Friday, December 21, 2007

आलोक श्रीवास्तव


सच्चा शायर


कुछ समय पहले आलोक श्रीवास्तव नाम के ग़ज़लकार से रूबरू कराया था. याद करें- बाबूजी ग़ज़ल के हवाले से बचपन पर बात हुई थी. आज आलोक श्रीवास्तव और उनके पहले, ग़ज़ल संग्रह 'आमीन' की बात करूंगा. आलोक जितने प्यारे और सच्चे शायर हैं उतने ही प्यारे इंसान भी हैं. सच कहूं तो उनसे मिलने के बाद मेरे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो गया कि आलोक शायर ज़्यादा अच्छे हैं या इंसान. बहरहाल मैं इस जद्दोजहद से खुद को आजाद करता हूँ. क्योंकि 'आमीन' मंज़रे-आम पर है जिसमें सिमटा कलाम आलोक की उम्र से आगे की बात करता है.
अपनी उम्र के दूसरे ग़ज़लकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय इस शायर की रचनाएं साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में अर्से से शाया हो रही हैं. यहां, मुलाहिजा फरमाएं आलोक की सबसे ज़्यादा पढ़ी और गुनगुनाई जाने वाली अम्मा ग़ज़ल के चंद शेर-


चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र, पर छाई अम्मा,
सारे घर का शोर शराबा सूनापन तन्हाई अम्मा।

बाबूजी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुई, तब
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई- अम्मा।

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे,
चुपके चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा।
आलोक नज्में, गीत और दोहे भी इतनी ही महारत से कहते हैं, मुझे हैरानी यह होती है कि आलोक कितनी ख़ूबसूरती और सादगी से ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयां करते हैं. वो रिश्तों को केज़ुअली नहीं लेते बल्कि उसके हर पहलू को ताक़त बनाते हैं जिससे ज़िंदगी रोशन होती नज़र आती है, बजाहिर आलोक उम्मीद के शायर हैं, उनके क़लम में ज़िंदगी की धड़कन है और वो भी सौ फ़ीसदी पोज़िटिव-
मैं ये बर्फ़ का घर पिघलने न दूंगा,
वो बेशक करें धूप लाने की बातें.
अगर आप हिंदुस्तान के नौजवान लहजे की अच्छी शायरी पढ़ने का शौक़ रखते हैं तो आमीन ज़रूर पढ़ें. शायरी नहीं पढ़ते तब तो आमीन और भी पढ़ें, मेरा दावा है कि आप शायरी को अपनी ज़िंदगी में शामिल किये बिना नहीं रह पाएंगे, 'आमीन' नाम की यह ख़ूबसूरत किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, और पुस्तक पर कमलेश्वर और गुलज़ार की भूमिका इस बात का सबूत हैं कि आपने जो किताब उठाई है, वो एक अच्छे और सच्चे नौजवान शायर का दीवान है.

