संवेदनशील कवि कथाकार हैं ये कहते हुए कोई डर नहीं है...मुझे ये भी पता है मेरे ऐसा कहने पर वो मुझसे नाराज़ भी हो सकते हैं....फ़िर भी ...

एक कविता उनकी इस मौके पे आपसे बाँट रहा हूँ...


सहानुभूति की मांग


आत्मा इतनी थकान के बाद
एक कप चाय मांगती है
पुण्य मांगता है पसीना और आंसू पोंछने के लिए
एक तौलिया
कर्म मांगता है रोटी और कैसी भी सब्जी
ईश्वर कहता है सिरदर्द की गोली ले आना
आधा गिलास पानी के साथ
और तो और
फ़कीर और कोढ़ी तक बंद कर देते हैं
थक कर भीख मांगना
दुआ और मिन्नतों की जगह
उनके गले से निकलती है
उनके ग़रीब फेफड़ों की हवा
चलिए मैं भी पूछता हूं
क्या मांगूं इस ज़माने से मीर
जो देता है भरे पेट को खाना
दौलतमंद को सोना हत्यारे को हथियार
बीमार को बीमारी] कमज़ोर को निर्बलता
अन्यायी को सत्ता
और व्यभिचारी को बिस्तर
पैदा करो सहानुभूति
मैं अब भी हंसता हुआ दिखता हूं
अब भी लिखता हूं कविताएं
(१९९८
)

Saturday, July 5, 2008

तेरी खुशबू से सारा शहर रोशन



इतने दिनों बाद फ़िर से मुखातिब हूँ ..इस बीच बड़ी बात ये हुई है कि तीस जून गुज़री ...मेरी जिन्दगी में तीस जून इस बार इस लिहाज से ज़्यादा ख़ास थी कि ख़ुद मैंने ये तय किया कि इस दिन को इतना याद करूं कि भूलने ना पाऊं...तीस जून २००६ से २००८ तक इस दिन के मायने बहुत बदले हैं....ये जाहिर तौर पर निहायत जाती मसला है पर ...

तो इस बार शहर को एक बार फ़िर से देखा महसूस किया... ख़ास जगहों को महसूस किया ..हवाओं की खुशबू को देखने और दृश्यों की सुन्दरता को सूंघने की कोशिश की ,

कई घंटे बिरला मन्दिर के प्रथम मंजिल वाले छोटे से घास के मैदान में तकरीबन दस अलग अलग बिन्दुओं पर अलग अलग एंगल में बैठ कर ना जाने क्या क्या कुछ याद किया॥

डेढ़ घंटा बुक वर्ल्ड के सामने केन्टीन में गुजरा..टिफिन में से खाना खाया ...

राजापार्क की उस ज्यूस शॉप से ज्यूस पीना नहीं भूला ...

वहाँ उस परचून वाले अंकल से बिना ज़रूरत कई चीज़ें उठा लाया...

बुक वर्ल्ड मेंजान बूझकर बिना किताब लिए वक्त गुजारा बिना प्रमोद जी और रजनीश जी बात किए चुपचाप... ख़ुद से लगातार बात करते... चुपचाप...

शहरकी सड़कों पर बिना काम भटका....न्यू गेट से त्रिपोलिया तक चौडा रास्ता पैदल घूमा ...

रात को स्टेच्यु सर्किल बैठा...जैसे आधी रात किसी को सिंधी केम्प छोड़ना है ,उस वक्त तक समय गुजारना है ......फ़िर से टिफिन से खाना खाया वहाँ बैठ कर और फ़िर नेस केफे के स्टॉल से कॉफी पी..हमेशा की तरह अच्छी नहीं लगी..बनावटी मुस्कराहट के साथ पूरी की,जैसे कोई देख रहा हो...फ़िर खिसियानी हँसी चोरी पकडी जाने के बाद और वही स्वर कानों में - 'जब अच्छी नहीं लगती तो क्यों सिर्फ़ कंपनी देने के लिए पीते हो '.....कई देर तक गूंजता रहता है...फ़िर स्टेशन के पास वाले उस ढाबे से बिना ज़रूरत स्टफ्फड आलू की सब्जी खरीद लाया जैसे अभी कहीं यात्रा पर निकल रहा होऊं .......

सोचता हूँ क्या यूँ अपने ब्रेक अप के दिन को याद करना बेमानी और अजीब नहीं है ..है तो है ...

कुछ दोस्त कहते हैं दो साल हो गए पता ही नहीं चला यार ...

मुझे पता है दो साल दो युग से गुजारे हैं....हर दिन एक उम्मीद में ढला है हर सुबह एक आस में जागा हूँ ...

गालिब कभी नहीं भूलते मुझे कहते हुए -

' मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का

उसी को देखकर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले '