Friday, December 17, 2010

हमने अपनाया दर्द जमानेवाला




निजता वहां समाप्त हो जाती है जहां उसके दायरे में आपके निजी संदर्भ समाप्त होना शुरू होते हैं।


व्यवहार का बुनियादी सिद्धांत है कि मेरी आजादी का दायरा आपकी आजादी तक है और व्यक्तिगत आजादी का दायरा लिहाजा मौहल्ले, गांव, शहर प्रदेश और देश की आजादी से तय होना ही चाहिए। मैं अगर आपका दोस्त हूं और आपके परिवार और प्रियजनों के बारे में पूछता हूं और ठीक वैसा ही आप भी करते हैं तो यह निजता के दायरे में आता है, पर अगर हम आपस में देश समाज का कोई मुद्दा ले आते हैं और तय करते हैं, अगर वैध अवैध रूप से तय करने की स्थिति में हैं तो, तो यकीनन यह निजी बात नहीं है। राडिया मोहतरमा रतन टाटा साहेब से क्या गुफ्तगू करती हैं, कितनी अंतरंगता से करती हैं यह किसी गॉसिप का विषय हो सकता है पर गंभीर चर्चा का नहीं, वह अंतरंगता अगर किसी स्तर पर देश के फैसलों पर असर डालती है तो सेवा में सविनय निवेदन यह है कि यह आपकी निजता का उल्लंघन नहीं है, कतई नहीं है।

यह ऐसे वक्त का मसअला है जब विकीलिक्स के खुलासे कहर बरपा रहे हैं, इसके प्रमुख जूलियन असांजे को झूठे-सच्चे रेप के मुकदमे में फंसाया गया है और यह पंक्तियां लिखे जाने तक उन्हें लंदन हाईकोर्ट ने सशर्त जमानत दे दी है। वहां यही सवाल सरकारें भी उठा रही हैं, कि यह हमारी निजता और गोपनीयता का हनन है। मानना पड़ेगा कि वहां तो देशों के परस्पर संबध और कूटनीतिक सवाल तथा चुनौतियां महत्वपूर्ण हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो निजता वहां समाप्त हो जाती है जहां उसके दायरे में आपके निजी संदर्भ समाप्त होना शुरू होते हैं। सिमटे तो बूंद और फैले तो समंदर, माफ कीजिए साहिब, ये तो मुमकिन नहीं है।

साहित्य और कलाओं में कहते हैं कि आपका लेखन और सृजन बडा होता है जब आपका दर्द और अनुभूतियां पूरे जहान का दर्द हो जाए, राडिया और रतन टाटा जैसे दीवानों की दीवानगी देखिए, देश के तथाकथित दर्द का अपना दर्द कहकर अपना बचाव करने की बेहद मासूम सी फिराक में हैं। इस मासूमियत पे कौन ना मर जाए ए खुदा? हां यह जरूर संभव है कि जहां से राष्टृ गौरव राडिया जी और रतन जी की अंतरंग बातें प्रारंभ होती हों उन्हें सार्वजनिक ना किया जाए। पर सब कुछ वैसा कब होता है जैसा होना चाहिए या जैसा हम चाहते हैं। राडिया रतन जो चाहते थे बहुत कुछ हुआ अब यह भी हो जाता कि सारा प्रसंग-प्र्रपंच जाहिर ना होता तो शाइर निदा फाजली की बात तो झूठ हो जाती और उन्हें जमी भी मिल जाती, आसमां भी मिल जाता और मुकम्मल जहां भी मिल जाता।

लगभग अप्रासगिक से कर दिए गए या हो गए नेता चौधरी देवीलाल का एक कथन हरियाणा के हर विधान सभा चुनाव में दीवारों पर पुतवाया जाता है कि लोकराज लोकलाज से चलता है, मुझे बेतरह इस प्रसंग में भी याद आ रहा है, दरअसल यह लडा़ई निजता की नहीं है लोकलाज की है, जिसे सत्ता और धन के मद में भुला दिया जाता है पर जब वे कर्म सामने आते है तो हमारी छवि को छिन्न-भिन्न होते हुए देखना हमारे लिए असह्य हो जाता है तो हमें निजता का आवरण याद आता है। मेरा बहुत विनम्र सा खयाल है कि हैकिंग, टैपिंग और सूचना का अधिकार कहीं करीब करीब ही हैं। संभव है ये सब मिलकर कुछ अच्छा करेगे। मंतव्य और परिणामों को साथ रखकर हर बात का मतलब निकालने की फुरसत किसके पास है साहेब। खुशवंत सिंह, अरिंदम चौधरी और कई स्तंभकार खुलकर पत्रकारों की कार्यशैली की आड़ में बरखा दत्त-वीर संाघवी को बचाने का प्रयास कर चुके हैं, पर मेरे जैसे कितनों के ही मन में उनकी नायकीय छवि कर जो हश्र हुआ है, वह नाकाबिलेभरपाई है। राडिया-रतन अपनी निजता और बरखा- वीर सांघवी अपनी पत्रकारीय शैली की दुहाई देकर क्या सब कुछ को झुठला सकते हैं? विज्ञान के ऊर्जा सरंक्षण के नियम को भी याद कर लूं कि ऊर्जा ना नष्ट होती है ना उसका जन्म होता है केवल रूप बदलता है। राडियाओं, रतनों, बरखाओं और वीरों के फैसले, उनके पाप-पुण्य,अंतरंगताएं और अतुलनीय राष्ट्रप्रेम हमारी फिजाओं में रहेगा। क्यांकि अब यह इतिहास है और इतिहास पीढियां भुगतती हैं, लम्हों की खता सदियां झेलती हैं।

2 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बिलकुल सही कहा. मैं आपसे शत-प्रतिशत सहमत हूं. निजता की सीमाएं तय होनी चाहिए और जहां देश-समाज की नीतियों के प्रभावित होने जैसी बड़ी बातें हो रही हों, वहां कैसी निजता?

Domain For Sale said...

बहुत खूब्!