Friday, December 7, 2007

मैंने तसलीमा को देखा है- तीन




तसलीमा जी कह रही थीं कि कुछ पुरुष स्त्रियों का शोषण करते हैं और उसे सिर्फ उपभोग कि वस्तु यानी सेक्सुअल ऑब्जेक्ट मानते हैं ,कुछ लोग उन्हें समान मानते हैं ,मानव के रुप में व्यवहार करते हैं, दोस्ती का व्यवहार करते हैं.इस तरह एक ही समाज में हमें कई मानसिकताएं दिखाई देती हैं.इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि पुरूष ऐसे हैं या वैसे हैं .मुझे कुछ अच्छे पुरुष मित्र मिले हैं , वो भी मेरी तरह स्त्री अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, पर एक कड़वा सच है कि सदियों से चली आ रही पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था को इतनी सरलता से और शीघ्र समाप्त नहीं किया जा सकता,यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति वैचारिक तौर पर कितना स्पष्ट है और उसने कैसी शिक्षा प्राप्त की है, शिक्षा से मेरा तात्पर्य यहाँ किताबी शिक्षा से नहीं है ,स्वशिक्षा से है .मेरी नज़र में स्त्री और पुरुष दोनो को समानता के लिए प्रयास करने चाहिऐ ।
मैंने उनसे पूछा कि अगर तसलीमा से कहा जाये तो वह अपने जीवन का पुनर्लेखन कैसे करना चाहेंगी? तो उनका जवाब था कि बस मैंने जिया,समस्याएं झेलीं,मुझे अच्छे बुरे अनुभव हुए ,दोस्त मिले,फतवे मिले ,धमकियां मिलीं, .लिखने के कारण मुझसे कुछ लोग प्यार करते हैं तो कुछ नफ़रत भी करते हैं। जो मैंने अपने जीवन में किया मुझे उसका कोई अफ़सोस नहीं है .मैं महिला अधिकारों के लिए लिख रही थी ,लड़ रही थी,उसी वक्त मेरी माँ पीड़ित रही,मैं उनके दर्द को नहीं समझ पाई,उनकी देखभाल नही कर पाई,अगर री राईट कर पाती तो उनकी मदद करती,उनका ज्यादा सम्मान करती ।इस वक्त वो लगभग रूआसी हों गयी थीं,उन्होने पानी पीया ।
भाई दिनेश ने पूछा लज्जा से आज तक तसलीमा में क्या बदलाव आये? उनका जवाब ये था कि मैं बहुत परिपक्व हुयी हूँ ,शुरू से हीई कट्टरपन के खिलाफ थी, अब ये सोचती हूँ कि ये सब अब भी क्यों है,ये क्यों बढ़ रहा है?अब समस्याओं को ज्यादा गहराई से देख रही हूँ.अब गुस्सा नहीं आता, शांत हूँ,पहले चिल्लाती थी .अब मेरे लेखन में ज्यादा गहराई आयी है।
अब दिनेश भाई फॉर्म में आ गए थे ,शुरू में थोडा हिचकिचा रहे थे ,अगला सवाल भी उन्होने ही दागा -लेखन के अलावा क्या करती हैं? बोलीं -पढ़ती हूँ ,पेंटिंग्स बनाती हूँ ,दोस्तों से चैट करती हूँ,घूमती हूँ,लेखन एक मात्र काम नही है मेरा ।
दिनेश जी अगला सवाल उनके पसंदीदा लेखकों को लेकर था, जिसके जवाब में उनका कहना था कि बंगाली में शोमती चटोपाध्याय और कुछ युवा लेखक भी ,जबकि गोर्की ,लियो तोल्स्तोय ,ग्राहम ग्रीन और कुछ भारतीय लेखक।
अब तस्लीमाजी से हमने पूछा कि आप कैसी दुनिया का सपना देखती हैं? वो जैसे शून्यमें झाँकने लगीं ,फिर बोलीं-ऐसी सुन्दर दुनिया जहाँ महिलाएं अत्याचार और उत्पीडन से मुक्त हों,समाज धर्मनिरपेक्ष हों,सब में मानवता और प्रेम हों,सबको बिना लिंगभेद समान रुप से आगे बढ़ने के अवसर मिले.हर लेखक की अपनी दुनिया होती है,एक वो जिसमे वो जीता है,दूसरी वो जिसका वो सपना देखता है, ये मेरी वो दुनिया है जिसका सपना देखती हूँ। फ़िर उनकी पिछली और आगामी किताबों के बारे में उनसे बातें हुईं ,तकरीबन घंटा भर का साथ न भूलने लायक।
आज वो जिस पीडा में हैं , वो साथ ज्यादा याद आ रहा है ,मेरे मित्रों को ये तकलीफ है कि उन्होने किताब से वो हिस्सा हटाने की घोषणा की ,उनके मन में तसलीमा जी के प्रति सम्मान मे कमी आ गयी है, जबकि मुझे ख़ुद पे शर्म आयी कि मैं उस व्यवस्था का हिस्सा हूँ जिसने तसलीमा जी को विवश किया इस के लिए ,खैर अपना अपना नजरिया है.

Tuesday, December 4, 2007

एक अर्ज़

तसलीमा जी से हुई मुलाक़ात आपसे पूरी नहीं बाँट पाया हूँ,माफी चाहता हूँ क्या करूं कुछ तो अखबारी नोकरी और ऊपर से आतीहुई सर्दी, तबियत थोडी नासाज़ है,जल्द बाँट रहा हूँ ,मुझे पता है कुछ दोस्त बेसब्री से इंतज़ार में हैं जैसे भाई गौरव और श्वेत जी,पुनः क्षमा याचना के साथ प्यार बनाए रखें

Wednesday, November 28, 2007

मैंने तसलीमा को देखा है -दो


तसलीमा जी कि बात उस दिन अधूरी रह गयी थी , हाँ तो मैं उस मुलाक़ात को आपसे बाँट रहा था , अपने मित्र डॉ दिनेश चारन के साथ मैं उनसे मुखातिब था ,कुछ व्यक्तिगत बातें हुईं . उन्होने हमारे बारे में पूछा फिर हम ने पहला सवाल पूछा , कि उन्हें लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है , (बताता चलूँ पहले मैंने हिन्दी में बात की , फिर उन्हें असहज पाया तो अंगरेजी में बात करना मुनासिब समझा , लिहाजा ये अनुवाद है उनसे हुयी बात का)


