Sunday, March 20, 2011

दुनिया से लडे सबके लिए, पर काल से होड हार गए आलोक


मन बहुत, बेहद भारी है, लिखने का मानस ना भी हो तो लिख रहा हूं कि जिसने लिखना सिखाया, और उससे भी बढकर लिखने का हौसला दिया, उस पर लिखना जरूरी है....




'बको, संपादक बको' ये शब्द अब मेरे लिए कभी नहीं होगे. मुख्यधारा की पत्रकारिता में मेरे पहले संपादक जिसने क्या कुछ नहीं सिखाया, आज ये सोचता हूं तो लगता है पत्रकारिता में जो जानता हूं, लिखना सीखा है अगर उसमें से आलोक जी की पाठशाला के पाठ निकाल दूं तो कुछ बचेगा क्या? क्या कहूं उनके लिए ज्यादातर मेरा अपना है, वज्ह ये कि एक दशक से ज्यादा बडे भाई का सा हाथ सिर पे रहा ..एक बार बोले-'' उदास क्यों हो, ब्रेक अप हो गया!'' मैं ने कहा -''हां'' तो जो कहा आज भी याद है - ''और प्यार कर ले, सुप्रिया से पहले दो बार प्यार में हारा था, आज ही पहली प्रेमिका का तबादला करवाया है, परेशान थी.. सो चीअर अप! चल, बियर पीएगा ''.. सीनियर इंडिया के लिए काम करते लिखते वक्त एक बार उन्हें फोन किया (ऐसे ही पूछता था हमेशा उनसे - क्या लिखूं हालात यह है) तो बोले - ''जाफना हूं, किसी ने वादा किया है कि प्रभाकरण से मिलवा देगा'' तो मैंने कहा- ''मुझे ही साथ ले लेते'' तो बोले -''कलेजा है इतना अरे पागल! चलो अगली बार आजमाउंगा '' उनसे जुडे अनंत किस्से हैं, उनके मिजाज का दूसरा पत्रकार होना दुर्लभ है, उनकी इस उर्जा और हौसले का स्रोत ईश्वर ही जानता है .



सोचता हूं किस रूप में याद करूं, जो एक कवि था, अपने मूल में, समय के साथ पत्रकार हो गया जिसने हमेशा सरोकार की पत्रकारिता की जिसका शब्द शब्द जनता की पक्षधारिता का है, टीवी सीरियल लिखे तो मनोरंजन के नए प्रतिमान दिए ..'एक हरा भरा अकाल' और 'पाप के दस्तावेज' जैसी किताबें लिखी, कई अधूरी फिल्मों की पूरी पटकथाएं, रोजाना असंभव लेकिन संभव किस्म का लेखन- गुणवत्ता और मात्रा दोनों में अपनी बेहद खास शैली में लिखने वाले आलोक मेरी नजर में अब भी हिंदी के अकेले वैश्विक पत्रकार हैं, वो प्रिंट का समय था भारत से दाउद का पहला मीडिया इंटरव्यू उन्होनें किया था उन के जैसी क्राइम रिपोर्टिंग आज भी मिसाल है ...डेटलाइन इंडिया में उनके सहयोगी मिलन के मुंह से अनेक बार सुना-' सर कितना पढते हैं, कितना लिखते हैं '..और दोनों की वास्तविक परख कोई भी उनका पाठक कर सकता है...



उनके गुरू प्रभाष जी ने उनके लिए कहा था- '' आलोक एक प्रतिभा का विस्फोट है और ऐसी प्रतिभाएं आत्मविस्फोट से ही कभी समाप्त हो जाती है'' वह आत्मविस्फोट ऐसे कैंसर के रूप में होते हैं, यह अंदाजा नहीं था...प्रभाष जी पर उनसे लिखवाने की गुजारिश का दिन याद है -

''मुझ पे लिखने का वक्त भी आ जाएगा, संपादक, जल्दी ही!''

''बकवास मत कीजिए, बताइए लिख पाएंगे?''

