Tuesday, November 29, 2011

भला, ऐसे भी कोई जाता है !




छिन्नमस्ता नामक उपन्यास के साथ उनके पहला परिचय लेखिका के रूप में हुआ था, फिर उनकी बहुत सी कहानियां और उपन्यास पढ़े, सब हिंदी मे ही, ज्यादातर के अनुवाद पापोरी गोस्वामी के रहे है। उन्हें मैंने बताया था कि इत्तेफाक है कि हिंदी में छिन्नमस्ता जिसे प्रभा खेतान ने लिखा था, और असमी में छिन्नमस्ता लिखने वाली दोनों लेखिकाओं का स्नेहपात्र हो गया हूं तो बोलीं - किसके ज्यादा हो ? मैंने कहा -सामने कह रहा हूं पर सच है कि आप ही।


इंदिरा गोस्वामी ने कविताएं शायद ही कभी लिखी जैसे भूपेन हजारिका के लिए- ''मैं अपनी मातृभूमि की तस्वीर नहीं बना सकती तुम्हारी आवाज के बिना। ''



इंदिरा गोस्वामी यानी डॉ मामोनी रायसम गोस्वामी ऐसा नाम है जिसे भारतीय साहित्य के पाठकों के साथ उससे इतर भी बहुत बड़े वर्ग में जाना जाता रहा है, उल्फा के साथ शांति वार्ता में केंद्रीय सरकार की प्रतिनिधि के रूप में उनका नाम भारत और दुनिया भर तक पहुंचा है। उनके निधन के साथ असम से सांस्कृतिक राजदूत के तौर पर केवल कुछ दिनों के अंतराल में यह दूसरा प्रस्थान है, भूपेन हजारिका के जाने का दर्द अभी कम कहां हुआ था! एक खास बात बताएं कि इंदिरा गोस्वामी ने कविताएं शायद ही कभी लिखी जैसे भूपेन हजारिका के लिए- ''मैं अपनी मातृभूमि की तस्वीर नहीं बना सकती तुम्हारी आवाज के बिना। ''

उनसे पहली मुलाकात दिल्ली के नेहरू मैमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी की है जो कोई दस बरस पुरानी है, जहां वे अपनी भतीजी के साथ किसी शोध सामग्री की तलाश में आ रही थीं और मैं भी। माथे पे बड़ी सी बिंदी वाला चेहरा जाना पहचाना लगा और तीसरे दिन कैंटीन में हिम्मत करके बात की, और फिर इतना स्नेह पाया कि उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं है। उसके बाद क्योंकि तब तक वे दिल्ली विश्वविद्यालय के आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में प्रोफेसर थी हीं, छात्रा मार्ग स्थित उनके आवास पर कई शामों को उनके सान्निध्य में यादगार बनाया, फिर जीवन ने वैसा अवसर नहीं दिया। असम और असम के साहित्य के साथ मेरा यही परिचय आज तक मेरे साथ है, उन शामों में मेरी कुछ कच्ची-सच्ची कविताओं को भी सरंक्षक भाव में हठ के साथ उनका सुनना और सराहना मुझे एक नए कवि की प्रोत्साहन के निमित्त प्रशंसा ही लगती है। फिर जब 2005 में मेरी पहली किताब यानी कविताओं का पहला संग्रह आने को हुआ, तो उन्होने स्नेह में जो लिखा उसे मैंने फ्लैप पर बड़े गर्व से अंकित किया। मैंने उनको कहा कि इतना अतिशयोक्तिपूर्ण क्यों लिखा है आपने मेरे बारे में! तो उनका जवाब था- इसे चुनौती के रूप में लो कि तुम्हें मेरे शब्दों को सच साबित करना है। और मुझे यकीन है कि कोई अतिशयोक्ति नहीं कर रही हूं। दिल्ली विवि से रिटायर हुईं तो फिर उनसे मिलना नहीं हुआ क्योंकि वे गुवाहाटी रहने लगीं।

छिन्नमस्ता नामक उपन्यास के साथ उनके पहला परिचय लेखिका के रूप में हुआ था, फिर उनकी बहुत सी कहानियां और उपन्यास पढ़े, सब हिंदी मे ही, ज्यादातर के अनुवाद पापोरी गोस्वामी के रहे है। उन्हें मैंने बताया था कि इत्तेफाक है कि हिंदी में छिन्नमस्ता जिसे प्रभा खेतान ने लिखा था, और असमी में छिन्नमस्ता लिखने वाली दोनों लेखिकाओं का स्नेहपात्र हो गया हूं तो बोलीं - किसके ज्यादा हो ? मैंने कहा -सामने कह रहा हूं पर सच है कि आप ही।

अखिल भारतीय स्तर पर लेखक के तौर पर जिनको प्रतिष्ठा मिली है, उनमें उनका नाम शामिल है, मसनल याद कीजिए अमृता प्रीतम को, महाश्वेता देवी को। भारत में ऐसी लोकप्रियता कम ही लेखकों को मिली है, यह पैन इडियन रिकग्रिशन उन्हें महत्वपूर्ण सिद्ध करता है। बहुत कम लोगों को पॄता होगा कि उन्होंने विविध भारतीय भाषओं में लिखी रामायणों की असमी में लिखी रामायण के साथ तुलना के विषय पर पीएच.डी. की थी।

इशारा भर कर देना काफी होगा कि जीवन के शुरूआती साल बहुत या कहूं कि कल्पनातीत और अविश्वसनीय रूप से कष्ट मे गुजारे पर उनसे ऊपर उठकर लगभग जैसे अल्बेयर कामू के कथन को सही साबित करते हुए कि इनसान निराशा से निकल कर फिर एक नई दुनिया का सृजन करता है। वही उनमें आध्यात्मिकता के बीज का अंकुरण भी था। असम के विख्यात संत शंकरदेव की उपासक थीं वे।

जीवन के लिए रचना और रचना के लिए जीवन के साथ दूसरों के जीवन में रचनात्मक ऊर्जा भरने का काम अद्भुत तरीके से करना उनका ऐसा गुण है जिसकी बार बार यत्र-तत्र मैंने चर्चा की है। एक सप्ताह पहले दिल्ली की यात्रा में असमी फिल्मकार दोस्त रजनी बसुमतरी ने मुझसे कहा कि वे तो मेरी मेंटर हैं, उनका मुझसे वादा किया है कि 'ठीक होकर मैं एक खास कहानी तुम्हारे लिए फिल्म के लिए लिखूंगी।' रजनी से किया उनका वादा अब अधूरा रह गया है। भारतीय साहित्य की जीवन ऊर्जा से भरपूर विरली लेखिका का जाना देश भर के लिए बड़ा सांस्कृतिक नुकसान है।

2 comments:

Anonymous said...

सुंदर जीवन, सुंदर वर्णन. दिल में घर बना लेने वाले लोग कहीं नहीं जाते...हमेशा हमारे साथ रहते हैं और हमारे बाद भी रहते हैं...

- विवेक गुप्ता

Anonymous said...

inka na hona, bhi hona hai