उनका जवाब था कि मानव उसके दर्द उसकी खुशियाँ ही मुझे लिखने को प्रेरित करती हैं, बहुत छोटा सा पर मुक्काम्मक सा जवाब उन्होने मेरे हाथ पे रख दिया था।


मैंने जिज्ञासा रखी कि कि स्त्री विमर्श और फेमिनिज्म कि बात कब तक करते रहेंगे? वे थोडा रुकीं , सोचने लगीं और फिर बोलीं-जब तक महिलाओं के साथ समान व्यवहार व न्याय नहीं होगा तब तक.मुझे लगता है कई बार महिलाओं को कुछ समानता मिलती है पर वो प्रयाप्त नहीं है.सौ प्रतिशत समानता हर स्तर पर, जीवन के क्षेत्र में जब तक नहीं हों पायेगी, तब तक स्त्री विमर्श का प्रश्न बना रहेगा ।


हमने पूछा कि क्या आप मानती हैं महिलाओं के बारे में किसी महिला का ही लेखन अधिक प्रभावशाली व प्रमाणिक हों सकता है?


तो वे कहती हैं कि हाँ मैं ऐसा ही सोचती हूँ ,कुछ पुरुषों ने महिलाओं के दर्द और पीडा को लिखने के प्रयास किये हैं परन्तु वे केवल बाहरी तौर पर ही देख समझ और लिख पाते हैं,इसी कारण उनके लिखने मी एक गेप बना रहता है।


एक बहुत सहज जिज्ञासा थी मेरी कि उनसे पूछूं वे समग्रता पुरुष को कैसे देखती हैं ?? उनसे हिम्मत करके पूछ लिया तो बोलीं देखिए दुष्यंत सामान्यीकरण तो संभव नही है ,कुछ पुरुष अधिकारवादी होते हैं क्योंकि वे पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था कि उपज हैं ,और वे उसमे गहरा विश्वास रखते हैं,वे मानते हैं कि उन्हें स्त्री को दबाने का पूरा अधिकार है.वे अपने को श्रेष्ठ मानते हैं,

Saturday, November 24, 2007

मैंने तसलीमा को देखा है-एक


तसलीमा जी ,येही कहना ठीक लग रहा है ,वरना दुनिया सिर्फ तसलीमा कहती है चाहे उनमे आलोचक हों या समर्थक या प्रशंसक .वो मेरे शहर जयपुर में आयी और बेआबरू होकर उन्हें यहाँ से रूखसत होना पडा ,जिस शहर के साथ लगभग पिछ्ले डेढ़ दशक से वाबस्ता हूँ , इस शहर से बेपनाह मुहब्बत भी करता हूँ शायद इतनी कि कोई अपने महबूब से भी क्या करे , पहली बार शर्मिन्दगी महसूस हुई ,तसलीमा को अरसे से पसंद करता हूँ , गाहे बगाहे थोडा बहुत पढा भी है उनका लिखा ।

कोई साल भर गुजरा होगा इसी शहर में वो आयी थीं , प्रभा दीदी यानी प्रभा खेतान के बेटे संदीप भूतोरिया उन्हें लाये थे , किसी शिक्षा से जुडे कार्यक्रम की लौन्चिंग पर ,प्रभा दीदी से बात हुई , संदीप जी का मोबाइल नंबर लिया और अपनी प्रिय लेखिका से मिलने के सपने बुन ने लगा था ,पत्रिका की वर्षा जी ने मोका दिया कि उनके लिए तसलीमा साक्षात्कार कर लूं ,ह्रदय से आभारी हूँ उनका ,खैर राजपूताना शेरेटन की लोबी में उनसे मिला , बेहद सौम्य ,मृदु भाषी ,चेहरे पे बंगाली तेज प्रबुद्ध्ता ,शायद पर्पल कलर की साडी में थीं वो , उनकी वो भंगिमा आज भी स्मरति पर अंकित है ,एक बारगी विश्वास नही हुआ मैं तसलीमा नसरीन के साथ हूँ , उन्होने जैसे ही हाथ आगे बढाया ,उस हाथ की छुअन ने विश्वास करने का आधार दिया मुझे , उनसे हुयी मुलाक़ात कल आपसे शेयर करूंगा