''लिख पाएंगे का क्या मतलब है लिखना है और जरूर लिखना है, मैं नहीं लिखूंगा तो कौन लिखेगा!''

आज उन पर लिखते हुए यही दोहरा रहा हूं- ''मैं नहीं लिखूंगा तो कौन लिखेगा!''

तिहाड मामले के दोरान प्रभाषजी ने जो कागद कोरे लिखा, वह मुझे कभी नहीं भूलता, इससे आलोक जी की भारतीय पत्रकारिता में अहमियत का अंदाजा होता है ..समय के साथ जाना कि पत्रकारिता के बदलते स्वरूप से आहत थे...पत्रकारिता के पतनशील समय में बदलाव के लिए योजना थी और सोच भी पर काल ने उन्हें मोहलत नहीं थी, सरोकार की पत्रकारिता के राडिया की पत्रकारिता होने से वे बहुत आहत थे पर निराश नहीं थे, उन्हें निराशा, टूटा हुआ कभी नहीं पाया, पैगंबर कार्टून मामले में तिहाड जाने पर भी नहीं, मालिकों के असहयोग पर भी नहीं जब मैंने सीनियर इंडिया में काम छोड दिया कि जब मालिक आपसे ऐसे व्यवहार कर सकते हैं तो मैं क्यो जारी रखूं, बहुत नाराज रहे -''जीयोगे कैसे! पागल हो!'' खैर.. वे टूटे नहीं, लडते रहे, तोडते रहे, लोगों को अपने शब्दों से जोडते रहे ,लोग मुग्ध रहे, उनके शब्दों पर और शब्दों पर यूं मोहित होना शायद ही किसी पत्रकार के लिए देखा हो मैंने ...



एक दिन बोले कि तुम मेरा लिखा पढते हो, मैंने कहा- 'आपको संदेह है', बोले-'नहीं,जानना चाहता हूं, क्यों पढते हो? मैंने कहा-'' मेरा स्वार्थ होता है, लिखना सीखता हूं आपका लिखा पढते हुए'' बोले -''बकवास मत करो '', वे दिल से नहीं चाहते थे कि मैं दिल्ली में आकर पत्रकारिता करूं, पिछले दिनों कहा-'' चाहता रहा हूं कि तुम लेखक के तौर पर ही पहचाने जाओ, मैं सलीम खान रहूं, तुम जावेद अख्तर हो जाओ..आखिर शाइर तो तुम ही हो ना..''



भाभी सुप्रिया और भतीजी मिष्टी के लिए यह वक्त कैसा होगा, इसका अंदाजा दुष्कर है, संकेत हो सकता है कि जब तिहाड जाना पडा था उन क्षणों का गवाह रहा हूं, आखिरकार वे मेरे शब्दों मे जिंदा रहेगे, मेरा शब्द-शब्द उनका है, महान लोग कम जीकर सदियों तक करोडों जिंदगियों को रौशन रखते हैं, उन्हें जिंदगी जीने का हौसला देते हैं.कह देना चाहता हूं कि मेरे लिए उनका जाना मेरे अंदर के साहस का चले जाना है, लिखने और जीने का साहस उन्होंने लगातार मुझमें भरा, ऐसा करने वाला मुझे अपने जीवन में कोई दूसरा मिलेगा क्या!



''कम्प्यूटरजी लॉक कर दिया जाए'' लिखने वाले की जिंदगी का यूं लॉक होना मेरे भीतर का कितना कुछ अनलॉक कर रहा है, मेरे शब्दो कुछ देर विराम ले लो, मेरे भाई जान सोने गए हैं, इससे ज्यादा विश्वास नहीं हो रहा है .. अभी मेरा मोबाइल उनके नंबर से कॉल डिसप्ले करेगा, आवाज आएगी - ''बको संपादक''

Tuesday, March 15, 2011

शोध में क्या रखा है !




