Monday, April 26, 2010

ऑरकुट भर आकाश है, ट्विटर भर संसार




इस नई चौपाल ने नई बहस, नई आजादी, नई चुनौतियों को जन्म दिया है, कोई भी नया संचार माध्यम अच्छे के साथ बुरी संभावनाओं को भी अपने भीतर लिए हुए होता है, तो यह चौपाल भी इसका कतई अपवाद नहीं है और इसमें कुछ नया भी नहीं है। अब यह तो यकीनन इस्तेमाल करने वाले पर ही है कि वह किसी माध्यम को कैसे अपनाता है जैसे विषयांतर होने की आजादी लेते हुए कहूं तो, लगभग सवा सदी से गांव के अकेले मेरे ब्राह्मण परिवार और पढे लिखे भी यानी ज्ञानपिशाच परिवार ने धर्म का इस्तेमाल रचनात्मक कम और अपने स्वार्थवश ज्यादा किया तो इसमें धर्म का क्या दोष?


मार्च के आखिरी दिन की शाम ढल गई थी, मेरे विवाह की अफवाह से ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर और बज पर हंगामा था, थोड़ी सी देर के वक्फे में आश्चर्यजनक रूप से तकरीबन डेढ़ सौ लोगों तक अफवाह पहुंच गई और सुबह तक एसएमएस, फोन, ईमेल से और व्यक्तिश: शुभकामना, बधाई, आश्चर्य और तानों का मिश्रित सिलसिला रहा, मेरी हालत जिंदगी में कभी इतनी एम्बे्रसिंग नहीं हुई, ये दरअसल पहली अप्रेल की पूर्व संध्या पर एक मित्र का मजाक था पर इस प्रकरण से जाती तौर पर सोशल नेटवर्किंग की ताकत का एहसास मुझे गहरे तक हो गया। अब इसे जरा व्यापक स्तर पर देखने की कोशिश करें तो शशि थरूर और ललित मोदी की ट्विटरिंग से दुनिया में भूचाल अभी थमा नहीं है, थरूर की महिला मित्र सुनंदा पुष्कर के तथाकथित फेसबुक अकाउंट पर की गई टिप्पणियां भी चर्चा में रही हैं, कुलमिलाकर नतीजा यह है कि ऑरकुट, फेसबुक ट्विटर के नाम तद्भव रूप में गांव की चौपाल पर बैठे लोगों यानी सोशल नेटवर्किंग से लगभग नावाकिफ लोगों की जुबान पर आ गए हैं और गोया इस कदर कि पड़ौसी की बात हो रही हो। और कम्प्यूटर से जुड़ा शायद ही कोई शख्स होगा जो किसी ना किसी सोशल नेटवर्किंग पर ना होगा, मेरी जानकारी में तो नहीं ही है, आप भी याद करके देखिए क्या आपके परिचय में कोई ऐसा है।