Friday, November 9, 2007

कुछ दिल से

सपनो की हसीं दुनिया कहीं न कहीं एक अँधा कुंवा होती है ,
अपने होंसलों और क्षमताओं से बढ़कर सपने भी गुनाह नहीं होते क्या ?
सपनों के इस ब्लैक होल में मुमकिन है कितना कुछ
समा जाये -सुख,चैन, नींद,रिश्ते ..... और भी बहुत कुछ ,
जब हम वक्त के साथ बीते गुजरे पर तन्हाई में नज़र सानी करते हैं तो
हाथों से फिसलती रेत दिखती है ,जो आँखों के कोरों को चुपचाप भिगो जाती है
फिर हम चुपके से अपने आँखों को इसे सुखाते हैं जैसे कोई देख भी ले तो लगे
जैसे आंख मेकुछ में कुछ गिर गया था जिसे निकाल रहे हैं
दरअसल ये करते हुए हम खुद को धोखा दे रहे होते हैं.

Tuesday, November 6, 2007

एक ताज़ा पढी किताब पर कुछ नोट्स


एंटीगनी (ग्रीक नाटक)
द्वारा सोफोक्लीज़
अनुवाद रणवीर सिंह
पंचशील प्रकाशन, जयपुर,
अस्सी रुपये,
पृ 52, 2007
जिस सूचना क्रांति या कहें सूचना विस्फोट के युग में हम जी रहे हैं वहाँ थियेटर की भूमिका बहस का मुद्दा हो सकती है पर जब तक जीवनधारा प्रवाहित है, कलाओं की अहमियत में इजाफा ही होना है और थियेटर भीकतई इसका अपवाद नहीं है। रंगकर्मी जेड़ी अश्वथामा के शब्द याद आतें हैं जब वो कहते हैं कि ''थियेटर सिनेमा और टीवी से अलग विधा है। आज जब हम टीवी और सिनेमा के युग में जी रहे हैं तो थियेटर की भूमिका और जरूरत टीवी और सिनेमा से अनेक समानताओं के बावजूद एक अलग और महत्वपूर्ण स्तर पर कायम है।'' यूनान को दुनिया में थियेटर के जनक देशों में एक माना जाता है और सोफोक्लीज (496-406 ईपू) ग्रीक थियेटर का दूसरा महान नाटककार था, उसके सौ नाटकों में से संप्रति सात ही मौजूद है - अजैक्स, एंटीगनी, इडिपस दी रेक्स, फिलोसटेटिस, एलेक्ट्रा, वीमन एट ट्राचिस, इडिपस एट कोलोनस। उसके अधिकांश नाटक मनुष्य और उसकी नियति के संघर्ष को प्रस्तुत करते हैं। कितना खूबसूरत और दिलफरेब विरोधाभास है कि उसके पात्र पराजय में विजयी होते हैं, विजय में पराजित होते है, पर उसकी समस्त संघर्ष प्रक्रिया सोद्देश्य है हर पात्र जीवनस्थितियोको परिवर्तित करने को उद्यत है। एन्टीगनी उसी यूरोप की धरती से निकल कर आया नाटक है जहां थियेटर, पुन: जेड़ी क़े शब्दों में कहूं तो 'लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा है, वहां के लोगों की आदत में शुमार है, उनकी एक हसीन शाम का जरूरी हिस्सा है।'
वरिष्ठ रंगकर्मी रणवीर सिंह द्वारा सद्य: अनूदित सोफोक्लीज का नाटकएंटीगनी सोफोक्लीज और ग्रीक थियेटर के साथ मानवीय संघर्ष को चर्चा के केन्द्र में लाने का प्रयास है। एंटीगनी स्त्री पात्र है और वह जन अधिकारों के लिए लड़ने में अपना सर्वस्त्र बलिदान कर देती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, स्त्री विमर्श, वैयक्तिक अस्तित्व जैसे विचार बिन्दु एंटीगनी के माध्यम से रणवीर सिंह हमारे सामने रखते हैं क्योंकि जनता और सत्ता के बीच टकराहट और उसकी बुलंद आवाज का नाम है एंटीगनी। सत्ता को चुनौती और मनुष्य की जीजिविषा का जीवंत दस्तावेज बन जाता है एंटीगनी। ऐसी सशक्त कथा और शिल्प सोफोक्लीज की थियेटर और कला जगत को अनुपम देन है। कहना न होगा कि ऐसी कृति को हिन्दी पाठकों विशेषकर थियेटर जगत के बीच लाने का रणवीर सिंह का ये कदम इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि महान कृतियों को भाषाओं के दायरे में कैद नहीं रहने दिया जाना चाहिए। एक महत्वपूर्ण बात इस अनूदित नाटक की यह भी है कि अनुवाद की भाषा हिन्दी ना होकर हिन्दुस्तानी यानी हिन्दी उर्दू मिश्रित है जो परिवेश को पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने में एक ताकत के रूप में सामने आई है। पुस्तक की भूमिका के रूप में ग्रीक थियेटर और नाटककारों पर लम्बी टिप्पणी ने पुस्तक को विद्यार्थियों के लिए अत्यन्त उपादेय बना दिया है।
उम्मीद करनी चाहिए कि एंटीगनी के माध्यम से सोफोक्लीज का ये कथन 'समझ नहीं आता कि समझदार भी समझ से काम नहीं लेते', समझदार लोगों तक पहुंच जाए। ये अनुवाद रणवीर सिंह को थियेटर एकेडमिशियन रूप में पुरजोर तरीके से स्थापित करता है, लिहाजा उनकी जिम्मेदारी बढ़नी तय है। उनके ऐसे कदम निश्चय ही गम्भीर और सार्थक थियेटर के लिए मील का पत्थर बनेगें।

