Saturday, May 21, 2011

2050 तक भारत का विभाजन जातीय आधार पर हो जाएगा! / बेहतर दुनिया एक असंभव ख्वाब है !


जातीय गणना की परिणति जो मुझे नजर आती है वह यह है कि किसी भी विधानसभा या संसदीय क्षेत्र में आनुपातिक रूप से कम जनसंख्या वाली जाति के लोग कभी प्रतिनिधि नहीं हो पाएंगे क्योंकि कोई राजनीतिक दल उन्हें टिकट ही नहीं देगा...
इन हालात में 2050 तक भारत को कई विभाजनों के लिए तैयार रहना चाहिए, और तब विभाजन के आधार धर्म नहीं, जातियां होंगी!



अब साधु भी जाति वाले होते हैं, हमारे समय के एक लोकप्रिय संत कैंसर का इलाज करते हैं, मगर जाति उनके नाम के साथ संत होने के बावजूद जुड़ी है, जो जातीय बोध से मुक्त नहीं हो पाए, मुझे माफ करें वे कितने संत हुए हैं, मेरी चिंता और जिज्ञासा है! यह अब सिद्ध और प्रसिद्ध है कि राजनीति की अस्तित्वमूलक जरूरत है जाति, पर दुख तब होता है जब बौद्धिक लोग आर्थिक स्थितियों के अंदाजे के लिए सामाजिक आधार की गणना को सही ठहराते हैं। मुझे क्षमा कीजिए, इतिहास का छात्र होने ने यह समझ दी है कि धर्म ने आर्थिक आधार पर समाज का बंटवारा किया और उसका आधार कर्म था और समय के साथ उसका आधार जन्म हो गया। अब अगर आर्थिक जरूरत से गणना करनी है तो आर्थिक गणना ही कर लीजिए साहेब! दूसरा यह कि मुझे समतामूलक समाजवादी समाज की कल्पना में जाति की यह निरंतरता बाधा नजर आती है, भारत के लिहाज से कहा जाए तो पूर्व वैदिक युग जिसे ऋग्वैदिक युग भी कहा जाता है, केवल कर्म आधारित वर्ण थे जो उत्तरवैदिक युग में जन्म आधारित हो गए। कहना जरूरी है कि ऋग्वैद के पुरुष सूक्त में आदि पुरुष के अंगो से वर्ण उत्पत्ति को भास शास्त्रीय आधार पर बाद में जोड़ा गया स्वीकार किया गया है।

अगर जातीय गणना को स्वीकार करने का कारण हम यह मानते हैं कि यह भारतीय समाज की कड़वी सचाई है, तो धर्म इससे पहले का सच है और धर्म के अन्यायों को भी हमें कड़वा सच मानकर स्वीकार लेना चाहिए और सामाजिक विभेद को भी मान लेना चाहिए, और उसकी निरंतरता में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मुझे हैरानी के साथ दुख है कि हमखयाल वामपंथी दोस्त भी इसके समर्थन में दिख रहे हैं, ऐसी संस्थागत पैदाइश जिसका जनक धर्म है, उसे कैसे स्वीकार पा रहे हैं, फिर धर्म को भी स्वीकार करना चाहिए, क्या यह धार्मिक स्वीकार बाबा माक्र्स की सोच से विरोधाभासी नहीं है!

मुझे यह भी प्रकारांतर से लगता है कि सामाजिक सुधार की एनजीओवादी एजेंडे की जरूरत भी जातीय निरंतरता है। संभव है कि गांधी द्वारा जन्म आधारित जाति व्यवस्था का समर्थन करना उनकी भी राजनीतिक मजबूरी हो, जिसका अंबेडकर ने विरोध किया था, यह एक ऐतिहासिक सच और तथ्य है। इस जातीय गणना की परिणति जो मुझे नजर आती है वह यह है कि किसी भी विधानसभा या संसदीय क्षेत्र में आनुपातिक रूप से कम जनसंख्या वाली जाति के लोग कभी प्रतिनिधि नहीं हो पाएंगे क्योंकि कोई राजनीतिक दल उन्हें टिकट ही नहीं देगा, और फिर मतदान व्यवहार भी उत्तरोत्तर इसे प्रगाढ़ करेगा, कहिए कि क्या मैं गलत सोचता हू!

जिन लोगों की आंखों में बेहतर दुनिया का सपना अब भी झिलमिलाता है, बेहतर दुनिया का मतलब बिना हमारी रेशियल, एथ्नीकल पहचान के, समान वजूद और व्यवहार के साथ जी पाना है, उनके लिए भारत एक भौगोलिक संभावना बचा है, सेवा में सविनय निवेदन है कि अब मुझे नहीं लगता। अब भारत में जाति छोड़ो, भारत जोड़ो के नारे शायद ही कभी सुनाई दें। खुदा न करे, पर इन हालात में 2050 तक भारत को कई विभाजनों के लिए तैयार रहना चाहिए, और तब विभाजन के आधार धर्म नहीं, जातियां होंगी!

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