सैद्धांतिकी की स्तर पर दो समाजशास्त्रीय शब्दों से मेरा नजदीक का संबंध रहा है, वे हैं- समाजीकरण और सामाजिक अंतर्कि्रया। आज इस वेबजालीय उठापटक की बात करते हुए इन दोनों शब्दों की अनुगूंज हमारे पास महसूस हो रही है। मूल वजह ये है कि किसी भी जीव का अपना समाज होता है और उसकी अपनी समाजीकरण की एक खास प्रक्रिया भी होती है, साथ ही पारस्परिक अंतर्कि्रया उसका बुनियादी स्वभाव होता है, हां ये जरूर है कि अंतक्र्रिया किस स्तर पर और किस जरिए से हो, प्राय: सामाजिक अंतक्र्रिया समान रुचि या किसी अन्य सामान्य आधार जैसे कि लिंग, पेशा, जाति, धर्म या क्षेत्रीय पहचान के इर्दगिर्द होती है, मुझे यह कह देना चाहिए कि सोशल नेटवर्किंग से ये तमाम दायरे छोटे या गौण हो गए हैं यानी क्या समाजविज्ञानियों के लिए यह चिंतनीय आहट नहीं है कि इससे सदियों पुराने समाजशास्त्रीय मिथक टूट रहे हैं या गड्डमड्ड हो रहे हैं। आप अपने या किसी दोस्त के सोशल नेटवर्किंग साइट के प्रोफाइल में फे्रंड्स नेटवर्क को खंगालिए, तो पता चलेगा कि सोशल नेटवर्किंग ने हमारी मित्रताओं या परिचय को विविधता का असीम विस्तार दिया है, यही कारण है कि मीडिया से जुड़े होने के कारण मैं सोशल नेटवर्किंग को पत्रकारों के लिए तो स्वर्ग ही मानता हूं, लिहाजा जनसंपर्क की अथाह संभावना और विविध जीवन स्थितियों तथा कार्यक्षेत्रों ने जो वर्चुअल अनुभव का संसार रचा है, उसे गूंगे का गुड़ ही कहना चाहिए। एकांत और अकेलेपन के संत्रास से गुजरती दुनिया को सोशल नेटवर्किंग ने जुडऩे का, खुद को जाहिर करने का जो व्यापक अवसर और विकल्प दिया है, उससे जाहिर होता है कि मनुष्य स्वभावत: जुडऩा चाहता है, पर उसके जुडऩे की सीमा और स्वरूप वह खुद तय करना चाहता है, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है। व्यक्तिश: या आवाज के जरिए मोबाइल की संचार क्रांति ने आजादी तो दी थी पर यह अतिवादी आजादी कि सीमा वह खुद तय करे, यह मुमकिन नहीं हो पाया था जो कि सोशल नेटवर्किंग ने संभव कर दिया। सोचकर देखिए कि ऑरकुट पर स्के्रप छोडऩे, फेसबुक की वॉल पर या बज पर कुछ विचार बांटने, ट्विटर पर 140 शब्द लिखने, या किसी भी सोशल नेटवर्किंग साइट पर फोटो शेयर करने के बाद किसी दोस्त की अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया पर यह जरूरी नहीं कि आप जवाब दें और फिर यहां सब इतनी तेजी से भी घटता है कि ठहराव की कोई गुंजाइश नहीं होती।

बेशक, इस नई चौपाल ने नई बहस, नई आजादी, नई चुनौतियों को जन्म दिया है, कोई भी नया संचार माध्यम अच्छे के साथ बुरी संभावनाओं को भी अपने भीतर लिए हुए होता है, तो यह चौपाल भी इसका कतई अपवाद नहीं है और इसमें कुछ नया भी नहीं है। अब यह तो यकीनन इस्तेमाल करने वाले पर ही है कि वह किसी माध्यम को कैसे अपनाता है जैसे विषयांतर होने की आजादी लेते हुए कहूं तो, लगभग सवा सदी से गांव के अकेले मेरे ब्राह्मण परिवार और पढे लिखे भी यानी ज्ञानपिशाच परिवार ने धर्म का इस्तेमाल रचनात्मक कम और अपने स्वार्थवश ज्यादा किया तो इसमें धर्म का क्या दोष? और इसी तरह जैसे, मेरे कितने ही परिचित मुस्लिम परिवार दो वक्त की हक की रोटी और खौफेखुदा और नेकनीयत के साथ जिंदगी बसर कर रहे हैं तो उसी मजहब के कुछ सरफिरे लोग जेहाद का खूनी खेल खेलते हैं, तो यही बात सौ फीसदी सोशल नेटवर्किंग पर भी लागू होती है, यहां भी सरफिरे हैं, यहां भी स्वार्थी लोग हैं।

