Saturday, October 3, 2009

मैं भी जाने वाला हूं, मुझ पर किससे लिखवाओगे -हरीश भादानी


शुक्रवार की सुबह अखबार से पहले एसएमएस से एक दुखद खबर आई। एक पहाड़ सा विराट व्यक्तित्व, बच्चे सी कोमलता, सहजता और सरलता, चट्टान सी वैचारिक दृढ़ता वाला और खुद अपने ही शब्दों में 'कलम का कामगार' नहीं रहा। कवि-गीतकार हरीश भादानी की देह शांत होने के बाद मैं याद करता हूं-लगभग एक दशक के परिचय में उनसे किये तीन साक्षात्कार, बीकानेर प्रवास के दौरान दर्जन भर मुलाकातें और कोई पचासेक बार फोन पर बात, मैं याद करता हूं- आखिरी बार जयपुर के प्रेस क्लब में जनवादी लेखक संघ के एक साहित्यिक आयोजन में द्वार पर घुसते ही एक तरफ आयोजक के रूप में, सफेद कुर्ते और ग्रे पेंट में प्लास्टिक की कुर्सी पर सहज रूप से बैठे दद्दू को, जो नाम सबसे पहली मुलाकात में उनके लिए भाई प्रमोद कुमार शर्मा ने मुझे सौंपा था, मेरी जुबान पर सिर्फ उनके लिए ही आरक्षित है। मेरे उन तीन साक्षात्कारों में एक हमलोग में ही छपा था। उन्हें राजस्थान का बच्चन यूं ही नहीं कहा गया, सत्तर और अस्सी के दशक में उनके गीतों की धूम थी। उस समय के सुने उनके गीत आज भी लोगों के कंठ में हैं। घोषित मार्क्‍सवादी कवि का वैचारिक पक्ष उनके गीतोंों में उभरता है.. एक गीत जो उनकी पहचान के रूप में आज भी याद किया जाता है, की कुछ पंक्तियां देखिए-

रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे

भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण
तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले
दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है।

उनका जाना कंठ और शब्द के मसीहा का जाना है, उनका एक प्रसिद्ध गीत देखिए-

मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों, दफ्तरों को
रात के मुर्दे, देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के/ ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढऩे बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!

वो हिंदी के विरले और शीर्षस्थ कवि तथा लोकप्रिय गीतकार थे, यह सर्वज्ञात है, राजस्थानी के प्रबल समर्थक रचनाकार भी थे, बकौल भाई सत्यनारायण सोनी, वे राजस्थानी को दूसरी राजभाषा बनाने की आवाज उठाने वाले पहले व्यक्ति थे। उनके शब्द याद करूं तो वो कहते थे-मेरे पास कवि होने और पढऩे के अलावा कोई रास्ता नहीं था, पढऩे ने वैचारिक दृष्टि दी और खुद को रैशनलाइज करना भी उससे आया। इसी तरह मैं उनका यह कहना भी कभी नहीं भूलता कि- जो जिया उससे संतुष्टि है, हालांकि खोया बहुत पर जो पाया वो खोने पर भारी रहा, खोयी भौतिक संपति तो पाए मानवीय संबंध ।

वे कविता कर्म को अपने पालक भत्तमाल जोशी के कथनानुसार 'हियै में कांगसी करणो हुवै' मानते थे। इस दृष्टि से भी अनूठे थे कि वे सिर्फ कवि थे, सिर्फ और सिर्फ कवि होकर जी पाना यह सिद्ध करता है कि उन्होंने कविता को रचा ही नहीं, कविता को जिया भी। यह लोकप्रिय मुहावरे की तरह नहीं कह रहा हूं, जिसे आजकल हर कवि की प्रशंसा में कह दिया जाता है, जो लोग उन्हें जानते हैं, मेेरी इस बात की तस्दीक कर सकते हैं। उनके लिए कविता मनोरंजन या आभिजात्य विलासिता नहीं थी, अनिवार्य जीवन कर्म थी। राजस्थान की माटी से निपजे ऐेसे विरले शब्दशिल्पी जिसने इलाहाबाद, दिल्ली और भोपाल के कुछ साहित्यिक लोगों के मिथ्या दर्प और तथाकथित एकाधिपत्य का सार्थक व सफल भंजन किया था, का जाना दुखद तो है, पर उनकी शाब्दिक उपस्थिति हमें गौरवान्वित करती रहेगी।

सालभर पहले हमलोग के लिए जब मैंने कन्हैयालाल सेठिया पर श्रद्धांजलि लेख लिखने को कहा, तो वे कोलकाता ही थे, उन्होंने मुझसे पूछा था-मैं भी जाने वाला हूं, मुझ पर किससे लिखवाओगे। मैंने कहा था-दादा, आप कैसी बात करते हो।
उनकी स्मृति को प्रणाम।