Monday, June 23, 2008

जियो गौरव !!!




गौरव सोलंकी एक युवा कविता का उम्दा नाम है,पर इतनी चौंकाने वाली कविता भी उसने लिख दी होगी ,ये मेरे लिए अचरज की बात है..उस पे बहुत प्यार लाड आया है॥

आप से बाँट रहा हूँ॥

मुलाहिजा फरमाएं और इस बालक को दुआएं और आशीर्वाद दें...


अधूरा नहीं छोड़ा करते पहला चुम्बन



अधूरा नहीं छोड़ा करतेपहला चुम्बन,

जब विद्रोह करती हों,

फड़फड़ाती हों

निर्दोष होठों की बाजुएँ

नहीं बना करते अंग्रेज़,

नहीं कुचला करते उनकी इच्छाएँ

सन सत्तावन के गदर की तरह।

ऊपर पंखा चलता है।

आओ नीचे हम

रजनीगन्धा के फूलों से

छुरियाँ बनाकर

काट डालें अपने चेहरे,


तुम मेरा

मैं तुम्हारा

या तुम मेरा,

मैं अपना!सिपाहियों को मिला है

आदेश भीड़ को घेरने का,

बेचारे सिपाहियों ने चला दी हैं

बेचारी छुट्टी भीड़ पर

बेचारी छोटी छोटी गोलियाँ।

फिर मत कहना

कि अपनी मृत्यु का दिन

मालूम होते हुए भी

मैंने नहीं किया था

तुम्हें सावधान कि

तुम अपना खिलंदड़पना छोड़कर

सोच सको

भावुक होने के विकल्प के बारे में भी।

क्या पता

कि अधूरे छूटे हुए पहले चुम्बन

बन जाते हों आखिरी

इसलिए मन न हो, तो भी

अधूरा नहीं छोड़ा करते

किसी का पहला चुम्बन।

नब्बे साल बाद सच होते हैं

मंगल पाण्डे के शाप।

Saturday, June 21, 2008

अपने शहर की याद में...

मेरे दर्द के दरिया पर मिली प्रतिक्रियों से अभिभूत हूँ.कहते हैं बाँटने से दर्द हल्का हो जाता है ,यह हो भी रहा है..उन स्मृतियों की खिड़कियों में झांकना यूँ तो आँख के कोरों को भिगोना ही है पर ये मीठे दर्द की तरह है,ये यादें एक थाती की तरह है,वो शहर वो बचपन....
मेरा वो स्कूल डी ऐ वी स्कूल ..नंवी से बारहवीं तक के चार साल ऐसा स्कूल जहाँ सिर्फ़ लड़के थे..लड़कियों को निहारने को लंबा जाना पड़ता था ,अपनी उस नयी हीरो रेंजर साईकिल पर लड़कियों के स्कूल के रस्ते से होकर जाना..,,विशेषकर सरकारी गर्ल्स स्कूल की बालिका को देखने के लिए एक नुक्कड़(पूर्व मंत्री मरहूम प्रो.केदार के घर का नुक्कड़ ) पर साईकिल पर सवार सवार लगभग ६० डिग्री झुकाकर पाँव नीचे लगाकर चार बजकर अट्ठावन मिनट का इंतज़ार, मैं ये वक्त इसलिए नहीं भूलता कि ये मेरा पहला ' क्रश ' ,या पहला प्यार (!)था...कि शाम की पारी में उसके स्कूल था और मैं अपनी छुट्टी के बाद एक झलक के लिए उस वक्त का इन्तेज़ार करता था,वक्त भी ऐसा कि घड़ी मिला लें ,हालांकि हुआ कुछ भी नहीं -'जो बात दिल में थी दिल में घुट के रह गयी ,उसने पूछा भी नहीं और मैंने बताया भी '.....झलक तक महदूद रही,हिम्मत ही नहीं पडी
जब हिम्मत हुयी तब तक बहुत कुछ बदल चुका था..और चीज़ें दिल की बजाय दिमाग से तय होना शुरू हो गयीं कम से कम उन मोहतरमा की तरफ़ से..तब करारा थपड नुमा जवाब मिला जो उन्होंने अपनी सहेलियों के सामने दिया- 'इन साहब को मैंने तो कह दिया आप भी कह दें कि ज़रा आईना देख लें...फ़िर क्या था रफी के गाने 'तू जिसे चाहे तेरा प्यार उसी का हक है' को गाते हुए जिन्दगी में आगे बढ़ लिए..ये सोचते हुए कि चलो लेखक को अपनी जिन्दगी में सुनाने को किस्सा तो मिल गया.उसके बाद फ़िर वो मोहतरमा मुझे कई साल बाद सादुलपुर चुरू में सवारी गाडी में यात्रा करते हुए मिली ,जो हिसार से आ रही थी , दो बच्चे ,मध्यमवर्गीय जीवन स्थितियों के बीच पसीने से तरबतर ,एकबारगी उसे पहचाना नहीं फ़िर उसकी उन आँखों ने याद दिला दिया...
हालाँकि उसने मुझे नहीं देखा..अच्छा ही हुआ ..मेरा देखने का भाव अलग था..एक मां को देखा जो अपने बच्चे को पानी पिलाने के लिए ट्रेन से उतरी है जल्दी में कि कही ट्रेन ना चल दे , ये दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे वाली यूरोपियन ट्रेन नहीं थी ....
मुझे उस पर इस रूप में देखकर पहले से ज़्यादा प्यार आया...
हम आप अपने शहर को यूँ भी याद कर सकते हैं ,
है ना.....