बहरहाल, हमारे समय का कमाल यह है कि दुनिया सिमट गई है, सिमटी भी इतनी कि खुद सिमटने की क्रिया भी शरमा जाए, निदा फाजली के दोहे को तोड़ मरोडऩे को दिल कर रहा है, निदा से माफी चाहता हूं- छोटा करके देखिए जीवन का विस्तार, ऑरकुट भर आकाश है, ट्विटर भर संसार। आप इससे असहत हो सकते हैं क्या? अगर ऐसा है तो जरा खोलकर बताने की इजाजत दीजिए, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जितना लोग खुद को, अपने विचार और इच्छाओं को बांट रहे है, उसे देखकर हैरानी होती है, इतना कुछ इस धरती के इनसानों के सीनों में घुट रहा था, जो जाहिर हो रहा है, गुस्सा, प्यार, नफरत, तारीफें, या अपनी पसंद के गाने वेबसाइट्स के लिंक्स, क्या- क्या कुछ नहीं है जो लोग बांट रहे हैं, बांटने की खुशी के समंदर ठाठें मार रहे हैं, नफरतें जाहिर हो रही है तो मन का गुबार निकल रहा है, यह दबा रहता तो कितनी आत्महत्याएं हो सकती थीं, तनाव और कुंठा के मारे लोग कितने और हो सकते थे? इतना ही नहीं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर चंद लफ्जों में लोगों का सेंस आफ ह्यूमर देखिए, जनाब हमें तो हैरानी होती है।

और एक बात देखने लायक है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स अब सिर्फ दोस्ती का जरिया नही हैं, केवल मन के गुबार निकालने का वाइज नहीं है, प्रमोशन का बड़ा जरिया भी है, हमारे फिल्मी दुनिया से जुड़े दोस्त फिल्म का ग्रुप बनाकर भावी फिल्म के लिए माहौल बना रहे हैं, लिटरेरी एजेंसी अपनी गतिविधियों की जानकारी दे रही है, एक गायक दोस्त प्रचार में लगा है, प्रकाशक अपनी किताबों का प्रचार कर रहे हैं, और मुझे कम से कम इन सब में कोई बुराई भी नजर नहीं आती है और इससे यह तो जाहिर है ही कि यह हम पर है, इसे किस तरह लेते हैं, किस तरह इसका इस्तेमाल करते हैं, हमारी सोच अगर सकारात्मक है तो हमें उसकी उड़ान के लिए यह अनंत आकाश देता ही है। जाहिर सी बात है कि यह खुला मंच है, सबके लिए है, और अपने स्वरूप में बेहद लोकतांत्रिक भी है। हर माध्यम की अपनी चुनौतियां होती है, इसकी चुनौतियों पर विजय पाने के तरीके और रास्ते खोज लें, अभीष्ट तो यही है, इसकी आलोचना से कुछ हासिल होना नहीं है और इससे वापसी का रास्ता तो अब बंद ही मानिए।

4 comments:

Asha Joglekar said...

यह हम पर है कि हम इसे किस तरह लेते है ।
यही सच है । चलिये आपके विवाह का मजाक सत्य हो जाये इस शुभ कामना के साथ ।

Vivek Gupta said...

ज़बर्दस्त लिखा है सरकार. हर वाक्य खरा है. पर ये तो बताएं कि विवाह की अफ़वाह उडाने वाले मित्र से खफ़ा तो नहीं हैं?
- विवेक गुप्ता

अखिलेश शुक्ल said...

आरकुट और फेसबुक को आधार बनाकर की गई एक बेहद अच्छी व असरकारक प्रस्तुति जिसमें एक संजीदा पाठक के लिए काफी कुछ है। बधाई

प्रियंका गुप्ता said...

सोशल नेटवर्किंग पर जुड़े होने की बात छोड़िए दुष्यन्त जी, अब तो जो कम्प्यूटर चलाना नहीं जानता , वह तो जाने-अनजाने पढ़ा-लिखा अनपढ़ माना जा रहा...।
एक सामयिक विषय पर अच्छी रचना की बधाई...।
उम्मीद करती हूँ, अगली बार शादी की अफ़वाह नहीं, शादी के निमन्त्रण से रू-ब-रू होंगे आपके मित्रगण...।

प्रियंका गुप्ता