खबर आई कि जर्मनी की सरकार में रक्षा मंत्री कार्ल थियोडोर त्सु गुटनबर्ग साहब को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। उन पर आर्थिक भ्रष्टाचार या कि यौन दुराचार जैसा कोई आरोप नहीं था, उन पर आरोप यह था कि उन्होने पीएच डी के शोध प्रबंध में नकल की थी।


शोध नहीं बल्कि शोध से प्राप्त होने वाली उपाधि ही सर्वोपरि होती है, किसी को यह भय नहीं सताता कि कभी हमारी आत्मा सवाल करेगी कि क्या तुमने वाकई शोध किया था! कुछ ज्ञान की दुनिया में वाकई इजाफा किया है! या कि कोई हिस्सा अगर गुटनबर्ग साहब की तरह पकड़ा गया तो क्या होगा!


पहले मामले का परिचय दे दिया जाय, उन्होनें 2006 में संविधान और संवैधानिक संधि: अमेरिका और यूरोपीय संघ के देशों के संविधान का विकास विशय पर अपना शोध प्रबंध लिखा था, जिस पर उन्हें 2007 मेे डॉक्टरेट की उपाधि दे दी गई थी और यह पाया गया कि उन्होने कई शोध लेखों का हुबहू इस्तेमाल किया है, गत 21 पफरवरी को उन्होने घो ाणा कर दी थी कि वे अब उस अकादमिक उपाधि का इस्तेमाल नहीं करेगे, दो दिन बाद बायरूथ विवि ने उनकी उपाधि को खारिज कर दिया था। उन पर आरोप है कि उन्होने छ: ऐसे शोध लेखों का इस्तेमाल किया जिन पर कॉपीराइट था। मुछदा इतना उछला कि जर्मनी के 51 हजार डॉक्टरल शोधार्थियों ने इसको लेकर खुला पत्र लिखा था।

ये घटना हमें चौंकाती नहीं है क्योंकि भारत में शोध की स्थितियां और इज्जत बहुत उत्साहजनक नहीं है, शायद ही कोई महफि ल हो जहां पीएचडी की उपाधि को गुणवत्ता के लिहाज से संदेह से ना देखा जाता हो, ये हालात हमारे यहां हमारे ही लोगों की चाही अनचाही गतिविधियों का नतीजा है, क्या वजह है कि समाजविज्ञान और मानविकी के प्राय: शोध हिकारत भरी नजर से देखे जाते हैं, उनमें गुणवत्ता की बात करना ही अपने आप में शोधपरक होता है। कितने ही दोस्तों, सहपाठियों और समकालीनों तथा अगली एकाधिक पीढियों के शोध की प्रक्रिया, सोच और मंतव्यों का गवाह रहा हूं, दुख होता है शोध नहीं बल्कि शोध से प्राप्त होने वाली उपाधि ही सर्वोपरि होती है, किसी को यह भय नहीं सताता कि कभी हमारी आत्मा सवाल करेगी कि क्या तुमने वाकई शोध किया था! कुछ ज्ञान की दुनिया में वाकई इजाफा किया है! या कि कोई हिस्सा अगर गुटनबर्ग साहब की तरह पकड़ा गया तो क्या होगा!

मामला इतना इक तरफा नहीं है, यहां हमें यह भी देखना होगा कि शोध के लिए उत्साहजनक परिस्थितियां देने में क्या हमारे अकादमिक संस्थान नाकामयाब नहीं रहे हैं! हालांकि ऐसा नहीं है कि यह हालात अमेरिका या अन्य विकसित देशों में आदर्श स्तर पर हों, वहां के कई शोधार्थियों के साथ सलाहकारी भूमिका में काम करते हुए जाना कि शोध उपाधि के बाद बेरोजगारी की प्रबल संभावनाओं के बावजूद भी कम से कम शोध उपाधि के समय तो अकादमिक संस्थान शोध के लिए अनुकूल परिस्थितियां बना ही रहे हैं, यहां तर्क यह दिया जा सकता है कि भारत में भी फेलोशिप्स हैं, बहुुत से संस्थान है जो अच्छा काम कर रहे हैं, पर पहली दिक्कत उनके कम होने की है, दूसरे, व्यवहारिक दिक्कतें हैं जो भारतीय परिवेश की दिक्कतें हैं। यह मेरी व्यक्तिगत राय है कि प्राय: संस्थानों को धोखे में रखे जाने की संभावनाएं बहुत हैं।

