यह महज किताब नहीं है, दरअसल अतीत की वो खिड़की है जिससे भारतीय उपमहाद्वीप का भविष्य झांकता है...
हार्पर कॉलिन्स से एक किताब आयी है, जिसका संपादन इरा पांडे ने किया है। हिन्दी पाठकों को पता होगा ही कि वे प्रसिद्ध लेखिका शिवानी की बेटी हैं। इस ताजा किताब का नाम है- द ग्रेट डिवाइड -इंडिया एंड पाकिस्तान, जो दरअसल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, दिल्ली के त्रैमासिक जर्नल के विशेषांक का पुस्तकाकार रूप है और इसकी भूमिका डॉ।कर्ण सिंह ने लिखी है। साठ साल की आजादी का जश्न मना रहे दोनों देशों के हालात और अंतर्संबंधों पर ये किताब बहुत खास है जिसके लेखक सीमा के दोनों ओर के जाने माने लोग हैं, जिनमें उर्वशी बुटालिया, बीना सरवर, शिव विश्वनाथ, सोनिया जब्बार, अमित बरुआ, आलोक रॉय, लॉर्ड मेघनाथ देसाई, मुकुल केसवन आदि शामिल हैं। बेशक उस विभाजन को याद करना दर्द को कुरेदना है और जैसा मशहूर शायर निदा फाजली ने पाकिस्तान से लौटने के बाद कभी कहा था-
हिंदू भी मजे में है, मुसलमां भी मजे में,
इनसान परेशान यहां भी है, वहां भी।
उठता है दिलो-जां से धुआं दोनों ही तरफ,
ये मीर का दीवान यहां भी है, वहां भी।
पर जो कुछ साझा है,वो सुकून देता है। बेशक ये किताब इस मायने में नयी जमीन तोड़ती है कि इसमें दृष्टि सर्वथा नयी है, व्यवहारिक है, अकादमिक गंभीरता तो है, पर अकादमिक लफ्फाजी यहां बिलकुल नहीं है, इसकी बानगी के लिए बीना सरवर के लेख मीडिया मेटर्स का अंश देखें-
भारत और पाकिस्तान दोनों में आये मीडिया बूम ने दोनों देशों के लोगों को करीब लाने का काम किया है और बंधी बंधाई लीक से तोडऩे का काम भी किया है तो दूसरी तरफ इसके विपरीत पूर्वाग्रहों और पुराने अंधविश्वासों से भी पुनस्र्थापित किया है।
वहीं आलोक रॉय ने उर्दू को याद किया है, परमाणु मुद्दे पर सी. राजामोहन का बेहतरीन लेख है। सलीम हाश्मी का कला पर फोटो निबंध है, तो मेजर जनरल उदयचंद दुबे का रजमाक एलबम तकरीबन सौ साल पुरानी तस्वीरों के जरिए हमारे सामने उस युग को जीवंत कर देता है। सुनील सेठी का लिया हुआ मशहूर पाकिस्तानी कथाकार नदीम असलम का साक्षात्कार किताब को सार्थक बनाता है। दोनों के आजाद मुल्कों के रूप में जन्म से लेकर आज ये दोनों देश आर्थिक राजनीतिक सामाजिक तौर पर कहां खड़े हैं, किताब ये परीक्षा तो करती है, साथ ही कतिपय सॉफ्ट विषयों जैसा इरा स्वयं इसकी भूमिका में बांटती हैं- जैसे सिनेमा, साहित्य, भाषा, क्रिकेट, मीडिया आदि की बात भी खुलकर की गयी हैं। इस लिहाज से किताब केवल नोस्टालजिक कोलाज मात्र नहीं है, उससे कहीं आगे है। दोनों देशों के सदियों पुराने सांस्कृतिक संबधों और उनकी सांझी बुनावट को इस तरह याद किया गया है कि ये स्थापित हो जाता है कि सियासी बंटवारे हमारी तहजीब और दिलों को बंटवारा तो नहीं कर सकते हैं। कुल मिलाकर ये किताब नयी रोशनी में नयी सदी में दोनों मुल्कों के संबंधों को देखने का मुकम्मल जरिया देती है और ये उम्मीद या सवाल भी चुपके से जताती है कि हमें अच्छे पड़ोसी क्यों नहीं होना चाहिए।
3 comments:
अब इंसान है तो परेशान तो होगा ही।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
badhiya kitab chun kar likhne ke liye badhai.
pallav
wonderful piece on a wonderful book.
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