Monday, June 16, 2008

अपने शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह

आज फिर अपने शहर से लौटा हूँ ,यूं तो पिछले १४ साल से बीच के कुछ अंतराल अगर ना निकालूं तो जयपुर में हूँ पर अपने शहर से कभी अलग नहीं हों पाया ,मेरा शहर यानी गंगानगर यूं तो उस शहर से भी वाबस्तगी कोई बहुत लम्बी नहीं रही ,महज पाँच साल ..उस से पहले यहाँ वहाँ जहाँ पिताजी पढाते वहाँ वहाँ उत्तरी राजस्थान की जिन्दगी के पहलुओं को बचपन की आँख से देखा समझा ,जितना समझ सकता था ,यायावरी शायद तभी से खून में शामिल हों गयी ,
इस बार सिर्फ़ दो दिन के लिए गया आज सुबह लौटा हूँ गालिबन उसी ट्रेवल्स की बस से जिस से १९ जुलाई १९९४ को पहली बार जयपुर आया था ,पर इन १४ सालों में कितना कुछ बदल गया, लोग बदले , सपने बदले, जीने के तौर तरीके बदले॥ और मैं भी बहुत बदल गया नहीं बदली नहीं छूटी तो उस शहर की याद जो शायद अब नोस्टेल्जिया में है और रहेगा, शहर जो अब स्म्रतियों में है , वहाँ वाकई वजूद में नहीं है, जैसे मेरा गाँव और वो तमाम चीज़ें अब उस तरह से नहीं हैं..हालांकि वक्त के साथ चीज़ें बदलती हैं और बदलनी भी चाहिए..ये कहते हैं कुदरत का नियम है ॥ मेरे दादा पंजाब के गाँव पंचकोसी से यहाँ बीकानेर राज में पटवारी होकर आए और यहीं बस गए ..बताते हैं तीन पीढी पहले मेरे पुरखे चुरू के किसी गाँव सोम्सीसर से पंचकोसी गए थे ,ठहराव नहीं है। शायद जिन्दगी रुकने का नाम है भी नहीं ,ये भी संक्रमण का दौर है,मैं फिर नयी ज़मीन की तलाश में हूँ, क्या मिल चुकी है ख़ुद मुझे पता नहीं ,पता है भी तो यकीन नहीं ..
अपने शहर से अपनी आँखों में मां पिता के निरंतर थके से दो चेहरे लाया हूँ ,पंजाबियत की खुशबू वाला शहर है तो गुरदास मान,हरभजन मान के गीतों की एम् पी ३ लाया हूँ ,दोस्त अब वहाँ मिलते नहीं अपनी जिन्दगी में गुम है ,इसलिए उनसे शिकायत भी नहीं ,शिकायत नहीं ये भी शिकायत की वजह हों सकती है ,कि क्यों नहीं है ..ये दर्द का दरिया है..जो अभी बहेगा ॥
गुलाम अली की ग़ज़ल का मत्तला गूंजता रहा -हम तेरे शहर में आए है मुसाफिर की तरह ,पर बदले हुए मिसरे के साथ -
हम अपने शहर में आयें हैं मुसाफिर की तरह....