( ये नोट्स दरअसल इन्द्रधनुषइंडिया डॉट ओआरजी पर उपलब्ध मेरी पुस्तक समीक्षा है ,वहाँ से साभार लिया है पर बिना डॉ दुर्गा प्रसाद जी अग्रवाल की इजाजत के ,ये मेरा दुस्साहस ही मानें )

Thursday, October 25, 2007

फैज़ की नज्म

फैज़ अहमद फैज़ हमारे वक़्त के बहुत बडे और मुत्बर शायर हैं , उनकी नज्में भी उतनी ही खूबसूरत और मानीखेज है जितनी गज़लें , आपसे उनकी एक नज्म शेयर कर रहा हूँ-

वो लोग बहुत खुश किस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया

काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा

फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनो को अधूरा छोड़ दिया

Tuesday, October 23, 2007

बचपन




आज
नीलिमा जी का बचपन पर लिखा ब्लोग पढा ,
बहुत कुछ याद आगया, सबसे ज्यादा बचपन में पापा कैसे थे , माँ का दुलार ,
इसी तरह उन यादों में खोये हुए बहूत दूर निकल आया ,
फिर विदिशा में रहने वाले मित्र शायर आलोक श्रीवास्तव की ग़ज़ल
याद आयी जिसे आपसे बाँट रहा हूँ-

घर की बुनियादें ,दीवारें, बामो दर थे बाबूजी
सब को बंधे रखने वाला ,खास हुनर थे बाबूजी

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्माजी की साड़ी सज धज सब जेवर थे बाबूजी

तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था
अच्छे खासे ऊँचे पूरे कद्दावर थे बाबूजी

भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग ,अनूठा अन्बूझा सा इक तेवर थे बाबूजी

कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस,आधा दर थे बाबूजी




Friday, October 19, 2007

एक ग़ज़ल के दो शेर

जगजीत सिंह की गाई एक ग़ज़ल के दो शेर इन दिनों
मेरे जेहन पर तारी हैं, सोचता हूँ , आपसे बाँट लूं ,
ग़ज़ल किस शायर की हैं, अभी ध्यान नही है ,आपको
याद आये तो ज़रूर बताईयेगा

समझते थे मगर फ़िर भी न राखी दूरियां हमने
चरागों को जलाने में जलाली उंगलियाँ हमने

कोई तितली हमारे पास आती भी तो क्या आती
सजाये तमाम उम्र कागज़ के फूल और पत्तियां हमने



Saturday, October 13, 2007

एक प्यारी सी ग़ज़ल

बशीर बद्र की एक ग़ज़ल आपकी नज़र

यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हों
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न
हों

वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हों
* सिफ़त: योग्यता

बाजुओं में थकी-थकी, अभी मह्व-ए-ख़्वाब है चाँदनी
उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न
हों

कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ-साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

Thursday, October 11, 2007

ब्लॉगर नीलिमा जी से मुलाक़ात

कल भयंकर वाली ब्लॉगर नीलिमा जी से मिला ,ब्लोग के बारे मे जाना, पूछा, कापी राईट के संकट पे लगभग हम दोनो ही सहमत थे कि रचनात्मक रचनाएं जैसे कविता ,कहानी, ग़ज़ल चोरी हो सकती हैं , उनका दुरूपयोग भी संभव है,इसका कोई ना कोई समाधान निकलना ही चाहिऐ, मैं तो खैर नया ब्लॉगर , आप सब से गुजारिश है इस मुद्दे पे बात होनी चाहिऐ और खुल कर हो जिस से ब्लोग्स की दुनिया की खूबसूरती बढ़े ,उस पर कोई दाग ना नुमायां हो