हम वापिस बडे सवाल गुणवत्ता पर फिर आते हैं, उसके लिए हमें संस्कारित होने की जरूरत महसूस होती है, हम प्राय: ऐसे क्यों संस्कारित होते हैं कि बस डिग्री की अहमियत है, या कुछ भी लिख दिया जाए, थिसिस रिजेक्ट तो होती ही नहीं हैं, जमा करवाने के बाद कौन पूछता है कि आपने क्या लिखा था आदि आदि।

एक तो यह हुआ है कि समाज में वैसे ही प्रबंध और तकनीक की वाजिब बढती अहमियत ने शोध के प्रति उत्साह को कम किया है पर जो करें उनके लिए वाजिब माहौल, वाजिब संस्कार और वाजिब हालात देने का जिम्मा किसका है! महज उच्चशिक्षा को व्यवस्थागत कारणों से गाली देना इस कलमी कवायद का मकसद नहीं हैं, गुटनबर्ग साहब के बहाने से अपने गिरेबां में झााकने और कुछ बेहतर कल की उम्मीद में रास्ता ढूंढने के लिए लालटेन को रौशन करना है।

मुझे हैरानी होती है, हमारे प्रदेश में समाजविज्ञान के अधिकांश शोध प्रबंध प्रकाशन योग्य नहीं होते, हालांकि परीक्षक महावरे के रूप में प्रकाशन की संस्तुति करते हैं, फिर क्या वजह है कि वे ज्ञान की दुनिया की जरूरत नहीं बनती, इसीलिए कोई प्रकाशक उन्हें प्रकाशित करेन का हौसला नहीं दिखाता! और मार्के की बात यह भी कि कोई डॉक्टरेट होल्डर इसलिए प्रकाशित नहीं करवाना चाहता कि इससे ज्ञान की दुनिया का भला होगा इजाफा होगा, बल्कि महज इसलिए कि प्रकाशित शोधप्रबंध किसी विवि में प्रध्यापक की नौकरी में मदद करेगा। हालाकि मुझे यह भी लगता है कि अच्छे प्रकाशक या किसी भी प्रकाशक से उसे छपवाने की कोशिश इसलिए भी शायद ना होती हो कि गुटनबर्ग साहब की तरह कुछ गड़बड़ भी हो सकती है।

अपने कई प्राध्यापक साथियों को मैं बुरा लगता हूं जब उन्हें कहता हूं कि इस पर शोध पत्र केवल इसलिए मत लिखिए कि इस विषय को तो हम जानते ही हैं और सेमिनार में पर्चा पढने का एक और सर्टिफिकेट मिल जाएगा, जब तक कि आपके शोध का विषय नहीं है और उसमे भी कुछ नया विचार या तथ्य हम नहीं दे पा रहे हैं तो। अकसर डांट और फटकार साथ में मिलती है मुझे, अपना काम करो, ज्ञान मत दो भाई।

इंशाल्लाह मेरा यह भ्रम कायम रहे कि अब भी कुछ शोध निर्देशक हैं जो उपाधि के दौरान शोधार्थी से कोई तोहफा नहीं लेते, अब भी कुछ शोध प्रबंध परीक्षक हैं जो वायवा के लिए आते हुए तोहफे के अलावा आने जाने का व्यय विवि और शोधार्थी दोनों से नहीं वसूलते।