Tuesday, June 10, 2008

और वो पकडी गई ! ! ! !

चल तो पड़े हो राह को हमवार देखकर !!!

आज ऑफिस के लिए आते वक्त एक हादसा पेश आया ,घर से लगभग १२ किलोमीटर की यात्रा करके ऑफिस पहुँचना रोजाना का काम है, ये यात्रा मेरे लिए हमेशा ख़ास होती है,कितने ही ख्यालों और अनुभूतियों की मोबाईल गवाह। आज जब गोपालपुरा फ्लाई ओवर के ग्रीन लाईट पार कर रहा था, विपरीत दिशा से आती एक सेंट्रो में सवार कन्या को रेड लाईट पार करते हुए पकड़ लिया गया ,आपको लगेगा ये तो होना ही चाहिए इसमें कोनसी बड़ी बात है, जी ,है बिल्कुल है ,मैं यहाँ लिंग असमानता की बात कर रहा हूँ, लडकियां और महिलायें खुश हों,लिंग समानता की बात का केवल एक ही अर्थ महिलाओं के हक में बात करना नहीं हों सकता ।

ये इत्तेफाक भी हों सकता है पर जैसे कई अपवाद मिलकर नियम बन जाते हैं वैसे ये इत्तेफाक भर नहीं है ,कि आज तक मेरे सामने किसी लडकी या महिला का चालान नहीं हुआ ,उन्हें महिला होने का अलिखित फायदा मिल जाता है, दोपहिया वाहन पर तीन लडकियां हों या बिना हेलमेट कोई युवती दौड़ी चली जा रही हो, इन स्वीट बिल्लियों को देखकर ट्रेफिक वालों को कबूतर बनते देखा है,क्या मजाल कि कोई लड़का या पुरूष उनकी नज़रों से बच जाए, उसे अपनी दोपहिया दौडाकर अगली लाईट पर पकड़ने से भी नहीं चूकेंगे॥

मित्रो ये लिंग असमानता आप बहुत जगहों पर मुख्तलिफ फॉर्म में देखेंगे ,पढाने के पेशे में रहा हूँ और अब पत्रकारिता में हूँ ,महसूस किया,सुना है कि डांट का लहजा भी अगर बौस की बात करें तो अलग मिलेगा , सॉफ्ट कॉर्नर कई बार सिर्फ़ कोर्नर ना होकर कमरा हो जाता है.. मसलन बौस अगर एक ही तरह की गलती के लिए डाट ता है तो पुरूष के लिए शब्द कुछ ऐसे होंगे -' ऐ मिस्टर काम करना है तो ढंग से करो ,मेरे सामने ऐसा नहीं चलेगा,ये भूल नहीं ब्लंडर है,कम्पनी ऐसे लोगों को फायर करते देर नहीं लगाती ' और सामने मोहतरमा हों तो -'मेडम ज़रा देख लेते , आप जानती हैं , ऐसे तो मुश्किल हो जायेगी कम्पनी को,मेडम कम्पनी को आपकी जरूरत है, आप बहुत प्रतिभाशाली हैं ,ऐसी भूल आपसे फ़िर कैसे हो जाती है, मेडम थोडा ख्याल रखें' लिहाजा आज ट्रेफिक वाले सज्जन का उन भोली सूरत वाली गोगल में अपनी आँखें छुपाये और चौपहिया में अपने हाथों को प्रदूषण से बचाने को गलव्ज से ढकने वाली कन्या को रोका जाना प्यारा लगा ,छद्म इच्छा मान लें पर ऐसा है तो है ,अगर उसके बाद उसे मुस्कराहट और मीठी मनुहार के बाद बिना चालान के छोड़ दिया गया हो तो भी ..जिसकी बहुत संभावना है ,
आपसे अनुरोध इस लिंग विभेद पर भी नज़र डालें, सोचें...

