ये पुस्तक समीक्षा कतई नहीं है न ही व्यक्ति परिचय है, किताब के बहाने व्यक्ति और व्यक्ति के बहाने किताब पर भी बात नहीं है। सच पूछें तो इन दिनों एक किताब ने नींद हराम कर रखी है, किताब है झुरावौ जिसका शाब्दिक अर्थ है विलाप, और मैं सचमुच विलाप की अवस्था में हूं। एक इतिहास का विद्यार्थी एक अल्पज्ञात से ऐतिहासिक प्रसंग को जब साहित्य में जीवंत देखता है तो शायद ऐसा ही होता हो । ऐसी ही अनुभूति मुझे कुछ बरस पहले झारखंड मे रहने वाले राकेश कुमार सिंह के उपन्यास जो इतिहास में नहीं है से गुजरते हुए भी हुई थी जिसे उसके बाद जामिया मिलिया से जुड़े रहे इतिहासकार सुधीर चन्द्र ने मुझसे अनौपचारिक बातचीत में कुछ यूं बयां किया था कि साहित्य में नामों के अलावा सब सच होता है और एक हद तक इतिहास में केवल नाम॥।
झुरावौ राजस्थानी और हिन्दी के जाने माने लेखक चन्द्रप्रकाश देवल की कविता कृति है। इसमें आउवा में विक्रमी संवत 1643 यानी 1586 ईस्वी में हुए जिस धरने को केंद्र में रखकर कवितायें रची हैं वो दरअसल सामंतवाद के खिलाफ आत्मसम्मान और प्रतिकार का प्रतीक है, और जिसे गांधी के सत्याग्रहों और बिजोलिया के सत्याग्रह की पूर्व पीठिका के रूप में देखा जा सकता है। ऐसा नहीं कि ये धरना इतिहास में अज्ञात है। सूर्यमल्ल मिश्रण, श्यामलदास, विश्वेश्वरनाथ रेउ, मुहता नैणसी इस घटना से परिचित हैं पर इसे मानवीय संवेदना की उंचाइयों तक झुरावौ ही पहुंचाती है अचम्भित करने की हद तक। ये इस घटना का जादू है, उस संवेदना का भी जिसने धरने की पृष्ठभूमि रची और अंतत कवि के कवित्व का भी। पहली कविता मीठी सी पीड़ा की आरंभिक पंक्तियां तिलिस्मी हैं - बेटा ! /कमरे की उत्तर दिशा वाली खिड़की मत खोल /यह आउवा की और खुलती है। या संग्रह की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां- मैं अपने होने और न होने के मध्य /उद्विग्न सा /नया आउवा तलाशता हूं /वह दूर तक मुझे /कहीं दिखाई नहीं देता।
राजस्थान के इतिहास प्रसंगों को साहित्य की विषय वस्तु बनाकर इस से पहले भी फिक्शन में उमेश शास्त्री और आनंद शर्मा के रस कपूर, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र के एकाधिक में से जनानी ड्योढी जैसे महत्वपूर्ण काम हुए तो हरिराम मीणा के धूणी तपे तीर जैसे हादसे भी रचे गए हैं पर कविता में झुरावौ अनोखा है और कविता तथा इतिहास के एक साथ दुर्लभ निर्वहन के साथ। इतिहास के साथ साहित्य के रिश्ते को लेकर मुझे लगता है कि बड़ा ही नाजुक रिश्ता है, कब कहां चूक हो जाए और पता भी ना चले और जब रसायनशास्त्री (राकेश कुमार सिंह और चंद्रप्रकाश देवल) साहित्य और इतिहास की कैमिस्ट्री को भरपूर निभाते हैं तो ईष्र्या-सी होती है। झुरावौ जैसी एक इतिहास आधारित साहित्यिक कृति से गुजरते हुए ये आभास होना लाजमी है कि वर्तमान की पीठ पर सवार होकर अतीत से भविष्य की यात्रा करना इंसानी आदत हो जाये तो हमारी बहुत-सी समस्याएं शुरू होने से पहले खत्म हो जाएं।
खुशामदीद !
इधर, युवा शायर धूप धौलपुरी की शायरी का पहला मजमुआ जज्बात की धूप हाल ही मंजरे आम पर आया है, फिल्मी लबोलहजे के इस शायर के अदबी मेयार की बानगी देखिए-
बादल से कहते हैं तुम ना बरसो मेरे आंगन में,
आंखों में, सावन के जैसी फिर भी झड़ी लग जाती है।
हमने बसा ली अपनी बस्ती दूर तुम्हारे शहरों में,
फिर भी न जाने कब ये बस्ती शहरों से मिल जाती है।
7 comments:
अच्छा लगा इसी बहाने इतिहास की गलियों से गुजरना।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
bhaijan prakashak bhi bata dete to hum bhi padhte.
pallav
very nice .....bahut achhi lagi jankaari
Aapki vivechna ne to ukt pustak ko padhne ko utkanthit kar diya....
behtreen
mayad bhasa khatar apro kam santro
deval ji ri pothi banchni padsi
mhari badhai
-madan
अद्भुत किताब है यह, दिल और दिमाग क्या पूरे वजूद को झिंझोड़ कर रख देती है. आपने इसका ज़िक्र कर बहुत अच्छा किया, आपने मेरे पोथीखाने में सेंध लगा दी, कोई बात नहीं.
thought provoking,well written piece
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