एक तरफ तमाम उपाधियां मूल्यहीन हो रही हैं, अगर वे धनोपार्जन में सहयोगी नहीं है तो बेकार है, सोच को सुलझााने और बेहतर बनाने वाली किसी उपाधि को अनपाने की आज करिअर काउंसलर भूल के भी सलाह नहीं देता। मुझे खुशी है कि कुछ लोगों को वहम है कि नाम के आगे डॉक्टर लगाना गौरवपूर्ण है, अरे लोगो! मुझे चिकोटी काटो, यकीन नहीं हो रहा है, जबकि अंतत: विचार और ज्ञान की दुनिया में अहमियत उपाधि की नहीं नए विचार और ज्ञान के बेहतर इस्तेमाल की है। ऐसे वक्त ज्ञान का अर्थ धन कमाने की विधियां और कौशल ही रह गया हो और नए विचार का अर्थ धन कमाने के नए तरीकों से हो गया हो, नाम के आगे डॉक्टर लगाने की ऐसी मासूम शरारतें लोग क्यों करते हैं साहब! ये तो अंतत: यह जाहिर करेगी कि सबसे निठल्ला आदमी ही डॉक्टर होगा जिसे धन वैभव और सुख के साधनों से इतर केवल ज्ञान की बात और विचार सुख दे रहे हैं! संभव है शोध और उपाधियों का यह हाल पूरी दुनिया में ऐसा ही हो, खुदा ना करे कि ऐसा ही हो, ऐसा सुनने से पहले मेरे कान बहरे हो जाएं!

खैर, गुटनबर्ग साहब तो केवल एक नाम है, बेचारे नाहक बदनाम हुए हैं! ये तो शायद एक वैश्विक परंपरा का हिस्सा भर हैं, तो जश्न मनाएं कि शोध में नया शोध हो रहा है, शोध के नए आयाम सामने आ रहे हैं। वैसे शोध में क्या रखा है, कमाने के नए तरीके सोचिए, शोध तो फालतू लोगों का काम है। इसलिए मेरा अनुरोध है कि गुटनबर्ग साहब को माफ कर देना हमारा वैश्विक कर्तव्य है।

Wednesday, March 2, 2011

नाशुकरे की कुबूलियत



श्रीगंगानगर के मुशाइरे में पढी मेरी इस नज्म को बहुत प्यार मिला मुलाहिजा फरमाएं


मैं भी देखो किन अफवाहों में फंस गया हूं
गया जो एक रोज गांव अपने
दूर तक साथ कौन था कोई नहीं था
आधी रात कुंडा खडकाने वाला भी कोई नहीं था
कुछ सरकंडे थे,
कुछ तंगलियां थी
कुछ बियाबान खेत थे,
टूटी हुई कोठे की जंगलियां थी
सरहद के इस पार मगर साठ साल का इतिहास था
हरेक लम्हा पानी के लिए गोली खाके मरे किसानों की प्यास था
कुछ जिस्मों के कुप्पे थे जिनमें तूडी नहीं थी अबके सालों में
अब खेत में किसी मोगे पर बैठके बीडी और
गुवाड में मुडडे पर बैठकर होका पीने का सुकून नहीं था
कस्सी मांग कर खेत में पानी लगाने का भी मन नहीं था
कारीगरों के घर से बास्ते मांगकर चूल्हा जलाने का मन नहीं था
इन सालों में
गांव में सरदारों के अकेले घर के लोग छोड गए थे गांव
और चुनाव पंचायत के कई बार तोड गए थे गांव

पता नहीं
किस किस मामूली बात पर आपस में लड गया था गांव
कितनी ही बार बेमतलब अपने ही बुजुर्गो से अड गया था गांव
बरसों पहले ही मधानी में तरेड आ गई थी
खडवंजे लगे तो गांव कई मुल्कों में बंट गया
सरहदें बन गईं गलियां और चोबारों से मिसाइलें भी बेसाख्ता चलने लगीं
गांव की पाक मटटी कहीं गांव में खो गई, रूल गई

गली गुजरती औरत को बाई, बेबे, काकी और ताई कहने को तरस गया हूं मैं
फिर भी झूठ कह रहा हूं कि दूर शहर में बस गया हूं मैं।
किन अफवाहों में फंस गया हूं मैं
ये सारी सच्ची अफवाहें हैं
मैं एक झूठा नाशुकरा हूं
अभी अभी जयपुर की बस से उतरा हूं।