Tuesday, June 3, 2008

बाजी इश्क की बाजी है


हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

बहुत दोस्तों ने बहुत बार कहा पूछा, टोका, गालियाँ दी कि आखिर मैंने ब्लॉग से उनके शब्दों में 'इतनी खूबसूरत और प्यारी कवितायें ' क्यों हटा दीं जो मेरी अपनी थीं ,आज वही बात कर रहा हूँ , कहना चाह रहा हूँ पता नहीं सही तरीके से कह भी पाउँगा या नहीं ,खैर चलिए ..कोशिश करता हूँ पहला और इतिहास के विद्यार्थी के नाते कहूँ तो तात्कालिक कारण तो ये था कि लगा कि नितांत व्यक्तिगत अनुभूतियों को क्यों ऐसे बाँट रहा हूँ ,हालांकि यहाँ बड़ा विरोधाभास मौजूद है कि अगर उन अनुभूतियों को कविता की शक्ल मिल गयी है तो मुझे क्या अधिकार है उन्हें अपने पास छुपा के रखने का और फिर मैं ये चाहता ही क्यों हूँ ...जिन्दगी विरोधाभासों से लबरेज है कम से कम मेरी तो है ही ...
पर यकीनन ये अकेला कारण नहीं है ,अगरचे मानता हूँ कि ज्यादातर चीज़ें एक कारण पर टिकी होती हैं चाहे बोद्ध और सांख्य दर्शन वाले मुझे दबाके गालियाँ दें पर मुझे लगता है किसीबात को और ज़्यादा मजबूती से जस्टिफाई करने के लिए कई कारण ढूंढें जाते हैं ,मेरे कवितायें हटाने के दूसरे कारणों में है -एक तो ये कि पहले दिन से रचना चोरी का भय रहा है ब्लॉग पर से और वो हुआ भी..मेरी कविता पंक्ति को नारे की तरह इस्तेमाल करना बिना क्रेडिट के बड़ा दुखद लगा ,मैं कोई गालिब तो हूँ नहीं कि कोई गाए -'मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का 'और लोग चिल्ला पड़े अरे ये तो ग़ालिब का है ना याकि क्यों फेंक रहे हों ये तो गालिब का है ,मुझ अदने से आदमी की क्या औकात !
और एक वजह ये समझ में आती है कि ब्लॉग को अपने विचार की भडास का ही माध्यम बनाऊं और क्योंकि बड़े लोग अगर ब्लॉग पर कविता लिखें तो वाह और मुझ जैसे लिखे तो ये कि अगर असफल कवि ब्लॉग पर कवितायें लिख रहें हैं....सस्ती लोकप्रियता के लिए....चाहे इसे मेरा हारना कहें कि उनके कहने पर मैं कवितायें हटा रहा हूँ पर ...मैं जब लोग मुझे हारा हुआ कहते हैं ,चिल्लाकर कहना पसंद करता हूँ कि हाँ हार गया हूँ...कई बार कोई कहे उस से पहले ही ...क्योंकि यही हार मेरी जीत का रास्ता बनाती है ॥
आमीन