Wednesday, March 2, 2011

नाशुकरे की कुबूलियत



श्रीगंगानगर के मुशाइरे में पढी मेरी इस नज्म को बहुत प्यार मिला मुलाहिजा फरमाएं


मैं भी देखो किन अफवाहों में फंस गया हूं
गया जो एक रोज गांव अपने
दूर तक साथ कौन था कोई नहीं था
आधी रात कुंडा खडकाने वाला भी कोई नहीं था
कुछ सरकंडे थे,
कुछ तंगलियां थी
कुछ बियाबान खेत थे,
टूटी हुई कोठे की जंगलियां थी
सरहद के इस पार मगर साठ साल का इतिहास था
हरेक लम्हा पानी के लिए गोली खाके मरे किसानों की प्यास था
कुछ जिस्मों के कुप्पे थे जिनमें तूडी नहीं थी अबके सालों में
अब खेत में किसी मोगे पर बैठके बीडी और
गुवाड में मुडडे पर बैठकर होका पीने का सुकून नहीं था
कस्सी मांग कर खेत में पानी लगाने का भी मन नहीं था
कारीगरों के घर से बास्ते मांगकर चूल्हा जलाने का मन नहीं था
इन सालों में
गांव में सरदारों के अकेले घर के लोग छोड गए थे गांव
और चुनाव पंचायत के कई बार तोड गए थे गांव

पता नहीं
किस किस मामूली बात पर आपस में लड गया था गांव
कितनी ही बार बेमतलब अपने ही बुजुर्गो से अड गया था गांव
बरसों पहले ही मधानी में तरेड आ गई थी
खडवंजे लगे तो गांव कई मुल्कों में बंट गया
सरहदें बन गईं गलियां और चोबारों से मिसाइलें भी बेसाख्ता चलने लगीं
गांव की पाक मटटी कहीं गांव में खो गई, रूल गई

गली गुजरती औरत को बाई, बेबे, काकी और ताई कहने को तरस गया हूं मैं
फिर भी झूठ कह रहा हूं कि दूर शहर में बस गया हूं मैं।
किन अफवाहों में फंस गया हूं मैं
ये सारी सच्ची अफवाहें हैं
मैं एक झूठा नाशुकरा हूं
अभी अभी जयपुर की बस से उतरा हूं।

5 comments:

प्रशान्त said...

अभीभूत करती कविता!

प्रशान्त said...

बेवजह नहीं मिला इसे प्यार उस महफ़िल में.
अभीभूत करती कविता!!
बधाई!

प्रियंका गुप्ता said...

dil ka dard bayaan karti ek khoobsurat nazm ke liye badhayi...

प्रियंका गुप्ता said...

दिल का दर्द बयाँ करती एक खूबसूरत नज़्म के लिए मेरी बधाई...।

प्रियंका

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान said...

na shukre ki ...achcha shabad chitra hai